बुंदेलखंड संस्कृति

बुन्देलखण्ड के त्यौहार

भारत एक बहुत बड़ा देश है। यहाँ हर प्रदेश की वेशभूषा तथा भाषा में बहुत बड़ा अन्तर दिखायी देता है। इतनी बड़ी भिन्नता होते हुए भी एक समानता है जो देश को एक सूत्र में पिरोये हुए है। वह है यहां की सांस्कृतिक-एकता तथा त्यौहार। स्वभाव से ही मनुष्य उत्सव-प्रिय है, महाकवि कालिदास ने ठीक ही कहा है - "उत्सव प्रियः मानवा:'। पर्व हमारे जीवन में उत्साह, उल्लास व उमंग की पूर्ति करते हैं।

हमारे बुन्देलखण्ड के पर्वों? की अपनी ऐतिहासिकता है। उनका पौराणिक व आध्यात्मिक महत्व है और ये हमारी संस्कृतिक विरासत के अंग हैं। कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण त्यौहारों का विवेचन हिन्दी मासों के अनुसार किया जा रहा है।

गनगौर - यह पर्व चैत्र शक्ल तीज को होता है। यह व्रत सुहागिन स्रियाँ ही करती हैं। इस त्यौहार में स्रियाँ पार्वती जी की पूजा करती हैं व --प्रसाद-- नैवेद्य में गनगौर बनाये जाते हैं। यह प्रसाद पुरुषों को नहं दिया जाता है। सौभाग्य की कामना करने वाली हर स्री इस व्रत को बुन्देलखण्ड की धरती पर अनन्त काल से करती आ रही है।

चैती पूनै - चैत्र की पूर्णिमा को बुन्देलखण्ड में चैती पूने के नाम से यह पर्व मनाया जाता है।
विधि :- पाँच या सात मटकियों को चूना या खड़िया से रंग कर पोत दिया जाता है। एक करवा रखा जाता है। करवे पर दो माताओं की प्रतिमा और एक पजून-कुमार की प्रतिमा बनायी जाती है। सभी घड़ों --मटकियों-- में लड्डू भरकर व चौक पूर कर मटकियों को रखकर विधिपूर्वक पूजा की जाती है। कहानी होती है। इसके बाद परिवार का लड़का मटकियों को हिलाकर करवे में से लड्डू निकाल कर माँ की झोली में डालता है। माँ लड़के को लड्डू खिलाती है। प्रसाद वितरण करते समय "पूजन के लडुआ पजनै खायें, दौड़-दौड़ वह कोठरी में जाँय'' कहना चाहिए।

असमाई - यह पर्व बैसाख की दोज को मनाया जाता है। यह कार्य सिद्धि के लिए व्रत होता है। इस दिन चौक पूर कर एक पान पर सफेद चंदन से एक पुतली बनायी जाती है। पटे पर रखकर चार गाँठ वाली चार कौड़ियाँ रखी जाती हैं इसी की पूजा होती है। नैवेद्य में सात आसें बनायी जाती हैं तो व्रत करने वाली स्री खाती है। इसके बाद घर का सबसे छोटा बच्चा कौड़ियों को पटे पर पारता है। आसमाई की कहानी होती है। ये कौड़ियाँ अपने पास रखती हैं और हर वर्ष पूजा होती है।

अकती --अक्षय तृतीया -- - यह त्यौहार वैशाख शुक्ल तीज को मनाया जाता है। यह पर्व बड़ा महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि आज के दिन से सतयुग का प्रारम्भ हुआ था। आज ही के दिन प्रसिद्ध तीर्थ बद्रीनारायण के कपाट खुलते हैं। 

वैसे बुन्देलखण्ड में इस त्यौहार की अपनी अलग ही रौनक होती है। इसमें लड१कियाँ गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलती हैं। लड़के आज के दिन से पतंग उड़ाते हैं। धैलों --छोटे घड़ों-- के ऊपर पूड़ियाँ, पकौड़ी, सत्तू, गुड़ व कच्ची अमियाँ रखकर दान दी जाती हैं। शाम के समय लड़कियाँ अकती गीत गाती हुई जाती हैं फिर लौटकर सोन बाँटती हैं। --सोन में भीगी हुई चने की दाल व बरगद के पत्ते-- ननद भाभी आपस में मनो-विनोद कर उनके पति के नाम पूछती हैं।

बरा बरसात --बट सावित्री व्रत-- जेठ कृष्ण अमावस को बराबरसात का पर्व होता है। आज के दिन सौभाग्यवती स्रियाँ बट वृक्ष के पास जाकर बट वृक्ष की पूरी विधि-विधान से पूजा करती हैं। अपने पुत्र व पति की आरोग्य व अपने अखण्ड सौभाग्य की कामना करती हैं। बट के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु, ऊपर शिव और समग्र में सावित्री हैं। सती-सावित्री की कहानी कह कर व्रत पूरा करती हैं। सती-सावित्री के सम्मान में यह व्रत मनाया जाता है।

कुनघुसूँ पूनैं - आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को बुन्देलखण्ड के हर घर में गृह वधुओं का पूजन किया जाता है, जो कुनघुसूँ के नाम से जाना जाता है। इस पर्व पर सास दीवाल पर चार कोनों में चार पुतरियाँ हल्दी से बनाती हैं, उनकी पूजा की जाती है। सास ऐसी बहू की कामना करती है कि परमेश्वरी बहू घर में लक्ष्मी बनकर घर को धन-धान्य तथा सन्तान से भर दें। जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। इस त्यौहार से इसी प्रकार की भावना प्रकट होती है।

हरी-जोत - सावन माह की अमावस को यह त्यौहार होता है। इस पर्व को कुनघुसँ पूने की तरह मनाया जाता है, इसमें बेटियों की पूजा कर कन्याओं के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं।

नाग पंचमी - नाग पंचमी श्रावण शुक्ल पंचमी को मनायी जाती है। आज के दिन साँपों की पूजा की जाती है। साँप की बार्मी भी पूजी जाती हैं। साँपों के प्रति भय न रहे, इसीलिए शास्रों में नाग की पूजा का विधान है।

राखी - रक्षा-बन्धन श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह बहुत ही पवित्र भावनाओं का त्यौहार है। आज के दिन सभी बहिनें अपने भाइयों को राखी बाँधती है। इस त्यौहार में भाई भी पूरा उत्साह व स्नेह के साथ बहिनों से राखी बँधवाते हैं तथा राखी के उपलक्ष्य में अपनी बहिनों को रुपये और उपहार देते हैं।

हरछठ - यह त्यौहार भादों कृष्ण पक्ष की छठ को मनाया जाता है। इसी दिन श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म हुआ था। यह व्रत पुत्रवती स्रियां ही करती हैं। इस व्रत में हल चली हुई जमीन का बोया-जोता अनाज व गाय का घी, दूध आदि खाना मना है। इस व्रत में पेड़ों के फल बिना बोया अनाज आदि खाने का विधान है।

कन्हैया-आठे- "जन्माष्टमी" तो सभी जानते हैं। यह त्यौहार भादों की अष्टमी को मनाया जाता है। इस दिन श्रीकृष्ण भगवान का जन्म हुआ था।

तीजा - यह त्यौहार भादों की शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाया जाता है। इस व्रत को निर्जल रखना पड़ता है। सभी सौभाग्यवती स्रियां इस व्रत को करती हैं। इस व्रत में रात्रि जागरण का भी विधान है। बुन्देलखण्ड के सभी घरों में यह व्रत रखकर सभी स्रियां मिलकर भजन आदि गाकर रात भर जागती है।

रिसि पाँचें - यह त्यौहार भादों की शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। यह व्रत भी स्रियाँ ही करती हैं। जाने अनजाने में पाप व गलतियाँ हो जाती हैं, उसी के प्रायश्चित के लिए इस व्रत का विधान है।

महालक्ष्मी - यह पर्व अश्वनि (क्वाँर) कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। यह व्रत भी सौभाग्यवती व पुत्रवती स्रियां ही करती हैं। इसमें महालक्ष्मी के साथ-साथ हाथी की भी पूजा होती है। आज के दिन विशेष प्रकार का पकवान बनाया जाता है जिसको सुरा (ठठेरा) कहते हैं। इस दिन नदी या तालाब में स्नान करने का महत्व है। सोलह बार स्नान करना व सोलह सुरा खाकर पूजा करना होता है। लक्ष्मी जी की पूजा कथा भी होती है।

नौरता - क्वाँर माह की कृष्ण पक्ष में प्रतिपदा से शुरु होकर नौ दिन की विशेष पूजा होती है। बुन्देलखण्ड में नौ दिनों तक सुबह नौरता (सुबटा) खेलती हैं। यह त्यौहार भी लड़कियों का विशेष त्यौहार है। इसमें लड़कियाँ चबूतरों पर तरह-तरह की अल्पना बना गीत गाती हैं। यह बुन्देलखण्ड का महत्वपूर्ण त्यौहार है।

दसरओ - यह त्यौहार भी आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। कहा जाता है कि दशमी तिथि को संध्या के समय जब आकाश में तारे निकलते हैं तो ""विजय"" नाम मुहूर्त होता है। इस मुहूर्त मे शुरु किया गया कार्य सिद्ध होता है। आज के दिन श्रीराम ने रावण पर विजय पाने का अभियान किया था। आज के दिन सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में नीलकंठ पक्षी के दर्शन एवं मछलियों को देखना शुभ मानते हैं।

शरदर पूनें - आश्विन महीने की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन से ही बुन्देलखण्ड में कीर्तिक स्नान शुरु हो जाता है।

पुराणों के अनुसार चन्द्रमा में अमृत का वास होता है और शरद पूर्णिमा की रात को यही अमृत पृथ्वी पवर बरसता हैं जो व्यक्ति इन किरणों में आनन्द उठाता है, उसे संजीवनी शक्ति प्राप्त होती है।

शरद पूर्णिमा को खीर बनाकर चन्द्रमा को भोग लगाकर रात को पूरी रात खुली चाँदनी में खुली रख देना चाहिए। इस खीर को खाने से अनेक रोग और व्याधियाँ दूर होती हैं।

धनतेरस - कार्तिक मास की कृष्ण त्रयोदशी को धनतेरस कहते हैं। आज के दिन घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर रखा जाता है। आज के दिन नये बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है। धनतेरस के दिन यमराज और भगवान धनवन्तरि की पूजा का महत्व है।
नरक-चउदस- कार्तिक मास की कृष्ण चतुर्दशी को ही नरक चतुर्दशी कहते हैं वैसे इस दिन को "छोटी दीवाली" भी कहते हैं। आज ही के दिन अर्द्धरात्रि को हनुमान जी का जन्म हुआ था। इसलिए आज ही के दिन हनुमान जयन्ती भी मनायी जाती है।

दिवारी - कार्तिक मास की अमावस्या को "दीपावली" का पर्व मनाया जाता है। आज का दिन उत्साह, उल्लास, पवित्रता एवं श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन लक्ष्मी-गणेश का पूजन व सभी स्थानों पवर दियों का उजाला किया जाता है। घर में नये वस्र, अन्न, फल, मिठाई, मेवा सभी का प्रसाद लगाया जाता है।

सभी त्यौहार और पर्व बड़ी श्रद्धा विश्वास के साथ मनाये जाते हैं, जिनमें किसी न किसी उद्देश्य की भावना अवश्य छिपी रहीत है। चाहे पापों का प्रायश्चित हो, धार्मिक सामाजिक स्नेह, बन्धन की कामना, सुखी जीवन व सौभाग्य की कामना, सुखी जीवन व सौभाग्य की कामना हो, सम्पूर्ण अकांक्षायें इन पर्वों? में विद्यमान हैं।

बुन्देलखण्ड है प्राण हिन्द का अमर यहां की संस्कृति है।
ॠषियों की यह तपस्थली है, वीर प्रसूता धरती है।।
विन्ध्यांचल और चित्रकूट कालीं गाता युग गाथा।
पन्ना में हीरा छत्रसाल की, काल्पी गाती व्यास कथा।।
कुंइयां परासन पारासर की कथा गा रही वेदवती।
जैन धर्म की तीर्थ देवगढ़, सांची प्रतीक है बौद्धमती।।
वीरभूमि है नगर महोबा, नृप परमाल का राज्य रहा।
आल्हा ऊदल के पौरुष का कीरत सागर बता रहा।।
जमुना चम्बल और नर्मदा टोंस विन्ध्य की सीमा है।
केन धसान, पहूंज बेतवा अन्य सहायक नदियाँ है।।
लक्ष्मी बाई इसी धरा में क्रान्ति जगाने आयी थी।
जिसके पौरुष से जागी, झांसी वाली तरुणाई थी।।
कहने भर को वह नारी थी पर स्वतन्त्रता चिनगारी थी।
मनु की वही छबीली जन जन में, बन क्रान्ति समाई थी।।

-डॉ० रमाशंकर विश्वकर्मा 

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