बुंदेलखंड संस्कृति |
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हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा |
रासो आदिकाल के हिन्दी-साहित्य में वीर गाथायें प्रमुख हैं। वीर गाथाओं के रुप में ही "रासो' ग्रन्थों की रचनायें हुई हैं। हिन्दी साहित्य में "रास' या "रासक' का अर्थ लास्य से लिया गया है जो नृत्य का एक भेद है। अतः इसी अर्थ भेद के आधार पर गीत नृत्य परक रचनायें "रास' नाम से जानी जाती हैं "रासो' या "रासउ' में विभिन्न प्रकार के अडिल्ल, ढूसा, छप्पर, कुण्डलियां, पद्धटिका आदि छन्द प्रयुक्त होते हैं। इस कारण ऐसी रचनायें "रासो' के नाम से जानी जाती हैं। "रासो' शब्द विद्वानों के लिए विवाद का विषय रहा है। इस पर किसी भी विद्वान का निश्चयात्मक एवं उपयुक्त मत प्रतीत नहीं होता। विभिन्न विद्वानों ने अनेक प्रकार से इस शब्द की व्याख्या करने का प्रयास किया है। कुछ विद्वानों ने अनेक प्रकार से इस शब्द की व्याख्या करने का प्रयास किया है। कुछ विद्वानों ने "रासो' की व्युत्पत्ति "रहस्य' शब्द के "रसह' या "रहस्य' का प्राकृत रुप मालूम से मानी जाती है। श्री रामनारायण दूगड लिखते हैं- "रासो' या रासो शब्द "रहस' या "रहस्य' का प्राकृत रुप मालूम पड़ता है। इसका अर्थ गुप्त बात या भेद है। जैसे कि शिव रहस्य, देवी रहस्य आदि ग्रन्थों के नाम हैं, वैसे शुद्ध नाम पृथ्वीराज रहस्य है जोकि प्राकृत में पृथ्वीराज रास, रासा या रासो हो गया। डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल और कविराज श्यामदास के अनुसार "रहस्य' पद का प्राकृत रुप रहस्सो बनता है, जिसका कालान्तर में उच्चारण भेद से बिगड़ता हुआ रुपान्तर रासो बन गया है। रहस्य रहस्सो रअस्सो रासो इसका विकास क्रम है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल "रासो' की व्युत्पत्ति "रसायण' से मानते हैं। डॉ उदयनारायण तिवारी "रासक शब्द से रासो' का उदभव मानते हैं। वीसलदेव रासो में "रास' और "रासायण' शब्द का प्रयोग काव्य के लिए हुआ है। ""नाल्ह रसायण आरंभई'', एवं ""रास रसायण सुणै सब कोई'' आदि। रस को उत्पन्न करने वाला काव्य रसायन है। वीसलदेव रासो में प्रयुक्त "रसायन' एवं "रसिय' शब्दों से "रासो' शब्द बना। प्रो. ललिता प्रसाद सुकुल रसायण को रस की निष्पत्ति का आधार मानते हैं। मुंशी देवी प्रसार के अनुसार-""रासो के मायने कथा के हैं, वह रुढि शब्द है। एक वचन "रासा' और बहुवचन "रासा' हैं। मेवाड, ढूढाड और मारवाड में झगड़ने को भी रासा कहते हैं। जैसे यदि कई आदमी झगड़ रहे हों, या वाद विवाद कर रहे हों, तो तीसरा आकर पूछेगा "कांई रासो है' है। लम्बी चौडी वार्ता को भी रासो और रसायण कहते हैं। बकवाद को भी रासा और रामायण ढूंढाण में बोलते हैं। कांई रामायण है? क्या बकवाद है? यह एक मुहावरा है। ऐसे ही रासो भी इस विषय में बोला जाता है, कांई रासो है?'' महामहोपाध्याय डॉ. हरप्रसाद शास्री-""राजस्थान के भाट चारण आदि रासा (क्रीडा या झगड़ा) शब्द से रासो का विकास बतलाते हैं।'' गार्सा-द तासी ने रासो शब्द राजसूय से निकला बतलाया है। डॉ. ग्रियर्सन "रासो' का रुप रासा अथवा रासो मानते हैं तथा उसकी निष्पत्ति "राजादेश' से हुई बतलाते हैं। इनके अनुसार-""इस रासो शब्द की निष्पत्ति "राजादेश' से हुई है, क्योंकि आदेश का रुपान्तर आयसु है।'' महामहोपाध्याय डॉ गौरीशंकर हीराचन्द ओझा हिन्दी के "रासा' शब्द को संस्कृत के "रास' शब्द से अनुस्यूत कहते हैं। उनके मतानुसार-"" मैं रासा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के रास शब्द से मानता हँ। रास शब्द का अर्थ विलास भी होता है (शब्द कल्पदुम चतुर्थ काण्ड) और विलास शब्द चरित, इतिहास आदि के अर्थ में प्रचलित है।'' डॉ. ओझा जी ने अपने उपर्युक्त मत में रासा का अर्थ विलास बतलाया है जबकि श्री डी. आर. मंकड "रास' शब्द की उत्पत्ति तो संस्कृत की "रास' धातु से बतलाते हैं, पर इसका अर्थ उन्होंने जोर से चिल्लाना लिया है, विलास के अर्थ में नहीं। डॉ. दशरथ शर्मा एवं डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि "रास' परम्परा की गीत नृत्य परक रचनायें ही आगे चलकर वीर रस के पद्यात्मक इति वृत्तों में परिणत हो गई। ""रासो प्रधानतः गानयुक्त नृत्य विशेष से क्रमशः विकसित होते-होते उपरुपक और किंफर उपरुपक से वीर रस के पद्यात्मक प्रबन्धों में परिणत हो गया।'' ""इस गेय नाट्यों का गीत भाग कालान्तर में क्रमशः स्वतन्त्र श्रव्य अथवा पाठ्य काव्य हो गया और इनके चरित नायकों के अनुसार इसमें युद्ध वर्णन का समावेश हुआ।''
बुन्देलखण्ड में कुछ ऐसी उक्तियाँ भी पाई जाती है, जिनसे रासो शब्द के स्वरुप पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है, जैसे ""होन लगे सास बहू के राछरे''। यह "राछरा' शब्द रासो से ही सम्बन्धित है। सास बहू के बीच होने वाले वाक्युद्ध को प्रकट करने वाला यह "राछरा' शब्द बड़ी स्वाभाविकता से रायसा या रासो के शाब्दिक महत्व को प्रगट करता है। वीर काव्य परम्परा में यह रासो शब्द युद्ध सम्बन्धी कविता के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसका ही बुन्देलखण्डी संस्करण "राछरौ' है। उपर्युक्त सभी मतों के निष्कर्षस्वरुप यह एक ऐसा काव्य है जिसमें राजाओं का यश वर्णन किया जाता है और यश वर्णन में युद्ध वर्णन स्वतः समाहित होता है। परम्परा रासो काव्य परम्परा हिन्दी साहित्य की एक विशिष्ट काव्यधारा रही है, जो वीरगाथा काल में उत्पन्न होकर मध्य युग तक चली आई। कहना यों चाहिए कि आदि काल में जन्म लेने वाली इस विधा को मध्यकाल में विशेष पोषण मिला। पृथ्वीराज रासो' से प्रारम्भ होने वाली यह काव्य विधा देशी राज्यों में भी मिलती है। तत्कालीन कविगण अपने आश्रयदाताओं को युद्ध की प्रेरणा देने के लिए उनके बल पौरुष आदि का अतिरंजित वर्णन इन रासो काव्यों में करते रहे हैं। रासो काव्य परम्परा में सर्वप्रथम ग्रन्थ "पृथ्वीराज रासो' माना जाता है। संस्कृत, जैन और बौद्ध साहित्य में "रास', "रासक' नाम की अनेक रचनायें लिखी गईं। गुर्जर एवं राजस्थानी साहित्य में तो इसकी एक लम्बी परम्परा पाई जाती है। यह निर्विवाद सत्य है कि संस्कृत काव्य ग्रन्थों का हिन्दी साहित्य पर बहुत प्रभाव पड़ा। संस्कृत काव्य ग्रन्थों में वीर रस पूर्ण वर्णनों की कमी नहीं है। ॠगवेद में तथा शतपथ ब्राह्मण में युद्ध एवं वीरता सम्बन्धी सूक्त हैं। महाभारत तो वीर काव्य ही है। यहीं से सूत, मागध आदि द्वारा राजाओं की प्रशंसा का सूत्रपात हुआ जो आगे चलकर भाट, चारण, ढुलियों आदि द्वारा अतिरंजित रुप को प्राप्त कर सका। वीर काव्य की दृष्टि से "रामायण' में भी युद्ध के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन हैं। "किरातार्जुनीय, में वीरोक्तियों द्वारावीर रस की सृष्टि बड़ी स्वाभाविक है। "उत्तर रामचरित' में जहाँ "एको रसः करुण एव' का प्रतिपदान है वहीं चन्द्रकेतु और लव के वीर रस से भरे वाद विवाद भी हैं। भ नारायण कृत "वेणी संहार' में वीर रस का अत्यन्त सुन्दर परिपाक हुआ है। इससे स्पष्ट है कि हिन्दी की वीर काव्य प्रवृति संस्कृत से ही विनिश्रित हुई है। डॉ. उदय नारायण तिवादी ने "वीर काव्य' में हिन्दी की वीर काव्यधारा का उद्गम संस्कृत की वरी रस रचनाओं से माना है। रासो परम्परा दो रुपों में मिलती है-प्रबन्ध काव्य और वीरगीत। प्रबन्ध काव्य में "पृथ्वी राज रासो' तथा वीर गीत के रुप में "वीसलदेव रासो' जैसी रचनायें हैं। जगनिक का रासो अपने मूल रुप में तो अप्राप्त है किन्तु, आल्ह खण्ड' नाम की वीर रस रचना उसी का परिवर्तित रुप है। आल्हा, ऊदल एवं पृथ्वीराज की लड़ाइयों से सम्बन्धित वीर गीतों की यह रचना हिन्दी भाषा क्षेत्र के जनमानस में गूंज रही है। आदि काल की प्रमुख रचनायें पृथ्वीराज रासो, खुमान ख्रासो एवं वीसलदेव रासो हैं। हिन्दी साहित्य के प्रारम्भ काल की ये रचनायें वीर रस एवं श्रृंगार रस का मिला-जुला रुप प्रस्तुत करती हैं। जैन साहित्य में "रास' एवं "रासक' नम से अभिहित अनेक रचनायें हैं जिनमें सन्देश रासक, भरतेश्वर बाहुबलि रास, कच्छूलिरास आदि प्रतिनिधि हैं। पृथ्वीराज रासो एवं वीसलदेव रासो को कुछ विद्वान सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं। डॉ. माताप्रसाद गुप्त इन्हें १३ वीं १४ वीं शताब्दी का मानते हैं। यह रासो परम्परा हिन्दी के जन्म से पूर्व अपभ्रंश में वर्तमान थी तथा हिन्दी की उत्पत्ति के साथ'साथ गुर्जर साहित्य में। अपभ्रंश में "मु"जरास' तथा "सन्देश रासक' दो रचनायें हैं। इनमें से मुंजरास अनुपलब्ध है। केवल हेमचन्द्र के "सिद्ध हेम' व्याकरण ग्रन्थ में तथा मेरु तुंग के प्रबन्ध् चिन्तामणि में इसके कुछ छन्द उद्धृत किए गये हैं। डॉ. माता प्रसाद गुप्त "मुंजरास' की रचना काल १०५४ वि. और ११९७ वी. के बीच मानते हैं, क्योंकि मुंज का समय १००७ वि. से १०५४ वि. का है। "संदेश रासक' को विद्वानों ने १२०७ वि. की रचना माना है। पृथ्वीराज रासो की तरह "मुंजरास' एवं "संदेश रास भी प्रबन्ध रचनायें हैं। पृथ्वीराज रासो दुखान्त रचना है। वीसलदेव रासो सुखान्त रचना है एवं इसी तरह "संदेश रासकद्' सुखान्त एवं "मुंजरास' दुखान्त रचनायें हैं। अपभ्रंश काल की एक और रचना जिन्दत्त सूरि का "उपदेश रसायन रास' है। यह भक्ति परक धार्मिक रचना है। डॉ. माता प्रसाद गुप्त जिनदत्त सूरि का स्वर्गवास सं. १२९५ वि. में मानते हैं। अतः रचना सं. १२९५ वि. के कुछ पूर्व की ही होनी चाहिए। अपभ्रशं की उपर्युक्त रचनायें रासो काव्य की मुख्य प्रवृत्तियों की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं करतीा गुर्जर साहित्य में लिखी रासो रचनायें आकार में छोटी हैं। इनके रचयिता जैन कवि थे और उन्होंने इनकी रचना जैन धर्म सिद्धान्तों के अनुसार की।
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