बुंदेलखंड संस्कृति

रासो काव्यों की साहित्यिक अभिव्यक्ति

प्रकृति चित्रण

दरबारी मनोवृत्ति वाले आश्रित कवि अद्भूत उक्तियों से अपने आश्रय-दाताओं को रिझाने का प्रयतन मात्र करते रहे हैं। फिर उनके आख्यानक काव्यों में दृश्य वर्णन अत्यल्प स्थान पर सका है। जहाँ कुछ मिलता भी है वह अलंकारों की छटा में ओझल सा प्रतीत होता है।

ऐसा लगता है कि प्रकृति चित्रण इस परम्परा में कुछ उपेक्षित सा रहा है जो कि एक परम्परा के अनुशरण में सीमित सा है। वीर काव्य में भी यही बँधी बँधाई प्रकृति चित्रण परमपरा देखने को मिलती है।

अद्भूत कल्पवना जाल से संवारे गए इन रीति युगीन रासो काव्यों में अधिकांश ऐश्वर्य-विलास, नायक की शोर्य प्रशंसा, वीरता, युद्ध पराक्रम, युद्ध की सामग्री तथा वीरों की सज-धज एवं तत्सम्बन्धी सामग्री का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। नाम पगिणनात्मक शैली का अनुकरण करने के कारण सामग्रियों की सूचियाँ इतनी लम्बी हो गई हैं जिससे प्रकृति वर्णन में अस्वाभाविकता सी आ गयी है।

इन कवियों ने प्रकृति वर्णन के उद्दीपन रुप को ही लिया है जो संस्कृत की आप्त शैली से प्रभावित है। कुछ कवियों के ऐ भी प्रकृति चित्रण देखने को मिलते हैं जिनसे उनकी मौलिकता एवं स्वाभाविकता उनके प्रकृति प्रेम की ओर ईषत संकेत करती है। राजनैतिक परिस्थितियों की गम्भीरता के कारण वे प्रकृति निरीक्षण का अधिक अवसर नहीं पासके।

विवेच्य रासो काव्यों में न्यूनाधिक रुप में उपलब्ध प्रकृति चित्रण निम्नानुसार प्रस्तुत किया जा रहा है।

दलपति राव रायसो में प्रकृति चित्रण का अभाव सा ही है। एक दो स्थलों पर कवि ने युद्ध वण्रन के अन्तर्गत प्रकृति का उद्दीपन रुप् में वर्णन किया है।

एक छन्द में युद्ध का एक वर्षां रुपक प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण निम्नानुसार है-""सुतुर नाल घुर नाल छूटे ।

बान क्रवांन बंदूषन फूटे ।।
आंच सधुंध अंधेरी छाई।
चहूँ ओर अनु घटा सुहाई।।
जहाँ निसान करनाल सुबाजै।
भई सोभ मानौ घन गाजै।
बरस तीर त्यों बुंद अमंकै।
बिज्जु कोप त्यों घोप चमंकै।।''

प्रकृति वर्णन की दृष्टि से गुंलाब कवि का विशेष महत्व नहीं है। "करहिया कौ राइसौ' में प्रकृति के वर्णनों का प्रायः अभाव ही है।

शत्रुजीत रासों में भी अन्य रासो ग्रन्थों की भाँति प्रकृति का उद्दीपन चित्रणों में रमा है। प्रकृति के वर्णनों को रोचकता और पूर्णता देने का कवि ने प्रयास किया है। प्रकृति के उत्प्रेक्षापूर्ण वर्णनों की तो इस रायसे में भरमार है। षड ॠतुओं के वर्णन मेंकवि ने वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद तथा शिशिर ॠतुओं के युद्ध रुपक प्रस्तुत किए हैं। ॠतु वर्णन निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा रहा है-

निम्नलिखित छन्द में बसन्त ॠतु का वर्णन किया गया है-

""जहाँ लाल भए अंग स्याह तोपन,
तिलंग मनौ फूले पलास दल उन्मत उदयान।
जहाँ टूटै तरवार गिरै छूटककै कटार,
वीर वगरौ बहार पतछारन के समान।
जहाँ कंत दतिया कौ वरबैरिन कौ अंत करौ,
वरह वसन्त मंजुघोषा मुखगान। आदि''

ग्रीष्म ॠतु वर्णन

सेनायें दावानल के समान दौड़ती हैं, गुमानियों के शरीर वृक्ष के पत्ते के समान सूख गए, अस्रों से निकली लपटें प्राण लपेट लेती हैं आदि निम्नलिखित छन्द में प्रस्तुत किया गया है-

""जहाँ वाग दैय वंग जुरौ जंग कौ उमंग दोर,
दावौ दल दंग दावानल के समान।
जहाँ सूखे तरु पात लौं गुमानि# के गात,
लगै सारन की लपटें लपेट लेत प्रान।।
जहाँ तेज कौ मजेज कौ अंगेज करै कौन,
भयौ भान वंस मोष मतां ग्रीषम कौ भांन।''

वर्षा ॠतु

सेनायें बादलों की घटा, तलवारों की चमक बिजली, चातक के सदृश वन्दीजन का गान आदि।
उदाहरणार्थ

""जहाँ घन लौ घुमंड दल उमड़ अनीपै जुरै,
तड़ता तड प कड़ौ कईक कृपान।
जहाँ औजै सांग नेजे, वेझे वेझलौं करेजे,
रहे मानों पौन घेरे छूट घुरवा घुरान।।
जहॉा त्याग, तन हंस श्रौन वरषा लगी है,
जगी चातक लौं वंदीजन करत वखान ।। आदि''

शरद ॠतु

कई हजार तलवारों की श्वेत चमक मानों कांस फूल गया है, पथिक का मार्ग चलना मानों वीरों का प्राण पयान करना है, #न्द्रििका के समान कीर्ति प्रकाशित होना, कमल के समान मुख पर निर्मल ओज रुपी जल आदि का वर्णन निम्नलिखित छनद में देखा जा सकता हे-

""जहाँ कइय हजार तलवार कड़ी दोऊ,
वो फूलौ नु कांस धरा दव्वन निदांन।
जहाँ फूट जात सीस सोष कट जात गात,
करै पथिक लौं प्रान आसमान कौं पयान।।
करै पथिक लौं प्रान आसमान कौं पयान।।
जहाँ चार चन्कासी खासी कीरत प्रकासी,
लसे पानिय विमल मुष कमल प्रमाना।'' आदि

शिशिर ॠतु

""जहाँ लाग मुख घाउ फिरै चाहुड़ सौ चमूमें,
लत रुधिर अत्र हूमें घूमैं चावें जनु पांन।
जहाँ एकै वीर वरहू वरंगनां वरनत,
एकै वास करै मारतण्ड मण्डल महान।।
जहाँ ऐकन के भाग भए पीपर के पात,
सोष सीत के सताऐ मुख कमल निदांन।।'' आदि

आगे कवि ने हेमन्त ॠतु के स्थान पर हो#ी का एक युद्ध रुपक प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रकृति चित्रण नहीं पाया जाता है।
पारीछत रायसा में प्रकृति का उद्दीपन रुप में चित्रण किया गया है। निम्नलिखित छन्द में वर्षां का एक युद्ध रुपक देखने योग्य है-

""बड़ सोर रहौ दसहू दिसान।
घहरात घोर बज्जे निसान।।
जनु प्रलय काल के मेघमाल।
कै इन्द्र वर्ज बल कौं जु घाल।।
उठ जंत्र विरीऊगै तमंक।
मन मघा नखत बिज्जुल चमंक।।
ध्र परसु बुन्द गोली समान।
वंदीजन चात्रक करत गान।।
वगपंत परीछत सुजत छांहि।
वरषोस रुप रन यों मचाई।।''

वर्षा के प्रतीक चिन्ह चातक, जलबूंद, बिजली की चमक, बादलों का गरजना आदि का प्रयोग वन्दीजन, बाण वर्षा, तलवार नगाड़े, आदि के लिय किया गया है।

एक अन्य छन्द में प्रकृति का वीभत्स वर्णन किया गया है। युद्ध के मैदान में शोणित की नदी बहना, उसमें योद्धाओं के कटे हुए हाथ हथेली सहित नालयुक्त कमल के समान लग रहे हैं तथ केश सिवार घास के समान हैं। उदाहरण निम्न प्रकार है-

""बँध लुथ्थन की जहं पार गई।
भ रश्रोनित वारत जंग भई।।
जहं जंमुष मीन विराजत हैं।
कर कंज सनालन राजनत हैं।।
रहे केस सिवाल सुछाइ जहाँ।
मच आमिष की बहु कींच तहाँ।।
डरि ढाल सुकच्छप रुप मड़े।
वकपंत सुकीरत सौभ मड़ै।''

एक क्रवांन' छन्द में कवि ने उद्दीपन रुप में वर्षा का युद्ध रुपक निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है-

""जहां तोपन की घाई घन घाई सी मचाई,
वीर मांचौ धुंधकार धूम धुरवा समान।
जहाँ थाकौ रथभान परै दिस्ट में न आन,
सीसिहू के उनमान स्यार कंपै भयमान।।
जहाँ वन्दीजन चात्रक पढ़ावत उमाह हिए,
वरषत बुंद बान बरषा समान।
तहां माचौ घमसान सुन्नसान भौ दिसान
लरै दीरध दिमान वीर वाहक ग्रवांन।।

उपर्युक्त छन्द में तोपों के चलने, वीरों की दौड़ धूप से उठी धूल, वंदीजन बाण, आदि के लिए क्रमश- मेघ गर्जन, काली तथा धूमरी घटनाओं के धुरवों, चातक तथा बूंद आदि प्रतीको का प्रयोग किया गया है।

एक छन्द में प्रकृति का भयानक रुप में वर्णन भी उपलब्ध होता है१ उदाहरण निम्न प्रकार है-

""कैधौं बड़वागिन की प्रगटी प्रचण्ड ज्वाल,
कैधौं ये दवागिन की उलहत साखा है।
कैधौं जुर होरी ज्वाल छाये हैं पहारन पैं,
लत गढ़ोहिन कौ काल कैसे नाखा हैं।।''

इस प्रकार ""पारीछत रायसा'' में प्रकृति का कई रुपों में चित्रण उपलब्ध होता है।

"बाघाट रायसा'' में प्रकृति का कई रुपों में चित्रण उपलब्ध होता है।

केवल दो स्थानों पर उद्दीपन रुप में प्रकृति का साधारण वर्णन किया गया है।

उदाहरण निम्नानुसार हैं-

""तोप घलै जब होइ अवाज। परहि मनौ भादौं की गाज।।

तथा

"घली समसेरे सिरोहीं, भई तेगन मार। चमक जाती बीजुरी सी कौनु सकैहि निहार।।''

उपर्युक्त उदाहरणों में तोप की आवाज के लिए गाज गिरना तथा तलवारों की चमक के लिये बिजली के प्रतीक चुने गये हैं।

""झाँसी कौ राइसौ'' मैं प्रकृति चित्रण नगण्य है। केवल एकाध स्थान पर एकाध पंक्ति में उद्दीपन रुप में प्रकृति वर्णन देखने को मिलता 
है, जैसे-

""उड़े जितहीतित तुंड वितुंड।
झिरै झिरना भर श्रोनित कुंड।।

तथा 

""घटा सी उठी रैन जब सैन धाई।''

उपर्युक्त उदाहरणों में युद्ध क्षेत्र में रक्त के झरने बहना तथा सोना के चलने से उठी धूल को काली घटा के रुप में चित्रित किया है।

 

 

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Content prepared by Mr. Ajay Kumar

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