बुंदेलखंड संस्कृति

लक्ष्मीबाई रासो प्रकृति चित्रण

इस धारा के अन्य रासो ग्रन्थों की भाँति ही मदनेश कृत लक्ष्मीबाई रासो में भी प्रकृति का उद्दीपन एवं अप्रस्तुत स्वरुप ही परिलक्षित होता है। इस कवि का प्रमुख लक्ष्य युद्ध का वर्णन एवं उस युद्ध में अपने पक्ष के नायक का वीरोत्तेजक स्वरुप् वर्णन ही है अतः प्रकृति वर्णन में कोई रुचि नहीं दिखलाई गई है। ऐसे ग्रन्थों में प्रकृति वर्णन नगण्य सा ही है। वैसे युद्ध के वर्णनों में भी प्रकृति के आलंबन एवं उद्दीपन दोनों पक्षों का सुन्दर वर्णन किया जा सकता है, परन्तु इन कवियों ने इस ओर उदासीनता ही दिखलाई हे। लक्ष्मीबाई रासो में युद्ध क्षेत्र में प्रकृति के उद्दीपन स्वरुप् का एक निम्न उदाहरण इस प्रकार है-

"उत रिपुदल सेना उमड़ आइ। चहुं ओर मनो घन घटा छाइ।
बरछिन की माल चमंक रही। सोउ दामिन मनौ दमंक रही।।
जहं तहं तोपन को होत सोर। सोई मानों हो रई घटा घोर।।
गज खच्चर बाज चिकारत हैं। पिक कोकिल मोर अलापत हैं।।
उठ धुंआ गुंग नभ लेत गहे। मानों धुर चौगृद टूट रहे।।
सबकी बातन कौ मचौ सोर। है मनो पवन कौ जोर तो।''

उपर्युक्त छन्द में युद्ध क्षेत्र में उत्प्रेक्षा से पुष्ट रुपक अलंकार में प्रकृति का वर्णन है। शत्रु सेना का घन घटा, बरछियों की फक का बिजली की चमक, तोपों के चलने की आवाज को घन घटा की गर्ज, हाथी खच्चर घोड़ों आदि की ध्वनियों को कायेल और मोर के आलाप, धुंआ उठने का धुरवा टूटने, सब लोगों की बातों के शोर का पवन के प्रचंड वेग के रुप में वर्णन किया गया है। यहाँ पर हाथी, खच्चर, घोड़ों आदि की चिंघाड़, ढेंचृं व हिनहिनाहट की तुलना कवि ने मोर व कायेल की ध्वनि सेकी है जो असंगत ही है।

स्पष्ट है कि कवि ने प्रकृति वर्णन के प्रति या तो उदासीनता दिखलाई है अथवा स्थिति वैषम्य को एकत्रित भर किया है।

शैली एवं भाषा--

आलोच्य रासो काव्यों में शैलियों की विविधता है। कुछ कवियों ने ""वर्णनात्मक शैली'' अपनाई है तो कुछ ने ""संयुक्ताक्षर'' और ध्वन्यात्मक शैली में काव्य रचना की। अधिकांश कवि राज्याश्रित दरबारी मनोवृत्ति वाले थे, जो एक बंधी बंधाई परिपाटी को ही अपनाए रहे। ऐसे कवियों के द्वारा किये गये, वर्णनों में अस्वाभाविकता का समावेश हो गया है। ""नाम परिगणात्मक शैली'' के अन्तर्गत कवियों द्वारा वस्तुओं और नामों की लम्बी-लम्बी सूचियों का प्रयोग कर भाषा प्रवाह को शिथिल कर दिया गया है। बुन्देल खण्ड के रासो काव्यों की भाषा मूलरुप में बुन्देली ही है, पर कुछ रासो ग्रन्थों की भाषा अल्प मात्रात में ""बृज'' से प्रभावित भी है। "झाँसी को राइसौ', "पारीछत रायसा', "बाघाटा का रासो', "छछूंदर रायसा', "गाडर रायसा', "घूस रायसा' आदि विशुद्ध बुन्देली की रचनायें है।

इन कवियों ने प्रयुक्त काव्य भाषा के साथ उर्दू, अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं के शब्दों को तोड़मरोड़ कर स्थानीय बोली के अनुरुप प्रयुक्त किया है। कुछ कवियों ने शुद्ध तत्सम शब्दावली का प्रयोग भी किया है। "जोगीदास', "किशुनेश', "श्रीधर', "गुलाब' तथा "मदनेश' आदि की भाषा न्यूनाधिक रुप में संस्कृत शब्दावली से प्रभावित भी हैं। परन्तु बुन्देलखण्ड के रासो ग्रन्थों में बुन्देली बे#ोली के अत्यन्त स्वाभाविक और सरस प्रयोग देखने को मिलते हैं। आगे प्रत्येक रासो की भाषा और शैली का विवचेन प्रस्तुत किया जा रहा है।
दलपति राव रायसा में वर्णनात्मक शैली का प्रमुख रुप से प्रयोग किया गया है। पर जहाँ कवि ने युद्ध की विकरालता, वीरों के शोर्य प्रदर्शन एवं सेना प्रववाण आदि का ओज पूर्ण वर्णन किया है, वहाँ "नादात्मक शैली' का प्रयोग किया गया है। संयुक्ताक्षर शैली भी रासो परम्परा के अनकूल यत्र तत्र अपवनाई गई है। वर्णद्वित्व तथा अनुस्वारांत शब्दावली का कवि ने तड़क भड़क पूर्ण वर्णनों में प्रयोग किया है। अनुस्वारांत शब्द प्रयोग तो बुन्देली भाषा की अपनी विशेषता है।

बुन्देली रासो काव्यों में प्रमुख रुप से दलपति राव रायसा की भाषा एवं शैली पर पृथ्वीराज रासो की भाषा शैली का पर्यापत प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। डॉ. भगवानदास माहौर ने लिखा है कि ""पृथ्वीराज रासो की भाषा शैली का प्रभोव इन बुन्देली रासो ग्रन्थों तक चला आया है, यह स्पष्ट दिखता है। इनकी भाषा यद्यपि है बुन्देली ही तथापि पृथ्वीराज रारसो की तरह उसमें वर्ण द्वित्व, अपभ्रंशाभासतव, अनुस्वारांत पदावली आदि की प्रवृति मात्रा में परिलख्ज्ञित होती है।'' प्राचीन रासो परम्परा से प्रभावित दलपतिराय रायसा के निम्न छन्द देखिये-

""भयौ जलंग मांझ सुमारं आरं। बही श्रोन धारं सुनारं पनारं।
कर्रकंत ओपंन्न सारं अनेग। तर्रकुत जारं वष्षरं सुतेगं।।
करक्कत्त हाड़न्य सैषर्ग धारं। लरंतं सुघोरंन्न में अस्सवार।
फरंकंत घाइल्ल जै बौत चायं। सरक्कत्त हाथिन्न सों जै सुपायं।।
उपर्युक्त छन्द में वर्णद्वित्व अनुस्वारांत शब्दावली एवं अपभ्रंशभासात्व देखा जा सकता है।

निम्नलिखित छन्द में बुन्देली बोली का सामान्य रुप में सुन्दर प्रयोग है-

""नाहर से नाहर सजे, सजे संग जैवार।
सजै राउ दलपत संग, ओरै सूर अपार।।
दान क्रवानं प्रवान सौ, रहत सदा जै वीर।।
स्वांम धर्म के कारनै, अर्पेरहत शरीर।।''

इस प्रकार एक ओर तो दलपति राय रायसा में पृथ्वीराज रासो की परम्परा युक्त भाषा शैली का प्रयोग हुआ है तो दूसरी ओर बुन्देली बोली का स्वाभाविक स्वरुप भी देखने को मिल जाता है।

""करहिया कौ रायसौ'' प्रमुखतः वर्णनात्मक शैली में लिखा गया है। वीरों के नाम, राजपूत जातियों के नाम आदि के गिनाने में नाम परिगणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं चारण परम्परा की भाँति संयुक्ताक्षर एवं वर्णदित्व शैली का बढंगा सा प्रयोग भाषा प्रवाह में अरोचकता एवं कथाप्रवाह में व्यवधान सा उपस्थित कर देता है। निम्नांकित पंक्तियों में सुयुक्ताक्षर शैली का प्रयोग दृष्टव्य है-

"झुंडड्डुकिंरग प्रचंडड्डिढ करि मुंडड्डरिपिय।
भुस्सुंड्डिढ करि तुंड्डडुभ कि चमुंड्डडुगरिय।।
र्रूंडद्धरि अकिंरद ड्डुरिय अरंभम्भुज पर।
रंभग्ग्न किय मग्गग्गति चल कद्दद्दसिवर।।'

उपर्युक्त उदाहरण मेंकवि ने वर्णों का केसा अस्वाभाविक मूल उपस्थित किया है कि अर्थ का अभाव तो हो ही गया, कथा प्रवाह एवं भाषा प्रवाह में भी शिथिलता एवं अरोचकता आ गई है। किन्तु गुलाब कवि ने इस प्रकार के वर्णन बहुत कम किये हैं। कवि ने बार-बार छन्दों का परिवर्तन किया है इस कारण रचना में रोचकता की वृद्धि हुई है।

"करहिया कौ रायसौ' यद्यपि बुन्देली भाषा में लिखा गया है, तथापि यत्र तत्र कुछ वर्णनों से यह कहा जा सकता है कि कवि पर बृज का पर्याप्त प्रभाव था१ कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृ की जा रही हैं-

१. देवीजू के चरन सरोज उद ल्याउ रे।
२. देवनि के देव श्री गणेंश जू की गावही।
३. जंग जोर जालिम जबर प्रगट करहिया बार।

उपर्युक्त पंक्तियों में कुछ बुन्देली शब्द यथा स्थान मणि की तरह जड़ हुए हैं। इस तरह की और भी पंक्तियां इस काव्य ग्रन्थ में उपलब्ध हेाती है। सम्पूर्ण रुप में यह काव्य ग्रन्थ बुन्देली भाषा के खाते में ही जमा किया जायेगा।

शत्रुजीत रासो में भी परम्परा युक्त शैलियों का ही प्रयोग किया गया है। इस रासो गन्थ में वर्णनात्मक, ध्वन्यात्मक, संयुक्ताक्षर आदि शैलियों का प्रयोग हुआ है। वीरों के नामों और उनकी जातियों तथा हथियारों आदि की सूची गिनाने में पगिणातमक शैली भी प्रयुक्त हुई है। बँधी बँधाई परम्परा में अटका न रह गया होता तो इस ग्रन्थ का कवि अपने समय का एक विद्वान काव्य मर्मज्ञ था।

शत्रुजीत रासो में बुन्देली भाषा को अपनाया गया है। कवि को भाषा प्रयोग में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है। बुन्देली की शब्दावली का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। जैस -जड़ाकौ करे', "डगे पांव', "मरोरै' के साथ उर्दू आदि भाषाओं के शबदों को भी कवि ने बुन्देली संस्करण के रुप में प्रयुक्त किया है। जैसे "तफसील' "होश्यार' का हुसयार आदि। यथा स्थान कहावतों एवं मुहावरों के प्रयोग ने भाषा की शक्ति को परिवर्धित किया है-

१. "सहज सजीलौ सिंह तौ तिहि पर पख्खर जोर'।
२. "करी मीचनें कीचकी घीच नीची,
ह्मदै पैठकें बुध्ध की आंख मींची'।
३. "काल पूंछै मरोरै'।
४. "डगे पांव'।
५. "मनहिं कचाइकै'।

बुन्देली रासो काव्यों की भाषा प्राचीन रासो काव्यों की भाषा से प्रभावित है। यद्यपि पारीछत रायसा की भाषा विशुद्ध बुन्देली है तथापि कहीं-कहीं तड़क भड़क वाली, चमत्कार उपस्थित करने वाली शब्दावली का प्रयोग भी किया गया है। वर्णद्वित्व, अपभ्रंशाभासत्व संयुक्ताक्षर शेली एवंअनुस्वारांत पदावली का प्रयोग प्रचुरता के साथ किया गया है।

शब्दांत "इ' तथा "उ' को "अ' में परिवर्तित कर देना इस भाषा की अपनी विशेषता है। महाप्राण ध्वनियों में "ध', "ख' आदि को अल्पप्राण "द' , "क' आदि कर दिया जाता हैं। शब्दांत व्यंजन "ह' के बाद स्वर होने पर व्यंजन "ह' का लोप हो जाता है। जैसे "रहे' का "रए'। "रहौ' का "रऔ' आदि।

निम्नांकित उदाहरण में अनुस्वारान्त शब्दावली का स्वरुप देखा जा सकता है-

"६सज्जे पमारं सैगुआवारं अनी अन्यारं वीर वली।
सज्जे पड़हारं सूर जुझार धरभुजभारं रन अदली।। आदि''
उपर्युक्त उदाहरण में पमारं,, वारं , अन्यारं, पड़हारं, जुझारं तथा भारं अनुस्वारान्त शब्द हैं।

एक अन्य उदाहरण में वर्णद्वित्व युक्त शब्दावली का प्रयोग इस प्रकार है-

""करक्कहि डाढ़न भान कोल, सरक्करी सेसन बुल्हि बोल।
भरक्कह कूरम पंपिय भान, धरक्कहि दिग्गज सुष्षत जान।।''
ऐसी शब्दावली के प्रयोग से भाषा प्रवाह में बाधा उपस्थित हुई है।

"बाघाट रासौ' सीधी सादी वर्णनात्मक शैली में लिखा गया हैं। न तो कवि ने संयुक्ताक्षर शैली का प्रयोग कर भाषा को दुरुहता दीहै और न नादात्मक शैली के द्वारा शब्दाडम्बर ही उत्पन्न किया है। वस्तुओं और नामों की अस्वाभाविकता उत्पन्न करने वाली लम्बी-लम्बी सूचियाँ भी गिनाने के लिए कवि ने कहीं भी प्रयास नहीं किया है। अलंकारों आदि के द्वारा भाषा को चामत्कारिक भी नहींबनया गया। सूक्ष्म वर्णन के द्वारा धटनाओं को शीघ्रतापूर्वक जोड़कर कथानक को समाप्त कर दिया गया है।

"बुन्दली बोली कोमलता और मिठास के लिए प्रसिद्ध है। इसमें अधिकांश शब्द "ओकारान्त' तथा "औकारान्त' पाए जाते हैं। जैसे खड़ी बोली "का' का "कौ' रुप। बुन्देली में#ं अनुनासिकता पर भी अधिक बल दिया जाता है। हिन्दी में "म' व्यंजन स्वयं सानुनासिक है, पर बुन्देली प्रयोगों में "म' के ऊपर भी अनुस्वार लगाये जाने का प्रचलन है। जैसे-'दिमान' का दिमांन', "जगह' का "जांगा', "हनूमान' का हनूमांन', "अमान' का अमांन' आदि। 

बुन्देलखण्डी" कृ' को "क्र' रुप में लिखते हैं। "य' के स्थान पर "अ' तथा "व७ के स्थान पर "उ' का अधिकांश प्रयोग किया जाता है। जेसे "राउराजा' राव राजा, अली तरफ', राषिअ' आदि।

कवि ने विदेशी शब्दो को भीं तोड़-मरोड़ कर बुन्देलीकरण किया है। "हुक्म' का हुकुम', "जुर्रत का "जुरियत' आदि। कहीं-केहीं इन विदेशी शब्दों का स्वाभाविक रुप से "विभक्ति' का रुप दे दिया जाता है। जैसे "हुक्म को' का लघु रुप "हुकुमै', "दतिया७ का दतिअ' आदि बुन्देली बोली का "बन्धेज' शब्द प्रबन्ध, व्यवस्था या वन्दोवस्त का ही प्यारा मोहक रुप है।

यथास्थान मुहावरों और वक्रोक्तियों के प्रयोग से भाषा सरस, सशक्त और प्रांजल हो गई है। इस ग्रन्थ में बुन्देली गद्य का स्वरुप भी देखने को मिलता है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भाषा की दृष्टि से अन्य बुन्देली रासो काव्यों की अपेक्षा "बाघाइट कौ रायसौ' अध्काक समृद्ध है।
प्रधान कल्याणिंसह कूड़रा कृत "झाँसी कौ राइसो' बुन्देली बोली में लिखा गया है। बुन्देली स्वाभाविकता, सरसता, सरलता आदि गुणों से सम्पन्न तो है ही। कवि का भाषा पर असाधारण अधिकार दृष्टिगोचर होता है। घटनावली के संयोजन में कवि को पूर्ण सफलता मिली है। कहीं भी अनावश्यक शब्दों की तोड़-मरोड़ अथवा अनुचित प्रयोग नहीं किया गया है। उर्दू अंग्रेजी के व्यावहारिक शब्दों का बुन्देली रुप भी अपनी एक अलग विशेषता प्रदर्शित करता है। जैसे बख्शी का बगसी, फतह का मतै, हिस्सा का हिसा , सिपाही का सिपाई, जुल्म का जुलम, कौर्निश का कुन्नस, दोस्त का दोस, कोतवाल का कुतवाल, कचहरी का कचैरी, आदि उर्दू भाषा के शब्दों का बुनदेली संस्करण देखा जा सकता है। अंग्रेजी भाषा के व्यावहारिक शब्दजनरल का जर्नेल, एजेंन्ट का अर्जन्ट, राइफल का रफल्ल आदि इसी प्रकार के शब्द है। इसी प्रकार झाँसी कौ रासइसौ में कवि ने हिन्दी की बुन्देली बोली के साथ-साथ उर्दू व अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है।चमत्कार की सृष्टि करने वाले द्वित्व वर्ण युक्त शब्दों का प्रयोग न होने से भाषा के स्वाभाविक प्रवाह एवं अर्थ बोध में कहीं भी शिथिलता नहीं आने पायी है। कुछ वीर रस के वर्णनों में ओज उत्पन्न करने के लिए अवश्य अवर्ग युक्त शब्द प्रयुक्त हुए हैं।

ऐतिहासिक घटना प्रधान होने के कारण "झाँसी कौ राइसौ" में प्रमुख रुप से वर्णनात्मक शैली को अपनाया गया है। नामों और वसतुओं की लम्बी-लम्बी सूचियों का अभाव होने के कारण वर्णन अरुचिकर और नीरस होने से बच गए हैं। कवि ने सुयुक्ताक्षर शैली का भी प्रयोग नहीं किया है। छन्दों का शीघ्रतापूर्वक परिवर्तन होने से शैली में रोचकता आ गई है। युद्ध वर्णन एवं वीर रस के वर्णन में नादात्मकता अवश्य उत्पन्न हुई है। रायसे की कथा सूत्रता में नत्त्थे खाँ के साथ हुए युद्ध के पश्चात् कुछ शिथिलता आ गई लगती हैं। सम्भवतः उतना अंश पीछे से कवि ने कई टुकड़ों में लिखा हो। फिर भी यह स्पष्ट है कि कल्याणसिंह को भाषा एवं शैली की दृष्टि से पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है।
पं. "मदनेश' ने अपने रासो ग्रन्थ में अपने समय तक प्रचति परम्परायुक्त काव्य शेलियों का ही प्रयोग किया है। ऐतिहासिक इतिवृत्तात्मक कथानक को प्रमुख रुप से वर्णनात्मक शैली में व्यक्त किया गया है। कहीं-कहीं संवाद योजना भी की गई है। कुछ भागों में छन्दों में बारबार परिवर्तन करके शैली को रुचिर बनाने की चेष्टा की गई है।

संयुक्ताक्षर एवं नादात्मक शैली का कवि ने रासो ग्रन्थ के अष्टम भाग में अधिक प्रयोग किया है। इस शैली में टकार एवं डकार युक्त शब्दोंका अधिक प्रयोग हुआ है। इस धारा के अनेक कवियों ने वस्तुओं की लम्बी-लम्बी सूचियाँ गिनवाइर् हैं। "मनदेश' जी भी वस्तुओं की नाम सूची गिनवाने का लोभ संवरण नहीं कर सके। इन्होंने भी कई स्थानों पर आभूषणों, हथियारों एवं सरदारों तथा जातियों की नाम सूची का वर्णन किया है। एक दो स्थलों पर इन सूचियों ने काव्य में अस्वाभाविकता भी उपस्थित की है। शकुन एवं अपशकुन विचार का कवि ने कई स्थलों परविस्तृत वर्णन किया है। इस प्रकार के वर्णन भी काव्रू शैली को बोझिल बअनाने वाले हैं। मदनेश जी ने पृथ्वीराज रासो की छन्द शैली एवं रामचरित मानस का दोहा चौपाई का अनुसरण किया है तथा भाग चार एवं पाँ में आल्हा छन्द का प्रयोग कर आल्हा रायसा की शैली भी अपनाई है।

लक्ष्मीबाई रासो में शुद्ध बुन्देली बोली का प्रयोग किया गया है। यद्यपि इसके पूर्व के अनेक बुन्देली काव्य ग्रन्थ बृज भाषा काव्यों की कोटि में माने जाते रहे हैं तथापि यह अपने आपमें एक ऐसा गौरव ग्रन्थ है जिसमें विशुद्ध बुन्देली का अपनाया गया है। कवि ने न तो निरर्थक शब्दों के घआटोप की ही सृष्टि की है ओर न नावश्यक रुप से शब्दों को तोड़-मरोड़ कर ही रखा है। सरल शब्दावली के साथ-साथ सुसंस्कृत शब्द भी प्रया#ुक्त हुए हैं। बुन्देली के साथ उर्दू, फारसी आदि के शबदों को भी प्रसंगानुकूल स्थान दिया गया है। युग प्रभावेण कवि खड़ी बोली की चपेट में आ गया है। यथा "मुलक मैदान को पिदान फारडारा है।' का "फार डारा' शब्द खड़ी बोली "फाड़ डाला' का ही बुन्देली रुप है।

 

 

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