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ज्योतिष

विवेच्य रासो काव्यों में कतिपय स्थानों पर धार्मिक पूजा अनुष्ठान के अतिरिक्त ज्योतिष विचार तथा शकुन विचार भी देखने को मिलता है। रासो ग्रन्थों के आधार पर उपलब्ध विवरण निम्नानुसार दिया जा रहा है।

रासो काव्यों की प्राचीन परम्परा में चन्द वरदाई के पृथ्वीराज रासो में कई स्थलों पर ज्योतिष सम्बन्धी युक्तिसंगत वर्णन किये गये हैं, परन्तु परिमाल रासो के उपलबध अंश में इस प्रकार के वर्णन अप्राप्य ही है। ज्योतिष वर्णन की जो परम्परा चन्द ने पृथ्वीराज रासो से प्रारम्भ की वह न्यूनाधिक रुप में आधुनिक बुन्देली रा#ो #ं#्रथो तक चली आई। "रेवा तट समया' के एक उदाहरण में ज्योतिष वर्णन निम्न प्रकार किया गया है-

-"वर मंगल पंचमी दिन सु दीनों प्रिथि राजं,
राहकेतु जप दान दुष्ट टारै सुभ काजं।
अष्ट चक्र जोगिनी भोग भरनी सुधिरारी, गुरु पंचमि रावि पंचम अष्ट मंगल नृप भारी।
कै इन्द्र वुद्धि भारथ्थ भलकर त्रिशूल चक्रावलिय,
सुभ घरिय राज वरलीन वर चढ् उदै कूरह वलिय।।''

(श्रेष्ठ पंचमी मंगलवार को पृथ्वीराज ने युद्धारम्भ के लिए चुना। राहु और केतु उस दिन पृथ्वीराज के लिए अनुकूल हुए, क्योंकि दुष्टग्रह के हटने पर शुभ की सम्भावना होती है। अष्ट चक्र पर योगिनी स्थिर रहने से तलवार के लए शुभ के रुप मे थी। गुरु (बृहस्पति) और रवि पांचवे स्थान पर, इस प्रकार बड़े भारी अष्टम स्थान में मंगल ग्रह राजा को थे। केन्द्रीय स्थान पर बुध था जो हाथ में त्रिशुल चिऋ और मणिबन्ध में चक्र वाले के लिए शुभ था। ऐसी शुभ घड़ी में, क्रूर और बलवान ग्रह (सूर्य या मंगल) के उदय होने पर महाराज ने आक्रमण किया।)

""सो रचि उद्ध अबद्ध, अथ, उग्गिमहंबधि मंद;
वर निषेद नृप वन्दयौ, को न भाइ कवि चन्द।।''

(जब महान अबधि वाला मंद (शनि) ग्रह उदय हुआ तो पृथ्वीराज ने अपने हाथ नीचे से ऊपर उठाए (प्रणाम किया) और राजा ने अत्यन्त निषिद्ध 

(गृह) शनि की वन्दना की। च्नद कवि कहते हैं कि ऐसा किसे न भाएगा?

जोगीदास के दलपतिराव रायसा में ज्योतिष सम्बन्धी वर्णन नहीं किए गए हें। इसौ प्रकार "करहिया कौ राइसौ' एवं शत्रुजीत रायसामें भी इस प्रकार के वर्णन नहीं पाए जाते हैं।

'पारीछत रायसा' में श्रीधर ने ज्योतिष शास्र के आधार पर शकुन वर्णन निम्न प्रकार किया है। सेना प्रयाण तथा युद्ध के समय सरदारों के शुभ् शकुनों का इस प्रकार वर्णन किया है-

""तब दिमान सिकदार वरम मन्दिर पग धारे।
नकुल दरस मग भयौ रजक धोइ वस्र निहारे।""
तथा 
""श्री दिमान सिकदार देव ब्रह्मा जब परसे।
फरक दछ्छ भुज नैन मोद मन में अति सरसै।।
मन्दिर बाहिर आइ तहाँ दुजवर विवि दिष्पव।
कर पुस्तक गर माल तिलक मुनिवर सम पिष्ष्पव।।
तिन दई असीम प्रसन्न हुव सुफल होइ कारज्जा सब।
कीनि जु दण्डवत जोरकर मंगवाये हयराज तव।।""

उपर्युक्त छन्दों में नेवला का दर्शन, वस्र धोकर लाता हुआ धोबी, दाहिनी भुजा और नेत्र का फड़कना, मन्दिर के बाहर तिलक लगाये, पुस्तक लिए, माला धारण किए दो ब्राह्मणों का आना आदि शकुनों का वर्णन किया गया हे। श्रीधर ने एकस्थान पर लिखा है कि जो शकुन राम को लंका जाते समय और पृथ्वीराज को बृज जाते हुए घटित हुए थे वही दिमान सिकदार को भी हुए-

""राम लंक प्रथीराज कौं भए सगुन बृज जात।
श्री दिमान सिकदार कौं तेई सगुन दिषात।।''

एक उदाहरण देखने योगय हे-

"६सिरी चौंर गज ढाल पै, कंचन फूल अनूप।
रवि ससि सनगुर सौं भजै उपमा लगत अनूप।।''

अर्थात् छत्र, वंवर और हाथी की ढाल पर बने सोने के सुन्दर फूल से ऐसा सौंदर्य उपस्थित होता है जैसा कि रवि, शशि, शनि और गुरु (ब्रहस्पति) के संया#ेग से महाराज्य योग बनने पर होता है।

बाघाअ रासौ में ज्योतिष वर्णन नहीं पाया जाता है। कल्याण सिंह कुड़रा कृत "झाँसी कौ राइसौ' में झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई और टीकमगढ़ के दीवान नत्थे, खाँ तथा लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के साथ हुए युद्धों में ज्योतिष वर्णन अति न्यून रुप में केवल एकछन्द में देखा जाता है-

""चंद रवि राऊ केत आइ कें दबाई देत,
जानि कै निकेत ताइ पार देत बाहिरौ।
आगिम अकास अग्नि पृथ्वी पौन पानी में,
वेदन विदित जस जाकौ है जाहिरौ।।""

ज्योतिष, पूजा पाठ, ब्राह्मण कृत्यों आदि की झ्लक "मदनेश' कृत लक्ष्मीबाई रासों में कई स्थानों पर मिलती है। शकुन अपशकुन का वर्णन परम्परागत शैली में किया गया है। इस वर्णन पर रामचरित मानस की पूरी छाप है। जैसा कि कवि परिचय में परिचय दिया जा चुका है कि श्री मदनेश जी को ज्योतिष ज्ञान पूर्वजों से विरासत में मिला था एवं ज्योतिष की शिक्षा भी उन्होंने प्राप्त की थी, इस दृष्टि से कवि की रचनाओं पर ज्योति सम्बन्धी प्रभाव होना स्वाभाविक ही था। जहाँ लाभ की सम्भावना हुई वहाँ कवि ने शुभ शकुनों का वर्णन किया है एवं हानि के समय अपशकुनों का दर्शन कराया है।

नत्थे खाँ की सेना के ओरछा से झाँसी प्रस्थान के समय कवि ने अनेक अपशकुनों का वर्णन किया है सामने छींक होना, शृंगार का रासता काटकर निकल जाना आदि। इसके पश्चात् मार्ग में सागर को लूटकर जब पुनः नत्थे खाँ की सेना झाँसी की ओर अभिमुख होती है तो कवि ने फिर अपशकुनों की झड़ी लगा दी है। सामने छींक होना, शृंगाल का रास्ता काटना, हिरणी का बांयी ओर जाना, कौओं का चारों ओर शोर कना, कुत्ते का कान फड़फड़ाना, बिना स्नान किए हुए ब्राह्मण का मिलना, तरुणी विधवा का मिलना, साँप का रास्ता काटना, रोती हुई बुढिया, गाड़ी पर लदा हुआ रोगी, गिद्ध का उड़कर भुजा पर बैइना, खाली घड़े , दो लड़ते हुए बिलाव,पेड़ पर दो उल्लुओं का क्रीड़ा करना, गधे का आकर बोलना, हवा का भयंकर रुप से चलना, काना, जलती हुई लकड़ी, बेर फल खाता हुआ भिखारी,नंगी लड़की पुरुषों का बामांग फड़काना, ईंधन से भरी पड़ा गाड़ी, ध्वजा का वायु से फट जाना आदि अनेक अपशुनो की भीड़ लगा दी है।

इसके विरीत कवि ने अपनी काव्य नायिका रानी लक्ष्मीबाई के पक्ष के लिए शुभ शकुनों का वर्णन किया है जैसे रानी की बाम भुजा फड़कना, नीलकण्ड का दर्शन होना, पानी भर कर लाती हुई सुन्दर स्रियाँ, ब्राह्मणों का वेद पाठ, चील कागुर्ज पर बैठना, कन्याओं का खेलना, सुन्दर फलों को बेचने का दृश्य, धूपदीप नैवेद्य, गाय का बछड़ को दूध पिलाना, मंगल गान, सिर पर दूध का घड़ा लेकर आता हुआ पुरुष, शंख, झालक दुंदुभी का शब्द होना, मछली लेकर ढीमर का आना, धोबी का सिर पर वस्र रखे आना, रनानी की बायीं आँख फड़कना, तलवार की मूंठ से म्यान का न्धन अलग होना आदि।

कवि के द्वारा उपर्युक्त शुभ अशुभ शकुनो को प्रसंगानुकूल दुहराया भी गया। पर कहीं-कहीं ये निरे पिष्ट पेषण मात्र लगते हैं। शुभ अशुभ शकुनों की भरमार से कथानक की सरसता एवं प्रवाह में बाधा उत्पन्न हुई है। एक साथ ही कवि सभी प्रकार के शुभ-अशुभ शकुनों का दर्शन कराने का दर्शन कराने बैठ गया है, जिससे वर्णन में कृत्रिमता भी आ गई है।

 

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