बुंदेलखंड संस्कृति |
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मंदिरों के नाम |
शैव मंदिरों के नाम
कंदारिया महादेव का मंदिर यह विशाल मंदिर खजुराहो की वास्तुकला का आदर्श, अपने बाह्य आकार में ८४ समरस आकृति के छोटे- छोटे अंग तथा श्रंग शिखरों में जोड़कर बनाया, अनूठे उच्च शिखर से युक्त हे। मंदिर अपने अलंकरण एवं विशेष लय के कारण दर्शनीय है। मंदिर भव्य आकृति और अनुपातिक सुडौलता, उत्कृष्ट शिल्पसज्जा और वास्तु रचना के कारण मध्य भारतीय वास्तुकृतियों में श्रेष्ठ माना जाता है। मुख्य मंडप, मंडप और महामंडप के साथ- साथ इसका आधार योजना, रुप, ऊँचाई, उठाव, अलंकरण तथा आकार शास्रीय पद्धति का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसकी विशिष्टा यह भी है कि इसकी ऊँचाई की ओर जाते हुए उत्थान श्रंग अत्यंत प्रभावशाली प्रतीत होता है। खजुराहो का यह एक मात्र मंदिर है, जिसकी जगती के दोनों पार्श्वों? में और पीछे प्रक्षेपण है। इसकी जगती लगभग तीन मीटर ऊँची है। इसकी धराशिला ग्रेनाई पत्थर की है तथा इस पर रेतीले पत्थर की खार- शिलाएँ बनी हुई हैं। मंदिर भि कमल पूष्प की पत्तियों से सजे हैं तथा जालय, कुंभ और बाहर को निकली पट्टिकाएँ तमाल पत्रों से सजी हुई हैं। मंदिर ऊँचे अधिस्थान पर स्थापित है, जिसपर अनेक सुसज्जित मूर्तियाँ हैं। इन मूर्तियों में दो पंक्तियाँ, हाथियों, घोड़ों, योद्धाओं, शिकारियों, मदारियों, संगीतज्ञों, नर्तकों, और भक्तों की मूर्तियाँ आसीन है। मंदिर की तीन पट्टियों में देवी- देवताओं, सुर सुंदरियों, मिथुनों, व्यालों और नागिनों की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के भीतर दो मकर- तोरण है। अप्सराओं की प्रतिमाएँ सुंदरता के साथ अंकित की गयी है। यहाँ की सभी मूर्तियाँ लंबी हैं तथा आकृति में संतुलित प्रतीत होती है। यहाँ नारी के कटावों का सौंदर्य स्पष्ट दिखता है। तलच्छंद और ऊर्ध्वच्छंद के प्रत्येक अंगों की रचना और इसका अलंकरण अद्वितीय है। उर्ध्वच्छंद में सबसे अधिक लयबद्ध प्रक्षेपणों और रथिकाओं के सहित इसकी दांतेदार योजना उल्लेखनीय है। मंदिर का प्रवेश द्वार पंचायतन शैली का बना हुआ है। इस पर विषाणयुक्त और समुज्जवल देवताओं और संगीतज्ञों इत्यादि से अलंकृत तोरण तथा भव्य ज्यतोरण देखने योग्य हैं। अर्द्धमंडप और मंडप के उत्कीर्ण सघन हैं। परिक्रमा क्षेत्र में बाहरी भित्ती पर वृहदाकार मंच है। परिक्रमा के बाहर तथा मंदिर के बाहर का मंच बलिष्ट और गहन आकार में उठाया गया है। मंदिर का प्रत्येक भाग एक- दूसरे से जुड़ा हुआ है और पूर्व- पश्चिम दिशा की ओर इसका विस्तार है। छज्जों के रुप में वातायन बनाकर मंडप को महामंडप बनाया गया है। भीतर हवा जाने के लिए वातायन है और मंडप तीन ओर से खुले हैं। मंदिर की दीवारें पुख्ता हैं तथा छज्जायुक्त वातायन है, जो रोशनी जाने का साधन है। मूर्तियाँ छज्जे से ही शुरु हो जाती है। छज्जे और वातायन मूर्तियों पर रोशनी और परछाइयाँ पड़ती है। मंदिर का गर्भगृह सर्वोच्च स्थान पर है। वहाँ पहुँचने के लिए चंद्रशिलायुक्त सीढियों से ऊपर चढ़ना पड़ता है। सप्तरथ गर्भगृह के साथ ही शिखर के नीचे के वर्गाकार भाग को भी सात भाग दिये गए हैं। कंदिरिया मंदिर की जंघा पर मंडप और मुखमंडप के बाहरी भाग के कक्षासन्न पर राजसेना, वेदिका कलक, आसन्नपट्ट, कक्षासन्न है। मंदिर का छत कपोत भाग से शुरु होता है तथा व्रंदिका से छत को उठाता गया है। मंदिर के प्रत्येक मंडप की अलग- अलग छत है। सर्वाधिक ऊँचाईवाली छत गर्भगृह की है तथा इसका अंत सबसे ऊँचे शिखर पर हुआ है। यह शिखर चार उरु: शिखरों से सजाया गया है तथा असंख्य छोटे- छोटे श्रृंग भी बनाये गए हैं। इनमें कर्णश्रृंग तथा नष्टश्रृंग प्रकृति के श्रृंग हैं। मूलमंजरी के मुख्य आधार पर चतुरंग के रथ, नंदिका, प्रतिहार और कर्ण अंकित किये गए हैं। मंदिर के महामंडप की छत डोमाकार है, जिसे छोटे- छोटे तिलकों ( पिरामिड छतों ) से बनाया गया है। इससे ॠंग शैली स्पष्ट दिखाई देती है। प्रथम छत चार तिलकों से बनी है। साथ- ही तिलकों की चार अन्य पंक्तियाँ भी पिरामिड आकार में दिखाई देती हैं। उत्तर- दक्षिण की छत पर पाँच सिंहकरण, कुट- घंटा से उठ कर छत को सजाते हैं। यह छत पीठ और गृवा से युक्त है तथा इसको चंद्रिका, कलश और बीजपुंक से अलंकृत किया गया है। मुख्यमंडप चार भद्रक- स्तंभों पर बनाया गया है। इसका ऊपरी आधा भाग आसन्न प के ऊपर है तथा नीचे का आधा भाग आसन्नप के नीचे स्थित है। इस भाग को कमलों से सजाया गया है। मंडप से मंडप तक आने के लिए मकरतोरण है। मुख्य मकरतोरण से शिल्पशैली पूर्णतया मिलती है। गर्भगृह के दरवाजे पर चंद्रशिला की चार सीढियाँ हैं। दरवाजे पर नौ शाख हैं। इसका विवरण निम्नलिखित है :-
सभी रथिकाएँ उद्गमों से सुसज्जित है। दाहिनी शाख पर कमल- पत्र और बायीं ओर यमुना अंकित किया गया है। द्वार शिला की एक रथिका सरस्वती को अभय के साथ प्रदर्शित करती है। यहाँ सरस्वती चक्रदार कमल दंड और कमंडल भी धारण किये हुए हैं। स्तंभ शाखा के नीचे रथिका में शिव- पार्वती को बैठे दिखाया गया है और नाग रथिका के नीचे की रथिका, चार व्यक्तियों को आसीन किया गया है। भीतरी वितान में कमल पुष्प और कोनों में कीर्कित्त मुख प्रतिमाएँ हैं। रेतीले पत्थर की एक पीठिका पत्थर के शिवलिंग को सहारा देती दिखाई गई है। मंदिर का गर्भगृह चतुरंग है तथा ऊँचे अधिस्थान पर टिका हुआ है। उत्तर प पर हाथी, घोड़े, आदमी और विविध दृश्य मिथुन सहित अंकित है। यहाँ वेदीवंघ पर जंघा है, जिसपर दो पंक्तियों में मूर्तियाँ हैं। यहाँ देवता, अप्सराएँ, व्याल और मिथुन- युग्म अंकन सुंदरता के साथ किया गया है। कंदरिया महादेव मंदिर संधार प्रासाद में निर्मित है। इसमें एक शार्दूल सामने हैं और एक कोने में। इसकी पीठ की ऊँचाई काफी ज्यादा है। मंदिर का मुखपूर्व की ओर है। सीढियाँ चौड़ी हैं तथा मुखचतुष्कि तक जाती है। मुखचतुष्कि बंदनमालिका सुंदर है। विश्वनाथ का मंदिर खजुराहो प्रतिमाओं का प्रथम परिचय इसी मंदिर को देखने से मिलता है, क्योंकि सामने की ओर से आते हुए यह मंदिर पहले आता है। इस मंदिर में ६२० प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं का आकार २' से २', ६' तक ऊँचा है। मंदिर के भीतर की प्रतिमाएँ भव्यता एवं सुदरता का प्रतीक है। मंदिर की सुंदरता देखनेवालों को प्रभावित करती है। यहाँ की आमंत्रण देती अप्सराएँ मन मोह लेती है। कुछ प्रतिमाएँ मन्मथ- अति का शिकार हैं। प्रतिमाओं में मन्मथ गोपनीय है। कंदरिया मंदिर के पूर्ववर्ती के उपनाम से जाना जाने वालों इस मंदिर में दो उप मंदिर, उत्तर- पूर्वी दक्षिण मुखी तथा दक्षिण पश्चिमी पूर्वोन्मुखी है। इन दोनों उप मंदिरों पर भी पट्टिका पर मिथुन प्रतिमाएँ अंकित की गयी है। इन मंदिरों के भीतर ही अर्द्धमंडप, मंडप, अंतराल, गर्भगृह तथा प्रदक्षिणापथ निर्मित है। मंदिर के वितान तोरण तथा वातायण उत्कृष्ठ हैं। वृक्षिका मूलतः ७८ थी। जिसमें अब केवल नीचे की छः ही बच पायी है। पार्श्व अलिंदों की अप्सराओं का सौंदर्य अद्वितीय है। वह सभी प्रेम की पात्र हैं। त्रिभंग मुद्राओं में त्रिआयामी यौवन से भरपुर रसमयी अप्सराएँ अत्यंत उत्कृष्टता से अंकित की गयी है। इन प्रतिमाओं को देखकर ऐसा लगता है कि ये अप्सराएँ सारे विश्व की सुंदरियों को मुकाबला के लिए नियंत्रण दे रही है। कालिदास की शकुंतला से भी बढ़कर जीवंत और शोखी इन सुंदर प्रतिमाओं में दिखाई देती है। इनके पाँव की थिरकन, जैसे मानव कानों में प्रतिध्वनित हो रही हो, जैसे घुंघरों से कान हृदय में आनंद भर रहे हो। चपलता ऐसी कि बाहों में भरने को मन चाह उठे। मंदिर की ये प्रतिमाएँ देव- संयम और मानव धैर्य की परीक्षा लेती दिखती है। मंदिर के द्वार शाखों पर मिथुन जागृतावस्था में है। इनके जागृतावस्था एवं सुप्तावस्था में कोई अंतर ही नहीं दिखाई देता है। मानव क्या रात भी इस सौंदर्य की झलक मात्र से स्तब्ध है, क्योंकि यहाँ समाधि की अद्भूत स्थिति है। मंदिर की रथिकाओं की तीन पंक्तियाँ मूर्तिमयी होकर नाच रही है। सभी प्रतिमाएँ दृश्यमय हैं तथा मंच पर कलाकारों की तरह अपना- अपना अभिनय कर रही है और स्वयं ही दर्शक बन रही है। देवांगनाएँ मिथुन रुपों को देखकर, आधुनिक पेरिस की नारी मिस वर्ल्ड सुंदरी प्रतियोगिता का आभास होता है। विश्वनाथ मंदिर का स्थाप्य त्रयंग मंदिर प्रतिरथ और करणयुक्त है। प्रमुख नौ रथिकाएँ अधिष्ठान के उपरी बाह्य भाग पर अंकित है। सात रथिकाओं में गणेश की प्रतिमा दिखाई देती है। एक रथिका पर वीरभद्र विराजमान हैं। छोटी राथिकाओं पर मिथुन है। इनमें भ्रष्ट मिथुनों का अधिक्य पाया जाता है। मंदिर के उरु: श्रृंग की संख्या चार है तथा उपश्रृंग की संख्या सोलह है। मंडप की दीवार पर लगा अभिलेख चंदेल वंश के महान शासक धंग का है। इसमें संस्कृत में तैंतीस पंक्तियाँ हैं। यहाँ मंदिर में राजा धंग के समय से ही शिव मर्कटेश्वर प्राण प्रतिष्ठित हैं। मंदिर का अधिष्ठान उन्नत है। प्रमुख रथिकाओं पर चंद्रावलोकन है। इनमें सातदेव मातृ प्रतिमाएँ सुंदरता के साथ अंकित की गयी है। जंघा भाग कक्षासन्न युक्त है। आसन्न पट्टिका पुष्प चक्रों से सुसज्जित हैं। जंघा भाग पर तीन पालियों में प्रतिमाएँ अंकित की गई है। भूमि और श्रृंगों पर आम्लक, चंद्रिका तथा कलश अंकित किया गया है। अंतराल की छत छः मंजिला बनी हुई है। प्रत्येक मंजिलों रथिकाएँ हैं, जोकि उद्गम युक्त हैं। ऊपरी उद्गम पर शुकनासक है। महामण्डप पिरामिड प्रकृति की है, जो पंद्रह पीढ़ों से बनी है। इसके अतिरिक्त यहाँ उप- पिरामिड भी हैं। मुख पिरामिड सोलह पीढ़ों से बनी है। यह छोटा है और रथिकायुक्त है। मुखमंडप के भीतर भरणी टोड़ायुक्त है। आमलकों पर कीर्तिमुख है। मंडप के स्तंभ मुखमंडप के स्तंभों से मेल खाते हैं। शाल मंजिकाएँ तथा मिथुन प्रतिमाएँ, इस मंदिर की विशेषता है। मंडप के स्तंभ वर्द्यमानक प्रतिकृति के हैं। यहाँ की अप्सराएँ अपनी छटा बिखेरती हैं। कुल मिलाकर यह मंदिर अत्यंत महत्वपूर्ण मंदिर है और मिथुनों के लिए प्रसिद्ध है दुलादेव
का मंदिर इस मंदिर के पत्थरों पर "वसल' नामक कलाकार का नाम अंकित किया हुआ मिला है। मंदिर के वितान गोलाकार तथा स्तंभ अलंकृत हैं और नृत्य करती प्रतिमा एवं सुंदर एवं आकर्षिक हैं। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग योनि- वेदिका पर स्थापित किया गया है। मंदिर के बाहर मूर्तियाँ तीन पट्टियों पर अंकित की गई हैं। यहाँ हाथी, घोड़े, योद्धा और सामान्य जीवन के अनेकानेक दृश्य प्रस्तुत किये गए हैं। अप्सराओं को इस तरह व्यवस्थित किया गया है कि वे स्वतंत्र, स्वच्छंद एवं निर्बाध जीवन का प्रतीक मालूम पड़ती है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि अप्सरा टोड़ों में अप्साओं को दो- दो, तीन- तीन की टोली में दर्शाया गया है। मंदिर, मंण्डप, महामंडप तथा मुखमंडप युक्त है। मुखमंडप भाग में गणेश और वीरभद्र की प्रतिमाएँ अपनी रशिकाओं में इस प्रकार अंकित की गई है कि झांक रही दिखती है। यहाँ की विद्याधर और अप्सराएँ गतिशील हैं। परंतु सामान्यतः प्रतिमाओं पर अलंकरण का भार अधिक दिखाई देता है। प्रतिमाओं में से कुछ प्रतिमाओं की कलात्मकता दर्शनीय एवं सराहनीय है। अष्टवसु मगरमुखी है। यम तथा नॠत्ति की केश सज्जा परंपराओं से पृथक पंखाकार है। मंदिर की जगती ५' उँची है। जगती को सुंदर एवं दर्शनीय बनाया गया है। जंघा पर प्रतिमाओं की पंक्तियाँ स्थापित की गई हैं। प्रस्तर पर पत्रक सज्जा भी है। देवी- देवता, दिग्पाल तथा अप्सराएँ छज्जा पर मध्य पंक्ति देव तथा मानव युग्लों एवं मिथुन से सजाया गया है। भद्रों के छज्जों पर रथिकाएँ हैं। वहाँ देव प्रतिमाएँ हैं। दक्षिणी भद्र के कक्ष- कूट पर गुरु- शिष्य की प्रतिमा अंकित की गई है। शिखर सप्तरथ मूल मंजरी युक्त है। यह भूमि आम्लकों से सुसज्जित किया गया है। उरु: श्रृंगों में से दो सप्तरथ एक पंच रथ प्रकृति का है। शिखर के प्रतिरथों पर श्रृंग हैं, किनारे की नंदिकाओं पर दो- दो श्रृंग हैं तथा प्रत्येक करणरथ पर तीन- तीन श्रृंग हैं। श्रृंग सम आकार के हैं। अंतराल भाग का पूर्वी मुख का उग्रभाग सुरक्षित है। जिसपर नौं रथिकाएँ बनाई गई हैं, जिनपर नीचे से ऊपर की ओर उद्गमों की चार पंक्तियाँ हैं। आठ रथिकाओं पर शिव- पार्वती की प्रतिमाएँ अंकित की गई हैं। स्तंभ शाखा पर तीन रथिकाएँ हैं, जिनपर शिव प्रतिमाएँ अंकित की गई हैं, जो परंपरा के अनुसार ब्रह्मा और विष्णु से घिरी हैं। भूत- नायक प्रतिमा शिव प्रतिमाओं के नीचे हैं, जबकि विश्रांति भाग में नवग्रह प्रतिमाएँ खड़ी मुद्रा में हैं। इस स्तंभ शाखा पर जल देवियाँ त्रिभंगी मुद्राओं में है। मगर और कछुआ भी यहाँ सुंदर प्रकार से अंकित किया गया है। मुख प्रतिमाएँ गंगा- यमुना की प्रतीक मानी जाती है। शैव प्रतिहार प्रतिमाओं में एक प्रतिमा महाकाल भी है, जो खप्पर युक्त है। मंदिर के बाहरी भाग की रथिकाओं में दक्षिणी मुख पर नृत्य मुद्रा में छः भुजा युक्त भैरव, बारह भुजायुक्त शिव तथा एक अन्य रथिका में त्रिमुखी दश भुजायुक्त शिव प्रतिमा है। इसकी दीवार पर बारह भुजा युक्त नटराज, चतुर्भुज, हरिहर, उत्तरी मुख पर बारह भुजा युक्त शिव, अष्ट भुजायुक्त विष्णु, दश भुजा युक्त चौमुंडा, चतुर्भुज विष्णु गजेंद्रमोक्ष रुप में तथा शिव पार्वती युग्म मुद्रा में है। पश्चिमी मुख पर चतुर्भुज नग्न नॠति, वरुण के अतिरिकत वृषभमुखी वसु की दो प्रतिमाएँ हैं। उत्तरी मुख पर वायु की भग्न प्रतिमा के अतिरिक्त वृषभमुखी वसु की तीन तथा चतुर्भुज कुबेर एवं ईशान की एक- एक प्रतिमा अंकित की गई है। महादेव का मंदिर मांगतेश्वर का मंदिर त्रिरथ प्रकृति का यह मंदिर भद्र छज्जों वाला है। इसकी छत बहुमंजिली तथा पिरामिड आकार की है। इसकी कुर्सी इतनी ऊँची है कि अधिष्ठान तक आने के लिए अनेक सीढियां चढ़नी पड़ती है। मंदिर खार- पत्थर से बनाया गया है। भद्रों पर सुंदर रथिकाएँ हैं और उनके ऊपरी भाग पर उद्गम है। इसका कक्षासन्न भी बड़ा है। इसके अंदर देव प्रतिमाएँ भी कम संख्या में है। गर्भगृह सभाकक्ष में वतायन छज्जों से युक्त है। इसका कक्ष वर्गाकार है। मध्य बंध अत्यंत सादा, मगर विशेष है। इसकी ऊँचाई को सादी पट्टियों से तीन भागों में बांटा गया है। स्तंभों का ऊपरी भाग कहीं- कहीं बेलबूटों से सजाया गया है। वितान भीतर से गोलाकार है। यह एक मात्र मंदिर है, जिसका आकार लगातार पूजा- अर्चना सदियों से चली आ रही है। अतः इस मंदिर का धार्मिक महत्व अक्षुण्ण है। नंदी का मंदिर मंदिर में स्थापित नंदी प्रतिमा की घिसाई बहुत उत्तम है। नंदी की बैठक मुद्रा भव्य है। नंदी की पुँछ घुंघराली तथा सुंदर हैं। यह मूर्ति दिव्य रुप धारण किए हैं और शिव की वास्तविक वाहन लगती है। इसका अधिष्ठान भि और पीठयुक्त है। भि भाग खार- शिला निर्मित है। अधिष्ठान की पीठ जडया कुंभ, कर्णक, ग्रास पट्टिका तथा अंतरप से बनी है। पट्टिका पर हाथी व्यवस्थित ढ़ंग से अंकित की गई है। इसका कपोत रथिका युक्त है। जंघा का वेदिका भाग सादा एवं व्यवस्थित बनाया गया है। छज्जे की छत का रुप धारण करते हुए चंद्रिका, आम्लक, कलश, विजयपुर्कर पाँच पीढियों पर स्थित है। मंदिर के चारों ओर रथिकाएँ बनी हुई है। केंद्रीय रथिका को उद्गमयुक्त बनाया गया है। मंदिर के गज तालुओं को नागरिकों से सजाया गया है। लाल गुआंन महादेव का मंदिर लालगुआं तालाब के किनारे स्थित होने के कारण, इसको लोग लालगुआं मंदिर कहते हैं। शिल्प कला एवं इतिहास की दृष्टि से यह पुरातन मंदिर है। मंदिर के अधिष्ठान को परंपरागत भि जड्याकुंभ, पट्टिका, मंडोवर, अंतरपट्ट, कलश तथा कपोत से सजाया गया है। मंदिर का जंघा भाग और भीतरी भाग सादा एवं वर्गाकार है। इसके अंतर्भाग में कणाश्म से निर्मित, बारह सादे कुड्य- स्तंभ है। इन्हीं स्तंभों पर वितान पूर्वी प्रक्षेपण में प्रवेश द्वार है और पश्चिम की ओर एक अन्य छोटा द्वार है। पार्श्व के अन्य दो प्रक्षेपणों में पत्थर की मोटी तथा अनलंकृत जालीदार वातायन निर्मित है। प्रवेशद्वार के सिरदल में त्रिदेव :- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, की स्थूल मूर्तियाँ स्थापित है और द्वार स्तंभ में एक- एक अनुचर सहित गंगा और यमुना का अंकन किया गया है। मंदिर का प्रवेशद्वार सादा बनाया गया है। इसमें न तो कोई प्रतिमा है और न ही इसका अलंकरण किया गया है।
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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र
Content prepared by Mr. Ajay Kumar
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