खजुराहो के मंदिर, चंदेल राजाओं के समय ९५०- १०५० ई. के बीच बनाये गए। वे निर्माण कला के सुरुचि- संपन्न ललित अभिव्यक्ति है। पत्थर का बना हुआ एक चबुतरा है। यह नींव की मंजिल है और काफी ऊँची है। इसपर गर्भगृह, अंतराल, मंडप तथा अर्धमंडप है। कुछ मंदिरों में मंडप के दोनों ओर महामंडप है। कुछ मंदिरों में मंडल के दोनों ओर महामंडप है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। वास्तुकला की मुख्य विशेषता शिखर है। इन शिखरों पर छोटे- छोटे शिखर संलग्न हैं। इन्हें "उरुश्रृंग' कहते हैं। यह छोटे आकार के मंदिर के ही प्रतिरुप हैं। इन उरुश्रृंगों ने मंदिर की बाह्यकृति को और भी सुंदर बना दिया है। शिखर के शीर्ष भाग पर अमृतघाट और आमलक है। वास्तुकला की दृष्टि से इस मंदिर की विशेषता यह है कि मंदिर के सभी अंग भली- भांति समन्वित हैं। गर्भगृह, मंडप, अर्धमंडप इत्यादि मंदिर के सभी अंश इमारत के अविच्छिन्न अंग दिखलाई देते हैं। शिखर और उरुश्रृंगों सहित यह मंदिर एक पर्वत की भांति प्रतीत होता है।
खजुराहो मंदिरों का न केवल तलच्छंद, अपितु ऊर्ध्वच्छंद भी विलक्षण है। मंदिर की ऊँचाई वृद्धि हेतु प्रत्येक मंदिर प्रायः १२ फीट ऊँची जगती पर निर्मित है, जिसपर पहुँचने के लिए एक या दो दिशा में सोपान पथ है। उर्ध्वच्छंद में समस्त मंदिर चार भागों में विभक्त है। जगती के ऊपर सर्वप्रथम मंदिर का अधिष्ठान भाग निर्मित है, जो प्रायः घटपल्लव नरपीठ, अश्वपीठ तथा राजपीठ में विभक्त है। यह सभी अलंकरण पंक्तिबद्ध होकर संपूर्ण मंदिर को एक माला के सदृश घेरे हैं। इस प्रकार धूप- छांव की भी सुंदर व्यवस्था हो गई है। अधिष्ठान के ऊपर का भाग गर्भगृह या परिक्रमा आदि मंदिर के आंतरिक भागों की बाहरी दीवारें हैं, जिनमें कक्षासन या गवाक्ष है। इनमें अत्यंत मनोहम तथा चित्ताकर्षक मूर्तियों की दो या तीन अलंकरण पट्टियाँ हैं। इनके अतिरिक्त अधिष्ठान वृहद एवं लघु रथिकाएँ निर्मित है, जिनमें देव मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। अधिष्ठान के उर्ध्व भाग से मंदिर का जंघा भाग, प्रारंभ होता है। निरंधार मंदिरों में महामण्डप के जंघा भाग में तथा संधार मंदिरों के महामण्डप तथा गर्भगृह के जंघा भाग क्रमशः दो एवं तीन कक्षासन अथवा गवाक्ष निर्मित है।
इन गवाक्षों के कारण जंघा भाग में प्रकाश पहुँचता है तथा मंदिर की क्रास आकृति का रुप अधिक प्रखर हो गया है। जंघा के ऊपर कण्ठी भाग की सीधी भित्ति शिखर का रुप धारण करने के लिए कोण का निर्माण करती है।
देवयातन का सर्वोच्च अंग इसका शिखर भाग है, जो स्तूत की हर्मिका सदृश देवता का निवास स्थल है। प्रा.म. के अनुसार शिखर के उच्चतम भाग अमलसार में देवता का वास होता है, जिसके दर्शन मात्र से ईष्ट के दर्शन का फल प्राप्त होता है। खजुराहो मंदिरों के विभिन्न अंगों पर पृथक- पृथक शिखर है, जो अब मण्डप से प्रारंभ होकर, पर्वतमाला के श्रृंगों के समान उत्तरोत्तर ऊंचे उठते जाते है तथा इनकी परिणति गर्भगृह के उत्तुंग शिखर में होती है। यही कारण है कि शिखर की उपमा मेरु अथवा कैलाश से दी जाती है। गर्भगृह तथा महामण्डप के मध्य अंतराल भाग
के ऊपर शुकनासिका सदृश शिखर से उभरा भाग निर्मित है, जो इसी संज्ञा से अभिहित किया जाता है। गर्भगृह के मूल शिखर के उच्चतम भाग पर वृहदाकार आमलक शिला, चंद्रिका, लघु आमलक, कलश बीजपुरक तथा सर्वोच्च स्थान पर संप्रदायनुसार त्रिशुल अथवा चक्र निर्मित है। प्रधान शिखर के साथ, इन समस्त अंग शिखरों का पूँजीभूत समूह एक विलक्षण स्वरुप धारण कर लेता है, जो मध्य प्रदेश में नागर शैलीय वैशिष्टय बन जाती है।
मंदिर के अंतर्भाग की सादी और प्रभावकारी आयोजना में द्वार मार्गों, स्तंभों, कड़ियों और वितानों को प्रचूर सज्जा और मूर्ति संपदा विस्मय की है। मंदिरों के वितान की कल्पना और उसकी अभिव्यक्ति अपूर्व कुशलता से ही गई है। छत के तल भाग में दिलहेदार वितान के जटिल ज्यामितीय और फुलकारी अभिप्रयायों के निर्माण से प्रवीन शिल्पियों का असाधारण हस्तकौशल ज्ञात होता है।
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