बुँदेलखण्ड के लोगों का प्रिय भोजन महुआ और बेर माना जाता है। ये दोनों वृक्ष इस जनपद के लोकप्रिय वृक्ष हैं। स्थानीय भोजन में महुआ को मेवा, बेर को कलेवा ( नास्ता ) और गुलचुल का सर्वोत्तम मिष्ठान का गौरव मिला था, जैसा कि इस पंक्ति से स्पष्ट होता है :-
मउआ मेवा बेर कलेवा गुलचुल बड़ी मिठाई।
इतनी चीजें चाहो तो गुड़ाने करो सगाई।।
"लटा' जोकि भूने हुए मछुओं को कुट कर उनमें गरी, चिरौंजी आदि मेवा मिला कर छोटी- छोटी कुचैया की तरह बनाया जाता है, इस जनपद का विशिष्ट भोज्य रहा है। स्थानीय लोग बाहर से आने वाले मेहमानों के लिए इसी "लटा' को परोसते थे। यहाँ के लोगों की एक कहावत अधिक प्रचलित हैं कि :-
""खानें को मउआ, पैरबै में अमोआ'' इस बात का संकेत देती है कि स्थानीय लोगों में मउआ और अमोआ दोनों काफी लोकप्रिय था। भोजन के संबंध में अनेक लोकमान्यताएँ प्रचलित हैं:-
चैत मीठी चीमरी बैसाख मीठो मठा
जेठ मीठी डोबरी असाढ़ मीठे लठा।
सावन मीठी खीर- खँड़ यादों भुजें चना,
क्वाँर मीठी कोकरी ल्याब कोरी टोर के।
कातिक मीठी कूदई दही डारो मारे कों।
अगहन खाव जूनरी मुरी नीबू जोर कें।
पूस मीठी खिचरी गुर डारो फोर कों।
मोंव मीठी मीठे पोड़ा बेर फागुन होरा बालें।
समै- समै की मीठी चीजें सुगर खबैया खावें।
बुँदेलखण्ड वासियों में अलग- अलग मौसम में अलग भोजन खाने का प्रचलन था। ये लोग भोजन खाने में कभी- कभी काफी सावधानी से काम लेते हैं। इनके यहाँ बेर का बहुत ही महत्व था। ये लोग भोजन खाने से पहले बेर अवश्य खाते थे। मुखें बेर, अघाने पोंड़ा। यहाँ के लोगों का मानना था कि कच्चे चावल की नोक भाले की नोक के बराबर हानिकारक होती है :-
"चावर की कनी उर भाला की अनी।'
लोगों को भोजन का प्रभाव लोकसंस्कृति पर दिखाई देता था। इसलिए उनलोगों का मानना था कि जैसा भोजन किया जाएगा, वैसा ही मन होगा
:
जैसो अनजल खाइये, तैसोई मन होये।
जैसो पानी पीजिए, तैसी बानी होय।।
उपर्युक्त लोकमान्यताओं से प्रमाणित होता है कि प्रत्येक काल में भोजन का महत्व अपनी जगह आप रहा है।
विभिन्न कालों में भोजन
बुँदेलखण्ड में पुलिंद, निषाद, शबर, रामठ, दोंगी कोल तथा भील जातियों निवास करती थी। स्थानीय भोजन पर इन जातियों का प्रभाव अधिक दिखाई देता है।
प्रागैतिहासिक काल
भोजन - पेय पदार्थ
इस काल के लोक प्रचलन में इस अंचल का नाम "गुड़ाना' था। यह नाम गोंडों जाति से प्रभावित है। इस विशेष जाति ने यहाँ की लोकसंस्कृति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। गोंड़ लोग जंगली फल, फूल, पत्ते, कंदमूल, महुआ, अचार, तेंदू, भेलवाँ, केवला खाते थे। बाद में इस जाति ने जंगली पशुओं और पंछियों का मांस भी खाना प्रारंभ कर दिया था और यह उनका प्रिय भोज्य बन गया था। महुए से निकाली हुई शराब उनका मुख्य पेय थी।
दूसरी प्रमुख जातियाँ, पुलिंद और शबर थी। इनका भोज्य मधु और माँस था। इनका भी प्रमुख पेय शराब ही था। जंगली फल- फूल बीनकर उन्हें खाना तथा सुखाकर रखना उनकी दिनचर्या में शामिल था। महुए का आसव या चुआया हुआ मद्य उनके हर घर में हर समय मिल जाता था।
वस्राभरण
इन जातियों का इस काल में वेश बिल्कुल सादा था। पहले वे नग्न ही रहते थे। बाद में
वृक्षों की छाल, लंगोटी लगाते थे। फिर कपड़े की लंगोटी से अपने शरीर को ढकने लगे।
महाभारत काल
भोजन - पेय पदार्थ
बुँदेलखण्ड की वन्य- संस्कृति में एक विशेष परिवर्तन तब आया, जब आर्यों की आश्रमी संस्कृति ने यहाँ प्रवेश किया। भोजन- पेय की सामग्री और उनके प्रयोग के ढ़ंग में भी एक क्राँतिकारी परिवर्तन आया। महाभारत काल में लोगों में शाकाहारी भोजन अधिक प्रचलित हो गया था। चावल की बनी बहुत - सी भोज्य पदार्थ विभिन्न प्रकार की चटनी, मधुर पेयों का प्रचलन अधिक था। इसके अतिरिक्त दूध, दही, मक्खन, घी जैसे शक्तिवर्धक पदार्थ भी अपनी- अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रयोग किये जाते थे। लोग जिसका अन्न खाते थे, उसपर हथियार नहीं चलाते थे। बड़े भोग देने वालों का समाज में सम्मान था।
वस्राभरण
इस काल में जनपद के लोगों का वस्र और पहनावा सादा था। पुरुष एक उत्तरीय वस्र से शरीर को लपेटता था। इसके अतिरिक्त दूसरा अधोवस्र कटि में बाँधने के लिए प्रयोग किया जाता था। दोनों प्रकार के कपड़े बिना सिले सूती या रेशमी होते थे। सिर पर कई प्रकार की सफेद और रंगीन पगड़ियों का प्रयोग करते थे। स्री अधोवस्र को साड़ी की तरह और उत्तरीय वस्र को ओढ़नी की तरह पहनती थी। सोने और चाँदी के आभूषणों का प्रयोग स्री- पुरुष दोनों करते थे।
जनपद काल
भोजन - पेय पदार्थ
जनपद काल में बुँदेलखण्ड की संस्कृति में अनार्य और आर्य संस्कारों का समन्वय हो चुका था। इस कारण यहाँ वैदिक युग के भोज्य प्रचलित होने लगे थे। "पुआं' और "भात' उच्च वर्ग में प्रिय बन गया था। लोगों में सत्तु का भी प्रचलन भी इसी समय हुआ। अमरस और शकरकंद प्रयुक्त किया जाने लगा था। लोगों में गन्ना, फल और तरकारियाँ आदि उत्पन्न करने का प्रचलन शुरु हो गया था। भोजन में स्वच्छता और छुआछूत का ध्यान रखा जाता था। उच्च जातियों के लोग निम्न वर्ग के साथ भोजन नहीं करते थे।
वस्रावरण
इस काल में लोग धोती, दुपट्टा और पगड़ी का प्रयोग करते थे। उच्च वर्ग के स्री एवं पुरुष कंचुक का भी प्रयोग करते थे। इस काल में भी आदिवासियों में लंगोटी का ही प्रचलन था।
आदिवासियों की स्रियां उत्तरीय नहीं पहनती थी, जबकि उच्च वर्ग की स्रियों में साड़ी का प्रचलन हो गया था। विशेष वर्ग के लोग, विशेष अवसरों पर रंगीन वस्र या रेशमी कपड़े और सोने- चाँदी के आभूषण धारण करते थे। यहाँ के लोगों में ऊन के कंबल शीत ॠतु में प्रयोग करने का प्रचलन हो गया था। साँची में प्राप्त एक आकृति से स्पष्ट होता है कि लोगों में जूते का प्रयोग भी आरंभ हो चुका था। इस समय का वृश्चिककालिक आकार का जूता आज भी बुँदेलखण्ड में प्रचलित है।
लकड़ी की खड़ाऊँ का भी प्रयोग किया जाता था। गाँव के लोग इसे शोक से आज भी पहनते हैं।
मौर्य- शुंग काल
भोजन - पेय पदार्थ
महाभारत काल में यादवों की संस्कृति ने दूध और दूध से बनी मक्खन, घी, दही, छांछ जैसी पौष्टिक वस्तुओं को प्रधानता दी थी, जो इस काल में भी मान्य रही। इस जनपद में वनों की अधिकता थी। इस कारण शहद, जंगली फल, कंद आदि भी भोज्य पदार्थ बने रहे। मैदानों में उच्च वर्ग के लोगों का भोजन चावल और गेहूँ पर निर्भर था, किंतु मध्यम वर्ग, जो ज्वार आदि का प्रयोग करते थे, उत्सवों या सामूहिक आनंद के अवसरों पर मधुरस या महुए की मदिरा का पान सभी लोग किया करते थे। इस काल में बौद्ध धर्म द्वार प्रचारित अहिंसा के बावजूद मांस- भक्षण बना रहा। भागवत- धर्म के प्रसार ने सात्विक आहार पर बल दिया था, जिसके कारण विभिन्न फलों के रस, औषधियों और पुष्पों से बने पेय प्रयुक्त होने लगे थे।
वस्रावरण
मौर्य- शुंग काल में यहाँ के पुरुष घुटनों तक लटकती धोती, बटी हुई रस्सियों से बना कमरबंद, एड़ियों तक लटकता पटका, कंधों पर दुपट्टा और सिर पर पगड़ी या साफा पहना करते थे। उच्च वर्ग में रंगीन कपड़े और कामदार पगड़ियाँ प्रचलित थी। रेशम, क्षोम और कपास के कपड़े सभी लोग ( उच्च वर्ग ) पहनते थे। स्रियाँ घुटनों तक साड़ी या धोती, करधनी और कमरबंद बाँधती थी। शरीर का ऊपरी भाग प्रायः नग्न ही रहता था। कभी- कभी इनमें मलमल की चादर की संकेत रेखाएँ उत्कीर्ण होती थी। स्रियों के सिर पर कामदार ओढ़नी सुशोभित हुआ करती थी। उच्च वर्ग की स्रियाँ रंगीन तथा रेशू के वस्र पहना करती थी, जबकि मध्यम वर्ग की प्रायः सूती। तत्कालीन विधवाएँ वर्तमान की तरह ही श्वेत वस्र धारण करती थीं। साधु कौपीन और चादर पहनते थे।
नाग- वाकाटक काल
भोजन - पेय पदार्थ
नाग ने इस अचल पर तीन सौ सालों तक और वकाटक ने ढ़ाई सौ वर्षों तक राज किया। इसी युग में, गुप्त नरेशों का भी इस अंचल पर अधिकार रहा, इसलिए यह साढ़े पाँच सौ साल बुँदेलखण्ड के इतिहास में महत्वपूर्ण हैं। इस काल का महत्व भोज्य- पेय और वस्रावरण की दृष्टि से भी अधिक है। इस समय सभी पाँचों प्रकार के आहार- पेय- भक्ष्य, भोज्य, लेहय, चोष्य और पेय
सरलता से उपलब्ध थे। गेहूँ और जौ की रोटी, कई प्रकार के चावल, गुड़- घी से बने आटे के लड्डू, उच्च वर्ग के खाद्य- पदार्थ थे। दूध, दही- शहद, मक्खन और घी काफी मात्रा में प्रयोग किये जाते थे। "फाहयान' के अनुसार समूचे अंचल में जीवों का मारना, सुरा पीना और प्याज- लहसुन खाना अनजाना था। हालांकि यह तथ्य सही नहीं है। इस अंचल में वन्य जातियाँ जंगली फल और मांस खाती थीं। इसके साथ ही निम्न जातियाँ और विशेष अवसरों पर सामंती वर्ग भी मांस का प्रयोग करते थे। महुए से बना "पुष्पांसव' इस अंचल का विशिष्ट पेय माना जाता था। यहाँ भोजन के बाद ताम्बुल खाने का चलन प्रत्येक वर्ग में था।
वस्राभरण
बेसनगर और पवाया में प्राप्त मूर्तियों से इस युग के वस्राभरणों का पता चलता है। इस काल में पुरुष सिर पर पगड़ी, कंधों और भुजाओं पर उत्तरीय और नीचे कटि में करधनी का प्रयोग किया करते थे। अंगोछा और बंडी का भी प्रचलन मिलता है। स्रियाँ साड़ी का प्रयोग किया करती थी। इस समय चोली या स्तनांशुक का प्रयोग प्रारंभ हो चुका था। साड़ी के साथ- साथ नीवबंध से बंधा हुआ घाघरा भी प्रचलन में आ गया था। घाघरे का प्रचलन वर्तमान में देखा जा सकता है। यहाँ की नवविवाहिताएँ रेशमी वस्र धारण करती थीं। सीले वस्रों, कंचुक और जाँघिया का प्रमाण भी प्राप्त होता है। इस युग की विशेषता विदेशी परिधान का पाया जाना भी है।
चंदेल काल
भोजन - पेय पदार्थ
चंदेल काल बुँदेलखण्ड की समृद्धि और सुख का प्रतीक माना जाता है। यहाँ के आहार में भी इस समृद्धि का प्रभाव देखने को मिलता है। सरोवरों की जगह- जगह मौजूदगी ने कृषि और इसकी ऊपज ने इस अंचल को भर दिया था। गेहूँ, चावल, जौ आदि से निर्मित पकवान, पशुओं से प्राप्त दूध, दही, घी, मक्खन और उनसे बने मिष्ठान, बनोंपल से प्राप्त फल- कंद, जलाशयों से प्राप्त कमलकड़ी, कमलगट्टे, सिंघाड़े आदि गन्ना- ईख से बना रब, गुड़, शक्कर और उनसे बने रसिले व्यंजन तथा अनेक प्रकार की सब्जियों, भोजन- पेय को पौष्टिक एवं शक्तिप्रदायक बनाने में समर्थ थी। जैन और बौद्ध धर्मों द्वारा मांस- भक्षण पर नियंत्रण से, शाकाहार को काफी बढ़ावा मिला था। गाय और नंदी की पूजा तथा कृषि में उसकी उपयोगिता के कारण, इसका मांस बिलकुल वर्जित था। दूसरे पशुओं का मांस- भक्षण कुछ जातियों और कुछ विशेष अवसरों पर किया जाता था। सुरा- पान भी वर्जित था, किंतु वन्य जातियों, शुद्रों और क्षत्रियों में इसका प्रचलन था। सामान्य क्षत्रिय और सामंत मद्य- पान करते थे।
वस्राभरण
महोबा में प्राप्त सिंहनाद, अवलोकितेश्वर से प्रतीत होता है कि पुरुष अधोभाग में घुटना और ऊर्ध्वभाग में अंशुक धारण करते थे। इसके अतिरिक्त लहरियादार धोती का भी प्रचलन देखने को मिलता है, जिसे स्थानीय लोग कुचीताला कहते हैं। इस काल में पायजामें का प्रचलन शुरु हो चुका था। धोती, अंगोछा और दुपट्टा के साथ कूर्पासक का भी प्रयोग होता था। बुँदेलखण्ड के लोगों में पगड़ी प्रतिष्ठा का प्रतीक निरंतर बनी रही।
स्रियाँ अंगिया, चोली और फतुही जैसे वस्र, ऊर्ध्वभाग में धारण करती थी। स्रियों के कूर्पासक पूरी और आधी बाहों के सामने से खुलने वाले होते थे। उनके अधोवस्र लहरियादार और चुन्नटवाली लंबे जाँघिया जैसे पैरों से सटी धोती या साड़ी होती थी, जो आज की देहाती दोकछयाऊ धोतियों से मिलती- जुलती है। पुरातत्ववेत्ता बेगलर ने चार प्रकार के अधोवस्रों का उल्लेख किया है:-
-- पेटीकोट, जिसकी गाँठ सामने की ओर होती थी। उसमें बेलबूटे भी बने होते थे। उनका कपड़ा महीन होता था।
-- लंबा कपड़ा साड़ी के रुप में प्रयुक्त होता था।
-- जाँघ के नीचे तक आने वाली धोती जैसी महीन साड़ी, जिसकी ग्रंथी पीछे लगती थी।
-- टखनों तक लटकने वाला छोटा महीन वस्र।
पेटीकोट वस्तुतः लहंगा है, जो इस अंचल में अधिक प्रचलित रहा है। स्वच्छ धोती या लहंगे के बाद ही लहंगे की खोज हुई थी।
आल्हा गाथा में नौलखा हार की कथा- सी है, जिससे ज्ञात होता है कि हार गले का सर्वप्रिय आभूषण था।
तोमर काल
तोमर काल में बुँदेलखण्ड का रुप निश्चित हो गया था। उसमें छः पेय और अठारह भक्ष्य हुआ करते थे। बरा- बरीं, लपसी, कसार, सेव- लड्डू, मोतीचूर के लड्डू, घेवर (मैदा, घी, चीनी से बनी एक मिठाई), बाबर, पूड़ी, खाजे, फेनी, गुझा दहोंरी, बढ़ई, (उर्द की दाल, चावल और आटे से बना पकवान), मोड़े, रोटी, कढ़ी, पकौढ़ी, समोसा, पेराका, पछयावा (दही का मधुर पेय, जो भोजन के अंत में लिया जाता है), सिखिसि, मठा, बासोंधी (खोवा, दूध आदि मिश्रित कर सुगंधित दूध का पेय), अनेक प्रकार का दूध, आम, इमली का पनौ (आम, इमली के गूदे को घोलकर बनाया गया मीठा या नमकीन पेय) सामान्यतः प्रचलित थे। इनमें बहुत से ऐसे हैं, जो वर्तमान तक प्रयोग में लाए जाते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि समोसा उस समय भी प्रचलन
में था। भोजन के बाद ताम्बुल का प्रयोग किया जाता था।
पद्मावती- रास एवं महाभारत में पाट- पाटम्बर और पाट- पटौर कहकर, सूती- रेशमी सभी तरह के परिधान का संकेत मिलता है।
दिये साहि निरमोलक चीरा।
पाटम्बर खीरोदक खीरा।।
कुसुंभ रंग के वस्र बहुत लोकप्रिय थे। छुपछांही कपड़ा बनता था। सारी, कंचुकी, अँगिया, चोली, ओढ़नी और टोपीवाला परिधान नारियों का था। टोपी की जगह पुरुष टोपा पहनते थे, लेकिन पगड़ी या पग ज्यादा प्रचलित थी। अंगरखा और धोती पुरुषों का पहनावा था। यहाँ टोपा और टोपी का प्रचलन विदेश से आया था। स्रियाँ पवित्र अवसरों पर लहंगा पहना करती थी। डा. मोती चंद ने इसे बुँदेलखण्ड का विशिष्ट वस्र बताया है। यह कहा जाता है कि लहंगों, नुगरों और चोली इस जनपद का जनपदीय परिधान रहा है।
तोमर काल में मेंहदी लगाने का प्रचलन हो चुका था। महाभारत में कस्तुरी, कुमकुम, अगरु, सिरीखंड, कपूर, सिंदूर और केश- प्रसाधन का उल्लेख मिलता है।
बुंदेल काल
भोज्य - पेय
इस समय लोग भात, दाल, कढ़ी, बरा- मगौरा, पापर, कोंच काचरिया, बिजौरौ, खाँड़, घी, मांड़े, मिर्च का चूर्ण और आम का अचार जैसी वस्तुओं का अपने भोजन में प्रयोग किया करते थे। पक्की रसोई में पूड़ी, कचौड़ी, पपरिया, खाजे, तिरकारी, मालपुआ, लडुआ, मोहनभोग, खीर, खुरमी- खुरमा, पुआ, पूरी, चटनी आदि पकवान होते थे। इस काल के लोग रायता का उपयोग करते थे। रायता के साथ- साथ खँड़, कलेवा, गर्म जलेबी और दूध या दूध का लड्डू तथा ब्यारी परोसा जाता था। रात के भोजन के पश्चात दूध का पेय अवश्य दिया जाता था। गाँव में महुआ से बने मुरका, लटा, डुबरी और भुने चने से बना सत्तु तथा बेर से बना बिरचुन जैसी वस्तुएँ लोग चाव से खाया करते थे। महेरी, लपसी, मीड़ा, घेंघुर, खींच आदि भी लोकप्रिय भोजन रहे हैं।
वस्रावरण
इस काल के लोग पीली झँगुलिया, किंकिनी, हार और नुपूर पहने थे। महाकवि हरिराम व्यास ने अपने एक पद में नील कंचुकी, लाल, तरोटा और तनसुख की झुमक साड़ी का उल्लेख है, जो नारी के परिधान हैं। तनसुख तत्कालीन विशेष वस्र है, जिसका अर्थ है, तन को सुख देने वाला। १८वीं सदी के परिधान में जरकसी पाग के साथ तुर्रा का उल्लेख मिलता है। पुरुष कटि में पीले पट के साथ लाल कछनी पहनते थे। स्री के वस्रों में कसौनी नया है, जो स्तनों को कसनें के लिए उपयोग में लाया जाता था। १९ वीं सदी में "सूतना' नामक परिधान जनसामान्य का होने लगा था, हालांकि इससे पहले इसे सिर्फ सैनिक ही पहनते थे। सैनिक धोती की जगह पर सूतना पहन कर जाते थे। इस काल में एक विशेष प्रकार का वस्र, चोल का प्रचलन होने लगा था। गाँव के लोगों के परिधानों में परदेनिया, सारी, लहँगा, नुगरों, रेजा, अंगिया, चोली, पोलिका, चुनरिया, पैछौरा आदि स्रियों में प्रमुख वस्र थे। पुरुषों में पचरंग पाग, झामा- कुर्ती, अंगरखा, बंडी, बंडा, साफा, झोला, सुजनी प्रमुख थे।
आभूषणों में निम्नलिखित गाँव में अधिक प्रचलित थे, जैसे टिकुली, छुटा, बिचौली, सुतिया हमेल, ककना, दौरी, पुंगरिया, दूर, कनफूल, छापें- छाल, गजरा, चुरियाँ, करधोनी, पैजना,
बिछिया, श्रृंगार प्रसाधनों में सिंदूर, टिपकिया, पटियाँ, अंजन, कजरा, मेंहदी, महावर और गुदना लोकप्रिय थे।
पुनरुत्थान काल
भोजन - पेय
इस काल का भोजन- पेय मध्ययुग जैसा था। इसमें मिष्ठानों की विविधता अधिक बढ़ गई थी।
वस्रावरण
इस काल की वेश- भूषा पर मुसलमानों की वेशभूषा का प्रभाव दिखाई देता है। इस काल की नारियों के वेशभूषा में दुशाल जुड़ गया था। पुरुषों में फतूरी, अंगरखा, मिरजई और पगड़ी का रिवाज था। कंधे या सिर पर अँगोछा डालने या बाँधते थे। नगरीय क्षेत्रों में अंग्रेजों का काफी प्रभाव वस्रावरण पर पड़ने लगा था, लेकिन गाँव इस प्रभाव से बहुत दूर था।
इस काल में ॠतुओं के आधार भोजन में तो कम, वस्रो में अधिक बदलाव हुआ था। शीत में ऊन, रुई और प्याँर का प्रयोग किया जाने लगा था। इस पर एक दोहा प्रसिद्ध है
:-
""जाड़ो ठाँड़ो खेत में, भर- भर लेत उसासे''
""मेरे बैरी तीन हैं, कंबल प्याँर कपास''
पगड़ी की जगह गोल टोपी या दुपलिया ने लिया था। बगलबंदी की जगह पर कुर्ता का प्रचलन आरंभ हो चुका था। शहरी क्षेत्रों में लोग पायजामा और नेकर पहनने लगे थे। गाँव में परदनी का
महत्व बना ही रहा। इस काल में पैगना, अनोटा, बिछिया, बाली का उपयोग स्रियों के द्वारा होने लगा था।
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