छत्तीसगढ़

Chhattisgarh


कोदूराम दलित

कोदूराम दलित का जन्म सन् 1910 में जिला दुर्ग के टिकरी गांव में हुआ था।

गांधीवादी कोदूराम प्राइमरी स्कूल के मास्टर थे उनकी रचनायें करीब 800 (आठ सौ) है पर ज्यादातर अप्रकाशित हैं। कवि सम्मेलन में कोदूराम जी अपनी हास्य व्यंग्य रचनाएँ सुनाकर सबको बेहद हँसाते थे। उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियों का प्रयोग बड़े स्वाभाविक और सुन्दर तरीके से हुआ करता था। उनकी रचनायें - 1. सियानी गोठ 2. कनवा समधी 3. अलहन 4. दू मितान 5. हमर देस 6. कृष्ण जन्म 7. बाल निबंध 8. कथा कहानी 9. छत्तीसगढ़ी शब्द भंडार अउ लोकोक्ति।

उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ का गांव का जीवन बड़ा सुन्दर झलकता है - चऊ मास

(1)

घाम-दिन गइस, आइस बरखा के दिन

सनन-सनन चले पवन लहरिया।

छाये रथ अकास-मां, चारों खूंट धुंवा साही

बरखा के बादर निच्चट भिम्म करिया।।

चमकय बिजली, गरजे घन घेरी-बेरी

बससे मूसर-धार पानी छर छरिया।

भर गें खाई-खोधरा, कुंवा डोली-डांगर "औ"

टिप टिप ले भरगे-नदी, नरवा, तरिया।।

(2)

गीले होगे मांटी, चिखला बनिस धुरी हर,

बपुरी बसुधा के बुताइस पियास हर।

हरियागे भुइयां सुग्धर मखेलमलसाही,

जामिस हे बन, उल्होइस कांदी-घास हर।।

जोहत रहिन गंज दिन ले जेकर बांट,

खेतिहर-मन के पूरन होगे आस हर।

सुरुज लजा के झांके बपुरा-ह-कभू-कभू,

"रस-बरसइया आइस चउमास हर"।।

(3)

ढोलक बजायैं, मस्त होके आल्हा गाय रोज,

इहां-उहां कतको गंवइया-सहरिया,

रुख तरी जायें, झुला झूलैं सुख पायं अड,

कजरी-मल्हार खुब सुनाय सुन्दरिया।।

नांगर चलायं खेत जा-जाके किसान-मन,

बोवयं धान-कोदो, गावैं करमा ददरिया।

कभू नहीं ओढ़े छाता, उन झड़ी झांकर मां,

कोन्हो ओढ़े बोरा, कोन्हों कमरा-खुमरिया।।

(4)

बाढिन गजब मांछी, बत्तर-कीरा "ओ" फांफा,

झिंगरुवा, किरवा, गेंगरुवा, अँसोढिया।

पानी-मां मउज करें-मेचका, किंभदोल, धोंधी।

केंकरा, केंछुवा, जोंक मछरी अउ ढोंड़िया।।

अंधियारी रतिहा मां अड़बड़ निकलयं,

बड़ बिखहर बिच्छी, सांप-चरगोरिया।

कनखजूरा-पताड़ा, सतबूंदिया "ओ" गोेहेह,

मुंह लेड़ी, धूर, नांग, कंरायत कौड़ीया।।

(5)

भाजी टोरे बर खेत-खार "औ" बियारा जाये,

नान-नान टूरा-टूरी मन घर-घर के।

केनी, मुसकेनी, गुंड़रु, चरोटा, पथरिया,

मंछरिया भाजी लायं ओली भर भर के।।

मछरी मारे ला जायं ढीमर-केंवट मन,

तरिया "औ" नदिया मां फांदा धर-धर के।

खोखसी, पढ़ीना, टेंगना, कोतरी, बाम्बी धरे,

ढूंटी-मां भरत जायं साफ कर-कर के।।

(6)

धान-कोदी, राहेर, जुवारी-जोंधरी कपसा

तिली, सन-वन बोए जाथे इही ॠतु-मां।

बतर-बियासी अउ निंदई-कोड़ई कर,

बनिहार मन बनी पाथें इही ॠतु मां।।

हरेली, नाग पंचमी, राखी, आठे, तीजा-पोरा

गनेस-बिहार, सब आथें इही ॠतु मां।

गाय-गोरु मन धरसा-मां जाके हरियर,

हरियर चारा बने खायें इही ॠतु मां।।

(7)

देखे के लाइक रथे जाके तो देखो चिटिक,

बारी-बखरी ला सोनकर को मरार के।

जरी, खोटनी, अमारी, चेंच, चउंलई भाजी,

बोये हवें डूंहडू ला सुग्धर सुधार के।।

मांदा मां बोये हे भांटा, रमकेरिया, मुरई,

चुटचुटिया, मिरची खातू-डार-डार के।

करेला, तरोई, खीरा, सेमी बरबटी अउ,

ढेंखरा गड़े हवंय कुम्हड़ा केनार के।।

(8)

कभू केउ दिन-ले तोपाये रथे बादर-ह,

कभू केउ दिन-ले-झड़ी-ह हरि जाथे जी।

सहे नहीं जाय, धुंका-पानी के बिकट मार,

जाड़ लगे, गोरसी के सुखा-ह-आथेजी।।

ये बेरा में भूंजे जना, बटुरा औ बांचे होरा,

बने बने चीज-बस खाये बर भाथें जी।

इन्दर धनुष के केतक के बखान करौ,

सतरङ्ग अकास के शोभा ला बढ़ाये जी।

(9)

ककरों चुहय छानी, भीतिया गिरे ककरो,

ककरो गिरे झोपड़ी कुरिया मकान हर,

सींड़ आय, भुइयां-भीतिया-मन ओद्य होयं,

छानी-ह टूटे ककरो टूटे दूकान हर।।

सरलग पानी आय-बीज सड़ जाय-अड,

तिपौ अघात तो भताय बोये धान हर,

बइहा पूरा हर बिनास करै खेती-पबारी,

जिये कोन किसिम-में बपुरा किसान हर?

(10)

बिछलाहा भुइयां के रेंगई-ला पूंछो झन,

कोन्हों मन बिछलथें, कोन्हों मन गरिथें।

मउसम बहलिस, नवा-जुन्ना पानी पीके,

जूड़-सरदी के मारे कोन्हों मन मरथें।।

कोन्हों मांछी-मारथे, कोन्हों मन खेदारथें तो,

कोन्हों धुंकी धररा के नावे सुन डरथें।

कोन्हों-कोन्हों मन मनमेन मैं ये गुनथे के

"येसो के पानी - ह देखो काय-काय करथें"।।

(11)

घर घर रखिया, तूमा, डोड़का, कुम्हड़ा के,

जम्मो नार-बोंवार-ला छानी-मां, चढ़ाये जी।

धरमी-चोला-पीपर, बर, गलती "औ",

आमा, अमली, लोम के बिखा लगायै जी।।

फुलवारी मन ला सदासोहागी झांई-झूई,

किंरगी-चिंगी गोंदा पचरंगा-मां सजायं जी।

नदिया "औ" नरवा मां पूरा जहं आइस के,

डोंगहार डोंगा-मां चधा के नहकायं जी।।

(12)

सहकारी खेती में ही सब के भलाई हवै,

अब हम सहकारिता - मां खेती करबो।

लांघन-भूखन नीरहन देन कंहूच-ला,

अन्न उपजाके बीता भर पेट भरबो।।

भजब अकन पेड़ - पउधा लगाबो हम,

पेड़-कटई के पाप करे बर उरबो।

देभा-ला बनाओ मिल-जुल के सुग्धर हम,

देश बर जीबो अउ देश बर मरबो।।

श्यामलाल चतुर्वेदी

श्यामलाल चतुर्वेदी का जन्म सन् 1926 में कोटमी गांव, जिला बिलासपुर में हुआ था, वे छत्तीसगढ़ी के गीतकार भी हैं। उनकी रचनाओं में "बेटी के बिदा" बहुत ही जाने माने हैं। उनको बेटी को बिदा के कवि के रुप में लोग ज्यादा जानते हैं। उनकी दूसरी रचनायें हैं - "पर्रा भर लाई", "भोलवा भोलाराम बनिस", "राम बनबास" ।

वे पत्रकारिता भी करते हैं। "विप्रजी" से उन्हें बहुत प्रेरणा मिली थी। और बचपन में अपनी मां के कारण भी उन्हें लिखने में रुची हुई। उनकी मां नें बचपन में ही उन्हें सुन्दरलाल शर्मा के "दानलीला" रटा दिये थे। उनका कहना है कि छत्तीसगढ़ी साहित्य के मूल, छत्तीसगढ़ की मिट्टी, वहाँ के लोकगीत, लोक साहित्य। उनकी "जब आइस बादर करिया" जमीन से जुड़ी हुई है -

जब आइस बादर करिया

तपिस बहुत दू महिना तउन सुरुज मुंह तोपिस फरिया।

रंग ढंग ला देख समे के, पवन जुड़ाथे तिपथे।

जाड़ के दिन म सुर्श हो आंसू ओगार मुंह लिपाथे।

कुहूक के महिना सांझ होय, आगी उगलय मनमाना

तउने फुरहूर-सुधर चलिस, बनके सोझुआ अनजाना,

राम भेंट के संवरिन बुढिया कस मुस्क्याइस तरिया,

जब आइस बादर करिया

जमो देंव्ह के नुनछुर पानी

बाला सोंत सुखोगे।

थारी देख नानकुन लइका

कस पिरथिबे भुखोगे।

मेंघराज के पुरुत के

उझलत देइन गुढ़बा

"हा ददा बांचगे जीव"

कहिन सब डउकी लइकन बुढ़बो

"नइ देखेन हम कभू ऐसो कस,

कुहूक न पुरखा परिया"

जब आइस बादर करिया

रात कहै अब कोन दिनो मा

सपटे हय अंधियारी

सूपा सही रितोवय बादर

अलमल एक्केदारी

सुरुज दरस के कहितिन कोनो

बात कहाँ अब पाहा।

'हाय हाय' के हवा गईस

गूंजिस अब "ही ही" "हा हा"

खेत खार मा जगा जगा

सरसेत सुनाय ददरिया

जब आइस बादर करिया

का किसान के मुख कइहा,

बेटवा बिहाव होय जइसे।

दौड़ धूप सरजाम सकेलंय,

कास लगिन होय अइसे।।

नागंर नहना बिजहा बइला

जोंता अरइ तुतारी।

कांवर टुकना जोर करय

धरती बिहाव केत्यरी।।

बर कस बिजहा छांट पछिंनय

डोला जेकर काँवर।

गोद ददरिया भोजली के गावै मिल जोड़ी जाँवर।।

झेगुंरा धरिस सितार किंभदोलवा मिरदंग मस्त बजावै।

बादर ठोंक निसान बिजुलिया छुरछुरिया चमकावै।

राग पाग सब माढ़ गइस हे जमगे जम्मो धरिया।।

जब आइस बादर करिया

हरियर लुगरा धरती रानी

पहिर झमक ले आइसे।

घेरी भेरा छिन छिन आंतर मां

तरबतर नहाइस।।

कुँड़ के चऊँक पुराइस ऐसी

नेंग न लगे किसानिन

कुच्छु पुछिहा बुता के मारे

कहिथें "हम का जानिन"।।

खाली हांथ अकाम खड़े अब कहाँ एको झन पाहा?

फरिका तारा लगे देखिहा,

जेकेर धर तूं जाहा।

हो गये हे बनिहार दुलभ सब

खोजंय खूब सफरिया

जब आइस बादर करिया।।

पहरी मन सो जाके अइसे

बादर घिसलय खेलय

जइसे कोइलारी के पोनी

जा गोहनाय ढपेलय

मुचमुचही के दांत सही बिजली चमकच अनचेतहा

जगम ले आंखी बरय मुंदावै, करय झड़ी सरसेत हा।।

तब गरीब के कुलकुत मातय,

छानही तर तर रोवय।

का आंसू झन खगे समझ के

अघुवा अबड़ रितोवय।।

अतको म मन मारै ओहर

लोरस नावा समे के

अपन दुक्ख के सुरता कहाँ

भला हो जाय जमेके।।

सुख के गीद सुनावै

"तरि नरि ना, मोरिना, अरि आ",

जब आइस बादर करिया।

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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee 

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