छत्तीसगढ़ |
Chhattisgarh |
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भक्ति युग - मध्य काल (सन् 1500 से 1900 ई. तक) |
छत्तीसगढ़ में इस मध्य काल मे राजनीतिक बदलाओं घटने के कारण शान्ति का वातावरण नहीं रहा। इस मध्यकाल मे बाहर से राजाओं ने छत्तीसगढ़ पर आक्रमण की थी। सन् 15 36 में सम्भवत रतनपुर के राजा बाहरेन्द्र के काल में मुसलमान राजाओं का आक्रमण हुआ था। इस युद्ध में राजा बाहरेन्द्र की जीत हुई थी। पर इस आक्रमण के कारण एक डर बहुत सालों तक बना रहा। और इसीलिये इस काल में जो गाथा रची गई थी, उसमें वीरता की भाव संचित है। इसके अलावा इस युग में और एक धारा धार्मिक और सामाजिक गीतों की है। ये रही दूसरी धारा और तीसरी धारा में हम पाते है स्फुट रचनाओं जिसमें अने भावनाएँ संचित है।मध्ययुग की धार्मिक एवं सामाजिक गीत धारा मध्ययुग की वीर गाथाएँ इस युग में जो गाथाएँ प्रमुख है, वे है फूँलकुवंर की गाथा, कल्यानसाय की गाथा इसके अलावा है " गोपाल्ला गीत" " रायसिंध के पँवारा" " देवी गाथा" " ढोलामारु" " नगेसर कइना" जो लधु गाथाएँ है। इन्हीं गाथाओं के समान है " लोरिक चंदनी" " सरवन गीत" " बोघरु गीत" फूँलकुँवरकी गाथा में फूल कूँवर को राजा जगत की पुत्री बताया गया है। इसके बारे में अध्येेताओं का ये कहना है कि इतिहास में इस बात का कोई सबूत नहीं मिला। फुलकुँवर रानी झांसी जैसे वीर थी। इस गाथा में ये कहा जाता है कि राजा जगत से मुगलों ने राज्य की मांग की। राजा जगत बड़े चिन्तित हो उठते है। पिता को चिंतित देख पुत्री फूलकुँवर जब बार-बार पूछती है कि क्यों वे चिन्तित है, राजा जगत उसे सब कुछ बताते है। ये सुनकर फूलकुँवर युद्ध करने के लिए तैयारी करती है और युद्ध में मुगलों को परास्त करती है। इस गाथा में फूँलकुवर का मुगलों से किये गये युद्ध का वर्णन है। फूँलकुवर वीरांगना के रुप मे पेश हुई है। गाथा इस प्रकार है -
कल्यानसाय की गाथा में कल्यानसाय की वीरता को दर्शाया गया है। कल्यानसाय थे रतनपुर के सम्राट बाहारेन्द्र के पुत्र। यह गाथा इतिहास से जुड़ी हुई है। राजा कल्यानसाय मुगल सम्राट जहाँगीर के समकालीन थे। सन् 1544 की बात है। उस वक्त रतनपुर स्वतंत्र था। कल्यानसाय का राज्यकाल लगभग सन् 1544 से सन् 1581 तक कहा जाता है। जाहांगीर ने उन्हें दिल्ली में आमन्त्रित की कल्यानसाय को आठ वर्षो तक दिल्ली में रहना पड़ा था। कल्यानसाय की माता भवानामति ने उन्हे दिल्ली नहीं जाने के लिए कही थी। उन्हें डर था कि वे धर्म परिवर्तन करेंगे। देवार गीत में मा की शंका का वर्णन इस प्रकार है -
डंडा गीत तथा देवार गीतों में कल्यानसाय की वीरता के बारे में वर्णन है। कल्यानसाय के साथ गोपालराय भी दिल्ली गये थे और अपनी असाधारण शक्ति से जहांगीर को जीत लिए थे। " गोपाल्ला गीत" उन्हीं के बारे में है। गोपालराय भीम के अवतार माने जाते है। " रायसिंध के पँवारा" में छत्तीसगढ़ के उस समय के शासक के बारे में है। छत्तीसगढ़ के शासक सम्बलपुर की ओर यात्रा करते थे, और उस अभियान के दौड़ान जो धटनायें धटती थी, उसका चित्रण इस पँवारा में है। " देवी गाथा" में बहुत से ऐतिहासिक चरित्रों का जिक्र है जिसमें अकबर का चरित्र बड़े अच्छे से उभरते है। इसमें अकबर को देवी के पुजारी के रुप में दर्शाया गया है। दयाशंकर शुक्ल अपनी पुस्तक " छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य का अध्ययन" (पृ 111 ) में कहते है- " यह भावात्मक ऐक्य बहुत कुछ अकबर की उदार नीति तथा निर्गुण मतावलम्बी सन्तों के हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयासों के परिणाम स्वरुप उत्पन्न हुआ है।" " सरवन गाथा" है श्रवण कुमार के बारे में। श्रवण कुमार की भक्ति के बारे में। श्रवण कुमार की कहानी रामायन से जुड़ी हुई है। माता पिता के प्रति उनका अपार श्रद्धा, त्याग की भावना, ये है इस गाथा का विषय। दृष्टिहीन माता पिता जब तीर्थ यात्रा के लिए जाना चाहते, श्रवण कुमार किस तरह उन्हें अपने कंधों में लेकर यात्रा करते है और किस तरह दशरथ के वाण से श्रवण कुमार की मृत्यु हो जाती है। " ढोलामारु" की कहानी जो भारतवर्ष के अन्य स्थानों में प्रचलित है, वह इस गाथा में संचित है। ढोला तथा मारु की कहानी -ढोला है इस गाथा का नायक, और नायिका है मारु।
मध्ययुग की धार्मिक एवं सामाजिक गीत धारा मध्ययुग की धार्मिक एवं सामाजिक गीत धारा का आरम्भ कबीर से जुड़ी हुई है। हम इस युग में देखते है कि जो आंचलिक सम्प्रदायों कबीर से प्रभावित थीं, एवं जो पंथो कबीर प्रभावित थे, उन्ही के कारण इस युग की धार्मिक एवं सामाजिक गीत धारी बनी। अगर इस युग की जनपदीय संस्कृति की उत्तोलन हुई तो वह इन दोनो पंथो के योगदान के कारण ही हुई। कबीरदास के शिष्यों की प्रेरणा से ही दोनो पंथो का निर्माण सम्भव हुआ। एक और बात बहुत ही महत्वपूर्ण है और वह है छत्तीसगढ़ी साहित्य का प्रथम लिपिबद्धता। यह कबीरपन्थ के योगदान के कारण ही हुआ है।
सन्त धरमदास का जन्म कसोदा गाव में हुआ था। उनके माता पिता वैश्य थे। डा. मृनालिका ओझा धरमदास के बारे में कह रही है - सन्त धरमदास ने कंबर्धा में कबीर पंथ का आरम्भ किया था। बहुत लोगों का ये कहना है कि वह जगह पहले कबीरधाम के नाम से जाने जाते थे। बाद मे कबीरधाम कंबर्धा में बदल गया। सन्त धरमदास की वाणी में बहुत विनम्रता है। उनमें कबीर की भाव को हम अनुभव कर सकते है। प्यारेलाल गुप्त, अपनी पुस्तक " प्राचिन छत्तीसगढ़" (पृ 326 ) में कहा है - " सन्त धरमदास में कबीर की आत्मानुभूति, ईश्वरीय विरह तथा परमतत्व के साक्षात्कर से उत्पन्न आत्मोत्फुल्लता के भावों का अग्रिम विकास हुआ है। इनके अतिरिक्त उनके गीत उच्चकोटि का काव्यात्मक उदगारों से भी सम्पृक्त हैं। यदि हम विविध गाथाओं के रचियता जवकवियों को छोड़ दे, तो सन्त धरमदास ही छत्तीसगढ़ी के प्रथम कृती कवि सिद्ध होतो हैं।" सन्त धरमदास दूसरे भक्त कवियों के तरह ईश्वर साक्षात्कार के अभिलाषी है।
सन्त धरमदास की वाणी में हम वही भावना महसुस करते है जो कबीरदास में हम अनुभव करते है - अपनी आत्मा को ईश्वर के प्रेमी के रुप में व्यक्त करना -
सन्त धरमदास अपनी वाणी में ईश्वर साक्षात्कर के बारे में बड़े सुन्दरता से लिखते है -
प्यारेलाल गुप्त जी का कहना है - " सन्त धरमदास छत्तीसगढ़ के वे प्रथम कवि हैं जिन्होने लोकगीतों की सहज-सरल शैली में निगूढ़तम दार्शनिक भावनाओं की अभिव्यक्ति की ओर छत्तीसगढ़ भाषा की शक्तियों को आत्मसात करते हुए उच्चतर मानवीय भावों के संवहन के योग्य बनाया। किन्तु उनकी यह उदात्त परम्परा आगे विकसित नहीं हो पायी। यद्यपि सतनाम पंथ के अंतर्गत भी कतिपय काव्य रचनाएँ विशेष रुप से प्रचलित रही हैं तथापि यह पंथ संत धरमदास के समान पुष्पकाल मात्रा में काव्य सृजन करने वाला समर्थ व्यक्तित्व दान नहीं कर सका।" प्राचीन छत्तीसगढ़ (पृ 328 ) छत्तीसगढ़ में एक बहुत लोकप्रिय प्रसिद्ध कवि हुये - धनी धरमदास, धनी धरमदास जी जो थे, वे बाद में कबीर के शिष्य भी हुये थे, इसीलिये उनका बहुत नाम है यहाँ पर। और उन्होंने छत्तीसगढ़ी में रचना की। धरमदास जी का जन्म संवत 1472 में कार्तिक महीने में, पुर्णिमा की तिथि में हुआ था। वाधवगढ़ में कसौधा में, एक वैष्य परिवार में इनका जन्म हुआ था। इनके पिताजी का नाम था मनमहेश और माता का नाम था सुधर्मावती। धनी धरमदास जी के बचपन का नाम भी अलग है - जुड़ावन जुड़ावन का अर्थ होता है जो मन को ठंडा करे, शान्ति दे। बाद में उनका विवाह आमिन नाम की स्री से हुआ था। कबीरदास जी के वे शिष्य हुये और उन्होंने बहुत सारे रचनायें लिखी छत्तीसगढ़ी में उनकी रचनाओं में कबीरदास जी की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। धरमदास जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण काम ये किया कि कबीर दास जी ने तो कभी कलम कागज छुआ नहीं - धरमदास जी जो है, उनकी साहित्य को, जो केवल मौखिक रुप में उपलब्ध था, उसे संग्रहित किया है और उसे लिखने का प्रयास किया है - ये भी उन्होंने एक बड़ काम किया। वह लोक जीवन के दुख दर्द को समझते थे। और सामन्ती शक्तियाँ जो उनपर हावी थी, जिसकी वजह से उनका विकास रुका हुआ था लोक जीवन का उसके लिये उन्होंने कार्य किया ये सबसे बड़ी बात है। और सामन्तवादी शक्तियों को उन्होंने हमेशा उसके विरोध में काम किया। उसको खण्डित करने का प्रया किया। लोक जीवन को उभारने का प्रयास किया। सामाजिक असमानता और विसंगितिया जितनी थी और पाखंड थे, उन सबको वे समाज के सामने रखने का प्रयास किया, उसके विरोध में बहुत भयानक शाब्दिक, शब्दों में उन्हें आन्दोलन किया। और वैचारिक आन्दोलन किया। जनता के सामने लाने का प्रयास किया इस दृष्टि से कहा जाये तो उनका विद्रोह का जो झंडा था, सामन्तवाद के खिलाफ और लोक जीवन के पक्ष में, वह आजतक छत्तीसगढ़ में लहरा रहा है। लोग उनको मानते है लेकिन उनको प्रशस्ति नहीं मिल पाई जितनी कबीरजी को मिली। क्योंकि वे क्षेत्रिय वित्त में ही ज्यादा व्यापक हुये छत्तीसगढ़ में उनका बहुत नाम है। उन्होंने छुआछुत, मूर्तिपूजा और बहुदेवादिदेव जैसे हम तैतीस करोड़ देवता जो मानते है वे इन सबके विरोध में थे। और एक ही ईश्वर है। इस पर विश्वास करते थे। अंधविश्वास और रीतियों का उन्हें खुद विरोध किया है इनकी रचनाओं में मिलता है उसका उल्लेख स्वामी रामानन्द के शिष्य थे कबीर, उनका जो अद्वेैत वाद था वह था था ही इनमें और ठेठ शब्दो का जो प्रयोग करते थे कबीरदास जी, ठेठ शब्दों का प्रयोग वे नहीं करते थे लोक में जो शब्द प्रचलित है, सामान्य शब्द जिनको हम कहते है लोग जो है शील का ध्यान रखते हुये शब्दों का प्रयोग करता है। उस ढ़ग से उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया। ये भी उनकी विशेषता है। इन्होंने छत्तीसगढ़ के लोगों के साथ आत्मीय सम्बन्ध जोड़ा, उनके दर्द को समझा और उसे अपने रचनाओं में उन्होंने स्थान दिया और लोगों में एकता कायम करने के लिये खूब काम किया है। इनका मानना था कि जो रचनायें लिखी जाती है जो संस्कृत में है, वही श्रेष्ठ है ऐसा नहीं है। आम जीवन में जो कुछ कहा जाता है। बोला जाता है, लोक साहित्य, उसमें भी बहुत श्रेष्ठता है। तुलसीदासी जी ने अवधि भाषा में काम किया। सूरदास जी, मीरा ने ब्रज भाषा में काम किया। वैसे लोक भाषाओं में जो काम किया गया, जो रचनायें रची गई। उन्होंने भी काफी नाम यश और ख्याति प्राप्त की। वस्तुत देखा जाये तो लोक जीवन में तो उसे ही ज्यादा ग्रहण किया तुलसी मीरा सूर को सभी ने ग्रहण किया। इसीलिये धनी धरमदास जी ने छत्तीसगढ़ी मे रचलायें लिखी। बुद्धिजीवियों के बीच जो एक अहंकार था। अपने शिष्ट साहित्य का, उस अहंकार को उन्होंने तोड़ा है। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने तोड़ा है। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने काम किया कहि कहि ये कोसाली भाषा के नाम से जाता है। महाकोशल था उसमें दो भाग था दक्षिण कोशल है छत्तीसगढ़ वैसे कहते है कि कौशल्या जी का जन्म स्थान भी छत्तीसगढ़ है। यहाँ मन्दिर भी है छत्तीस गढ़ में कौशल्या माता का। धरमदास जी ने छत्तीसगढ़ी में खुब कविता की है। उनका जो स्वभाव था, कही कुछ संकोच नहीं था। बहुत ज्यादा ठेठ शब्दों का प्रयोग करके किसी के भी मन दुखाने की प्रवृत्ति उनमें नहीं थी। शब्दों का ललित्य उनके रचनाओं में मिलेगा। छत्तीसगढ़ी में बहुत अच्छा लगता है उनके रचनायें कम पड़े लिखें है, ऐसा नही लगता उनकी रचनाओं में जब हम देखते है तो पाँच सौ वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ी भाषा का क्या स्वरुप था और उस समय किस तरह के शब्द प्रचलित थे, और उनमें से कितने शब्द विलुप्त हो चुके है या कितने शब्द बदल चुके है ये तमाम बाते उनकी रचनायें जब हम अध्ययन करते है तो पत्ता चलता है धरमदास जी भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है हम लोगों के लिये, साहित्यके दृष्टि से, सुधार की दृष्टि से बहुत माने हुये कवि है। उनकी मृत्यु जो है, जगन्नाथ पुरी के तट पर चले गये थे, ऐसा प्रणाम मिलता है कि वे जगन्नाथ पुरी चले गये थे और 1569 में उनकी मृत्यु हो गई थी। इनकी रचना की एक चार पंक्तियाँ मैं आपको सुना रही हूँ
इनकी एक और रचना मैं आपको सुनाती हूँ इसमें भी कबीरदास जी का प्रभाव दिखाई पड़ता है
संत धासीदास ने सतनाम पंथ की थी। वे छत्तीसगढ़ के थे। छत्तीसगढ़ के गिरोद नाम का गांव में संत धासीदास चमार परिवार पैदा हुए थे। किसानी एवं मजदूरी करके वे जीवनयापन करते थे। उनके बारे में ये कहा जाता है कि बचपन से ही वे भावुक रहे। लोगों के प्रति उनका अगाध प्रेम था और संसार की जो स्वार्थपरता है, उससे उन्हें बहुत तकलीफ पहुँचती थी। एक बार धासीदास की मुलाकात सन्त जगजीवनदास से हुई। ये मुलाकात उनकी ज़िन्दगी को एक दूसरा मोड़ दिया। सन्त जगजीवनदास ही उन्हें संतनाम प्रदान किया। दीक्षित होने के बाद धासीदासजी संसार से दूर जाना चाह रहे थे। एक दिन सब कुछ छोड़कर वे निकल पड़े। और कोमारखान के जंगलो मेंरहने लगे। कोमारखान जंगल में एक तेंदू के पेड़ के नीचे बैठे वे सतनाम की साधना की। साधना के बाद संत धासीदास लौटे उनके बारे में अनेक कहानियाँ प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार उनके पास एक मरे हुये व्यक्ति को लाया गया जिसे साँप ने डसा था। संत घासीदास ने सतनाम के प्रभाव से उस व्यक्ति को जीवित कर दिया। धीरे-धीरे लोग उन्हें गुरु मानने लगे। उनके शिष्यों अपने आप को सतनामी कहने लगे। संत घासीदास ने लोगों का सतनाम जपने के लिए कहा। वे मांस और मछली को परित्याग करने की बात की और अंहिसा को अपनाने के लिए कहा। संत घासीदास कबीरपंथी थे। ये दोनों पंथ कबीरपंथ और सतनामपंथ है तो एक परन्तु गुरु परम्परा के कारण ये दोनों एक दूसरे से अलग हो गये है। सतनाम पंथ की जो रचनाएँ है उसमें भी ईश्वर कृपा पाने के बात कही गई है, तथा इस संसार की स्वार्थ परता को चित्रन किया गया है।
उषा बारले की गीत सन्त घासीदास पर -
छत्तीसगढ़ के मध्ययुग का तीसरा स्वर है स्फुट रचनाओं का। इस युग में अनेक कवियों में कुछ नाम बड़े ही उल्लेखनीय है गोपाल कवि माखन कवि रेवा राम प्रह्मलाद दूबे गोपाल कवि और उनका पुत्र माखन कवि, दोनों रतनपुर के निवासी थे। रतनपुर राज्य में उस वक्त कलचुरि राजा राजसिंह राज्य कर रहे थे। गोपाल कवि के कई रचनायें है। उनमें से कुछ रचनाओं का उल्लेख किया जाता है जैसे - जैमिनी अश्वमेघ सुदामा चरित भक्ति चिन्तामणि छन्द विलास गोपाल कवि ने छत्तीसगढ़ी में पद्य नहीं रची फिर भी उनकी काव्य रचनाओं में छत्तीसगढ़ी का प्रभाव है। बाबु रेवाराम ने कई सारे काव्य ग्रन्थों की रचना की है। लक्ष्मण कवि का नाम का उल्लेख उनकी भोंसला वंश प्रशस्ति के संदर्भ में किया जाता है। इस काव्य में अंग्रेजो के अत्याचार के बारे में विस्तृत विवरण पाई जाती है। प्रह्मलाद दूवे जी, सारगंढ़ के निवासी थे। उनकी काव्य " जय चन्द्रिका" छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक सौन्दर्यता का दर्शाया है।
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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee
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