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गोदना या गुदना

गोदने की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। न ही सिर्फ भारतवर्ष में बल्कि विदेशों में भी। जैसे अफ्रीका, आस्ट्रेलिया में भी। अफ्रीका में लोग गुदना के साथ कुछ गुणों को जोड़ते हैं। जैसे अगर किसी के शरीर में बहुत सारे गोदना के चिन्ह है तो वह व्यक्ति बहुत साहसी है।

साहसी तो उन्हें कहना ही चाहिये क्योंकि इस गोदने की प्रथा में शरीर में बहुत व्यथा होती है, फिर भी वे करता हैं।

यह प्रथा एक कला है। अंग प्रत्यंग को सुन्दर बनाने की भावन के कारण ही गुदना की जाती है। इसके साथ कई लोक विश्वास जुड़े हुए हैं। जैसे कुछ जनजाति का यह मानना है कि गुदना अगर शरीर में हो, तो नज़र नहीं लगेगी।

गोंड जनजाति गुदना को काला कुत्ता जैसे मानते हैं। काला कुत्ते को समाज बहुत अशुभ मानता है और उसे कोई चुराता नहीं। उसी तरह जिस शरीर में गुदना का चिन्ह है, उसे कोई नहीं चुरायेगा।

गुदना के साथ सक्षमता को जोड़ा जाता है। जैसे गोंड जाती के लोग यह मानते हैं कि जो बच्चा चल नहीं सकता, चलने में कमजोर है, उस के जाँघ के आसपास गोदने से वह न सिर्फ चलने, लगेगा, बल्कि दौड़ना भी आरम्भ कर देगा। भील यह मानते हैं कि गोदने के कारण शरीर बीमारियों से बच जाता है, मनुष्य स्वस्थ रहता है। चीन में जैसे सुई शरीर में चुभाकर एक्यूपंचर (Acupuncture ) कई बिमारीयाँ दूर करते हैं, उसी तरह गोदना भी शरीर को स्वस्थ रखने में मदद करती है। सुई से अगर ठीक ठीक नर्भस (Nerves ) को छुआ जाये, तो शरीर का स्वस्थ होना सम्भव है।

कुछ लोगों का यह मानना है कि गोदना के कारण आत्मायें क्षति नहीं पहुँचा सकती।

महिलाओं के शरीर में तरह-तरह की गोदना कला दिखाई देती है। पुरुष के शरीर में एक आध ही चिन्ह, अपना नाम या कभी-कभी कोई धार्मिक चिन्ह गोदवी हुई दिखते हैं। गोदने शरीर के अलग-अलग हिस्से पर किया जाता है - हाथों पर, बाँह पर, चेहरे पर, जंघा पर, पीठ पर, पैर के पंजों पर गोदने गुदवाये जाते हैं। अलग-अलग जनजाति का अलग-अलग अभिप्राय होता है और विशेष अंगों पर ही गोदना अंकित किये जाते हैं।

गोदना किये जाते हैं बालोर का रस और बबूल के कांटे के द्वारा। बबूल के कांटे को बालोर के रस में डुबो कर शरीर में उस कांटे को शरीर में चुभाकर गोदना गुदवाये जाते हैं।

बैगा जनजाति जो वर्धा डिसट्रिक (बिलासपुर) में रहते हैं, वे गुदना को बहुत अहमियत देते हैं। गुदना प्रथा के लिए वे भिलवां रस, मालवन वृक्ष रस या रमतिला के काजल को तेल के घोल में फेंट कर उस लेप का इस्तेमाल किया जाता है। करीब आठ साल की बैगा लड़कियों के शरीर में गुदना करना प्रारम्भ होता है। शादी के बाद भी गुदवाती रहती है महिलायें। बैगा स्री गुदना गुदवाने को अपना धर्म मानती हैं। जो स्री अपने पर गुदना गुदवाती है, उसका मान समाज में बढ़ जाता है। कपाल, हाथ, पीठ, जांघ, छाती पर गुदवाते हैं।

बरसात के महीने में गुदना नदी गुदवाते है। बाकी किसी भी समय गुदना गुदवा सकते हैं।

कोई लड़की जब गुदना गुदवा रही है, तब कोई लड़का या पुरुष उस तरफ नहीं जा सकता। बैगा जनजाति के लोग ऐसा मानते हैं कि अगर कोई लड़का यह गुदना देख लेता है तो व सांभर का शिकार कर नहीं पाता है।

बैगा पुरुष कभी गुदना नहीं गुदवाते। पर वे अपने हाथ की कलाई में निशान जरुर दागते हैं।

कई जातियों में गोदने वाली महिलायें होती हैं जो गोदने की कला में निपुण है। जो जातियों में सबसे ज्यादा निपुण है वे हैं - वादी, देवार, भाट, ओझा। इन जातियों की गोदने वाली महिलायें पारम्परिक रुप से ये कला अपनाती आ रही हैं। समाज में इन महिलाओं का बहुत आदर होता है। गोदने के लिये उन्हें लोग घर में आमंत्रित करते हैं। कभी-कभी गांव-गांव में, एक घर से दूसरे घर पैदल घुमती है गुदने वाली महिलाये - उनके सर पर बाँस की टोकरियाँ होती हैं जिसमें गोदने की सामग्री होती है। जैसे ही गाँव की लड़किया, महिलया उन्हें देखती हैं वे गुदवाने के लिए खुशी से झूम उठते हैं। बैगा गुदनों में सबसे ज्यादा समय लगता है और साथ-साथ मेहनत भी। जब किसी गुदने को शुरु किया जाता है, उसे पूरा करके ही उठ सकते हैं।

डॉ. शिवकुमार तिवारी का कहना है कि "बैगा जनजाति संसार में सबसे अधिक गुदना प्रिय है। बैगा स्रियाँ गुदना को स्वर्गिक अलकंरण मानती है। बैगा स्रियों की मान्यता है कि स्वर्ग में यही गुदना बैगाओं की पहचान कायम रखते हैं। यदि कोई नारी यहाँ गुदना नहीं गुदवाती है तो भगवान के सामने उसे सब्बल से गुदवाना पड़ेगा"।

डॉ. शिव कुमार तिवारी

मध्यप्रदेश की जनजातीय संस्कृति - मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल संस्करण 1999

डॉ. तिवारी इसी पुस्तक में अंधियारी बाई का उल्लेख करते हैं जो अस्सी बरस की बैगा महिला है, जिनका कहना है - "नाई गुदाइस त भगवान मरत समय साबड़ से गोदही, असी मोर आजा कहन रहे। दना रुपया पैसा सब छूट जत्थे, मरत समय ये ही गुदना साथ जाथ है, अरु कुच्चु नाहीं जात। यह चिन्हा जात हे गोर संगमा, नई त सन की सुतरी साथ नही जाव"।

इसका अर्थ है - यदि गुदना नहीं किया गया तो भगवान मरते समय सब्बल से गोदेंगे, ऐसा मेरी आजी कहती थी, रुपया पैसा सब यह छूट जायेगा, यही चिन्ह हमारे साथ रहते है, वर्ना जलाते समय या गाड़ते समय तन पर सन की एक सुतली तक नहीं रहने दिया जाता।

पृ. 276 डॉ. शिव कुमार तिवारी मध्यप्रदेश की जनजातीय संस्कृति, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, संस्करण - 1999

गुदने का विषय भिन्न-भिन्न है - जैसे बिच्छू, मोर, सूर्य, तारा, चन्द्रमा, सिंहासन, धरती, अश्व, पूल, और न जाने कितनी ही आकृति। कुछ आकृति सभी जन जातियों में प्रचलित है जैसे मोर, पर इस मोर की आकृति निर्भर करता है उस जनजाती पर। अलग-अलग जन-जातियों में अलग-अलग तरीकें से मोर की आकृति को गुदवाया जाता है। राम सीता की रसोई - इस नाम का गुदना करीब सभी जनजातियों में पाये जाते हैं।

गुदने का अंकन भाल पर बहुत पुराने समय से किया जा रहा है। गुदने को देखकर उस जनजाति की पहचान कर सकते हैं।

गुदना बहुत ही प्राचनी और बहुत ही मनमोहक कला है।

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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee 

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