छत्तीसगढ़ |
Chhattisgarh |
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आर्य अनार्य संस्कृति और हरतालिक तीज |
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति आर्य और अनार्य संस्कृति का संगम स्थल है। यहाँ हरतालिका तीज का पर्व बहुत ही धूमधाम और उत्साह से मनाया जाता है। वस्तुत: दक्षिण की द्राविड़ संस्कृति एवं उत्तर पश्चिम की आर्य संस्कृति ने मिलकर मध्य भारत की संस्कृति का निर्माण किया। उसमें भी छत्तीसगढ़ हृदयस्थल है इस संस्कृति संगम का। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में पनपनेवाली रीतिरिवाजों में दीपावलि, तीज़, पोला, भोजली, जवाँरा, मढ़ई आदि धार्मिक और लौकिक पर्व उस संगम के प्रतीक है। द्राविड़ संस्कृति में आदिवासियों के संस्कृति प्रमुखता से रही है। संचार माध्यमों की प्रगति से पहले सदियों पहले की स्थिति पर विचार करे तो ज्ञात होता है कि उत्तर भारत से आये वीर दक्षिण की ओर जब भी आक्रामक दृष्टि से गये, वहाँ की शामला अनार्य सुन्दरियों के अप्रतिम सौन्दर्य से आकृष्ट हुये और विवाह करके ले आये या अपहरण करके लाये । किसी भी तरीकों से हो, दक्षिण की सुन्दर अनार्य नारीयाँ उत्तर भारत और मध्य भारत आई, तो अपनी संस्कृति के साथ आई। रीति रिवाज साथ लाई। आस्थायें साथ लेकर आई। नितान्न व्यक्तिगत आस्थायें। उन आस्थाओं से उनका पति का सम्बन्ध नहीं था। यदि अनार्य पत्नी की आस्था से आर्य पति का सम्बन्ध होता, तो नारियाँ हरतालिका व्रत रखने पिता के घर, माइके नहीं जाती। आज छत्तीसगढ़ की संस्कृति में यह परम्परा है, कि हरतालिका तीज़ का व्रत रखने के लिये नारियाँ माईके जाती हैं। उन्हें उनका भाई या पिता ले जाने आते हैं, ससम्मान। यह परम्परा द्राविड़ या अनार्य संस्कृति से आई है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। उस परम्परा का ठोस कारण है, जिस पर मैंने अपना यह मत स्थापित किया है, पहला कारण तो यह है कि - आर्य स्वाभिमानी व निरकुंश प्रकॉति के थे। वे उन्हें अपनी जाति संस्कृति और आस्था का अभिमान था। इसीलिये द्राविड़ सुन्दरी से विवाह उसने अवश्य किया पर उन्हें अपनी रीतियों के पालन की अनुमति प्रदान नहीं की। अत: पत्नियाँ माईके जाकर उन रीतियों का पालन करती थी। दूसरा कारण - नारियाँ स्वभाव से आस्थावादी होती है। अपनी माता से संस्कृति या आस्थायें वे शीघ्र भूल नहीं पाती है। आर्य संस्कृति के रीति रिवाजों का पालन पति की प्रसन्नता के लिये करते हुये भी वे अपने माईके जाकर अपने रिवाजों और आस्थाओं से जुड़ी रहना चाहती थी। तीसरा कारण - हरतालिका तीज शिव उपासना का है। आर्य शिव उपासक नहीं थे। द्राविड़ शिव उपासक थे। शिव और उसके गणों की भी उपासना करते थे। कन्या पर माता का संस्कार प्रबल होता है, वे कन्यायें मध्य भारत, उत्तर भारत में आने के बाद भी शिव उपासक बनी रही, घर के भीतर, क्योंकि शिवालय बनाने की अनुमति नहीं थी, इसीलिये सरोबर नहीं तालाब के किनारे ग्राम के किनारे शिवालय वे बनाती थी। सम्भवत: वहीं से तालाब के किनारे शिवालय बनाने की प्रथाल चली होगी, राम और कृष्ण के मन्दिर आंगन में बनाये जाते परन्तु गृह के अन्दर के भाग में शिवमन्दिर बनाने की प्रथा नहीं है। यह आर्य संस्कृति का भी प्रभाव हो सकता है। ये द्राविड़ कन्याये शिव उपासना के लिये तालाब के किनारे जाती थी। तालाब में स्नान करके, पूजन करके घर आती थी। मेरी मान्यता है कि तालाब के किनारे का शिवालय द्राविड़ संस्कृति में जन्मी, उन कन्याओं के अडिग आस्था का प्रतीक है जिन्हें घर के भीतर शिव पूजा की अनुमति नहीं मिलती थी। हरतालिका व्रत के समय घर के भीतर प्रात: से रात तक कई बार शिव पूजा करनी होती है - निर्जला उपवास रखते हुये। पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिये ऐसा ही किया था। इसीलिये वे माईके जाकर ही उस रीति का निर्वाह करती है। द्राविड़ मातायें अपनी बेटियों को सम्मान सहित बुला लेती थी। इस प्रकार हरतालिका व्रत माईके जाकर करने की प्रथा चल पड़ी। आंगन में तुलसी का पौधा - आर्य संस्कृति की देन है, पर तुलसी के पास शिवलिंग की स्थापना, द्राविड़ संस्कृति की देन है। कार्तिक मास में एकादशी का तुलसी विवाह - दोनों संस्कृतियों का सुन्दर मेल है। |
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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee
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