यहाँ जब
कन्या का विवाह होता है, तो उसे सातबार
तेल हल्दी चढ़ाई जाती है और
विवाह संस्कार में मंगरोहन की
बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती
है। यह मगरोहन क्या है और तेल
हल्दी चड़ाते समय महिलायें जो
गीत गाती है वह इस प्रकार है -
एके
तेल चढ़गे कुंवरि पियराय।
दुए
तेल चढ़गे महतारी मुरझाय।।
तीने
तेल चढ़गे फुफु कुम्हलाय।
चउथे
तेल चढ़गे मामी अंचरा निचुराय।।
पांचे
तेल चढ़गे भइया बिलमाय।
छये
तेल चढ़गे भऊजी मुसकाय।।
साते
तेल चढ़गे कुवरि पियराय।
हरदी
ओ हरदी तै सांस मा समाय।।
तेले
हरदी चढ़गे देवता ल सुमुरेव
'मंगरोहन'
ल बांधेव महादेव ल सुमरेंव।।
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'मंगरोहन'
इसकी मैंने मौलिक कल्पना की कि
किस प्रकार यह विवाह संस्कार में
प्रयुक्त होने लगा, कैसे इसका प्रयोग
किया जाने लगा - मंगरोहन शब्द
का प्रयोग छत्तीसगढ़ी विवाह संस्कार
के समय अवश्य ही किया जाता है।
यह मंगरोहन न तो कोई देवता
है, न ही जादू की पुड़िया। पर इसके
बिना छत्तीसगढ़ में विवाह संस्कार
संपन्न ही नहीं होता। मंगरोहन
की स्थापना के अवसर पर गाये जाने
वाले गीत मंगरोहन गीत के नाम
से
विख्यात है। इन गीतों की सुनही ही
- वे सब लोग, जो कन्या की मां बनने
का वरदान लेकर आई है। दर्द टीस,
बिछोह के दु:ख व बेटी के पराए
हो जाने की पीड़ा से भर जाती है।
छत्तीसगढ़ की आंचलिक संस्कृति में
'मंगरोहन' विवाह गीतों का आधार
बनता है। |
दो बांसों
का मंडवा (मंडप) बनाया जाता है। बांसों
को आंगन की मिट्टी खोदकर
गड़ाया जाता है। उन बांसों के पास
मिट्टी के दो कलश रखे जाते हैं -
जिसमें दीप जलता रहता है। उन्हीं बांसों
के साथ नीचे जमीन से लगाकर आम,
डुमर, गूलर या खदिर की लकड़ी की
एक मानवाकृति बनाकर रख दी जाती
है। दोनों बांसों के साथ दोनों आकृतियाँ
स्थापित की जाती है। बांसों के ऊपर,
पूरे आंगन में पत्तियों का झालर लटकाया
जाता है। उस मानवाकृति वाली लकड़ी
को ही मंगरोहन कहा जाता है।
इसके बिना विवाह संस्कार संपन्न
नहीं होता।
'मंगरोहन'
की भूमिका विवाह के साक्षी के रुप
में होती है। विवाह के समय होने
वाले अपशकुन को मिटाने के लए 'टोटका'
के रुप में भी उसे प्रयुक्त किया जाता
है। अर्थात - मंगरोहन एक मांगल्य -
काष्ठ है, जिसे सामने रखने से
विवाह संस्कार निर्विघन, बिना
किसी बाधा से, संपन्न होता है।
'मंगरोहन'
की स्थापना के साथ महाभारत की कथा
किवदन्ती के रुप में जुड़ी है। जब
गांधार नरेश अपनी पुत्री गांधारी
का विवाह संबंध निश्चित करते है
तब उस राजकुमार की मृत्यु हो
जाती है। गांधारी के पिता
ज्योतिषियों व पंडितों को पत्रा
विचारने बुलाते हैं। वे पण्डित एवं
ज्योतिर्विद गांधारी की जन्म कुंडली,
भूत एवं भविष्य, पिछला जन्म-सभी पर
विचार करते है वे इस निष्कर्ष पर
पहुँचते हैं कि गांधारी को डूमर
(गूलर) का श्राप लगा है। उसी श्रापवंश
गांधारी का विवाह तय होती ही भावी
पति की मृत्यु हो गई। गांधार
नरेश इस श्राप से मुक्ति का उपाय पूछते
हैं। ज्योतिर्विद एवं पंडित एक मतेन
कहते हैं कि गांधारी का विवाह
पहले डूमर (गूलर) के साथ कर
दिया जाए और फिर भावीपति के साथ।
गांधारी का विवाह संबंध कहीं
हो नहीं पा रहा था। सभी राज्यों
के राजा भयभीत थे मृत्यु की आशंका
से। काल का भय किसे नहीं होता?
भीष्म पितामह ने अंधे राजकुमार
धृतराष्ट्र के लिए गांधारी का
चुनाव करते समय पंडितों को पत्रा
दिखलाया - उन्होंने भी विचार किया
कि श्राप मुक्ति संभव है।
इस प्रकार
महाभारत में गांधारी के विवाह
के समय, डूमर (गूलर) की मानवाकृति
प्रथम बार बनाई गई, उससे
गांधारी की भांवरे पड़ी, पिर
धृतराष्ट्र के साथ भांवरे पड़ी। तब
से लेकर आज तक मांगल्य काष्ठ के रुप
में अथवा श्राप या अपशकुन को दूर
करनेवाले प्रतीक चिन्ह के रुप में
इस मंगरोहन को स्थापित करने
की प्रथा चल पड़ी। छत्तीसगढ़ अंचल में
यही किवदन्ती प्रसिद्ध है।
गांधारी
को श्राप क्यों लगा था, यह कथा लोक
जीवन में इस प्रकार बताई जाती
है - गांधारी आँख में पट्टी बाँधकर
अपनी सखियों के साथ आँख मिचौनी
का खेल खेल रही थी, संध्या समय
चिड़ियों की चहचहाहट बढ़ गई थी
क्योंकि पक्षी अपने नीड़ की ओर लौट
रहे थे। गांधारी संध्या के
झुरमुट में आगे बढ़ती गई। पेड़ों
की पत्तियों को टटोलती, सखियों
के छुपने के भ्रम में गांधारी अनजाने
एक अपराध कर बैठी। डूमर (गूलर)
के वृक्ष की निचली टहनी में बैठा
चिड़ा का चोंच गांधारी ने कस कर दबा
दिया - सखि के भ्रम में। तुरन्त चौंक
कर उसने हाथ खोला, आँक की पट्टी
खोली, क्या देखती है? मदा चिड़ी, नर
चिड़ा के वियोग में व्याकुल जमीन पर
चोंच मार मारकर नर चिड़ा के शरीर
से लिपट रही है। उसका विलाप
डूमर के वृक्ष को हिलाने लगा।
कहीं से श्राप का स्वर उभरता है -
वह ऊपर गूलर के वृक्ष की ओर
देखती है, स्वर वहीं से आ रहा था -
वन देवता का स्वर 'गांधारी,
विवाह निश्चित होते ही तेरे पति
की मृत्यु हो जायेगी - तू जीवन भर
अभिशप्त रहेगी। पति के सानिध्य से वंचिता
नारी।' 'नहीं नहीं वनदेव क्षमा कीजिए
- मुझसे अन्जाने यह अपराध हुआ, मुझे
श्राप से मुक्त करो'। विलाप करती
गांधारी का स्वर, उपवन के
कोने-कोने में प्रतिध्वनित होने लगता
है। सखियाँ उस प्रतिध्वनित से व्याकुल
चकित गांधारी को ढूँढती हैं। इधर
वनदेवता गांधारी के कुरुण व
हृदयविदारक विलाप को सुनकर
कुछ द्रवित होते हैं। कुछ क्षण पश्चात,
शांत होने पर, वन देवता धीरे
गंभीर स्वर में गांधारी को श्राप से
मुक्ति का उपाय बताते हैं - पहले
डूमर के वृक्ष की डाल से तुम्हारा
विवाह होगा, फिर वर से।
तुम्हारे पति की मृत्यु नहीं होगी।
परन्तु गांधारी, विवाह के बाद
तुझे जीवन भर आँख में पट्टी बाँधनी
होगी। तुझे पति का सान्निध्य मिलकर
भी दर्शन सुख प्राप्त नहीं होगा - और
नहीं पति तुझे देख पायेगा, तेरा सौन्दर्य
अभिशप्त रहेगा। वनदेवता का यह स्वर
सखियों ने हृदय थाम कर सुना।
गांधारी पत्थर की मूर्ति की तरह स्तब्ध,
स्पन्दनहीन सी पड़ थी - सखियों ने उसे
अवलम्ब देकर उठाया और अन्त:पुर में
ले गई।
गांधारी के
डूमर श्राप या गूलर का श्राप का जो
कथा मैनें एक फकीर बाबा से सुनी
थी, उस लोक-गाता के अंश कुछ इस प्रकार
हैं -
डुमर
तरी रोवथे गंधारी माता
चिरई
चुरगुन ओ ऽऽऽ
डुमर
तरी बिलपथे गंधारी माता
'कइसे
जिआवंन बहिनी
तोर
जोरी ल
सुरुज
डुबे के बेरा
कइसे
महाकावेंत तो धरिनी ल
चन्दा
ऊगे के बेरा
डूमर
देवता अगियोगे
गंधारी
ल सरापिस
जोरी
बिन तोर जिनगि
गंधारी
राजकुंवर ह
अपन
भाग ल ठोंकिस
कईसे
जोरी बिन जिनगी
गंधारी
राजकुंवर ह
कईसे
जोरी बिन जिनगी
पांव
परके पूछिस -
'कईसे
सरापह जाही?
कइसे
बनही जिनगी?
कइसे
बनही जिनगी?
डूमर
देवता ह बिचारिस
गभरोग
बोलत
नइ
छुटय मोर सराप
नइ
छुटय मोर सराप
जोरी
मिलही, तोला
बिन
देखे होही मिलाप
नइ
छुटय मोर सराप
अंधरा
राजा के रानी
बनबे
ते राजकुंवर
बनबे
ते राजकुंवर
डुमर
डारा तरी
उतरही
मोर सराप
मया
करही तोर जोरी
तोर
मन मा छाही तरास
जिनगी
भर में उदास
बिन
डोरी के तोर जोरी
तोर
मन मा छाही तरास
डूमर
डारा के गाता ल जऊन गाही
मंडवा
मा मगरोहन बनाके जाही
बेटी
जोरी तेखर राज करही
सुनइया
मन मंगरोहन गीत गाही
डुमर
डारा के गाथा
डुमर
डारा के गाथा।
कुछ भी हो
वह 'डुमर डारा' यानी कि गूलर की
टहनी 'मंगरोहन' बनकर मांगल्य
काष्ठ एवं विवाह के साक्षी का प्रतीक -
चिन्ह बन गई। अपशकुन या किसी शाप
को मुक्त करने के लिए, कन्या के
जीवन को पूर्ण रुप से सुरक्षा प्रदान
करने के लिए वह गूलर की टहनी प्रतिबद्ध,
वनरवद्ध दिखाई देती है। इसी
टहनी से बनी मानवाकृति
'मंगरोहन' है। सुमित्रा
बाई और बेटी भुनेश्वरी
छत्तीसगढ़ के विवाह के बारे में बता
रहीं है एवंगीत सुना रही है।
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