धरती और बीज |
राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी |
प्राक्कथन |
|
जनपदीय-अध्ययन
जनता के क्रियाशील जीवन का अध्ययन
है।
यदि कोई अध्येता किसी भी देश
या किसी भी जनता के जीवन की मूल
प्रेरणाओं को समझाना चाहे, तो जनपदीय-अध्ययन
के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं
है। 'जनपदीय' अध्येता के लिए प्रत्येक जन
एक खुली पुस्तक है।
प्रत्येक 'जन' के पास जीवन का अनुभव
है।
व्यष्टिजीवन का अनुभव सामाजिक-प्रक्रिया
के द्वारा समष्टिजीवन का अनुभव बनता
है तथा वाचिक-परंपरा के साथ यह
'जीवन-अनुभव' एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
में, एक समाज से दूसरे समाज में तथा
एक जनपद से दूसरे जनपद में संक्रमित
होता है, चलता है और बढ़ता है एवं
'जीवन-पद्धति' की रचना करता है। प्रत्येक 'जीवन-पद्धति' में कुछ 'अवधारणाएँ'
होती हैं।
भावना का सत्य हो, विश्वास का सत्य
हो या चिंतन का सत्य हो-मनोवैज्ञानिक
सत्य के रुप में वे 'अवधारणाएँ' जनपदीय
जीवन को, सामाजिक जीवन को गति
भी देती हैं और गति को मर्यादित
भी करती हैं।
वे अवधारणाएँ प्रकृति और जीवन
के प्रति उस समाज की दृष्टि को अभिव्यक्त
करती हैं।
"इन अवधारणाओं की रचना किस
प्रकार होती है और इस रचना-प्रक्रिया
में परिवेश-तत्त्व की क्या भूमिका
होती है?"
प्रस्तुत अध्ययन इस प्रश्न का उत्तर खोजने
का एक प्रयास है। प्रस्तुत अध्ययन इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय
कला केंद्र द्वारा प्रतिष्ठापित अनुसंधान-पद्धति
के अंतर्गत किया गया है।
इस अध्ययन का विषय 'धरती और
बीज' लीक से हटकर है और इसकी
विवेचना-पद्धति सर्वथा मौलिक है।
इस पद्धति के अंतर्गत किया गया
है।
इस अध्ययन का विषय धरती और
बीज लीक से हटकर है और इसकी
विवेचना-पद्धति सर्वथा मौलिक है।
इस पद्धति की दृष्टि चिंतन की 'समग्रता'
पर है। पहले अध्याय में अध्ययन की दृष्टि को
स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
जिस प्रकार तात्त्विक रुप से 'दिशा'
(दिक्) एक है, जिस प्रकार तात्त्विक रुप
से 'काल' एक है, उसी प्रकार ज्ञान भी एक
अखंड है।
फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से दिशा
को चार (या दस), काल को तीन और ज्ञान
को दो भागों में विभाजित किया जाता
है-प्राकृतिक विज्ञान और मानविकी।
प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि बाह्यप्रकृति
में एकाग्र है, वहीं मानविकी-वर्ग के अनुशासन
'मनुष्य' को ही केंद्रीय सत्य मानकर
चलते हैं तथा मानव के द्वार निर्मित
कृत्रिम परिवेश-सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक
और सांस्कृतिक परिवेश और मनुष्य
के संबंध का अध्ययन है। यह अध्ययन उस समग्रता को समझने
की दिशा में एक कदम है, जहाँ मानव
स्वयं विराट प्रकृति की एक कृति है तथा
अंत:प्रकृति (मूल प्रवृत्तियाँ) और ब्राह्यप्रकृति
विच्छिन्न है। इस अध्ययन का उद्देश्य प्रकृति
के संबंध में जनपदीयजन की परंपरागत
दृष्टि (अवधारणाओं) को पढ़ना है तथा
उसके संबंध में प्रश्न उठाना है।
इस अध्ययन को 'धरती-बीज संबंधी
अनुसंधान' की संभावनाओं का अध्ययन
भी कहा जा सकता है, क्योंकि इस अध्ययन
में धरती-बीज-संबंधी अध्ययन की अनेक
दिशाएँ प्रकाशित हुई हैं।
पहले अध्ययन में ही अध्ययन की सामग्री
के रुप में धरती-बीज-संबंधी लोकवार्ता
तथा उसके स्रोत का परिचय दिया गया
है। दूसरे अध्याय में लोकवार्ता की
धरती-संबंधी उन विभिन्न अवधारणाओं
की चर्चा की गयी है, जो तत्संबंधी पुराकथा
और उनके अभिप्रायों, अनुष्ठानों,
विश्वास प्रणाली, अभिव्यक्ति प्रणाली, भोजन
और आच्छादन प्रणाली के रुप में अभिव्यक्त
होते हैं। इस अध्याय में धरती और
बीज के संबंध को स्पष्ट करने के लिए
अनेक प्रकार की मिट्टी और अनेक प्रकार
के जल तथा उनके परस्पर संबंध के साथ
ही पंचमहाभूतों की चर्चा भी की गयी
है। तीसरा अध्याय 'बीज' से संबंधित
है।
इसमें वनसंपदा, कृषिसंपदा, उद्यानसंपदा
एवं जलीय-वनस्पति के रुप में बीजों
का वर्गीकरण, बीज से वृक्ष बनने तक
की जीवनयात्रा और उसके अंग-प्रत्यंग-संबंधी
शब्दावली का संक्ष्पित विवरण दिया
गया है। चौथे अध्याय में धरती-बीज के साथ
अनंत प्रकृति के संबंधों का एक रेखांकन
है।
इसमें स्पष्ट किया गया है कि धरती
और बीज का संबंध 'ऐकान्तिक' नहीं
है।
सूरज, चंदा, सितारे, हवा,
वर्षा, मेघ, आकाश, पहाड़, नदी, पशुपक्षी,
कृमि-सरीसृप आदि प्रकृति के सम्पूर्ण
संबंध-सूत्र उससे उसी प्रकार जुड़े
हैं, जैसे जलाशय की एक लहर दूसरी
लहर के जुड़ी होती है।
सूरज, चंदा और नक्षत्रों की गति, चाँदनी
और अँधेरी रात, सभी का प्रभाव धरती
और बीज पर अंकित होता है।
इसी अध्याय में मेघविद्या की चर्चा
की गयी है।
मेघ-संबंधी इस लोकविद्या का
महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसकी दृष्टि
में समग्रता है, इसमें दिन, रात, तिथि,
काल, नक्षत्र, सूरज, चंदा, हवा, ॠतु तथा
सम्पूर्ण प्राणीजगत के लक्षणों के आधार
पर वर्षाअनुमान को परिलक्षित किया
गया है।
इस अध्याय में यह स्पष्ट होता
है कि 'सबकुछ' का 'सबकुछ' से संबंध
है तथा विराट में ऐसा कुछ नहीं जो
विच्छिन्न हो।
धरती-बीज-संबंध को स्वस्तिक की
चार भुजाओं में अंकित किया जाय तो
इसकी एक भुजा प्रकृति, दूसरी भुजा
मानवजीवन, तीसरी भुजा प्राणीजगत
और चौथी भुजा स्वयं बीज में परिवर्तन
की गति को रुप में अभिव्यक्त होती
है। धरती-बीज का संबंध नित्य और
निरंतर है।
जो घटना धरती और बीज में घटित
हो रही है, वह संपूर्ण सृष्टि में
घटित हो रही है।
बीज उगता है, बढ़ता है फिर नष्ट
हो जाता है और पुन: नया जन्म धारण
करता है।
बीज में एक से बहुत हो जाने कि
इच्छा (सिसृक्षा) है और यही सृष्टि की
मूल अवधारणा है। इस अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया
है कि धरती-बीज का संबंध केवल प्रकृति
में 'सब' के साथ 'सब' के संबंधों में
भी अभिव्यक्त नहीं होता, अपितु मनुष्य
की जीवन-पद्धति में भी रुपायित होता
है।
भौतिक-प्रक्रिया के द्वारा आच्छादन-प्रणाली
और भोजन-प्रणाली के रुप में विकसित
होकर वह सभ्यता का आधार बनता
है, वहीं मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के द्वारा
यह संबंध मनुष्य के भावजगत्, सौंदर्यबोध,
चिंतनप्रणाली, अभिव्यक्ति प्रणाली और
विश्वास प्रणाली में गतिशील होता
है और प्रकृति तथा संस्कृति का संबंध-सूत्र
बन जाता है। पाँचवें अध्याय में धरती-बीज के
साथ मानव के भौतिक संबंध को रोखांकित
किया गया है।
धरती-बीज-संबंध का परिणाम अन्न
है।
अन्न प्राण है।
मनुष्य और प्रकृति, मनुष्य और
जीवजगत् तथा मनुष्य और मनुष्य (परिवार,
समाज, राष्ट्र तथा विश्वमानव) के संबंध
का आधार भी यही है।
अर्थव्यवस्था, उद्योग, श्रम-संबंध तथा
बिरादरियों की संरचना का आधार
धरती-बीज-संबंधी ही है। इसी अध्याय में मानव-प्रकृति के संबंध
के 'माध्यम' के रुप में प्रौद्योगिकी की
भूमिका को भी रेखांकित किया गया
है।
सम्पूर्ण परिवेश एक और अखंड
है, इसलिए एक परिवर्तन दूसरे परिवर्तन
को जन्म देता है, इसलिए प्रौद्योगिकी
में होने वाला परिवर्तन वैचारिक-परिवेश
के परिवर्तन का कारण होता है, परंतु
जो लोग उत्पादन-प्रणाली या प्रौद्योगिकी
को 'निर्णायक' मानते हैं, उनके सामने
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि स्वयं प्रौद्योगिकी
में होनेवाले परिवर्तन का निर्णायत
तत्त्व क्या है?
मनुष्य की अंत:प्रकृति है। पश्चिमी विचारधारा परिवर्तन की
प्रक्रिया का 'विकास' का नाम देती है और
उसे 'अंतिम सत्य' मानती है, जबकि भारतीय
लोकमानस में विकास एक अवस्थ का सत्य
है।
विकास की भाँति ह्रास भी एक 'अवस्था
'है।
सृष्टि अपने-आपमें पूर्ण सत्य नहीं
है, सृष्टि के साथ प्रलय का सत्य भी जुड़ा
हुआ है और जनपदीयजन के
पास सृष्टि के साथ प्रलय की भी अवधारणा
विद्यमान है।
'जो ऊग्या सो आथवा, फूल्या सो
कुम्हलाय।'
इसलिए परिवर्तन की गति को जनपदीयजन
काल की गति, नियति, हरिइच्छा, होनी,
माया और लीला के रुप में स्वीकार
करता है। जिस प्रकार अखबार की खबर 'एक दिन
का सत्य' होती है, उसी प्रकार एक युग
का सत्य भी होता है।
कोई भी चिंतन परिवेश की समस्या
से उत्प्रेरित होता है और समस्या का
एक समाधान देता है और समाधान में
ही समा जाता है।
'विकास' की उस अवधारणा को हम
इसी परिप्रेक्ष्य में ग्रहण कर सकते
हैं।
पश्चिमी विचारधारा और भारतीय
लोकमानस की चिंतन-परंपरा का मूलभूत
अंतर यह है कि पश्चिमी विचार प्रकृति
को जड़ समझता है, जबकि भारतीय
लोकमानस में प्रकृति पूर्ण चैतन्य
है।
मनुष्य और प्रकृति के बीच वह भोक्ता
और भोग्य का जड़-संबंध नहीं मानता,
पुत्र और माता का चैतन्य संबंध मानता
है।
आकाश पिता है और धरती माता
है- जा धरती पै द्वेै बड़े एक धरती एक
मेह । वौ बरसै वौ ऊपजै दोऊ
मिल जूर्यौ सनेह । छठे अध्याय में लोकमानस के सौंदर्यबोध
में वानस्पतिक सौंदर्य की छवि की संक्षिप्त
चर्चा की गयी है तथा सातवें अध्याय में
बीज-वृक्ष संबंधी कथा-अभिप्रायों का
उल्लेख है।
परिवेश तत्त्व अंतर्जगत् में भावसत्य
बन जाता है।
भावसत्य में वृक्ष-वनस्पति मनुष्य
की तरह ही चेतनासंपन्न है, मनुष्य
की भाँति वृक्ष भी एक योनि है।
वृक्ष उत्पत्ति और वृक्षदेव-संबंधी
अवधारणाओं के साथ इस अध्याय में ब्रजलोककथा
और पुराकथा के अभिप्रायों की भी चर्चा
है। आठवाँ अध्याय 'लोक अनुष्ठानों में
वृक्ष-वनस्पति' संबंधी मान्यताओं से
संबंधित है।
इसमें विश्वास के सत्य और परंपरा
के सूत्र की चर्चा के साथ आनुष्ठानिक
वनस्पतियों तथा वट, पीपल, तुलसी,
केला, आँवला आदि दैववृक्षों-चैत्यवृक्षों
का विवरण दिया गया है कि पूर्वजों
के प्रति श्रद्धाभाव पूर्वजों से संबंधित
स्थान और वृक्षों के प्रति भी बद्धमूल
हो जाता है।
वृक्ष-पूजा की परंपरा के साथ जातीय
स्मृतियाँ जुड़ी हैं।
जातीय स्मृतियों की भूमिका लोकजीवन
में निर्णायक होती है। नवें अध्याय में 'चिंतन प्रणाली में धरती-बीज
के बिम्बों' का अध्ययन है।
लोक और शास्र ने बीज-वृक्ष के
बिम्बों के माध्यम से प्रकृति और जीवन
की व्याख्या की है।
इस अध्याय में स्थापित किया गया
है कि चिंतन बिम्बों के सहारे अग्रसर
होता है और ये बिम्ब परिवेश से
प्राप्त होते हैं।
जिन वृक्ष-वनस्पतियों को हम देखते
हैं, वे हमारे अंतर्जगत् के अंग बन जाते
हैं तथा जिस प्रकार स्वप्न में बिम्बों
के माध्यम से जीवन पर कोई टिप्पणी
अंकित हो जाती है, उसी प्रकार चिंतन
में वे बिम्ब हमारी पहेलियों को
सुलझाते हैं।
उन्हीं से प्रकृति और जीवन के प्रति
हमारी दृष्टि बनती है। इस अध्याय में धरती-बीज-वृक्ष के
बिम्बों के आधार पर सृष्टिविद्या और
विश्वविद्या की भारतीय परंपरा का
विवेचन करते हुए परिलक्षित किया
गया है कि बीज-वृक्ष की प्रक्रिया के सतत-निरीक्षण
के द्वारा भारत के लोकमानस में कर्म
से फल, सूक्ष्म से विराट, कारण से कार्य
तथा एक से बहुत होने की अवधारणाओं
का विकास हुआ है । दसवाँ अध्याय भाषा-संपदा में धरती
और बीज के बिम्बों से संबंधित
है तथा इसमें बताया गया है कि
भाषा की संरचना में बिम्बों ती अनिवार्य
भूमिका होती है।
बिम्ब शब्दों, मुहावरों तथा कहावतों
में रुपायित होते हैं।
वानस्पतिक स्रोत के बिम्ब जीवन
के विविध संदर्भों में पहुँचकर किस
प्रकार विभिन्न अर्थों को अभिव्यक्त करते
हैं, इसके अनेक उदाहरण इस अध्याय में
दिए गए हैं।
इस अध्याय में स्पष्ट किया गया
है कि प्रत्येक शब्द जीवन के साथ चलता
है और विकसित होता है। प्रत्येक
शब्द के साथ एक बिम्ब और चिंतन का एक
सूत्र होता है। ग्यारहवाँ अध्याय इस अध्ययन का
उपसंहार है।
इसके बाद ग्यारह अध्यायों के क्रमानुसार
ग्यारह ही परिशिष्ट हैं, इनमें वे
सारणियाँ भी हैं, जिनके माध्यम से
अध्ययन का पथ प्रशस्त होता रहा है। इस पूरे अध्ययन में लोकवार्ता,
लोकमानस, लोक और शास्र, माया,
होनी, नियति, सनतान, सूक्ष्म, विराट,
आत्मा, भगवान, काल, पाप-पुण्य और कर्म
जैसी अनेक अवधारणाओं की चर्चा उठी
है तथा अनेक प्रश्न उगे हैं, जैसे अंत:प्रकृति
और बाह्य प्रकृति-सम्पूर्ण विराट प्रकृति
में एक प्रक्रिया दूसरी प्रक्रिया से उसी प्रकार
जुड़ी है, जैसे जलाशय की एक लहर
से दूसरी लहर।
ऐसी स्थिति में मनुष्य-जीवन में
स्वेच्छा की कितनी भूमिका है?
मनुष्य स्वतंत्र है या नियति के अधीन
है?
मनुष्य आज जो कुछ कर रहा है,
क्या वह ऐसा करने को विवश है?
मानव निर्मित कृत्रिम परिवेश में
परिवर्तन की जो प्रक्रिया चल रही
है, क्या उसका प्रभाव मनुष्य की मूल
प्रवृत्तियों (त्रिगुणात्मक अंत:प्रकृति,
भूख, रति, रक्षा, होड़, संग्रह, सिसृक्षा,
प्रभुता, प्रयत्न-लाघव, गौरव, जिज्ञासा)
पर भी होता है अथवा क्या मूल प्रवृत्तियों
में भी विकास होता है?
क्या द्वेंद्व से बड़ा सत्य है?
आदि। भारतवर्ष के जनपदों में बसनेवाली
शतसहस्त्र मानव जातियों की हजारों-हजारों
साल पुरानी जीवन-परंपराओं और
सांस्कृतिक धराओं से परिचय प्राप्त करने
की दिशा में प्रस्तुत अध्ययन समुद्र में
एक बूँद से भी कम है, फिर भी यह
प्रयास यदि अध्येताओं का ध्यान 'लोकवार्ता-विज्ञान'
और 'जनपदीय-अध्ययन' की दिशा में आकर्षित
कर सके, तो मैं अपने श्रम को सफल
मानूँगा। लोकवार्ताविज्ञान के क्षेत्र में काम
करने की असीम संभावनाएँ हैं।
हमारे सामने पहला काम है-संपूर्ण
भारतवर्ष के प्रत्येक अंचल, प्रत्येक जाति
और जनसमूह के जीवन में उतरकर उसकी
लोकवार्ता का संग्रह-संपादन करना
और दूसरा काम है-समाजशास्र,
भाषाशास्र, मानवभूगोल, जनवृत्तशास्र,
सौंदर्यशास्र, मिथकशास्र, नितिशास्र,
दर्शन, इतिहास और मनोविज्ञान की
दृष्टि से उस सम्पूर्ण लोकवार्ता-सामग्री
का पर्यालोचन तथा उसका अंतरजनपदीय
और अंतरप्रदेशीय अध्ययन।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस
अध्ययन से मानविकि-वर्ग के अनुशासनों
में नए अर्थ भर जायेंगे तथा मानव-जीवन
और मानव-मन के नए सत्य-तथ्य उद्घाटित
होंगे। हमारे सामने तीसरा काम है-विश्व
के विभिन्न देशों के लोकविज्ञान संबंधी
अध्ययन की प्रवृत्तियों और दिशाओं से
परिचय प्राप्त करना तथा भारतीय लोकवार्ता
तथा विश्व के अन्य देशों की लोकवार्ता
के तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा मानव-मन
की मूलप्रवृत्तियों की पहचान करना।
हमारे सामने चौथा कार्य है वैदिक
साहित्य, संस्कृत साहित्य, पालि प्राकृत
अपभ्रंश से लेकर हिंदी और प्रादेशिक
भाषाओं के संपूर्ण साहित्य का लोकतात्त्विक
अध्ययन और लोकतात्त्विक अध्ययन-पद्धति
का विकास।
लोकवार्ता के अध्येताओं ने अपने-अपने
जनपदों में लोकवार्ता की साधना की
है, परंतु न तो अभी तक भारत में लोकवार्ता
के अध्ययन का इतिहास लिखा जा सका
है और न ही लोकवार्ता का यह अध्ययन
जनपदों कि देहरी लाँघ सका है।
भारतीय लोकवार्ताकोश, हिंदी
लोकवार्ताकोश एवं पुराकथाओं की
अभिप्राय-अनुक्रमणिका भारतीय लोकवार्ता
के अध्ययन के लिए बुनियादी आवश्यकताएँ
हैं, परंतु वे अभी तक तैयार नहीं
हो सकी हैं।
यह सब कार्य छोटा-मोटा काम नहीं
है, इसके लिए हजारों जनपदीय अध्येताओं
की आवश्यकता है। परंतु अपवादों को छोड़कर
विश्वविद्यालयों में आजकर प्राय: दूसरा
काम चल रहा है, वहाँ इतनी फुर्सत
किसके पास है, जो यह सोच सके कि
'लोकवार्ता-विज्ञान' को स्नातकोत्तर
स्तर पर स्वतंत्र-अनुशासन का दर्जा
मिले?
ऐसा कोई सशक्त व्यक्तित्व भी आज
दिखाई नहीं दे रहा, जो केन्द्रीय शासन
का ध्यान आकर्षित करे और लोकवार्ता
की ऐसी केन्द्रीय अकादमी की स्थापना
हो, जहाँ अंतरजनपदीय और अंतरप्रदेशीय
लोकवार्ता के अध्ययन की परंपरा को
विकसित किया जा सके। ऐसी स्थिति में इस 'मिशन' को आगे
बढ़ाना उन सभी का कर्तव्य है, जो जनतंत्र
के जीवनदर्शन अथवा लोकतंत्र के अध्यात्म-लोकवार्ता
और जनपदीय अध्ययन की महिमा से परिचित
हैं।
क्या यह दुर्भाग्य की बात नहीं
है कि जिन गाथाओं, कथाओं और मिथकों
के साथ हमारे राष्ट्र का हजारों-हजारों
साल का जातीय जीवन व्यतीत हुआ,
हम उनकी तह में छिपे अर्थ को समझने
में आज भी प्रमाद ही कर रहे हैं और
हमारी शिक्षा में उनके लिए कहीं कोई
स्थान नहीं है?
क्या यह विडंबना नहीं है कि जातीय
जीवन की गाथाओं को कूड़ेदान में फेंककर
हम राष्ट्रीय एकता और जातीय अस्मिता
को पहचानने जा रहे है?
परंतु प्रसन्नता और आशा की बात
यह है कि इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला
केंद्र इस दिशा में निरंतर प्रयासशील
है। मेरे लिए प्रसन्नता और गौरव की
अनुभूति यह जानकर हुई कि अंग्रेजी
के माहौल में हिंदी की यह पहली परियोजना
है।
अपरिचय के कारण आनेवाली उन कठिनाइयों
की चर्चा करना यहाँ अप्रासंगिक होगा,
जिनके कारण इस अध्ययन की रुपरेखा
तीन बार और तीन बार बिगड़ी।
मेरे लिए परियोजना से अधिक प्रेरणा
का स्रोत वह मिशन रहा है, जो स्वर्गीय
पण्डित बनारसीदास चतुर्वेदी ने मुझे
सौंपा था।
उनके वे शब्द मेरे मन में आज भी
गूँज रहे हैं, जिन्हें वे प्राय: ही दोहराते
थे घृतमिव पयसि निगूढं भूते-भूते
च वसति विज्ञानम्। सततं मंथयितव्यं मनसा मन्थान
दंडेन। इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र
: जनपद संपदा के रिसर्च-प्रोफेसर
आचार्य वैद्यनाथ सरस्वती इस अध्ययन
में प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से आद्यन्त उपस्थित
रहे हैं।
अक्तूबर, १९९२ में राष्ट्रीय संग्रहालय,
नयी दिल्ली के तत्कालीन महानिदेशक
डॉक्टर रमेशचंद्र शर्मा के आग्रह और
प्रेरणा से जब मैं प्रोफेसर सरस्वती
से मिला था, तो उन्होंने मुझे अध्ययन
के लिए 'धरती और बीज' विषय दिया
था।
उसके बाद उनसे दर्जनों भेंट हुई,
विचार-मंथन चलता रहा और उनसे
एक नया दृष्टिकोण भी मैंने प्राप्त किया।
प्रस्तुत अध्ययन की एक स्थापना है कि
"कोई भी चिंतन शून्य में नही
होता, परिवेश में होता है, इसलिए
प्रत्येक चिंतन में परिवेशतत्त्व व्याप्त
रहता है, वह उसकी शक्ति भी होता
है और सीमा भी होता है।"
प्रस्तुत अध्ययन भी एक परिवेश है,
जिसके केन्द्र में प्रोफेसर सरस्वती
की निर्णायक भूमिका है।
इसलिए इस अध्ययन का श्रेय निस्संदेह
प्रोफेसर सरस्वती को है और मैं
उनके प्रति कृतज्ञ हूँ। इस अंतराल में श्रध्देया श्रीमती कपिला
वात्स्यायनजी से भी मेरा पत्राचार
बराबर चलता रहा, उन्होंने मेरे प्रत्येक
पत्र का उत्तर स्वयं दिया और उनके पत्रों
ने मुझे निरंतर प्रोत्साहित किया।
एक पत्र में उन्होंने मुझे लिखा कि
"यह (जनपदीय अध्ययन) समाज और
मानव की सच्ची सेवा है।" श्रध्देय डॉक्टर विद्यानिवास मिश्र का
परामर्श और निर्देश मुझे हमेशा
सुलभ रहा है, यह उनका मेरे प्रति
वात्सल्य और आत्मीय भाव है। सासनी के श्रीमान् प्रकाशचंद्रजी जैन
का मैं ॠणी हूँ।
लोकवार्ता संकलन और सर्वेक्षण
कार्य के लिए मैं जब-जब सासनी गया,
उन्होंने पारावारिक स्नेह दिया।
ठाकुर नरेन्द्रपाल सिंह, डॉक्टर
जिनेंद्रकुमार शास्री और श्री जितेंद्रसिंह
चौहान आज भी उतना ही सहयोग देते
हैं, जितना तब देते थे, जबकि मैं सासनी
में रहता था।
श्री रामकिशन शर्मा, राजकुमार
पाठक, प्रेमप्रसाद पाठक आदि मेरे पुराने
विद्यार्थी हैं, उन्होंने अपने गाँव में मेरा
आतिथ्य ही नहीं किया, अपने वयोवृद्धों
से मिलाने भी ले गए, इस यज्ञ में उन
सबकी आहुति सम्मिलित है।
वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं। अंत में एक बार पुन: लोकवार्ता का मार्ग बनानेवाले, मार्ग दिखानेवाले और इस मार्ग पर चलनेवाले सभी अध्येता-मनीषियों को मेरा श्रद्धामय प्रणाम। राजेन्द्र
रंजन चतुर्वेदी ज्येष्ठ
निर्जला एकादशी २०५२ वि. ९
जून, १९९५ एस.डी.कालेज, पानीपत(हरियाणा)
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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७
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