१ मार्च १९९५ - १५ अप्रैल १९९५ |
माटीघर, आई. जी. एन. सी. ए. |
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एक अभिव्यंजक कला रबारी कढ़ाई हमें केवल उनकी संस्कृति के संबंध में ही बहुत कुछ नहीं बताती बल्कि वह एक ऐसी भाषा के रुप में भी है |
जिसमें महिलाएं आपस में बात करती हैं।
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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र द्वारा आयोजित रबारी कढ़ाई की प्रदर्शनी रबारी समुदाय की महिलाओं के अपने दैनिक जीवन और जीवनशैली में उनकी सृजनात्मकता को अभिलेखबद्ध करने के निमित्त अनुसंधान और प्रलेखन का परिणाम थी। अपने ढंग की इस अनूठी प्रदर्शनी में उत्कृष्ट कढ़ाई किसी की भी आंखों को सहज लुभा लेती है। रबारी एक ऐसा यायावर समुदाय है जो कि गुजरात और राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में जीवित रहने और अपने को अनुकूलित करने की असाधारण क्षमता के लिए विख्यात है। यह समुदाय विशेषकर कढ़ाई, मोती के काम और कांच, गारे की मूर्तिकला जैसी विशिष्ट कलाओं के लिए विख्यात है। |
रबारी महिलाएं गारे की मूर्तियां स्वयं बनाती हैं। वे अपनी भेड़ों से प्राप्त ऊन को परम्परागत रुप में कातती हैं और फिर ऊनी सूट, दुपट्टे, कम्बल, पगड़ियां बनाने के लिए स्थानीय बुनकरों को दे देती हैं। लेकिन रबारी महिलाओं की सब से बड़ी पहचान उनके हस्तकौशल से होती है जो इस प्रदर्शनी में प्रस्तुत किया गया था। रबारी महिलाएं अनेक प्रकार की पोशाकों, बैगों, घरेलू सजावटी सामान और पशुओं के साज-सामान पर कढ़ाई करती हैं। जिन वस्तुओं पर वे कढ़ाई करती हैं वे उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं, रिवाजों, और मूल्यों को परिलक्षित करती हैं। लड़कियां परम्परागत रुप में ब्लाउजों, स्कर्टों, दुपट्टों, दीवारों की हैंगिंग, तकियों, पर्सों और कोठालों, जो कि दहेज भरने की बोरियां होती हैं पर कढ़ाई करती हैं और यह सब उनके दहेज में उनके योगदान के रुप में होता है। |
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विवाहित महिलाएं अपने बच्चों के कपड़ों और साथ ही शैशवावस्था के कपड़ों की कढ़ाई करती हैं। ये कढ़ाई केवल बच्चों की महत्ता ही परिलक्षित नहीं करती बल्कि उनमें सजा कर लगाए गए शीशे उनके बच्चों की उनके संसार में रहने वाले अपदूतों से रक्षा भी करते हैं। कुछ कढ़ाइयों में विशेष रिवाजों पर बल दिया जाता है। बहुत खूबसूरत ढंग से कढ़ाई किया हुआ कोठालिया-ऐसा पर्स जिसमें वर पान और सुपारी के आनुष्ठानिक उपहार ले जाता है, पारिवारिक सम्बन्ध बनाए रखने के लिए आदान-प्रदान के महत्त्व का परिचायक है। लुडी दुपट्टों पर कढ़ाई रबारी महिलाओं द्वारा पालन की जाने वाली परम्परागत शालीनता अर्थात लाज का महत्त्व दर्शाती है। बड़ी आयु की रबारी महिलाएं काले वस्र पहनती हैं जो कि आनुष्ठानिक शोक के परिचायक होते हैं। एक कथा के अनुसार काले वस्र पहन कर वे एक ऐसे राजा को सम्मानित करती हैं जिसने शताब्दियों पहले रबारी की रक्षा करने में अपने प्राणों की बलि दे दी थी। शोक के समय युवा महिला रंगीन ब्लाउज़ पहनती हैं जिनके किनारों पर बारीक कढ़ाई की हुई होती है जो कि यह दर्शाती है कि महिला शोक मना रही है। जो महिला विधवा नहीं है उसके लिए अपने ब्लाउज़ पर क्रासनुमा निशान लगाना जरुरी है। उनके स्कर्टों पर रंगीन धागों और चांदी चढ़े कांच के टुकड़ों से खूबसूरत कढ़ाई की हुई होती है। |
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ंटोंंटंटों प्रदर्शित की जाने वाली अन्य कढ़ाइयों में रेगिस्तान में रहनवाले के चरवाहों के रुप में रबारियों के उद्गम की स्मृति परिलक्षित की जाती है। रबारी महिलाएं के वस्रों की कढाई करती हैं ताकि उन का आदर किया जा सके जिन्हें वे आनुष्ठानिक प्रयोजनों के लिए अभी भी रखती हैं। रबारी समुदाय के वर सुन्दर कढ़ाई किए हुए लम्बे जाकेट और चौडानी पैंटें तथा वधुएं घाघरा स्कर्ट पहनती हैं। ये परिधान शताब्दियों पूर्व की शाही पोशाकों का आह्मवान करते हैं और इस कथा को बल प्रदान करते हैं। एक समय था जबकि रबारी समुदाय के लोगों की राजपूत शासकों के साथ घनिष्ठता होती थी। रबारी महिलाएं जिस ढंग से कढ़ाई करती हैं, उसमें उनकी संस्कृति के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। रबारी कढ़ाई एक ऐसी भाषा की तरह है जिसका प्रयोग रबारी महिलाएं अपनी बात कहने के लिए करती हैं। महिलाओं द्वारा सृजित कृति में विशेष अभिप्राय समाविष्ट रहते हैं जिनमें से प्रत्येक का एक नाम और एक अर्थ होता है। इनमें से अनेक प्रतीक रबारी लोगों के दैनिक जीवन के विभिन्न तत्त्वों को परिलक्षित करते हैं और जिस रुप में समुदाय विश्व को देखता है, उस पर प्रकाश डालते हैं। अन्य प्रतीकों का ऐतिहासिक अर्थ होता है और वे रबारी समुदाय की विरासत के सम्बन्ध में उनके ज्ञान को बनाए रखने में सहायक होते हैं। |
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कुछ समय के बाद ये प्रतीक फैशन से विलग हो सकते हैं अथवा मौजूदा फैशन में अनुकूलित किए जा सकते हैं। कुछ स्थितियों में किसी परम्परागत प्रतीक को एक समकालीन अर्थ प्रदान कर दिया जाता है ताकि मौजूदा कृति आधुनिक जीवन को परिलक्षित करे। रबारी महिलाएं जिस ढंग से कढ़ाई करती हैं, टांकों, रंगों, अभिप्रायों और नमूनों को जिस ढंग से मिश्रित करती हैं, वह उस माध्यम को दर्शाता है जिसमें महिलाएं परस्पर बातचीत करती हैं। भाषा कि भांति ही इस माध्यम के तत्त्वों में भी नियमों के अनुसार फेर-बदल की जाती है। इस प्रकार शैली को एक पहचान के रुप में समझा जाता है और उसका प्रयोग समुदाय के सभी सदस्यों द्वारा उसी रुप में किया जाता है। गारे की कृतियों, आभूषणों और यहां तक कि रबारी महिलाओं के गोदनों में भी रबारी शैली एक सौन्दर्य भावना व्यक्त करती है। |
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रबारी कढ़ाई निकटवर्ती समुदायों की कढ़ाई-शैलियों से अलग तरह की होती है। यह शैली कभी भी स्थिर नहीं होती। टांके बदल जाते हैं, उनकी संख्या बढ़ती और घटती है तथा रंग तेज और अधिक चमकीले हो जाते हैं। रबारी हस्तशिल्पियों के स्वत:स्फूर्त नवाचर के कारण कढ़ाई बराबर जीवन्त बनती रहती है। रबारी महिलाओं की सृजनात्मकता, जो कि अनुकूलन की असाधारण क्षमता की अभिव्यक्ति है, इस परम्परा को जानदार बनाए रखती है।
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