हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 2


IV/ A-2000           

शान्तिनिकेतन

  10.12.34

प्रिय चतुर्वेदी जी,

              प्रणाम!

       मैंने आपको लिखा था कि सक्सेरिया जी ने गुरुदेव को ५००/- रुपये भेज कर लिख दिया था कि आप इसे चाहे जिस काम में खर्च कर दें। वह रुपया अभी तक खर्च नहीं हुआ है। गुरुदेव की इच्छा है कि मुझे और गुसाईं जी को विद्या भवन रिसर्च डिपार्टमेन्ट (ङ्eseठ्ठेद्धड़ण् Deद्रद्य.) में ले लिया जाय। क्योंकि शास्री जी के चले जाने से वह विभाग खाली-सा हो गया है। इस बात की चर्चा चल रही थी कि वह ५००/- रुपया आया। विश्वभारती के अर्थ संकट को तो आप जानते ही हैं। हम लोगों को विद्या भवन में ले जाने का अर्थ होता है दो अध्यापकों को नया नियुक्त करना। गुरुदेव ने यह व्यवस्था की कि इन रुपयों से साल-भर के लिए एक ऐसा हिन्दी अध्यापक ४०/- रुपये महीने में रखा जाय जो संस्कृत में भी मदद कर सके। उन्होंने मुझे ऐसे एक आदमी को बुला लेने की आज्ञा दी। मैंने बनारस के एक युवक शास्री को लिखा और वे राजी भी हो गये। गुरुदेव ने इन्हें बुला लेने को कह दिया। मगर यह सब कुछ आपसे पूछ कर करना चाहिए। क्योंकि आपकी इच्छा हिन्दी भवन की स्थापना की थी। मैंने यह बात कही भी थी। आज अवस्थी बाबू ने मुझे आपकी राय जानने को कहा है। वे जानना चाहते हैं कि अगर उस रुपये से कोई हिन्दी-संस्कृत अध्यापक रखा जाय तो क्या आपको कोई आपत्ति होगी? जिसे ले आने की बात हो रही है, उन्हें अभी तक कोई जवाब नहीं दिया गया है। आपका उत्तर पाकर ही कोई कार्रवाई होगी। आप जैसा उचित समझें, यथाशीघ्र लिखें। मैं अपनी ओर से इस संबंध में कुछ भी नहीं कहना चाहूँगा। क्योंकि इसकी व्यवस्था में मेरा भी स्वार्थ का कुछ अंश पड़ गया है। शेष कुशल है। आप कब तक जायेंगे?

आपका

हजारी प्रसादः

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली