हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 93


IV/ A-2145

हिन्दी विभाग

काशी हिंदू विश्वविद्यालय

श्रध्देय पंडित जी,

              सादर प्रणाम!

       आपका कृपापत्र मिल गया था। यह जानकर बड़ी चिन्ता हुई है कि आपके भी साइटिका का आक्रमण सहना पड़ रहा है। यह बड़ा कष्टदायक रोग है। इसकी एकमात्र दवा पौष्टिक और सहज पाच्य आहार है। आप वहाँ जो दवा करा रहे हैं उससे कितना लाभ है मैंने एक तेल का मालिश कराया था उससे काफ़ी फायदा हुआ था। वह आपके पास भेज रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि ऊपर मालिश कराने से किसी डाक्टर को कोई आपत्ति नहीं होगी। जिस वैद्य ने यह तेल बताया है वे इसका बहुत लाभ बताते हैं।

       मैं यहाँ प्रसन्न ही हूँ। शारीरिक स्वास्थ्य पहले से अच्छा है। रह रहकर शान्तिनिकेतन की याद अवश्य सताती है। मैं अब भी वहाँ से छुट्टी पर हूँ। पर यहाँ एक बड़ा लाभ यह है कि विद्यार्थी प्रचुर मिल रहे हैं और साहित्य में कुछ नवीन चिन्ता प्रवेश कराने का अवसर मिल जाता है। लेकिन यह न समझिए कि मैं यह समझने लगा हूँ कि मेरे करते कुछ हो जाएगा। मैं सदा की भाँति आज भी अपने को निमित्त ही समझता हूँ। मुझे ऐसा लगने लगा है कि भगवान् कुछ करा लेंगे।

       इसके पहले आपको जो पत्र लिखा था वह मन की सबसे ग्लानि अवस्था में लिख गया था। जब

मानसिक स्थिति उतार पर रहती है तो आपकी याद बहुत आती है। इससे मुझे बल मिलता है। शायद आपको यह बात अजीब सी लगे। परन्तु यही सत्य है। जब प्रसन्न रहता हूँ तो आपकी याद कम आती है। जहाँ ज़रा मन का बैलेंस गड़बड़ाया कि आपकी याद आ जाती है। आप अज्ञात भाव से मुझे सम्हालते रहते हैं।

       "साहित्य संदेश" में पढ़ा कि आप टीकमगढ़ छोड़ रहे हैं। कुछ दिन तक इसी असमंजस में रहा कि आपको किस पते पर पत्र लिखूँ। फ़िलहाल टीकमगढ़ के पते से ही लिखना ठीक समझा है। मुझे कभी कभी लगता है कि मैं आपकी कुछ भी सेवा नहीं कर पा रहा हूँ। यह भी नहीं समझ में आता कि आपकी सेवा कैसे कर्रूँ। मुझे आप बराबर कुछ कुछ आदेश देते रहें।

       साइटिका का क्या हाल है लिखिएगा। यह दो-तीन मास तक कष्ट देता है। फिर स्वयं ठीक हो जाता है। आप घबराएँ नहीं। जो तेल भेज रहा हूँ उसे धीरे धीरे मालिश कराइएगा। ज़ोर से रगड़ने से नसें और भी मुरझा जाती हैं। पू. क्षिति मोहन बाबू के जामाता लखनऊ में प्रोफेसर हैं। एक बार उन्हें भी यह रोग हुआ और किसी ने ज़ोर ज़ोर से मालिश कर दिया। फल यह हुआ कि उनका रोग घटने की बजाय बढ़ गया। इसीलिये मालिश खूब आहिस्ते आहिस्ते होनी चाहिए। पत्र देकर कुशल समाचार दें। यहाँ हम लोग प्रसन्न हैं।

आपका

हजारी प्रसाद

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली