हजारीप्रसाद
द्विवेदी के पत्र |
प्रथम खंड |
संख्या - 140
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IV/
A-2141
(अपूर्ण
पत्र)
आपको इस तरफ
की अपार महँगी
का पता तो शायद
होगा ही।
बोलपुर
में इन दिनों
मोटा से मोटा
चावल ३०-३२ रुपये
बिक रहा
है। मैं जो
वेतन पाता
हूँ उसमें से
लगभग ३५ रुपये
मकान-भाड़ा,
लड़को की फीस,
डाक्टर की फीस
प्रोविडेंट
फंड आदि के
मदों में कट
जाता है। पहले
यह वेतन
७५रु. था, अब ९०रु.
है। इधर "विश्वभारती
पत्रिका " की ओर
से २५ रुपये एलाउएंस
भी देने लगे
हैं। इस प्रकार
लगभग ८०रु. मैं
पा जाता हूँ।
लगभग ३०रु. घर
पर भेज देता
हूँ। ५० रुपये
में दो मन चावल
भी नहीं मिल
पाता। अब तक
मैं कुछ लिख-लिखाकर
भी पा जाता
था, अब वह भी
बंद है। ट्यूशन
करना कानूनन
निषिद्ध है।
फल यह हुआ
कि पिछले पाँच
महीनों से
केवल उधार
का खर्च बढ़
रहा है। तीन
सौ तक पहुँच
चुका है। यहाँ
वेतन ज्यादा
से ज्यादा जो
बढ़ना संभव
था वह इन लोगों
ने कर दिया
है, मेरा खर्च
बढ़ गया है
क्योंकि अन्न-वस्र
का दर पाँच
गुना छह गुना
तक चढ़ गया
है और परिवार
भी बढ़ गया
है। मैं शान्तिनिकेतन
छोड़ना नहीं
चाहता पर
ऐसा लगता
है कि यहाँ
टिकना भी असंभव
है। आप जानते
हैं कि मेरा
एक प्याला चाय
के अतिरिक्त और
कोई भी फालतू
खर्च नहीं है।
पर वह भी
अब नहीं चल
रहा है। आपको
चिन्ता में डालने
के लिये यह
सब नहीं सोच
रहा हूँ। मैं
जानता हूँ
कि मुझसे भी
दुखी लोग
संसार में
हैं इसलिये
मुझे कोई
मनोवेदना
नहीं है। परन्तु
उधार खाते के
वृद्धि से मैं
विचिलित
ज़रुर हो गया
हूँ। इसलिये
मैं आपको लिख
रहा हूँ कि
यदि कहीं मेरे
योग्य कोई
जगह मिले
जहाँ मैं अपना
खर्च भर अन्न-वस्र
पा सकूँ और
कुछ काम कर
सकूँ तो आप
महँगी के दिनों
के लिये बातचीत
कर दें। मेरा
परिवारिक
खर्च और माता-पिता
को ३०-३५ रुपये
की नियमित
सहायता ही
आवश्यक है।
उधार चुकाने
के लिये मैं
कोई व्यवस्था
कर लूँगा।
सोचता हूँ
एक पुस्तक लिखकर
प्रेमी जी को
दे दूँगा और
उससे कुछ-न-कुछ
तो मिल ही
जायगा। दिवाली
तक वे वैसे
भी कुछ रुपये
रायल्टी के
भेज देते हैं।
इसलिये उसके
लिये आपको
विशेष चिन्तित
होने की आवश्यकता
नहीं है।
शेष
कुशल है।
आपका
हजारी प्रसाद
द्विवेदी
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© इंदिरा
गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला
संस्करण: १९९४
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