The Illustrated Jataka : Other Stories of the Buddha by C. B. Varma
001 - The Story of Ruru Deer / रुरु मृग

रुरु एक मृग था। सोने के रंग में ढला उसका सुंदर सजीला बदन; माणिक, नीलम और पन्ने की कांति की चित्रांगता से शोभायमान था। मखमल से मुलायम उसके रेशमी बाल, आसमानी आँखें तथा तराशे स्फटिक-से उसके खुर और सींग सहज ही किसी का मन मोह लेने वाले थे। तभी तो जब भी वह वन में चौकडियाँ भरता तो उसे देखने वाला हर कोई आह भर उठता।

जाहिर है कि रुरु एक साधारण मृग नहीं था। उसकी अप्रतिम सुन्दरता उसकी विशेषता थी। लेकिन उससे भी बड़ी उसकी विशेषता यह थी कि वह विवेकशील था ; और मनुष्य की तरह बात-चीत करने में भी समर्थ था। पूर्व जन्म के संस्कार से उसे ज्ञात था कि मनुष्य स्वभावत: एक लोभी प्राणी है और लोभ-वश वह मानवीय करुणा का भी प्रतिकार करता आया है। फिर भी सभी प्राणियों के लिए उसकी करुणा प्रबल थी और मनुष्य उसके करुणा-भाव के लिए कोई अपवाद नहीं था। यही करुणा रुरु की सबसे बड़ी विशिष्टता थी।

एक दिन रुरु जब वन में स्वच्छंद विहार कर रहा था तो उसे किसी मनुष्य की चीत्कार सुनायी दी। अनुसरण करता हुआ जब वह घटना-स्थल पर पहुँचा तो उसने वहाँ की पहाड़ी नदी की धारा में एक आदमी को बहता पाया। रुरु की करुणा सहज ही फूट पड़ी। वह तत्काल पानी में कूद पड़ा और डूबते व्यक्ति को अपने पैरों को पकड़ने कि सलाह दी। डूबता व्यक्ति अपनी घबराहट में रुरु के पैरों को न पकड़ उसके ऊपर की सवार हो गया। नाजुक रुरु उसे झटक कर अलग कर सकता था मगर उसने ऐसा नहीं किया। अपितु अनेक कठिनाइयों के बाद भी उस व्यक्ति को अपनी पीठ पर लाद बड़े संयम और मनोबल के साथ किनारे पर ला खड़ा किया।

सुरक्षित आदमी ने जब रुरु को धन्यवाद देना चाहा तो रुरु ने उससे कहा, "अगर तू सच में मुझे धन्यवाद देना चाहता है तो यह बात किसी को ही नहीं बताना कि तूने एक ऐसे मृग द्वारा पुनर्जीवन पाया है जो एक विशिष्ट स्वर्ण-मृग है; क्योंकि तुम्हारी दुनिया के लोग जब मेरे अस्तित्व को जानेंगे तो वे निस्सन्देह मेरा शिकार करना चाहेंगे।" इस प्रकार उस मनुष्य को विदा कर रुरु पुन: अपने निवास-स्थान को चला गया।

कालांतर में उस राज्य की रानी को एक स्वप्न आया। उसने स्वप्न में रुरु साक्षात् दर्शन कर लिए। रुरु की सुन्दरता पर मुग्ध; और हर सुन्दर वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा से रुरु को अपने पास रखने की उसकी लालसा प्रबल हुई। तत्काल उसने राजा से रुरु को ढूँढकर लाने का आग्रह किया। सत्ता में मद में चूर राजा उसकी याचना को ठुकरा नहीं सका। उसने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो कोई-भी रानी द्वारा कल्पित मृग को ढूँढने में सहायक होगा उसे वह एक गाँव तथा दस सुन्दर युवतियाँ पुरस्कार में देगा।

राजा के ढिंढोरे की आवाज उस व्यक्ति ने भी सुनी जिसे रुरु ने बचाया था। उस व्यक्ति को रुरु का निवास स्थान मालूम था। बिना एक क्षण गँवाये वह दौड़ता हुआ राजा के दरबार में पहुँचा। फिर हाँफते हुए उसने रुरु का सारा भेद राजा के सामने उगल डाला।

राजा और उसके सिपाही उस व्यक्ति के साथ तत्काल उस वन में पहुँचे और रुरु के निवास-स्थल को चारों ओर से घेर लिया। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने रुरु को रानी की बतायी छवि के बिल्कुल अनुरुप पाया। राजा ने तब धनुष साधा और रुरु उसके ठीक निशाने पर था। चारों तरफ से घिरे रुरु ने तब राजा से मनुष्य की भाषा में यह कहा "राजन् ! तुम मुझे मार डालो मगर उससे पहले यह बताओ कि तुम्हें मेरा ठिकाना कैसे मालूम हुआ ?"

उत्तर में राजा ने अपने तीर को घुमाते हुए उस व्यक्ति के सामने रोक दिया जिसकी जान रुरु ने बचायी थी। रुरु के मुख से तभी यह वाक्य हठात् फूट पड़ा

"निकाल लो लकड़ी के कुन्दे को पानी से 
न निकालना कभी एक अकृतज्ञ इंसान को।"

राजा ने जब रुरु से उसके संवाद का आशय पूछा तो रुरु ने राजा को उस व्यक्ति के डूबने और बचाये जाने की पूरी कहानी कह सुनायी। रुरु की करुणा ने राजा की करुणा को भी जगा दिया था। उस व्यक्ति की कृतध्नता पर उसे रोष भी आया। राजा ने उसी तीर से जब उस व्यक्ति का संहार करना चाहा तो करुणावतार मृग ने उस व्यक्ति का वध न करने की प्रार्थना की।

रुरु की विशिष्टताओं से प्रभावित राजा ने उसे अपने साथ अपने राज्य में आने का निमंत्रण दिया। रुरु ने राजा के अनुग्रह का नहीं ठुकराया और कुछ दिनों तक वह राजा के आतिथ्य को स्वीकार कर पुन: अपने निवास-स्थल को लौट गया।

Ruru-Jataka, Bharhut  

O nce upon a time there lived a deer in a dense forest. He was called Ruru. He had a golden body resplendent with the spots of varied hues like that of the rubies, sapphires and emeralds. His hair was extremely soft and silky. His eyes were sky-blue. His hooves and horns looked like the chiselled precious stones. So, when he darted in the forest every one was charmed. All the more, he was endowed with wisdom; and evinced the power to converse in the human language owing to the memory of his past existences. Further, knowing the cruel and ugly mentality of the human beings, which is prone to all kinds of evil deeds, he avoided any encounter with them. Yet, he was compassionate to all alike.

Once, rambling in a thick forest he heard a heart-rending cry. Curiously, when he looked at the direction he saw a man being carried away by a gushing stream. The sight of the man in his utter distress filled his heart with compassion. In order to rescue him, he jumped into the water and asked the man to cling fast to him. The man instead of clinging to him climbed on his delicate back in his panic. Nonetheless, the deer bore the heavy load of the man and brought him safely on the river-bank. He then comforted the shivering man with his warm caresses until he regained consciousness. When the man was back to his senses Ruru dismissed him by saying, You may now go back to your own fellow beings!  

The man thanked him and expressed his gratitude by saying,

No friend from childhood; nor a kinsman has ever done

What thou hast done to me.

This life of mine is now thine.

Gratefully, I shall always be at your service,

Command me to do something for thee.

The deer then said,

 If this be so

Then tell this to none  

That thou art saved by one  

Who surpasses beauty

And is the most desirable prey for any man -

As the hearts of men have little mercy and no restraint.  

 

Ruru watching the man drowning

Ruru saving the man

the king is pointing the arrow to shoot Ruru 

the king salutes Ruru

The man promised to keep his pledge; and protect the life of his benefactor before he departed.

One day, the queen of that country saw a dream where a golden deer appeared standing on a throne and preaching dhamma in an articulate human voice. Bewitched by the elegant sight of the deer, she requested the king to catch the deer for her. The king, who trusted in the veracity of her dreams acted according to her wish by the royal proclamation of the reward of a rich village and ten lovely women for one who would help find out the deer.   The man, who was once rescued by the deer, when heard of the rich rewards, went to the king and divulged the secret abode of Ruru. All the more, he took the king and his men to the thicket, where the deer dwelt. But surprisingly, when he raised his hand to show the deer his hand fell off like a chopped limb.

In the meanwhile, the king had seen the deer and his eyes were wide-open at the wonderful sight of the deer.

Now, when the deer noticed the kings arrow pointing at him; and the people surrounding him from all directions and there was no place to escape, he spoke to the king in an articulate human voice, Sir! Pray first satisfy my curiosity before you kill me. Can you tell me, how did you reach here because I never tread the path of a man. The king, charmed by his gaiety pointed the man by turning the arrow towards him in reply. The deer then recited,

Better is to lift a log of wood out of water

Than to save an ungrateful one !.

This utterance of the deer aroused the curiosity of the king, who in turn asked the deer to explain the context. The deer then narrated the story of the man, who he had rescued. The king was moved by the story and commended his compassion and bravery; but at the same time was terribly furious at the ungrateful man. So, to punish the man when he pulled the string of the bow to shoot him, Ruru requested him to forgive the man. So, the king forgave the man but invited the deer to visit his kingdom as a royal guest. Ruru accepted the invitation; and on the kings request mounted the royal carriage to proceed to the kingdom in a pompous procession. Reaching the kings court, he perched the throne and delivered several discourses to the king, queen, princes and the courtiers for some days. He then returned to his abode for good.

[The cry of the jackals and of birds is understood with ease

The word of men, O king! Is far harder than these].

(Tr.   482.129 Jataka Pali )

Ruru deer being escorted to the royal palace in procession, Ajanta

(See Ruru-Migaraja-Jataka No.482; Ruru- Jataka Jatakamala No.26)

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