मलिक मुहम्मद जायसी

जायसी का खुद के बारे में कथन

जायसी सैय्यद अशरफ को प्यारे पीर मानते हैं और स्वयं को उनके द्वार का मुरीद बताते हैं। उनकी काव्य शैली में --

सो मोरा गुरु तिन्ह हों चला।
धोवा पाप पानिसिर मेला।।
पेम पियालाया पंथ लखावा।
अरपु चाखि मोहिं बूँद चखावा।।
जो मधु चढ़ा न उतरइ कावा।
परेउ माति पसउं फेरि अरवा।।

एक स्थान पर वो अपने बारे में काफी विनम्र भाव से कहते हैं --

मुहमद मलिक पेम मधुभोरा।
नाउँ बड़ेरा दरपन थोरा।।
जेव- जेंव बुढ़ा तेवं- तेवं नवा।
खुदी कई ख्याल न कवा।।
हाथ पियाला साथ सुरांई। 
पेम पीतिलई आरे निबाही।।
बुधि खोई और लाज गँवाई।
अजहूँ अइस धरी लरिकाई।।
पता न राखा दुहवई आंता।
माता कलालिन के रस मांता।।
दूध पियसववइ तेस उधारा।
बालक होई परातिन्ह बारा।।
खउं लाटउं चाहउं खेला।
भएउ अजान चार सिर मेला।।

पेम कटोरी नाइके मता पियावइ दूध।
बालक पीया चाहइ, क्या मगर क्या बूध।।

इस पंक्तियों से लगता है कि ये प्रेम- मधु के भ्रमर थे। उनका नाम तो बहुत बड़ा था, पर वह दरसन थोड़ा थे। ज्यों- ज्यों वृद्धा अवस्था आ रही थी, त्यों- त्यों उनमें अभिनवता का सन्निवेश हो रहा था। जायसी संसार को अस्थिर मानते थे, उनके हिसाब से प्रेम और सद्भाव ही स्थिर है या रहेगा, जबकि संसार की तमाम वस्तुएँ अस्थिर है। जायसी ने संसार की अस्थिरता का वर्णन अन्य स्थल पर इस प्रकार किया है --

यह संसार झूठ थिर नाहिं।
तरुवर पंखि तार परछाहीं।।
मोर मोर कइ रहा न कोई। 
जाऐ उवा जग अथवा सोई।।

समुद्र तरंग उठै अद्य कूपा।
पानी जस बुलबुला होई।
फूट बिस्मादि मिलहं जल सोई।।
मलिक मुहम्मद पंथी घर ही माहिं उदास।
कबहूँ संवरहि मन कै, कवहूँ टपक उबास।।

एक स्थान पर चित्ररेखा में उन्होंने अपने बारे में लिखा है --

मुहमद सायर दीन दुनि, मुख अंब्रित बेनान। 
बदन जइस जग चंद सपूरन, एक जइस नेनान।

 

| कवि एवं लेखक |

Content Prepared by Mehmood Ul Rehman

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