क. पारस जोति
लिलाटदि ओति।
दिष्टि जो करे होइ तेहि जोती।।
ख. होतहि दास परष भा लेना।
धरती सरग भएउ सब सोना।।
भा निरमल तिन्ह पायन परसे।
पावर रुप रुप के दरसे।।
नयन नो देखा कँवल भा, निरमल नीर
सरीर।
पावा रुप रुप के दरसे।।
बेनी छोरि झार जौं बारा।
सरग पतार होइ अधियारा।।
जायसी का विराट उपास्य शुद्ध सौंदर्य
रुपरुपी है। जायसी प्रेम और सौंदर्य के
विशिष्ट रहस्यवादी कवि है। सूफी
साधना में अध्यात्मिक विरह का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
यदि विरह नहीं है तो तप, जप, धर्म, नेम आदि
व्यर्थ है --
जब लगि बिरह न होइ तन हिए न उपजउ पेम
तब लगि हाथ न आव तप, कएम, धरम सतनेम।।
समस्त सृष्टि प्रियतम के विरह से जल रही है --
बिरह कै आगि सूर जरि कापा।
राति देवस जारहि उहि तापा।।
औ सब नखत तराई इं।
टूटे लूक धरति महँ परहूँ।।
एक स्थान पर श्लेष अलंकार के माध्यम
से रहस्य भावना को अभिव्यक्ति मिली है --
कहाँ सो खोएहु बिखा लोना।
जेहि ते अधिक रुप ओ सोना।।
का हरतार पार परवा।
गंधक काहे कुरकुटा खाना।।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह
सकते हैं कि जायसी ने अद्वेैती साधनात्मक प्रवृति की अभिव्यक्ति के
लिए हठयोगियों में प्रचलित पद्धति को
स्वीकार किया है। भावनात्मक रहस्यवाद का तो
उनके पद्मावत में अत्यंत सुंदर अभिव्यक्ति हुई है। सब कुछ
मिलाकर निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि
सचमुच हिंदी के कवियों में यदि कहीं
रमणीय सुंदर अद्वेैतीवाद रहस्यवाद है, तो जायसी को
सबसे आगे बयान किया जा सकता है।