सूफियों के प्रेम- प्रवाह में अनेक कृष्णभक्त कवि भी प्रवाहित प्रभावित हुए हैं। मीरा बाई में तो सूफी प्राणयवाद स्पष्ट रुप से दर्शनीय है। उनके प्रियतम कृष्णा के वियोग की गीतों में प्रायः सूफी रंग दिखाई देता है। यह सत्य है कि उनके प्रियतम गिधिर लाल हैं। ये मात्र ब्रजवासी नहीं हैं, बल्कि अध्यात्म सत्ता भी है। मीरा का मंदिरों में नाचना- गाना, कभी- कभी उन्माद की अवस्था में पहुँच जाना, आदियों में सूफियों के "हाल' की भी दिशा स्पष्ट है। मीराबाई के प्रेम की पीर में सूफियों की प्रेम पीर प्रियतम निर्गुणी निराकार कृष्णा भी है --
ं* नैनन बनज बयाऊँ रे जो मै साहब पा
हेली कहासूं हरि बिना रहमों न जाये।
प्रेम- प्रगति को पेड़ों हे नयारो हमको गेल बता जा।
तुम देखे बिन कलि न परित है तथफि तलफि जिय जायसी।
देरी मैं तो दरद दिवाणी होइ, दरद न जाणै मेरो कोई।
घायल की गति घायल जाणौ, की गिणा जाई होई।,
सूली उपरि सेज पिया की, सोवण किस विध होई।
पीया बिनि रयोइ न जाइ।।
मैं बिरहुणी बैठी जागूँ गत सब सोबे री अरसी
पिय को पंथ निहारते सिगरी रेण बिहारी हो
तलफत तलफत कल न परत है, बिरह बाण डरजादी रे
निज दिन पंथ निहरात पीव को पलकन पर भरि लागे रे।
पीव पीव मैं रटु रात दिन दूजी सुधि- सुधि भागी रे।
प्यारे दरसाण दीज्यौ आय, तुम बिन रहो न जाय।
प्रेमनी, प्रेमनी प्रेमनी रे, मने लागी कटारी प्रेमनी रे।
आली सांवरे की दृष्टि मानो प्रेम की कटारी है।
जायसी की रचनाओं पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते समय, हमारे सामने मीराबाई का भी नाम आ जाता है। जायसी अवस्था में मीराबाई से कदाचित कुछ बड़े थे और इनकी मृत्यू के अनंतर बहुत दिनों तक वे जीवित भी रहे थे। जायसी ने कई छोटी- बड़ी प्रेमगाथायें लिखी हैं। उनका पद्मावत एक श्रेष्ट प्रबंध काव्य है, उसकी भाषा अवधी है, किंतु मीराबाई ने अपने फुटकर पदों की रचना अधिकता ब्रजभाषा एवं राजस्थानी में की है। जायसी और मीरा दोनों द्वारा प्रदर्शित प्रेम आरंभ से ही विरहगर्भित एवं अलौकिक है और दोनों ने ही उसके कारण स्वरुप किसी पूर्व संबंध की ओर संकेत किया है।
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