झारखण्ड

झारखण्ड प्रदेश : एक परिचय

डॉ. कैलाश कुमार मिश्र


झारखण्ड एक जनजातीय राज्य है। १५ नवम्बर २००० को यह प्रदेश भारतवर्ष का २८ वां राज्य बना। झारखण्ड का सामान्य अर्थ है झाड़ों का प्रदेश। बुकानन के अनुसार काशी से लेकर बीरभूम तक समस्त पठारी क्षेत्र झारखण्ड कहलाता था। ऐतरेय ब्राहमण में यह ठपुण्ड' नाम से वर्णित है। जनजातीय क्षेत्रों के लिये झारखण्ड शब्द का प्रयोग पहली बार १३ वीं शताब्दी के एक तामपत्र में हुआ है। माहभारत काल में इस क्षेत्र का वर्णन ठपुण्डरिक देश' के नाम से हुआ है जबकि मध्यकालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने इस क्षेत्र का उल्लेख झारखण्ड नाम से किया है। मल्लिक मुहम्मद जायसी ने अपनी शास्वत रचना पद्मावत में झारखण्ड नाम की चर्चा की है। सम्भवतः जंगल-झाड़ की अधिकता ने ही झारखण्ड नाम को जन्म दिया ऐसा प्रतीत होता है।

उत्तर में बिहार दक्षिण में उड़ीसा, पूरब में पश्चिम बंगाल और पश्चिम में छत्तीसगढ़ व उत्तर प्रदेश राज्य 
झारखण्ड का सीमांकन करते है। पूरब से पशिचम इस प्रदेश की लम्बाई लगभग ४५७ किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण इसकी चौड़ाई लगभग ३१० किलोमीटर है।

साम्पूर्ण झारखण्ड प्रदेश की ऊँची - नीची पठारी धरती पूर्व में निर्मित एक समप्राय भूभाग का क्रमिक उत्थित भूखण्ड है जो टर्शियरी के इयोसीनकाल से क्वार्टनरी के प्लीस्टोसीनकाल में अस्तित्व में आया।

उच्चावच की दृष्टि से झारखण्ड को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है :

(क) पाट - क्षेत्र
(ख) राँची पठार एवं उच्च हजारीबाग पठार ;
(ग) निम्न हजारीबाग पठार या बाहय पठार ;
(घ) राजमहल उच्च भूमि, अपरदित मैदानी भू-भाग एवं नदी घाटियों का क्षेत्र।

(क) पाट क्षेत्र

पारसनाथ पहाड़ी (१३५८ मीटर ऊँची) को छोड़कर यह झारखण्ड प्रदेश का सबसे ऊँचा भू-भाग है जिसकी ऊँचाइ ९०० से ११०० मीटर है। झारखण्ड के दक्षिण-पश्चिम सीमा पर स्थित लातेहार, लोहरदगा, गुमला और सिमडेगा जिलों में इसका विस्तार मिलता है। इस उत्थित भू-खंड में कई छोटे - छोटे पठार भी देखने को मिलते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में ठपाट' पाखर पाट, गणेशपुर पाट, मडुआ पाट, ओरसापाट, सोहरपाट आदि उल्लेखनीय है। इस भू-भाग की ऊपरी परत लैटेराइट मिट्टी के आवरण से टँकी हुई है।

(ख) राँची एवं हजारीबाग पठार

राँची - पठार झारखण्ड का दूसरा ऊँचा भू-भाग है जो देखने में समप्राय मैदान जैसा प्रतीत होता है। समुद्रतल से इसकी औसत ऊँचाई ६०० मीटर है तथा यह मुख्यतः ग्रेनाइट और नीस चट्टानों से बना है। 
इसके समतल भू-भाग पर अनेक छोटी-छोटी गुम्बदाकार पहाड़ियाँ मिलती हैं जो ॠतुक्षरण क्रिया से पूरी तरह प्रभावित हैं। यह पठार चारों ओर ढ़ालुआँ है जिसके कारण इस पठार से निकलने वाली नदियाँ अपने मार्ग में आकर्षक जलप्रपातों का निर्माण करती हैं। इनमें गौतमधारा, हुँडरु, जोन्हा, दशम और हिरनी दर्शनीय जलप्रपात हैं।

हजारीबाग जिले के दक्षिणी भाग में विस्तृत पठार को ऊपरी हजारीबाग पठार कहते हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि सँची और हजारीबाग पठार कभी एक साथ रहे थे लेकिन दामोदर भ्रंशधाटी ने उन्हें दो भागों में विभक्त कर दिया है। दोनों पठारों का विकास भी एक ही काल का सूचक माना जाता हैं। लेकिन राँची का पठार हजारीबाग पठार से कुछ ऊँचा अधिक है।

(ग) निम्न हजारीबाग पठार या बगहय पठार

इसे निचला पठारी क्षेत्र भी कहा जाता है। ऐसा अनुमान है कि इस पठारी प्रदेश का निर्माण हिमालय उन्यान के तीसरे हलचल के कारण हुआ है। यह १००० फीट ऊँचा निम्न पठारी भू-भाग, जिसे बाहय पठार या निम्न छोटानागपुर पठार भी कहते हैं, २००० फीट ऊँचे पठार को घेरे हुए लैतेहार, हजारीबाग और सिंहभूम के क्षेत्रों में फैला हुआ है। इसे अलग - अलग जगहों पर अलग - अलग नाम से पुकारते है। कहीं यह चतरा पठार कटलाता है तो कहीं कोडरमा या निम्न हजारीबाग पठार।

(घ) राजमहल उच्च भूमि, अपरदित मैदानी भू-भाग एवं नदी घाटियों का क्षेत्र

यह क्षेत्र समुद्रतल से १५० से ३०० मीटर के बीच ऊँचा है तथा अत्यधिक अपरदित भू-भाग है। इसमें नदी घाटियों या निम्न समतल मैदानी भाग का क्षेत्र भी सम्मिलित है। इस क्षेत्र की आधारभूत चट्टाने ग्रेनाइट और नीस हैं। अपरदित मैदानी भू-भाग में निचला अत्तरी कोयल बेसिन, देवधर अपरदित निम्न भू-भाग, अजय बेसिन, पंचपरगना मैदान तथा शंख एवं दक्षिणी कोपल बेसिन के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

राजमहल की लावा निर्मित पहाड़ियाँ झारखण्ड के उत्तर-पूर्वी भाग में ३०० से ४५० मीटर ऊँचे भू-भाग का निर्माण करती हैं।

झारखण्ड में स्वर्णरेखा एकमात्र नदी है जो स्वतंत्र रुप से समुद्र में गिरती है। जनजातियों की जनसंख्या के आधार पर इस राज्य का देश में चौथा स्थान है। आजादी के समय यहाँ कुल आबादी के ७० प्रतिशत लोग जनजातीय समुदाय के थे जिनकी आबादी आज मात्र २८ प्रतिशत है। इस राज्य में ३१ प्रमुख जनजातियाँ हैं जिसमें १७ मुख्य जनजातियाँ और १४ अल्पसंख्यक जनजातियाँ हैं। कुल ३२ जनजातियाँ इस प्रकार हैं :

१. असुर
२. बैगा
३. बंजारा
४. बथूड़ी
५. बेदिया
६. बिझिया
७. बिरहोर
८. बिरजिया
९. भूमिज
१०. चेरो
११. चिक बड़ाईक
१२. गोण्ड
१३. गोराइत
१४. हो
१५. करमाली
१६. खड़िया
१७. खरवार
१८. किसान
१९. कोरा
२०. कोरबा
२१. माल पहाड़िया
२२. महली
२३. लोहरा
२४. मुण्डा
२५. उरांव
२६. सौरिया पहाड़िया
२७. संताल (संथाल, सौतार)
२८. परहिया
२९. सावर
३०. खोण्ड हिल खड़िया
३१. कोल
३२. काबर।

सभी जनजातियाँ अपनी संस्कृति, वेश, भाषा और पर्व त्यौहार के साथ झारखण्ड को बहुरंगी चुनरी बनाकर सांस्कृतिक सदभावना का आर्दश स्थान बनाते हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह प्रदेश भारत का १५ वाँ राज्य है। झारखण्ड में देश के कुल प्राकृतिक संसाधन का १६ प्रतिशत भाग छिपा है। झारखण्ड भारत में प्रधम सर्वाधिक खनिज, कोयला, लौट अयस्क बाँक्साईट, यूरेनियम उत्पादक राज्य है। इससे यह पता चलता है कि यहाँ की धरती सचमुच रत्नगर्भा है।

उत्तरी कोयल, दक्षिणी कोयल, फल्गु, सकरी, पंचान, दामोदर, स्वर्णरेखा, बराकर, शंख, अजय, आदि यहाँ की प्रमुख नदियाँ हैं।

झारखण्ड राज्य का निर्माण बिहार के १८ दक्षिणी जिलों को मिलाकर किया गया है। वर्तमान समय में झारखण्ड में कुल २२ जिले हैं। इन जिलों का नाम इस प्रकार है :

१. धनबाद।
२. बोकारो।
३. साहेबगंज।
४. पूर्वी सिंहयूम।
५. पश्चिमी सिंहभूम।
६. सरायकेला।
७. गोड्डा।
८. देवधर।
९. पाकुड़।
१०. गिरिडीह।
११. कोडरमा।
१२. हजारीबाग।
१३. राँची।
१४. दुमका।
१५. जामताड़ा।
१६. गढ़वा।
१७. लोहरदगा।
१८. पलामू।
१९. लातेहार।
२०. चतरा।
२१. गुमला।
२२. सिमडेगा।

इसमें जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा जिला राँची और सबसे छोटा जिला लोहरदगा है। क्षेत्रफल की दृष्टि से सर्वाधिक छोटा जिला जामताड़ा है। 

झारखण्ड में जनसंख्या के दृष्टिकोण से संयाल, उराँव, एवं मुण्डा जनजातियों का क्रमश : पहला, दूसरा एवं तीसरा स्थान है। प्रतिशत में संथाल ३५.४६ प्रतिशत ; उराँव १८.१४ प्रतिशत : एवं मुण्डा १४.५६ प्रतिशत। इसके अलावे हो जनजाति ९.२३ प्रतिशत है। झारखण्ड में सर्वाधिक जनसंख्या धनत्तव वाला जिला धनबाद (१.१६७ व्यस्ति प्रति वर्ग किलोमीटर) एवं सबसे कम जनसंख्या घनत्व वाला जिला गुमला (१४८ व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर) है। सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति वाला जिला पश्चिम सिंहभूम है जबकि सबसे कम अनुसूचित जनजाति वाला जिला देवधर है।

झारखण्ड प्रदेश पाँच प्रमण्डलों : उत्तरी छोटानागपुर, दक्षिणी छोटानागपुर, संताल परगना, सिंहभूम एवं पलामू में विभक्त है। यहाँ की धरती वीर एवं वीरांगनाओं से भरी है। प्राचीनकाल में अशोक, समुद्रगुप्त, अथवा हर्ष, किसी को भी आटवि-प्रदेश में पैर जमाने का अवसर नहीं मिला। मध्यकालीन तुर्क-अफगान-मुगल शासकों को भी झारखण्ड के विरुद्द कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। ब्रिरिश इस्ट इण्डिया कम्पनी शासकों के विरुद्द जगन्नाथ धाल, जयनाथ सिंह, भूखन सिंह चेरो, विष्णु मानकी, दुखन मानकी, रुदन मुण्डा, कोंता मुण्डा, सिंहराय मुण्डा, सुरगा मुण्डा, बुधु भगत, गंगा नारायण, सिद्दु-कान्हू, चाँद-भैरव, लुविया मांझी, बै मांझी, अर्जुन मांझी, जगतपाल सींह, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पाण्डेय गणपत राय, माधव सिंह, जयमंगल पाण्डेय, नीलाम्बर - पीताम्बर भोगता, राजा अर्जुन सिंह, नीलमणि सिंह, परमानन्द भोगता, भोजभरत, नकलोत मांझी, राम बहादुर, भवानी बख्श राय, रामबख्श राय, हरिबख्श राय, राजा सिंह टिकैत उमरांव सिंह, शेख 
भिखारी, नादिर इली, जग्गू दीवाल, कुमार शाही, शिवचरण मांझी, कुर्बान अली, बालगोविन्द शाही, बृजभूषण सिंह, अबू सिंह, रामलाल सिंह, विजयधाम सिंह तथा हमीर राजा ने लोहालिया। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत बिरसा मुण्डा, गया मुण्डा, गोपी मुण्डा, सनरे मुण्डा, सुखराम मुण्डा तथा जतरा भगत की शहादत सर्वविदित है।

ठगकुर विश्वनाथ शाहदेव ने १८५५ से १८५८ तक अंग्रेजो के विरुद्द झारखण्ड में जोरदार संघर्ष किया। अपने ही ऐक साथी के गद्दारी से वे पकड़े गये। उन्हें १६ अप्रैल १८५८ ई. को फाँसी की सजा सुनीई गयी। उसी दिन राँची जिला स्कूल के समीप ऐक कदम्ब के पैड़ पर उन्हें फाँसी दे दी गई। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने अपने प्रत्यह शत्रु कर्नल डालटन से फाँसी के तख्ते पर चदते समय कहा था : 

"डालटन, मद भूलो, मेरे बदले हजार विश्वनाथ
जन्म लेंगे और मेरे ९७ गाँव ही नहीं, बल्कि
हमारी पूरी मातृभूमि तुमसे मुक्त होगी। तुम्हें
सागर पार जाना ही होगा।"

स्मरणीय तध्य यह है कि ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव राँची के आसपास के ९७ गाँव के राजा थे। उनके राज्य को बड़कागढ़ कहा जाता था जिसकी राजधानी सतरंजी थी।

इसी तरह से १९०० ई. के अंग्रेजों के विरुद्द विरसा मुण्डा के नेतृत्तव में झारखण्ड के आदिवासियों ने भयानक संघर्ष किया। स्ट्रीटफिल्ड ने इन आन्दोलनकारियों को आत्तम-समपंण करने को कहा। इन आन्दोलनकारियों ने तीर, तलवार और पत्तर का सहारा लिया। अंग्रेज-शासन ने उसका जवान बन्दूक और बारुद से दिया। खून की धारा बही। कई लोग मारे गए तथा कई लोगों को पकड़ा गया। इस संघर्ष में आदिवासी महिलाओं ने अपने बच्चों को बाईं गोद में उठाकर रखा और दाएँ हाथ में कुल्हाड़ी लेकर लोहा लिया था।

बिंरसा मुण्डा का एक सहयोगी गया मुण्डा इस लड़ाई में मरते दम तक अंग्रजों के सामने समपंण नहीं किया। गोलियों की बौधार से सैकड़ों पुरुष, स्री तथा बच्चे मारे गये। गया मुण्डा की पत्नी ने भी इस युद्द में बड़ी वीरता दिखाई। बाद में गया मुण्डा और उसके पुत्र सानरे मुण्डा को फाँसी की सजा दी गई। डोंका मुण्डा और माझिया मुण्डा का देश-निर्वासन हुआ। गया मुण्डा की पत्नी माकी, पुत्रियों एवं पुत्रवधुओं को जेल की सजा काटनी पड़ी। इस प्रकार गया मुण्डा का समस्त परिवार दण्डित हुआ।

महात्मा गान्धी के असहयोग आन्दोलन और अहिंसा के प्रयोग के बहत पहले ही झारखण्ड में जतरा भगत नामका गुमले जिले का एक उराँव ने ठटाना-भगत आन्दोलन' के नाम से किया था। चिंगरी-नावाटोली नामक गाँव का इस सहज आदिवासी पुवक ने १९१४ ई. में उराँव लोगों के बीच सुधारवादी आन्दोलन चलाया। उसने मदिरा पान न करने, माँस न खाने जीव हत्या न करने, यज्ञोपवीत धारम करने, अपने घरों में तुलसी चौरा स्थापित करने, भूत-प्रेतों को न मानने, गो-सेवा करने, सभी से प्रेम करने, अंग्रेजों के आदेशों को न मानने, खेतों में बृहस्पतिवार को हल नहीं चलाने का उपदेश देना प्रारम्भ किया। जतरा भगत के उपदेशों के फलस्वरुप टाना भगतों ने अंग्रेज-सरकार को कर (टैक्स) देना बन्द कर दिया।

१९१८ ई. में महात्मा गाँधी का आगमन राँची में हुआ। गाँधीजी से टाना भगतों को मिलवाया गया। टाना भगत गाँधीजी से तथा गाँधीजी टाना भगतों के आहिंसक आन्दोलन से अत्यधिक प्रभावित हुए। टाना भगत गाँधीजी 
के भक्त हो गये। दिसम्बर १९१९ ई. में कुड़ू के टीकाटाँड़ में टाना भगतों की बैठक में अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आन्दोलन की घोषणा की गई।

विशुद्द खादी वस्र धारण करन, स्वयं सूत कातने, गाँधी टोपी लगाने तथा अपने साथ घंटी रखने का निर्णय लिया गया। टाना भगत अब भी उसका पालन करते आ रहे हैं। नियमित स्नान, तुलसी की पूजा तथा घर-घर में तिरंगा अब भी उनकी प्रमुख पहचान है।

 

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