झारखण्ड |
संताल हूलः आजादी की लड़ाई में संतालों का अविस्मरणीय योगदान पूनम मिश्र |
संताली भाषा में'हूल ' शब्द का शाब्दिक अर्थ है विद्रोह। अत: 'संताल हूल' से तात्पर्य संताल विद्रोह से है।आजादी की लड़ाई में भारत के विभिन्न हिस्सों से अनेक समुदाय के लोगों ने अपने-अपने स्तर से अंग्रेजों एवं पश्चिमी उपनिवेशवाद के विरुद्ध समय समय पर संघर्ष किया एवं अपने सौर का प्रदर्शन किया।यह बात अलग है कि आज हम मंगल पाण्डे, रानी लक्ष्मीबाई, राना फड़नबीस, कुँवर सिंह, रानी चेनम्मा आदि के सम्बन्ध में तो किताबों आदि में पढ़कर जानते हैं, लेकिन कुछ ऐसे लोग और समुदाय जिन्होंने संधर्ष तो पूरे जिवटता के साथ किया, विदेशी आक्रांताओं को नाकों चने चबा दिया परन्तु मीडिया प्रबन्धन में कमजोर पड़ गए; अंजाम यह हुआ कि उनके सम्बन्ध में सामान्य जनता अच्छी तरह नहीं जानती है। झारखण्ड के जनजातियों ने वैयक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर अंग्रेजों के साथ जंग छेड़ा था। सिद्धू और कान्हू, नारायण मांझी, बिरसा मुण्डा, जतरा उरांव एवं बहुत से आदिवासी स्वतन्त्रता सेनानियों ने अपने पराक्रम एवं पौरुष से अंग्रेजों के मन में आतंक का साम्राज्य स्थापित कर दिया। इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण कड़ी है संतालों का विद्रोह जिसे 'संताल हूल' कहा जाता है। 'संताल हूल'इतनी महत्वपूर्ण घटना है लेकिन दुर्भाग्य से इसके सम्बन्ध में आजतक किसी भी ऐसे तथ्यपरक खोज को सामान्य जनता तक लाने का प्रयास नहीं किया गया है। हलाँकि मानव विज्ञान,इतिहास, समाजशास्र, राजनीतिशास्र, जनजातीय अध्ययन, पत्रकारिता; आदि विषयों के शोधार्थियों ने अपने शोध कार्य के लिए एवं विद्या - वाचस्पति के डिग्री के लिए इन विषयों पर कुछ कार्य अवश्य किया है; परन्तु उनका प्रयास भी इसे जन-सामान्य के न में लाने में आज की तिथी तक असमर्थ ही रहा है। सरकारी रेकॉर्डों में भागलपुर एवं संतालपरगना कमीशनरी के रिकॉर्ड रुम में वे सारी चीजें सड़ रही हैं। सही अर्थों में किसी ने कोई विशेष रुचि इस दिशा में नहीं ली है। हाँ, बीच -बीच में कुछ अंग्रेज लेखकों,विद्वानों एवं प्रशासनिक अधिकारियों ने इस 'हूल' के बारे में येन-केन- प्रकारेण लिख दिया है।किन्तु जो वर्णन उनके द्वारा अबतक किए गए हैं, उनसे यह स्पष्ट नगता है कि बहुत महत्वपीर्ण तथ्य तथा बातें जान- बूझकर छीपा दी गयी है। इस लेख में सही तथ्य को प्रकाश में लाने का एक प्रयास किया गया है। एक भ्रम यह भी जान - बूझकर अंग्रेजों द्वारा पैदा किया गया कि दिक्कू लोग जब संताल जनजाति के सीदे- सादे लोगों पर बहुत अत्याचार करने लगे और अमानवीय ढ़ंग से उनका शोसन करने लगे तब संतालों ने बिगड़कर विद्रोह कर दिया था। यहाँ पर यह भी स्पष्ट करना अनिवार्य है कि 'दिक्कू' शब्द का अर्थ बाहरी लोगों से है जो गैर जनजाति से है। इन विचारधारा के लोगों की मान्यता यह है कि संताल एवं अन्य जनजाति समुदायों के लोग यह दिल से चाहते थे कि सभी दिक्कुओं को मारकर झारखण्ड, विशेषकर संताल परगना से भगा दे और सारे इलाके में संतालों का एकक्षत्र राज्य कायम कर दे। यह धारणा भ्रामक, निराधार एवं बिल्कुल गलत है। सही अर्थों में 'संताल हूल' संताल जनजाति का सबसे पहला 'स्वतन्त्रता संग्राम'था जो अंग्रेजों के विरुद्ध था। अंग्रेज संताल जनजाति एवं अन्य आदिवासी भाई -बहनों पर तरह- तरह के अत्याचार करने लगे थे, जिससे तंग आकर संताल भड़क उठे और अन्तत: उनेहोंने सशस्र क्रांति कर दिया। मूल कारण यह था कि संतालों को जंगल आदि साफ कर निवास एवं कृषि कार्य के लिए जो जमीन अंग्रेजों ने दी थी पहले उसपर मालगुजारी आदि लेने की कोई बात नहीं थी। परन्तु कुछ वर्षों के बाद जब संताल लोगों ने एड़ी -चोटी का पसीना एक कर काफी जमीन बना ली,और उसमें कृषि कार्य़ करना प्रारम्भ भी कर दिया तब अंग्रेजी हुकूमत ने वादा- खिलाफी करके उनकी जमीन पर मालगुजारी लगा दी। मालगुजारी की यह राशि धीरे- धीरे बढ़ाई भी गई।परिणाम यह हुआ कि जहाँ सन् १८३६-३७ में उनकी जमीन की मालगुजारी २, ६११ रुपये की थी उसे १८५४-५५ में बढ़ाकर ५८०३३ रुपये कर दी गई। एक ओर अंग्रेज सरकार अन्य लोगों को हर प्रकार की सुविधाएं दिये हुई थी और दूसरी ओर पड़ोसी संतालों के साथ विपरीत व्यवहार कर रही थी। माहौल काफी दमनात्मक था। संताल जनजाति के लोग मन ही मन सरकार के दोरंगे व्यवहार से क्रोधित हो रहे थे। आक्रोश की ज्वालामुखी शनै: शनै: फूटने की अवस्था में आ रही थी। शान्त, निश्चल प्रकृति की गोद में रहनेवाले संताल के दिलों दिमाग पर क्रान्ति की भावना उत्पन्न हो रही थी। उनके मन -प्राण में यह भावना घर कर गई थी कि जिस धरती को हमने अपने रक्त और पसीने के रुप में बहाकर कृषि कार्य हेतु तैयार किया, उनका मालिक आज दूसरा क्यों और कैसे होगा? 'संताल हूल' के कुछ अन्य कारण भी हैं। संतालों से मालगुजारी वसूल करने के लिए अंग्रेज सरकार ने भागलपुर (आज के बिहार) में एक अंग्रेज कलेक्टर बहाल किया था,जिनकी मदद के लिए कुछ तहसीलदार भी बहाल किये गये थे। ये तहसीलदार घुसखोर, उपद्रवी एवं बदतमीज कि के लोग थे। संतालों के साथ ये बहुत बुरा व्यवहार करते थे।सिर्फ इतना ही नहीं, जो तहसीलदार उनसे मालगुजारी वसूलते थे, वे ही संतालों के फौजदारी मामलों में थानेदार भी थे। संताल स्वभाव से चावल निर्मित हांड़ी ( देशी शराब) एवं महुए के शराब आदि नशीले पदार्थों के सेवन करने के अभयासी थे, फलत: स्थानीय महाजनों एवं साहुकारों के चंगुल में धीरे- धीरे फंसते जा रहे थे। यदि कभी अंग्रेज हाकिम या महाजनों के खिलाफ इन्हें किसी प्रकार का मुकदमा दायर करना पड़ता था, तो जंगीपुर (बंगाल) जाना पड़ता था, क्योंकी उनके सभी फौजदारी और दीवानी मुकदमों की सुनवाई वहीं होती थी।वहाँ भी इन सीधे- सादे संतालों के साथ भयंकर अन्याय होता था; क्योंकि मुकदमें की जांच पड़ताल का भार थानेदारों पर छोड़ा जाता था और वे बराबर इनके खिलाफ पड़ते थे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, घुसखोरी बहुत बढ़ गई थी तथा जाल फरेब का बोलबाला हो गया था। हाचार एवं असहाय संताल जनजाति के लोग महाजनों के मारे थानेदारों के पास एवं थानेदारों के मारे महाजनों के पास गेन्द की तरह ठोकरें खाने लगे थे।उस समय पाकौड़ तथा राजमहल के क्षेत्रों में निलटे गोरों की कोठियां बस गयी थीं। ये लोग भी संताल पर बहुत अत्याचार करते थे।इनके अत्याचार ने इस क्रान्ति की आग में घी का काम किया।ठीक इसी समय एक और ज्वलन्त तात्कालिक कारण उपस्थित हो गया। पूर्वी इलाके में रेल लाइन (पटरी) बिछाई जा रही थी, जहाँ बहुत संताल स्री-पुरुष मजदूरी करने गये थे। वहाँ संतालों की बहू-बेटियों की इज्जत लूटी जाती थी, जो इन्हें बर्दाश्त नहीं था। इससे वे क्षुब्द्ध हो गये। इस तरह ज्वालामुखी फूट पड़ी। १८५५ के जून में क्रान्ति की ज्वाला एकाएक फूट पड़ी थी, जिसका आश्चर्यजनक एवं अद्मय साहस से उत्साहित होकर बिना भय आदि का परवाह करते हुए भगनाडीह नामक संताल गांव में रहनेवाले चार भाइयों ट्ठट्ठट्ठसिदो, कान्हू, चान्दो और भैरो ने किया था। ये चारों सगे भाई थे एवं एक ही माता से उत्पन्न संतान थे।इन चारों भाईयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संतालों को एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए गांव- गांव घूमकर तैयार किया। इनलोगों ने बुद्धिमानी से संतालों में एक ऐसी बात का प्रचार कर दिया, जो हवा की तरह चारो तरफ अपने- आप फैल गई। इनलोगों ने लोगों में इस बात को फैलाया कि हमारी इष्ट देवी ने हमें अंग्रेजी हुकूमत से स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए समस्त संताह जनजाति के लोगों के नेतृत्व करने का आदेश दिया है। इतना ही नहीं मरांग बुरु (प्रथम ईश्वर) एवं जाहेर आयो (उनकी पत्नी) ने हम चारों भाईयों को सात बार विभिन्न रुपों में दर्शन दिया है और निर्देश दिया है कि स्वतन्त्रता के इस सन्देश को देश के कोने- कोने में फैला दो ताकि सभी लोग भावी संकट का मुकाबला करने के लिए तैयार हो जाए,तभी तुम लोग पूर्व की भांति स्वतन्त्र रह सकोगे।" चारों भाईयों एवं उनके अनन्य समर्थकों द्वारा इस तरह के प्रचार ने संतालों में जादू का काम किया और सिदो तथा कान्हू सभी संतालों के नेता मान लिये गए। उनका सम्मान समस्त संताल समाज में देवता या मसीहा जैसा हो गया। शायद ही महाराणा प्रताप,कुँवर सिंह,रानी लक्ष्मीहाई या रानी चेनम्मा को जन -जन का ऐसा प्यार एवं मरने - मिटने के लिए सहयोग मिला हो जैसा इन चारों भईयों विशेषकर सिदो और कान्हू को मिला। वे सच्चे जननायक बन गए। उनके एक इसारे पर समस्त संताल समुदाय मर - मिटने के लिए तैयार था। स्री- पुरुष, बाल-बृद्ध सभी के बीच उनका एक स्थान एवं यश प्राप्त था। उसके बाद सन् १८५५ई० के ३० जून को पूर्णिमा तिथि में लगभग दस हजार संताल अपने परम्परागत अस्र तीर - धनुष के साथ भगनाडीह नामक गांव में इकत्र हो गए और सिदो और कान्हू के नेतृत्व में स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। सिदो और कान्हू को उन लोगों ने सूबा अर्थात् राजा बना दिया और भैरो तथा चान्दों को सेनापति। इसके बाद ही उन लोगों ने एक साथ घोषणा कर दी कि," अब हम स्वतन्त्र हैं। हमारे उपर अब कोई सरकार नहीं है, इसलिए न कोई हाकिम है न कोई थानेदार। अब अपना और केवल अपना संतालराज स्थापित हो या है।"और अपने राज्य की और्थिक स्थिति को संतुलन में रखने के लिए उन्होंने साथ - ही - साथ यह भी घोषणा कर दी कि" अब से हम लोग, प्रति भैंस के हल पर चार आना और बैल के हल पर हो आना अपना मालगुजारी दिया करेंगे। कर्ज का सूह भी रुपये में सिर्फ एक पैसा प्रति वर्ष देना पड़ेगा-- यही मरांग बिरु या ठाकुर जीयो का आदेश है।" इस आदेश को सुनते ही वहाँ उपस्थित दस हजार लोग खशी से झूम उठे। अब उनके खून में अग्रेजों एवं उनके ठेकेदारों से लड़ने के लिए हिलोड़े उठने लगे। इतना सुनना था कि उन लोगों ने पूरे जोश के साथ दूनी आवाज में कड़क कर कड़क कर थानेदार से अभियुक्तों को तुरन्त छोड़ देने के लिए कहा। साथ ही यह भी कहा कि यदि वे नहीं छोड़ेगे तो बहुत बुरा होगा। इसपर थानेदार गुस्से से कांपने लगा। उसे लगा," अभी तक सिर उठाकर जो बात नहीं करता था अब वह मेरी सत्ता को चुनौती दे रहा है। आखिर ये लोग चाहते क्या हैं ! इन्हें इनकी औकाद बताना ही पड़ेगा।" इतना सोचने के बाद थानेदार ने तुरन्त सिदो और कान्हू को गिरफ्तार कर लेने का आदेश वहाँ खड़े अपने सिपाहियों को दिया ट्ठ " इन उज्जड़ संतालों को तुरत गिरफ्तार करो। अभी इनकी हेकड़ी निकालता हूँ। "थानेदार के इस आदेश को सुनते ही सारे संताल उग्र हो गये। उत्तेजना में आकर उनलोगों ने थानेहार एवं सिपाहियों पर हमला कर दिया। महाजन सहित थानेदार एवं अनेक सिपाहियों का वहीं तीर - धनुष से जान मार दिया गया। इसके बाद ही क्रान्ति की ज्वाला में जैसे वे लाल हो गये। हरेक संताल मरने मिटने पर आमादा था। किसी भी हालत में थानेदार, महाजन एवं अंग्रेजी सरकार के लोगों को खदेड़ना उनका एकमात्र उद्देशय हो गया था। अपनी भूमि, अपने लोग और अपनी सम्पत्ति का संचालन व हिफाजत वे स्वयं करना चाहते थे।संतालों की विशाल सेना अंग्रेज - सरकार और उनके जमींदार तथा महाजनों को अपने क्षेत्र से उखाड़ फेंकने की योजना आगे बढ़ी। उनके जोश को देखकर ऐसा लगता था मानो देवाधिदेव महादेव स्वयं सिदो और कान्हू के शरीर में प्रवेश कर अपने दुर्दान्त गुणों के साथ ताण्डव कर प्रलय के लिए तैयार हैं। अंग्रेज महाजन और जमींदार जहाँ - जहाँ रहते थे, वहाँ - वहाँ संतालों ने अस्र - शस्र से प्रलयंकर धावा बोला था। इसके लिए उनका एकमात्र नारा था -
संतालों के लड़ाई करने के तरीके बिल्कुल परम्परागत और सटीक थे। संताल फौज की कई टुकड़ियाँ थी।प्रत्येक टुकड़ी तीर धनुष और बर्छों से सुसज्जित विभिन्न संचालकों के अधीन थी। एक टुकड़ी जो प्रमुख थी फुदकपुर ग्राम की ओर बढ़ी और दूसरी साहेबगंज की ओर। फुदकीपुर ग्राम में कुछ गोरे निहले लोग रहते थे।संताल सेना की उस टुकड़ी ने चांदराय के नेतृत्व में उनपर हमला किया, और उन्हें जान से मार डाला। कहते हैं निहले गोरों ने अपने अन्य सिपाहियों के साथ बन्दूकें लेकर उनके आक्रमण का मुकाबला किया था किन्तु संतालों के सामने उनका सभी कौशल व्यर्थ हो गया। साहेबगंज में निहले गोरे लोग रहते थे। वहाँ वे बहुत अधिक संख्या में थे। पर जब उन्हें मालूम हुआ कि संताल फौज उन्हें मारने के लिए आ रही है तब वे नाव पर चढ़कर गंगा नदी में चले गए। संताल फौज जब बिजयी डंका बजाते हुए वहाँ पहुँची तब उनके सभी घरों को खाली देखकर क्रोध से आग - बबूला हो गई। उन लोगों ने सभी घरों को आग लगाकर जला दिया। गोरे लोग गंगा की गोद में बहुत दूर तक पहुँच गए थे। इसलिए उनके घरों को जलाने एवं तहस - नहस करने के बाद संतान फौज गंगा नदी के तट पर पहुँची और बेतहासा तीरों की वर्षा करने लगी। किन्तु वे इतनी गूर जा चुके थे कि क भी तीर उन तक नहीं पहुँच पाता था। गोरे लोग उधर से जो गोलियाँ चलाते थे वे सभी संताल फौज की टुकड़ी के बीच पहुँच जाती थी, फलस्वरुप बहुत से संताल सैनिक वहाँ मारे भी गये थे।सरकारी रेकॉर्ड यह भी बतलाता है कि भागलपुर में रहनेवाला अंग्रेज कलेक्टर उस समय राजमहल में, साहेबगंज के पास ही था।संताल फौज ने पहुँचकर जब उन्हें चारों ओर से घेर लिया तब वे अपने साथियों सहित वहाँ के पुराने सिंहीदलान में जाकर छिप गए, जहाँ एक अंग्रेज अभियंता रहता था। कहते हैं सिंहीदलान की दीवारों में बराबर तोपें लगी रहती थी।संताल - विद्रोह की लहर ने इतना जोर पकड़ लिया था कि उसमें बहुत अंग्रेज महिला और बच्चों तक की जान ली गयी थी।पैलापुर गाँव में भी कुछ गोरे रहते थे। संताल - फौज ने उन पर भी धावा बोल दिया था। इसी बीच अंग्रेज सरकार को इनके उपद्रव की सूचना मिल चुकी थी। अत: भागलपुर स्थित अंग्रेज कप्तान 'फगान' के अधीन सरकार ने फौज की एक टुकड़ी को, जिसमें पाँच सौ सैनिक थे,उपद्रव को शान्त करने के लिए भेजा था। उस टुकड़ी में पहाड़िया लोग भी थे। उन लोगों ने पैलापुर पहुँचकर संताल - फौज का सामना किया।दोनों फौजी टुकड़ियों में घनघोर युद्ध हुआ। संताल - फौज पहाड़ पर से छिप - छिपकर वाण की वर्षा करती थी। इसमें सरकारी सैनिकों के छक्के छूट गए। यद्दपि इस मोर्चे में संतालों के कई अच्छे नेता मारे गये थे, पर जीत उन्हीं की हुई थी।इस तरह से उन्होंने पूरे संताल - अंचल(दामिनी कोह) पर अपना अधिकार जमा लिया था। लगभग १५ दिन तक वे भागलपुर - कहलगाँव से संताल परगना के राजमहल तथा र्तृतिया से रानीगंज तक के स्वामी बने रहे। इसके बाद संताल - विद्रोहियों ने पाकुड़ और महेशपुर की ओर कूच किया। उक्त क्षेत्र के कदमसैर ग्राम में अंग्रेजों की 'नील' की एक फैक्ट्री थी। क्रान्तिकारियों ने उसपर हमला कर दिया, जिसका सामना अंग्रेज प्रतिनिधि मिस्टर मसाइक ने गोलियों से किया। इसी बीच धुलियान (बंगाल) से अंग्रेजों के पलटन संतालों का सामना करने के लिए वहाँ आ पहुँचे। तब तक संतान - फौज पाकौड नामक स्थान में पहुँच चुकी थी। वहाँ भी दोनों फौजी टुकड़ियों में जमकर मार - पीट हुई। कहते हैं क्रान्तिकारी संतालों ने सरकारी और रेलवे अफसरों को बचाने के लिए वहाँ बीस फूट के घेरेवाला, तीस फूट ऊँचा एक 'मारटेला टावर' बनाया गया था। उसकी दीवारों में चारों ओर भीतर से गोलियां चलाने के लिए बहुत से छिद्र बनाए गए थे। अंग्रेज अधिकारियों ने उसी में धुस कर प्राण बचाये थे। उस प्रकार विजय प्राप्त करता हुआ संताल - विद्रोहियों का वह दल बीरभूम जिले के पलसा नामक स्थान से होते हुए महेशपुर तक जा पहुँचा था। सरकारी सैनिकों से वहाँ उनका जमकर मुकाबला हुआ। यह मुकाबला रेकॉर्ड के आधार पर १५ जुलाई १८५५ को हुआ था, जिसमें संताल फौज को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। अपनी शक्ति को कम होते देख सिदी फौज की उस टुकड़ी को लेकर 'बढ़ैत'आ गया था, जहाँ उसने नये सिरे से फौजी संगठन आरम्भ कर दिया था। उसमें आस - पाक के दीक्कू ने भी संताल विद्रोहियों का साथ दिया था परन्तु बरसात ने उन्हें बड़ी बाधा दी। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अचानक बरसात के आ जाने से उनकी क्रान्ति की आग धीरे - धीरे ठण्डी पड़ने लगी। काफी संताल - सैनिक मारे गये और गिरफ्तार कर लिये गये। बढ़ैत, जो संतालों के कब्जे में आ गया था,पुन: अंग्रेजों के हाथ में चला गया। इसके बाद अंग्रेजों ने इनके दमन की पूरी व्यवस्था की और एक महीने के भीतर संताली क्षेत्र अर्थात दामिनीकोह का उत्तरी भाग क्रान्तिकारियों से बिल्कुल खाली करा लिया। किन्तु तब भी समूचे जिले में तीस हजार ऐसे सशस्र संताल थे,जिन्हें दबाना सहज नहीं था। अंग्रेज सरकार बहुत ही असमंजस की अवस्था में थी। आखिरकार १५ अगस्त १८५५ को सरकार ने घोषणा की कि:
लेकिन संताल - विद्रोहियों ने अंग्रेज सरकार द्वारा की गई ऐसी घोषणा को उसकी कमजोरी समझा और पुन: सितम्बर महीने में वे दूने उत्साह से युद्ध के मैदान में उतर गये। अत: फिर उन्होंने दक्षिणी - पश्चिमी भाग को अपने कब्जे में कर लिया। किन्तु तब तक बरसात बीत चुकी थी, इसलिए सरकारी फौज की सुविधाएँ बढ़ गयी थीं। एक ओर हजारों संताल भूख और महामारी के शिकार हो मिट रहे थे और दूसरी ओर सरकार ने जिले भर में मार्शल ला (फौजी कानून) लागी कर दिया था। आश्चर्य है कि इतना कुछ करने के बाद भी संतालों ने आत्मसमपंण नहीं किया। सरकारी फौज से जहाँ - तहाँ छिट - पुट भिडन्त होती ही रही। लेकिन मार्शल ला जारी रिये जाने के बाद सारे क्षेत्र में चौदह हजार सरकारी सैनिक फैला दिये गये। ऐसी स्थिति में स्वतन्त्रता के उन पुजारीयों को भी दब जाना पड़ा।सरकार ने सिदो सहित अनेक संतान नेताओं को अपार जन - समूह के सामने पेड़ में लटकवाकर फांसी दे दी। पता नहीं क्यों भारतीय आजादी के इस महान संघर्ष एवं इस विद्रोह के बिगुल को बजाने वाले एवं इन्हें संचालित करनेवाले महान स्वतन्त्रता सेनानियों के सम्बन्ध में हमारे इतिहासकार राजनैतिज्ञ और यहाँ तक की सामान्य जनता भी मौन क्यों है? जनजाति चेतना और स्थानीय प्रभुत्व के कारण पांच - सात वर्ष पूर्व भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सिदो - कान्हू विश्वविद्यालय कर दिया गया हौ। एक दो स्थानों पर उनकी प्रतिमा भी सुसज्जित कर दिया गया है। परन्तु आज आवश्यकता इस बात की है कि संताल जनजाति के महान देशप्रेमियों ने १८५६-५७ से भी पूर्व जो एक अदम्य साहस और देशभक्ति का परिचय दिया, उसकी जानकारी सभी लोगों को मिले। इस आलेख की रचना इसी उद्देश्य से की गई है।
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