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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर' |
जन्त्रारुढ़ वि का जीवन गीत |
कबीरीय संगीत
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कबीरीय वाणी |
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छत्तीसगढ़ में बहुप्रचलित कबीर जी के भ तुम जिनि
जानों गीत यह, यह निज ब्रह्म विचार। |
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- कबीर
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हां, कबीर ने गीतों के माध्यम से केवल अपना व जग का ""आत्मशोधन'' किया था। आत्मा की खोज की यह प्रक्रिया सभी पहलुओं को छूती-परखती वहां पहुंची है - जहां वह मन को समझने में समर्थ हो सके। क्योंकि मन ही सभी समस्याओं का कारण व समाधान दोनों है। कबीर ने ""मन गढ़ने'' का संकल्प लिया था। इसलिए वे इतिहास गढ़ सके। |
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""मन
गोरख, मन गोविन्दौ, मन ही औघड़
होई। |
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- कबीर
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१. |
कब भजि हो
सत्यनाम सो मेरे मन।
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टिप्पणी - |
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कब मेरे भाग जागेंगे। कब मुझे कबीर साहर की कृपा प्राप्त होगी, जब मुझमें सत्बुद्धि आयेगी और मैं प्रभु चरणों में अपने को अर्पित कर दूंगा। सारी उमर विषयों के उपयोग में बीत गई। अब वृद्धावस्था है। शरीर जीर्ण शीर्ण है। अब केवल साहब आपकी कृपा का भरोसा है। अविलम्ब दयादृष्टि दीजिए। | ||||
२. |
पानी में
मीन पियासी, मोहि सुन-सुन हावे
हाँसी।
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टिप्पणी - |
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""गुरु बिन
मिले न ज्ञान, गुरु बिन मिले न मोक्ष। गुरु बिन मिले ने सत्य, गुरु बिन मिटे ने दोष।'' |
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- कबीर |
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३. |
बोले काया
में सुगनवा बनके लहरी।
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टिप्पणी - |
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जीवन क्षण भंगुर है। शरीर रुपी पिंजरे से जब प्राण पखेरु उड़ जाएगा, तब यह प्राणहीन मिट्टी का तन माटी में ही पड़ा रह जाएगा। जिन सांसारिक सुखों के पीछे भागता फिर रहा है वे साथ नहीं देंगे। अत: समय के रहते प्रभु की आराधना कर ले। |
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४. |
धूँघट के पट
खोल रे तोको पिया मिलेगें।
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टिप्पणी - |
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माया मोह का आवरण फाड़ दे। अज्ञानता और विषय वासना की दीवाल तोड़ दे। देह का परदा खोल दें। अपने अंतर में झांक। तू ही हंस रुप में वहां विद्यमान है। नीर-क्षीर, विवेक तेरा गुण है। अत: अपने प्रभु, अपने राम को पा ले। वही तेरा अपने आप को पाना है। |
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५. |
करम गति
टारे नाहिं टरी।
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टिप्पणी - | ||||
जो भाग्य में लिखा है, वह अवश्य होता है। बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उससे बच नहीं सकता। संसार का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है। कबीर दास जी कहते हैं यह जीवन भटकन भरा है अत: प्रभु की वंदना में ध्यान लगायें। |
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६. |
मन मस्त
हुआ तब क्यों बोले।
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टिप्पणी - |
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""तेरा साँहि
तुझमें बसे, ज्यूं पुहुपन में वास। कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिर-फिर सूंघे घास।'' |
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- कबीर |
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जेहि खोजत कल्पौ गयो, घटहि माँहि सोमूर। | ||||
- कबीर |
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७. |
प्यारे प्रपंच
में तो दिन रात तुम गुजारो।
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टिप्पणी - |
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इस प्रपंचात्मक संसार में तुमने जीवन व्यर्थ कर डाला। अब समय नहीं है। अंत आ पहुंचा है। प्रभु चरणों में अपने को दे दो। और अपने जीवन का अर्थ पा लो। |
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८. |
चादर झीनी
हो झीनी
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टिप्पणी - |
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ये जीवन रुपी चदरिया मैली हो चुकी है। केवल कबीर ने ही जैसी चादरिया ली थी वैसी जतन से ओढ़कर वापस कर दी है। कबीर आने वाली पीढ़ी से कह रहे है, सीख दे रहे हैं कि इस चदरिया को मलिन न होने दे। |
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९. |
मोको
कहाँ ढूंढ़ं बन्दे मैं तो तेरे पास
में।
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टिप्पणी - |
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इसमें कबीर कह रहे हैं कि राम तुम्हारे भीतर है। तुम उन्हें बाहरी दुनियां में कहां ढूंढ़ रहे हो। तुम्हारा जीवन-बोध और तुम्हारा आत्मबोध ही राम है- |
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मृगा की
नाभि कस्तूरी, |
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- कबीर |
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१०. |
मन फूला
फूला फिरे जगत् में, कैसा नाता रे।
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टिप्पणी - |
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संसार में सारे नाते-रिश्ते झूठे हैं, मायावी हैं। भोग वासना में लिप्त रहकर तू फूला नहीं समाता है। सारा जीवन अकारथ करने के बाद अंत समय पछताता है। देर न कर, प्रभु की शरण में जा। |
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जैसी प्रीत
कुटुम्ब सो, |
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- कबीर |
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११. |
मोरी
चुनरी में परि गयो दाग पिया।
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टिप्पणी - |
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सतगुरु की कृपा के बिना जीवन की चदरिया पर कर्म संस्कारों का जो दाग लगा है वह छूट नहीं सकता। केवल सतगुरु की कृपा के जल से धुल सकता है, निर्मल हो सकता है। केवल उसी की शरण में जाओ - |
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मन ऐसा
निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। |
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- कबीर |
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१२. |
जो खुदाय
मसजीद वसतु है और मुलुक केहि
केरा।
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टिप्पणी - |
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मोको
कहाँ ढूँढ़े बन्दे मैं तो तेरे पास
में। |
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- कबीर |
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१३. |
उमरिया
धोखे में खोये दियो रे।
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टिप्पणी - |
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सारी
उमरिया संसारिक प्रपंच में बीत
गयो। |
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१४. |
कुछ लेना न
देना मगन रहना।
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टिप्पणी - |
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गुरु की महिमा का वर्णन है। दुनिया के माया-जाल से दूर प्रभु अराधना में लीन रहकर ही इस शरीर के बंधन से मुक्ति मिल सकती है। |
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१५. |
कबीर की साखियां... १५
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१. |
राम-रहीमा
एक है, नाम धराया दोय। |
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२. |
काशी-काबा
एक है, एकै राम रहीम। |
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३. |
एक
वस्तु के नाम बहु, लीजै वस्तु
पहिचान। |
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४. |
राम
कबीरा एक है, दूजा कबहु न होय। |
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५. |
जाति
न पूछौ साधु की, जो पूछौ तो ज्ञान। |
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६. |
कबिरा
तेई पीर है, जो जानै पर पीर। |
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७. |
पोथी
पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न
कोय। |
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८. |
निन्दक
नियरे राखिये, आँगन कुटी छबाय। |
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९. |
माटी
कहैं कुम्हार सौं, तू क्या र्रूंदे
मोय। |
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१०. |
जहां
दया तहँ धर्म है, जहां लोभ तहँ
पाप। |
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११. |
पाहन
पूजे हरि मिलै, तौ मैं पूंजूँ
पहार। |
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१२. |
कबीर
माला काठ की, कहि समझावे तोहि। |
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१४. |
मूरख
को समुझावते, ज्ञान गाँठ का जाई। |
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१५. |
माला तौ
कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं। |
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संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ७९ |
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२. |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ४५ |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ४८ |
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४. |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ४८ |
५. |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ५० |
६. |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ७० |
७. |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ७८ |
८. |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ८१ |
९. |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ८५ |
१०. |
साहेब, गृन्धमुनि नाम : अनुराग सागर पर मेरा अनुराग : प्रकाश कुंज : कटोरा तालाब : रायपुर : पृष्ठ ४३ |
११. |
साहेब, गृन्धमुनि नाम : सदगुरु कबीर ज्ञान पयोनिधि : वही : पृष्ठ ९८ |
१२. |
संकलन : जनसम्पर्क विभाग : मध्यप्रदेश सरकार : संत कबीर और उनकी वाणी : पृष्ठ ३६ |
१३. |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : १०७ |
१४. |
संकलन : दास मनोहर : भजन मुक्तावली :पृष्ठ : ४२ |
१५. |
संकलन, जनसम्पर्क विभाग : मध्यप्रदेश सरकार : संत कबीर और उनकी वाणी : पृ.: १५, १९, २१, २३, २९, ३० एवं ३१ |
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