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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर' |
जन्त्रारुढ़ वि का जीवन गीत |
कहानियां - आदिवासी कथाएं कथाएं |
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१. गोंड़ - पवन के बारे में |
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स्थान - बिल्हा, जिला - बिलासपुर साहस राजा गर्हगर्हपुर में रहते थे। उसने सात मंजिल के कमरे बनाये। जब दिन के समय मुंह खोलते थे तो हवा बहती थी। जब राद को मुंह बंदकर लेते थे, तो हवा बंद हो जाती थी। दो चार दिनों के बाद साहस राजा जीवित प्राणियों को जैसे मनुष्य, हिरण, शेर, तितली, चिड़िया आदि को बुलाकर घर में बंद कर लिया करते थे। जिसमें कहीं भी हवा नहीं होती थी। जीवित प्राणी भयभीत थे। हवा की कमी के कारण गर्मी इतनी बढ़ जाती थी कि वे सांस नहीं ले सकते थे। तब वे साहस राजा के नाम पर चिल्ला पड़े। हम लोग मर जायेंगे। हमें जाने दो और हवा को पुन: भेजो। उसने इन लोगों को जाने दिया और अपना मुख खोला और हवा बहने लगी। तब एक धुरगोंड साहस राजा के पास आया। उन्होंने साहस राजा जिस कमरे में रहते थे उसमें ताला लगा दिया। और बंद कर दिया। ताकि वह सांस न ले सके और हवा चुरा कर अपने मुंह में बंद न कर सके। और तब से हवा वि में चारों ओर फैली मिल जाती है। .... १ |
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२. गोंड़ - प्रकृति में नियमन और संतुलन का सिद्धांत |
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स्थान - बिल्हा, जिला - बिलासपुर एक साधु जंगल में रहते थे। वे अनेक प्रकार का जड़ी-बूटियां तथा फल खाया करते थे। जब वे एक दिन मल विसर्जन को गये तब उन्होंने सोचा कि फल और जड़ी-बूटियां खा कर मैं बड़ा रुचि कर मल विसर्जन करता हूं, परंतु इसे खाएगा कौन? उन्होंने अपनी दोनों हथेलियों को रगड़ा। उनके हाथ के मैंल से तीन गोले बने। उसमें से एक गेंद से उन्होंने कुकुरमाछी बनायी। और उन्होंने उस माछी से कहा कि तुम मनुष्य के घर के चारों ओर घूमों और रखवाली करो। और जब बैल थके मांदी हल जोतने के बाद घर लौटें तब उसके ऊपर बैठो और उसके शरीर का थोड़ा खून पी जाओ, तब उसमें ताजगी आएगी और वह फिर से अपने को बलशाली समझेगा। तब दूसरे गेंद से उन्होंने कहा जाओ तुम घर की मक्खी बन जाओ और जहां तुम्हें अच्छा भोजन दिखाई पड़े उप पर जीवित रहो। तीसरे गेन्द से कहा कि जाओ तुम सूअर बनो। मैं प्रतिदिन फल और जड़ी-बूटियों से अच्छा मल विसर्जन कर्रूंगा और तुम उसके आधार पर जीवित रहना।... २ |
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३. गोंड - अनाज |
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स्थान - पण्डरिया, जिला - बिलासपुर श्रीयल झाँगो पार्वती के बांयी तरफ से पैदा हुआ और अंगर मोती दांयी तरफ से। दोनों की बारह लड़कियां और बारह लड़के थे। श्रीयल झाँगो गोंड़ से पैदा हुए। पहले गौंड का नाम है धरती चरण। आंगर मोती से हिन्दू मसलमान और अंग्रेज (ईसाई) पैदा हुए। उनको खिलाने के लिए महादेव ने उसे बांस और सरई का बीज दिये। परंतु उन्होंने इस प्रकार के गरीब खाना खाने से मना कर दिया। तब महादेव को उन्हें उचित अनाज देना पड़ा।... ३ |
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४. गोंड - ईश्वर के बारे में (स्थानांतरित खेती) |
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स्थान - बिल्हा, जिला - बिलासपुर गोंड़ लोग कचमच राज में रहा करते थे। उस समय उनका कोई भगवान नहीं था। पांच आदमी एक साथ आये। उईके, श्याम, नेताम, पाण्ड्रो एवं मरावी। और उन्होंने कहा कि ""हम बिना भगवान के कैसे रह सकते हैं?'' तब उन्होंने भगवान के पास अनुरोध भेजा। भगवान ने उनके लिए बारा पेन या बारा देव (गोंड़ का सबसे बड़ा देवता: को भगवान बना दिया। और पालो को उनका चपरासी। गोंड़ लोग बारा पेन को सफेद बैल से तथा पालो को काले बैल से पूजते हैं। एक दिल झरिया राजा उस स्थान को देखने आया और उसने कहा कि तुम्हारे भगवान में कितना सत् है। वह मैं देखना चाहता हूं। जब तक वह अपना सत् नही दिखायेगा, मैं उसको फेंक दूंगा। उसने एक केले के पेड़ के अंदर एक लोहे का खंभा बनाया और लड़की की तलवार। बारा पेन ने लकड़ी की तरवार उठाई और एक ही चोट में लोहे के खम्भे के दो टुकड़े कर दिये। तब वह तलवार राजा की ओर आयी। राजा डर गया और उसने बारा पेन को दण्डवत् प्रणाम किया। तथा साथ ही उसने एक बकरा बलि चढ़ाने को कहा। गोंड़ बहुत गरीब थे, उन्होंने अपने देव बारा पेन से तलवार को जंगल में भेजने को कहा। तलवार जंगल गयी और उसने एक पूरे जंगल को काट दिया। गोंड़ उसके पीछे-पीछे वहां पहुंचे और उन्होंने पेड़ों को जला दिया। उसके बाद उसमें बीज बो दिया। और उन्हें एक सम्मत (प्रचूर) फसल मिली। तब से गोंड़ लोग बारा पेन की पूजा करते हैं।... ४ |
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५. गोंड - स्वप्न और जीवन |
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स्थान - बिल्हा, जिला - बिलासपुर जब मनुष्य खेतों में काम करके थके मांदे लौटते हैं, तब वे अपने कमरों एवं बरामदों में आराम करते हैं। वे सो जाते हैं और उनकी आत्मा उस धन की खोज में निकल पड़ती है, जिसे वे दिन भर खोज नहीं पाये थे। इसलिए इंसानों को नींद दी गई है। क्योंकि इसके बिना उनमें साहस नहीं आएगा। नींद में एक आदमी अपने को बुद्धिमान और धनवान दोनों समझता है और फिर वह पूरे संसार में भ्रमण करता है। बिना नींद के वह रोजमर्रे के काम को नहीं कर सकता।... ५ |
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६. गोंड - आकाश |
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आकाश से संबंधित पौराणिक कथा गोंड़ जनजाति में प्रचलित है। प्राचीन समय में आकाश नीचा था। एक बुढिया बड़े सबेरे जब अपना आँगन झाड़ रही थी तब आकाश उसकी पीठ से टकरा गया, जिससे बुढिया नाराज हो गई। झाडू से उसने आकाश को ऊपर की ओर ठेलना शुरु कर दिया। इससे आकाश डर गया और तीव्र गति से ऊपर की ओर भागा तथा उस स्थान पर पहुंच गया, जहां वह वर्तमान समय में विद्यमान है।.... ६ |
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७. पनिका (पनका) उत्पत्ति - विषयक मान्यताएं |
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ऐसा कहा जाता है कि संत कबीर का जन्म जल से हुआ था और वे एक पनका महिला द्वारा पाले पोसे गये थे। कहा जाता है - |
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पानी
से पनका भये, बूंदन रचा शरीर। |
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पनका प्रमुख रुप से छत्तीसगढ़ और विंध्य क्षेत्र में पाये जाते हैं। आज कल अधिसंख्यक पनका कबीर पंथी है। ये "कबीरहा' भी कहलाते हैं। ये माँस मदिरा इत्यादि से परहेज करते हैं। दूसरा वर्ग "शक्ति पनिका' कहलाता है। जो पनिका कबीर-पंथी है, उनके धर्मगुरु महंत कहलाते हैं, जो अक्सर पीढ़ी दर पीढ़ी गद्दी संभालते है। इसी प्रकार दीवान का पद भी उत्तराधिकार से प्राप्त होता है। एक गद्दी १० या १५ गांवों के कबीर पंथियों के धार्मिक क्रियाकलापों की देख-रेख करती है। कबीर दास जी के प्रति श्रद्धा अर्पित करने के लिए माघ, फाल्गुन और कार्तिक की पूर्णिमा को उपवास रखा जाता है। कट्टर कबीर पंथी देवी-देवताओं को नहीं पूजते किंतु "शक्ति पनिका' अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। कबीरहा पनका महिला एवं पुरुष श्वेत वस्र तथा गले में कंठी धारण करते हैं। अन्य आदिवासियों की तुलना में छत्तीसगढ़ के पनका अधिक प्रगतिशील है। उनमें से कई बड़े भूमिपति भी हैं, किंतु सामान्यत: ये कपड़े बुनने का कार्य करते हैं। गरीब पनके हरवाहों का काम करते हैं।... ७ |
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८. कोरवा - फसल की रक्षा |
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कोरवाओं के वंश की उत्पत्ति को लेकर कर्नल डाल्टन ने भी अपनी पुस्तक में एक कथा दी है, जो उपरोक्त पौराणिक कथा से मिलती है। यह कथा इस प्रकार है - सरगुजा राज्य में बसने वाले कोरवो लोगों का कहना है कि इस राज्य में जो सबसे पहला मानव बसा वह जंगली जानवरों से बहुत ही परेशान था। ये जानवर उसके खेत को नष्ट कर देते थे। अत: इससे तंग आकर उसने बाँस का एक पुतला बनाया। उसकी शक्त बहुत ही डरावनी व खौफनाक थी। उस पुतले को उसने खेत के बीच में गाड़ दिया। वह पुतला हवा में हिलता डुलता सचमुच एक आदमी की तरह दिखता था, जिसे देखकर जंगली जानवर डर के मारे खेत से दूर रहते थे। इस तरह खेत पूरा नष्ट होने से बच गया। उसी समय एक देवी आत्मा उधर से गुजरी, उसने इस डरावने हिलते-डुलते पुतले को देखा। उसके मन में आया क्यों न इस निर्जीव पुतलें में जान फूंक दी जाये। अत: उसने उस बदसूरत और खौफनाक दिखने वाले पुतले में जान फूंक दी। इस तरह दैवी आत्मा द्वारा जीवित किया हुआ पुतला कोरबाओं का वंशज बना।... ८ |
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९. कोरवा - कोरवा शब्द की उत्पत्ति के बारे में |
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कोरबा शब्द एवं वंश की उत्पत्ति को लेकर उसके पुराण कथन में एक कथा ऐसी है जिसमें इस शब्द की उत्पत्ति का बोध होता है। यह कथा इस प्रकार है - ""एक बार महादेव और पार्वती जी ने जंगल का कुछ हिस्सा काट कर जलाया जिसे कोरबई बोली में "दाही या दहिया' कहते हैं। दहिया के पश्चात् उन्होंने इस जमीन में धान बोया। धान की जंगली जानवर नष्ट न करें इस आशय से महादेव ने मिट्टी के गोले से एक आदमी की रचना की और उसके हाथ में तीर और धनुष पकड़ा कर उसे खेत के बीच स्थापित कर दिया। इसके पश्चात् महादेव और पार्वती अपने गन्तव्य के लिए प्रस्थान कर गए। अब ॠतु बदली और धान पक गया तो महादेव और पार्वती लौटे और खेत में लहलहाते हुए धान के पौधों को देखकर पड़े प्रसन्न हुए। उन्हें इस बात की अधिक प्रसन्नता हुई कि धान के पौधों को किसी भी जंगली जानवर ने नुकसान नहीं पहुंचाया था। महादेव ने धान को काट / कटाई के पश्चात् पार्वती जी ने महादेव जी से प्रार्थना की कि वे उस माटी के बने मानुष पुतले में जान फूंक दे। क्योंकि, उसी के कारण उनका धान का खेत सुरक्षित रहा। यह सुनकर महादेव जी ने कहा अगर वे उस पुतले को जिन्दा कर देंगे तो अपने तीर-धनुष से सबको मार कर खा जाएगा। लेकिन पार्वती जी ने महादेव जी एक न सुनी और जिद पर अड़ी रही कि वे उस पुतले को जिन्दा कर दे। अंत में महादेव जी को बाध्य होकर उस माटी के पुतले में जान फूंकनी पड़ी। जान फूंकते ही पुतला जीवित हो गया और मनुष्य के रुप में उनके समक्ष धनुष व वाण लेकर खड़ा हो गया। उसे अपने सम्मुख जीवित देखकर महादेव जी ने कहा - तुमने मेरे केत की रक्षा जावनरों से की है। तुमने को-अ-वा-अ-वा (जिसका अर्थ कौन है कौन है) की ध्वनि निकालकर रखवाली की है, इसलिए तुम्हें आज से कोरबा नाम से जाना जाएगा। जाओ और जंगल में निवास करो। इस तरह कोरबा नाम की उत्पत्ति हुई और उस कोरबा की संतति बढ़ी जो आगे चलकर कोरबा कहलाई।... ९ |
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१०. उरांव - उरांव की प्रगतिशीलता व धार्मिक सहिष्णुता |
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सच्चिदानंद (१९६४) ने अपने अध्ययन में बतलाया है कि उन्होंने (उरांव) हिन्दू धर्म के भक्ति मार्ग को १९वीं सदी से स्वीकारना प्रारम्भ कर दिया था। इसी तरह उरांवों ने शीघ्रता से ईंसाइयत अपनायी। ईसाई धर्मोवलम्बी मध्य क्षेत्र की जनजातियों में सबसे बड़ी संख्या उरांवों की ही है। मध्यप्रदेश के बहुत से उरांव कबीर पंथी है। उरांवों के संबंध में कहा जाता है कि इनमें अपेक्षतया अधिक आध्यात्मवाद पाया जाता है।... १० |
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११. उरांव - उरांवों की उत्पत्ति |
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उरोवों की किवदंती उन्हें किसी ॠषि की संतान निरुपित करती है। इस किवदंती के अनुसार एक ॠषि जब तपोलीन थे तब उन पर चीटिंयों ने बिल बना लिये और उनका शरीर उसमें छुप गया। एक लकड़हारें ने अज्ञानतावश इन बिलों पर कुल्हाड़ी से प्रहार कर दिया। हृदय से निकले रक्त को ॠषिवर ने एक पत्ते में रख दिया जिससे भैय्या-भैय्यन की उत्पत्ति हुई। यही कालान्तर में उरावों के पूर्व पूरुष माने गये। ॠषि ने तपस्या के उपरांत उन्हें कृषि का ज्ञान दिया और कहा कि आने वाली मनुष्य जातियों को वे विभिन्न अन्नों का दान करे। विष्णु भगत उरावों का एक पूरा वर्ग है जिसके आराध्य कृष्ण है।... ११ |
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१२. कोल - आदिवासी और सोफियाना संस्कृति का संक्रमण |
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स्थान : जिला - बिलासपुर एक अकेली कोल स्री थी जिसका कोई देखन हारा नहीं था। वह भूख से मर रही थी। और यहां वहां भीख मांगती घूम रही थी। कभी-कभी वह जंगली बूटों की चटनी बनाती और खाती। एक दिन उसने एक सपना देखा। किसी ने उससे कहा कि "विसकर्मा देव चौराहे पर हैं।' वह स्री गयी और उसने विसकर्मा देव को वहां रहते हुए पाया। उसने विसकर्मा देव को अपनी दयनीय स्थिति की बात बतायी। विसकर्मा देव ने अपने सिर से एक बाल निकाला। जैसे ही उन्होंने उसे उस स्री को दिया, वह बाल एक हंसिया में बदल गया। उसे लेकर वह गयी और काम में लग गयी। उसने देका कि उसने उस हंसिये से इतना घास काटा कि जितना बारह औरतों ने काटा था। धीरे-धीरे वह बहुत धनी हो गई। और इसका नाम पड़ा "बारह बूटी हारिन'। कुछ सालों बाद उसने एक सोने का महल और सोने का मुर्गा बनाया। जब वह मुर्गा बोलता तब देवता लोग इकट्ठा हो जाते थे और "बारह बूटी हारिन' उनसे लोगों को हंसिया देने को कहती जिससे कि संसार में सोना आ सके।... १२ |
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१३. बैगा - (बादल, बिजली, वर्षा, और संस्कृतियों का संक्रमण) |
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""आदिम संस्कृति और सोफियाना संस्कृति का मेल'' पाण्डव लोग यह जानना चाहते थे कि जमीन के अंदर क्या है? और वे भीमसेन के पैरों पर पड़ गये। तथा उससे नीचे जाने व देखने की याचना करने लगे। उन्होंने उसे एक छोटे से झूले पर बांध दिया और रस्सी के सहारे उतार दिया। वह नीचे ही नीचे आठ रात और नौ दिनों तक उतरता रहा। तब पाण्डव लोगों ने शरारत से रस्सी छोड़ दी। वह तल में गिर पड़ा। वह रोने लगा और सोचने लगा कि वह ऊपर कैसे पहुंचे? किन्तु वहां पर एक काला नाम रहता था। उसने उसे एक बिजली का घोड़ा दिया और वह उस पर बैठ गया। जब तक कि वह समझे कि क्या हुआ? वह घर पहुंच चुका था। तब वह अपने इस चमत्कारिक सवारी के लिए आश्चर्य करता रहा। अब भगवान ने भीमसेन को अपना नौकर रख लिया। और जब वह संसार को पानी देना चाहते तब वे भीमसेन को भेज देते थे। भीमसेन एक चूहे कि खाल से पानी दिया करते थे। जैसे ही वह खाल वायुमण्डल से रगड़ खाती थी वैसे ही वह भयंकर गर्जन करती थी। भीमसेन अपने बिजली के घोड़े से वि के चारों कोने का चक्कर लगाते थे और अपनी चूहे की खाल को अपने पीछे घसीटा करते थे। जिससे हबा से रगड़ खाकर उससे पानी गिरता था।... १३ |
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१४. बैगा - पितृ पक्ष (फसल एवं वंश परम्परा) |
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बैगाओं का यह विश्वास है कि जो कुछ फसल पैदा होती है पहले उन्हें पितरों को खिलाना चाहिए। जब तक पितरों को भोग नहीं लगता, तब तक बैगाओं का एक भी बच्चा नई पैदा हुई फसल को नहीं खा सकता। यदि इससे पहले अनाज खा लिया तो सांप द्वारा काटे जाने का भय रहता है। पूजा के दिन घर का मुख्या चावल और आटा का चौक बनाता है, उस पर दीया जला कर उस चौक के चारों ओर देवताओं और पूर्वजों के नाम से ककड़ी एवं फूल रखा जाता हैं। इसमें ककड़ी के बीज, दाल और चावल का होम किया जाता है। यह होम वर-वधू द्वारा किया जाता है। |
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बरा माढ़ी,
बगता तरपनी
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यह कहते हुये मंद का तपंण करते हैं। दरवाजे पर नारायण देव, धनौची के नीचे रातमाई आदि सभी दूर के देवी-देवताओ, को तथा पुरखों को होम देकर प्रसन्न करते हैं। |
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ले आजा दादी
सहा से हो हो |
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१५. कमार - पृथ्वी की उत्पत्ति से संबंधित |
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भगवान महादेव ने एक बार सोचा कि पृथ्वी को नष्ट करके फिर से नये तौर पर बनाया जाए। यह बात एक वृद्ध स्री को पता लग गई। वह अपने पति के पास गई और उसे पूरा हाल सुनाया। पति ने तुरंत जंगल में जाकर एक बड़ी नौका का निर्माण किया, उसमें खाने का सामान भरकर अपने लड़के और लड़की को कमरे में बंद कर दिया और समुद्र में नाव को छोड़ दिया, उसके बाद भीषण तूफानी वर्षा हुई। जिससे पृथ्वी नष्ट हो गई। तूफान थमने के बाद पृथ्वी का स्वरुप भी बदल गया। सभी ओर पानी ही पानी था और कोई आदमी जीवित नहीं बचा था। दोनों भाई बहन की नाम ही केवल तैर रही थी। भगवान महादेव ने इस तांडव के बाद अपने विश्वासपात्र बलिया को बुलाकर मनुष्य का बीज ढूंढ़ने के लिए पृथ्वी पर भेजा। तैरती हुई नाम में दोनों भाई बहन बलिया को मिले। यह समाचार बलिये से जब महादेव को मिला, तो उन्होंने केकड़े को आदेश दिया कि वह पृथ्वी का बीज खोजकर लाये। केकड़ा समुद्र के तल तक गया और एक केंचुआ लेकर आया। उसका दाढ़ को दूहकर धरती का बीज निकाला गया। उसके बीज से पृथ्वी का निर्माण तो हो गया, अब केवल आकाश की कमी रह गई जिसका निर्माण करने के लिए महादेव जी ने चार कोनों में चार विशाल खम्भों का निर्माण करके काली गाय का चमड़ा इस प्रकार से लगाया कि वह पृथ्वी पर पूरी तरह से छा गया। चूंकि यह चमड़ा कुछ ढ़ीला सा लगा था, इसलिए महादेव ने कई प्रकार के कीलों से जड़ दिया। इस प्रकार से गाय के काले चमड़े से आकाश का निर्माण हुआ कीलों से तारे बने। मनुष्य का निर्माण करने के लिए दोनों जीवित भाई बहनों का लाया गया औऱ अपने प्रयास से महादेव ने उनका संबंध स्थापित करके एक रात में ही वह लड़की गर्भवती हो गई। दूसरे दिन उसने कन्या को जन्म दिया। कुछ समय के बाद सैकड़ों पुत्र-पुत्रियों को जन्म देने के बाद वह लड़की मर गई। समस्त शिशु पार्वती के पास पलने लगे। महादेव ने इसके पश्चात् बहुत सारे अस्र-शस्र का निर्माण करके उन्हें नदी में बहा दिया जिन्हें करधा मिला वह कोष्टी जाति का हुआ, जिन्हें वह हल मिला वह गोंड़ जनजाति का हुआ और वह खेती करने लगा। वह व्यक्ति को एक बांस की टोकरी मिली, जिससे वह रोने लगा। महादेव जी ने उसे धनुष बाण देकर कहा, तुम जंगल में शिकार करो, तुम्हारी स्रियां बांस के बर्तन बना सकती हैं। इसी से कमार जनजाति की उत्पत्ति हुई।... १५ |
१. |
एल्विन वेरियर : मिथ्स आॅफ मिडिल इंडिया : पुर्नमुद्रण वन्या प्रकाशन : भोपाल : १९९१ : पृष्ठ : ८६ |
२. |
एल्विन वेरियर : मिथ्स आॅफ मिडिल इंडिया : पुर्नमुद्रण वन्या प्रकाशन : भोपाल : १९९१ : पृष्ठ : ८६ |
३. |
एल्विन वेरियर : मिथ्स आॅफ मिडिल इंडिया : पुर्नमुद्रण वन्या प्रकाशन : भोपाल : १९९१ : पृष्ठ : ३१८ |
४. |
एल्विन वेरियर : मिथ्स आॅफ मिडिल इंडिया : पुर्नमुद्रण वन्या प्रकाशन : भोपाल : १९९१ : पृष्ठ : ४३३ |
५. |
एल्विन वेरियर : मिथ्स आॅफ मिडिल इंडिया : पुर्नमुद्रण वन्या प्रकाशन : भोपाल : १९९१ : पृष्ठ : ४४० |
६. |
सिहं, तजिन्दर : आदिवासी संस्कृति : मधुर प्रकाशन : कचहरी रोड : दुर्ग : पृष्ठ : १३८ |
७. |
तिवारी : डॉ. शिवकुमार : मध्यप्रदेश की जनजातियां : म.प्र. ग्रंथ अकादमी भोपाल : पृष्ठ १३५ |
८. | तिवारी : डॉ. विजयकुमार : भारत की जनजातियाँ : हिमालय पब्लिकेशन हाउस, मुम्बई, नई दिल्ली, नागपुर : पृष्ठ ११३ |
९. |
तिवारी : डॉ. विजयकुमार : भारत की जनजातियाँ : हिमालय पब्लिकेशन हाउस, मुम्बई, नई दिल्ली, नागपुर : पृष्ठ ११२-११३ |
१०. |
तिवारी : डॉ. शिवकुमार : मध्यप्रदेश की जनजातियां : म.प्र. ग्रंथ अकादमी भोपाल : पृष्ठ १०५ |
११. | तिवारी : डॉ. शिवकुमार : मध्यप्रदेश की जनजातियां : म.प्र. ग्रंथ अकादमी भोपाल : पृष्ठ १०५ व १०६ |
१२. | एल्विन वेरियर : मिथ्स आॅफ मिडिल इंडिया : पुर्नमुद्रण वन्या प्रकाशन : भोपाल : १९९१ : पृष्ठ : १२७ |
१३. |
एल्विन वेरियर : मिथ्स आॅफ मिडिल इंडिया : पुर्नमुद्रण वन्या प्रकाशन : भोपाल : १९९१ : पृष्ठ : ९० |
१४. |
सिहं, तजिन्दर : आदिवासी संस्कृति : मधुर प्रकाशन : कचहरी रोड : दुर्ग : पृष्ठ : १३० |
१५. |
सिहं, तजिन्दर : आदिवासी संस्कृति : मधुर प्रकाशन : कचहरी रोड : दुर्ग : पृष्ठ : १३० |
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