कबीर साहब निरक्षर थे। उन्होंने अपने निरक्षर होने के
संबंध में स्वयं "कबीर- बीजक' की एक
साखी मे बताया है। जिसमें कहा गया है कि न तो
मैं ने लेखनी हाथ में लिया, न कभी कागज और स्याही का ही स्पर्श किया। चारों
युगों की बातें उन्होंने केवल अपने मुँह द्वारा जता दिया है :-
मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई
बात।।
संत मत के समस्त कवियों में, कबीर
सबसे अधिक प्रतिभाशाली एवं मौलिक
माने जाते हैं। उन्होंने कविताएँ प्रतिज्ञा करके नहीं
लिखी और न उन्हें पिंगल और अलंकारों का ज्ञान था।
लेकिन उन्होंने कविताएँ इतनी प्रबलता एवं उत्कृष्टता
से कही है कि वे सरलता से महाकवि कहलाने के अधिकारी हैं।
उनकी कविताओं में संदेश देने की प्रवृत्ति प्रधान है।
ये संदेश आने वाली पीढियों के लिए प्रेरणा, पथ- प्रदर्शण तथा
संवेदना की भावना सन्निहित है। अलंकारों
से सुसज्जित न होते हुए भी आपके संदेश काव्यमय हैं। तात्विक विचारों को इन पद्यों के सहारे
सरलतापूर्वक प्रकट कर देना
ही आपका एक मात्र लक्ष्य था :-
तुम्ह जिन जानों गीत हे यहु निज ब्रह्म विचार
केवल कहि समझाता, आतम साधन सार
रे।।
कबीर भावना की अनुभूति से युक्त, उत्कृष्ट रहस्यवादी, जीवन का
संवेदनशील संस्पर्श करनेवाले तथा
मर्यादा के रक्षक कवि थे। आप अपनी काव्य कृतियों के द्वारा पथभ्रष्ट
समाज को उचित मार्ग पर लाना चाहते
थे।
हरि जी रहे विचारिया साखी कहो कबीर।
यौ सागर में जीव हैं जे कोई पकड़ै
तीर।।
कवि के रुप में कबीर जीव के अत्यंत निकट हैं। उन्होंने अपनी
रचनाओं में सहजता को प्रमुख स्थान दिया है। सहजता
उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी शोभा और कला की
सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है।
उनके काव्य का आधार यथार्थ है। उन्होंने
स्वयं स्पष्ट रुप से कहा है कि मैं आँख का देखा हुआ कहता हूँ और तू कागज की
लेखी कहता है :-
मैं कहता हूँ आखिन देखी,
तू कहता कागद की लेखी।
वे जन्म से विद्रोही, प्रकृति से समाज-
सुधारक एवं प्रगतिशील दार्शनिक तथा आवश्यकतानुसार कवि थे। उन्होंने अपनी काव्य
रचनाएँ इस प्रकार कही है कि उसमें आपके
व्यक्तित्व का पूरा- पूरा प्रतिबिंब विद्यमान है।
कबीर की प्रतिपाद्य शैली को मुख्य रुप
से दो भागों में बाँटा गया है :- इनमें प्रथम
रचनात्मक, द्वितीय आलोचनात्मक। रचनात्मक विषयों के अंतर्गत
सतगुरु, नाम, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष आदि पर व्यावहारिक
शैली में भाव व्यक्त किया गया है। दूसरे पक्ष
में वे आलोचक, सुधारक, पथ- प्रदर्शक और
समन्वयकर्ता के रुप में दृष्टिगत होते हैं। इस पक्ष
में उन्होंने चेतावनी, भेष, कुसंग, माया,
मन, कपट, कनक, कामिनी आदि विषयों पर विचार प्रकट किये हैं।
काव्यरुप एवं
संक्षिप्त परिचय :-
कबीर की रचनाओं के बारें में कहा जाता है कि
संसार के वृक्षों में जितने पत्ते हैं तथा गंगा
में जितने बालू- कण हैं, उतनी ही संख्या
उनकी रचनाओं की है :-
जेते पत्र वनस्पति औ गंगा की रेन।
पंडित विचारा का कहै, कबीर कही मुख
वैन।।
विभिन्न समीक्षकों तथा विचारकों ने कबीर के विभिन्न संग्रहों का
अध्ययन करके निम्नलिखित काव्यरुप पाये हैं :-
-
साखी
-
पद
-
रमेनी
-
चौंतीसा
-
वावनी
-
विप्रमतीसी
-
वार
-
थिंती
-
चाँवर
-
बसंत
-
हिंडोला
-
बेलि
-
कहरा
-
विरहुली
-
उलटवाँसी
साखी
साखी रचना की परंपरा का प्रारंभ गुरु गोरखनाथ तथा नामदेव जी के
समय से प्राप्त होता है। साखी काव्यरुप के अंतर्गत प्राप्त होने
वाली, सबसे प्रथम रचना गोरखनाथ की जोगेश्वरी
साखी है। कबीर की अभिव्यंजना शैली
बड़ी शक्तिशाली है। प्रतिपाद्य के एक- एक अंग को
लेकर इस निरक्षर कवि ने सैकड़ों साखियों की
रचना की है। प्रत्येक साखी में अभिनवता
बड़ी कुशलता से प्रकट किया गया है। उन्होंने इसका प्रयोग नीति, व्यवहार, एकता,
समता, ज्ञान और वैराग्य आदि की बातों को
बताने के लिए किया है। अपनी साखियों
में कबीर ने दोहा छंद का प्रयोग सर्वाधिक किया है।
कबीर की साखियों पर गोरखनाथ और नामदेव जी की
साखी का प्रभाव दिखाई देता है। गोरखनाथ की तरह
से कबीर ने भी अपनी सखियों में दोहा जैसे छोटे छंदों
में अपने उपदेश दिये।
संत कबीर की रचनाओं में साखियाँ
सर्वाधिक पायी जाती है। कबीर बीजक
में ३५३ साखियाँ, कबीर ग्रंथ वाली में ९१९
साखियाँ हैं। आदिग्रंथ में साखियों की
संख्या २४३ है, जिन्हें श्लोक कहा गया है।
प्राचीन धर्म प्रवर्त्तकों के द्वारा, साखी शब्द का प्रयोग किया गया।
ये लोग जब अपने गुरुजनों की बात को अपने शिष्यों
अथवा साधारणजनों को कहते, तो उसकी पवित्रता को
बताने के लिए साखी शब्द का प्रयोग किया करते थे।
वे साखी देकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि इस प्रकार की दशा का
अनुभव अमुक- अमुक पूर्ववर्ती गुरुजन
भी कर चुके हैं। अतः प्राचीन धर्म प्रवर्तकों द्वारा प्रतिपादित ज्ञान को शिष्यों के
समक्ष, साक्षी रुप में उपस्थित करते समय जिस काव्यरुप का जन्म हुआ, वह
साखी कहलाया।
संत कबीर की साखियाँ, निर्गुण साक्षी के
साक्षात्कार से उत्पन्न भावोन्मत्तता, उन्माद, ज्ञान और आनंद की लहरों
से सराबोर है। उनकी साखियाँ ब्रह्म विद्या
बोधिनी, उपनिषदों का जनसंस्करण और
लोकानुभव की पिटारी है। इनमें संसार की असारता,
माया मोह की मृग- तृष्णा, कामक्रोध की क्रूरता को
भली- भांति दिखाया गया है। ये सांसारिक क्लेश, दुख और आपदाओं
से मुक्त कराने वाली जानकारियों का
भण्डार है। संत कबीर के सिद्धांतों की जानकारी का
सबसे उत्तम साधन उनकी साखियाँ हैं।
साखी आंखी ग्यान को समुझि देखु मन माँहि
बिन साखी संसार का झगरा छुटत नाँहि।।
विषय की दृष्टि से कबीर साहब की सांखियों को
मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है :-
१. लौकिक भाव प्रधान
२. परलौकिक भाव प्रधान
लौकिक भाव प्रधान साखियाँ भी तीन प्रकार की है :-
१. संतमत स्वरुप बताने वाली
२. पाखण्डों का विरोध करने वाली
३. व्यवहार प्रधान
संतमत का
स्वरुप बताने वाली साखियाँ :-
कबीर साहब ने अपनी कुछ साखियों में
संत और संतमत के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं :-
निर बेरी निहकामता साई सेती नेह।
विषिया सूँन्यारा रहे संतरि को अंग एह।।
कबीर साहब की दृष्टि में संत का लक्ष्य धन संग्रह नहीं है :-
सौंपापन कौ मूल है एक रुपैया रोक।
साधू है संग्रह करै, हारै हरि सा थोक।
संत व बांधै गाँठरी पेट समाता लेई।
आगे पीछे हरि खड़े जब माँगै तब दई।
संत अगर निर्धन भी हो, तो उसे मन छोटा करने की आवश्यकता नहीं है :-
सठगंठी कोपीन है साधू न मानें संक।
राम अमल माता रहे गिठों इंद्र को
रंक।
कबीर साहब परंपरागत रुढियों, अंधविश्वासों, मिथ्याप्रदर्शनों एवं
अनुपयोगी रीति- रिवाजों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हिंदू-
मुसलमान दोनों में ही फैली हुई कुरीतियों का विरोध अपनी
अनेक साखियों में किया है।
व्यवहार प्रधान
साखियाँ :-
कबीर साहब की व्यवहार प्रधान साखियाँ, नीति और उपदेश प्रधान है। इसमें संसभू के प्रत्येक क्षेत्र में उचित व्यवहार की रीति बताई गई हैं। इन साखियों में मानव मात्र के कल्याणकारी अनुभव का अमृत छिपा हुआ है। पर निंदा, असत्य, वासना, धन, लोभ, क्रोध, मोह, मदमत्सर, कपट आदि का निषेध करके, वे सहिष्णुता, दया, अहिंसा, दान, धैर्य, संतोष, क्षमा, समदर्शिता, परोपकार तथा मीठे वाचन आदि के लिए आग्रह किया गया है। वे त्याज्य कुकर्मों को गिना कर बताते है :-
गुआ, चोरी, मुखबरी, व्याज, घूस, परमान।
जो चाहे दीदार को एती वस्तु निवार।।
विपत्ति में धैर्य धारण करने के लिए कहते है :-
देह धरे का दंड है सब काहू पै होय।
ज्ञानी भुगतै ज्ञानकरि मूरख भुगतै रोय।।
वह अपनी में बाबू संयम पर बल देते हुए कहते हैं :-
ऐसी बानि बोलिए मन का आपा खोय।
ओख को सीतल करै, आपहु सीतल होय।
पारलौकिक भाव प्रधान
साखिया ँ
संत कबीर साहब इस प्रकार की अपनी साखियों में नैतिक, अध्यात्मिक, सांसारिक, परलौकिक इत्यादि विषयों का वर्णन किया है।
कुछ साखियाँ :-
राम नाम जिन चीन्हिया, झीना पं तासु।
नैन न आवै नींदरी, अंग न जायें मासु।
बिन देखे वह देसकी, बात कहे सो कूर।
आपुहि खारी खात है, बैचत फिरे कपूर।
पद ( शब्द )
संत कबीर ने अपने अनुभवों, नीतियों एवं उपदेशों का वर्णन, पदों में भी किया है। पद या शब्द भी एक काव्य रुप है, जिसको प्रमुख दो भागों में बाँटा गया है :-
-- लौकिक भाव प्रधान
-- परलौकिक भाव प्रधान
लौकिक भाव प्रधान पदों में सांसारिक भावों एवं विचारों का वर्णन किया गया है। इनको भी दो भागों में विभाजित किया गया है :-
-- धार्मिक पाखण्डों का खंडन करने वाले पद।
-- उपदेशात्मक और नीतिपरक पद।
संत कबीर जातिवाद, ऊँच- नीच की भावना एवं दिखावटी धार्मिक क्रिया- कलापों के घोर विरोधी थे। उन्होंने विभिन्न धर्मों की प्रचलित मान्यताओं तथा उपासना पद्धतियों की अलग- अलग आलोचना की है। वे वेद और कुरान के वास्तविक ज्ञान और रहस्य को जानने पर बल देते हैं :-
वेद कितेब कहौ झूठा।
झूठा जो न विचारै।।
झंखत बकत रहहु निसु बासर, मति एकौ नहिं जानी।
सकति अनुमान सुनति किरतु हो, मैं न बदौगा भाई।।
जो खुदाई तेरि सुनति सुनति करतु है, आपुहि कटि कयों न आई।
सुनति कराय तुरुक जो होना, औरति को का कहिये।।
रमैनी
रमैनी भी संत कबीर द्वारा गाया गया काव्यरुप है। इसमें चौपाई दो छंदों का प्रयोग किया गया है। रमैनी कबीर साहब की सैद्धांतिक रचनाएँ हैं। इसमें परमतत्व, रामभक्ति, जगत और ब्रह्म इत्यादि के बारे में विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।
जस तू तस तोहि कोई न जान। लोक कहै सब आनाहि आना।
वो है तैसा वोही जाने। ओही आहि आहि नहिं
आने।।
संत कबीर राम को सभी अवतारों से परे मानते हैं :-
ना दसरथ धरि औतरि आवा।
ना लंका का राव सतावा।।
अंतर जोति सबद एक नारी। हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी।।
ते तिरिये भग लिंग अनंता। तेउ न जाने आदि औ अंतर।।
एक रमैनी में वे मुसलमानों से प्रश्न पूछते हैं।
दर की बात कहाँ दरबेसा। बादशाह है कवने भेष।
कहां कंच कहँ करै मुकाया। मैं तोहि पूंछा मुसलमाना।।
लाल गरेद की नाना बना। कवर सुरहि को करहु
सलाया।।
काजी काज करहु तुम कैसा। घर- घर जबह करवाहु भैसा।।
चौंतीसा
चौंतीसा नामक काव्यरुप केवल "कबीर बीजक' में ही प्रयोग किया गया है। इसमें देवनागरी वर्णमाला के स्वरों को छोड़कर, केवल व्यंजनों के आधार पर रचनाएँ की गई हैं :-
पापा पाप करै सम कोई। पाप के करे धरम नहिं होई।
पापा करै सुनहु रे भाई। हमरे से इन किछवो न पाई।
जो तन त्रिभुवन माहिं छिपावै। तत्तहि मिले तत्त सो पावै।
थाथा थाह थाहि नहिं जाई। इथिर ऊथिर नाहिं रहाई।
बावनी
बावनी वह काव्यरुप है, जिसकी द्विपदियों का प्रारंभ नागरी लिपि के बावन वर्णों में से प्रत्येक के साथ क्रमशः होता है। बावनी को इसके संगीतनुसार गाया जाने का रिवाज पाया जाता है। विषय की दृष्टि से यह रचनाएँ अध्यात्मिकता से परिपूर्ण ज्ञात होता है।
ब्राह्मण होके ब्रह्म न जानै। घर महँ जग्य प्रतिग्रह आनै
जे सिरजा तेहि नहिं पहचानैं। करम भरम ले बैठि बखानै।
ग्रहन अमावस अवर दुईजा।
सांती पांति प्रयोजन पुजा।।
विप्रमतीसी
विप्रमतीसी नामक काव्य रुप भी केवल "कबीर बीजक' में पाया जाता है। इसमें ब्राह्मणों के दपं तथा मिथ्याभिमान की आलोचना की गई है। इसका संबंध विप्रमति ( ब्राह्मणों की बुद्धि ) से बताया जाता है।
ब्राह्मणों की मति की आलोचना करने के लिए, तीस पंक्तियों में गठित काव्यरुप को विप्रमतीसी कहा गया है।
वार
सप्ताह के सातों वारों ( दिनों ) के नामों को क्रमशः लेकर, की गई उपदेशात्मक रचनाओं वालों काव्यरुप को "वार" कहा गया है। यह काव्य रुप की रचना केवल आदिग्रंथ में ही प्राप्त होती है।
थिंती
इस काव्य रुप का प्रयोग तिथियों के अनुसार छंद रचना करके साधना की बातें बताने के लिए किया गया है। संत कबीर का यह काव्य रुप भी केवल आदिग्रंथ में पाया जा सकता है।
चाँचर
चाँचर बहुत प्राचीन काल से प्रचलित काव्यरुप है। कालीदास तथा बाणभ की रचनाओं में चर्चरी गान का उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में इसको चर्चरी या चाँचरी कहा जाता था। संत कबीर ने भी अपनी रचनाओं में इसको अपनाया है। "कबीर बीजक' में यह काव्य रुप प्राप्त होता है। कहा जाता है कि कबीर के समय में इसका पूर्ण प्रचलन था। कबीर ने इसका प्रयोग अध्यात्मिक उपदेशों को साधारण जन को पहुँचनें के लिए किया है।
जारहु जगका नेहरा, मन का बौहरा हो।
जामें सोग संतान, समुझु मन बोरा हो।
तन धन सों का गर्वसी, मन बोरा हो।
भसम- किरिमि जाकि, समुझु मन बौरा हो।
बिना मेवका देव धरा, मन बौरा हो।
बिनु करगिल की इंट, समुझु मन बौरा हो।
बसंत
संत कबीर साहब का एक अन्य काव्यरुप बसंत है। "बीजक', "आदिग्रंथ' और "कबीर ग्रंथावली' तीनों में इसको देखा जा सकता है। बसंत ॠतु में, अभितोल्लास के साथ गाई जाने वाली पद्यों को फागु, धमार, होली या बसंत कहा जाता है। लोकप्रचलित काव्यरुप को ग्रहण कर, अपने उद्देश्य को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए किया है। एक पत्नी अपने पति की प्रशंसा करते हुए कहती है :-
भाई मोर मनुसा अती सुजान, धद्य कुटि- कुटि करत बिदान।
बड़े भोर उठि आंगन बाढ़ु, बड़े खांच ले गोबर काढ़
बासि- भात मनुसे लीहल खाय, बड़ धोला ले पानी को गाय
अपने र्तृया बाधों पाट, ले बेचौंगी हाटे हाट
कहँहि कबिर ये हरिक काज, जोइया के डिंग रहिकवनि लाज
हिंडोला
सावन के महिने में महिलाएँ हिंडोला झुलने के साथ- साथ, गीत भी गाती है। इसी गीत को अनेक स्थानों पर हिंडोला के नाम से जाना जाता है। संत कबीर ने इसी जनप्रचलित काव्यरुप को अपने ज्ञानोपदेश का साधन बनाया है। वह पूरे संसार को एक हिंडोला मानते हैं। वे इस प्रकार वर्णन करते हैं :-
भ्रम का हिंडोला बना हुआ है। पाप पुण्य के खंभे हैं। माया ही मेरु हैं, लोभ का मरुषा है विषय का भंवरा, शुभ- अशुभ की रस्सी तथा कर्म की पटरी लगी हुई है। इस प्रकार कबीर साहब समस्त सृष्टि को इस हिंडोले पर झुलते हुए दिखाना चाहते हैं :-
भरम- हिंडोला ना, झुलै सग जग आय।
पाप- पुण्य के खंभा दोऊ मेरु माया मोह।
लोभ मरुवा विष भँवरा, काम कीला ठानि।
सुभ- असुभ बनाय डांडी, गहैं दोनों पानि।
काम पटरिया बैठिके, को कोन झुलै आनि।
झुले तो गन गंधर्व मुनिवर,झुलै सुरपति इंद
झुलै तो नारद सारदा, झुलै व्यास
फनींद।
बेलि
संत कबीर की बेलि उपदेश प्रधान काव्यरुप है। इसके अंतर्गत सांसारिक मोह ममता में फँसे जीव को उपदेश दिया गया है। "कबीर बीजक' में दो रचनाएँ बेलि नाम से जानी जाती है। इसकी पंक्ति के अंत में "हो रमैया राम' टेक को बार- बार दुहराया गया है।
कबीर साहब की एक बेलि :-
हंसा सरवर सरीर में, हो रमैया राम।
जगत चोर घर मूसे, हो रमैया राम।
जो जागल सो भागल हो, रमैया राम।
सावेत गेल बिगोय, हो रमैया राम।
कहरा
कहरा काव्यरुप में क्षणिक संसार के मोह को त्याग का राम का भजन करने पर बल दिया जाता है। इसके अंतर्गत यह बताया जाता है कि राम के अतिरिक्त अन्य देवी- देवताओं की पूजा करना व्यर्थ है। यह कबीर की रचनाओं का जन- प्रचलित रुप है :-
रामनाम को संबहु बीरा, दूरि नाहिं दूरि आसा हो।
और देवका पूजहु बौरे, ई सम झूठी आसा हो।
उपर उ कहा भौ बौरे, भीटर अजदूँ कारो हो।
तनके बिरघ कहा भौ वौरे, मनुपा अजहूँ बारो हो।
बिरहुली
बिरहुली का अर्थ सर्पिणी है। यह शब्द बिरहुला से बना है, जिसका अर्थ सपं होता है। यह शब्द लोक में सपं के विष को दूर करने वाले गायन के लिए प्रयुक्त होता था। यह गरुड़ मंत्र का प्राकृत नाम है। गाँव में इस प्रकार के गीतों को विरहुली कहा जाता है। कबीर साहब की बिरहुली में विषहर और विरहुली दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। मनरुपी सपं के डस लेने पर कबीर ने बिरहुली कहा :-
आदि अंत नहिं होत बिरहुली। नहिं जरि पलौ पेड़ बिरहुली।
निसु बासर नहिं होत बिरहुली। पावन पानि नहिं भूल बिरहुली।
ब्रह्मादिक सनकादि बिरहुली। कथिगेल जोग आपार बिरहुली।
बिषहा मंत्र ने मानै बिरहुली। गरुड़
बोले आपार बिरहुली।
उलटवाँसी
बंधी बधाई विशिष्ट अभिव्यंजना शैली के रुप में, उलटवाँसी भी एक काव्यरुप है। इसमें आटयात्मिक बातों का लोक विपरीत ढ़ंग से वर्णन किया जाता है। इसमें वक्तव्य विषय की प्रस्तुत करने का एक विशष ढ़ंग होता है :-
तन खोजै तब पावै रे।
उलटी चाल चले गे प्राणी, सो सरजै घर आवेरो
धर्म विरोध संबंधी उलटवाँसिया:
अम्बर बरसै धरती भीजे, यहु जानैं सब कोई।
धरती बरसे अम्बर भीजे, बूझे बिरला कोई।
मैं सामने पीव गोहनि आई।
पंच जना मिलिमंडप छायौ, तीन जनां मिलि लगन लिखाई।
सामान्यरुप में कबीर साहब ने जन- प्रचलित काव्यरुप को अपनाया है। जन- प्रचलित होने के कारण ही सिंहों, माथों, संतों और भक्तों के द्वारा इनको ग्रहण किया गया।
विचारों और भखों के साथ ही, काव्यरुपों के क्षेत्र में भी कबीर साहब को आदर्श गुरु तथा मार्गदर्शक माना गया है। परवर्ती संतों तथा भक्तों ने उनके विचारों और भावों के साथ- साथ काव्यरुपों को भी अपनाया। कबीर साहब ने इन काव्यरुपों को अपना करके महान और अमर बना दिया।
कबीर के काव्य में दाम्पत्य एवं वात्सल्य के द्योतक प्रतीक पाये जाते हैं। उनकी रचनाओं में सांकेतिक, प्रतीक, पारिभाषिक प्रतीक, संख्यामूलक प्रतीक, रुपात्मक प्रतीक तथा प्रतीकात्मक उलटवाँसियों के सुंदर उदाहरण पाए जाते हैं।
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