कबीरदास

कबीर के शिष्य


धर्मदास और गोपाल ये दोनों कबीर के शिष्य,जो धर्मदास जाति के बनियाँ थे। यह काशी में कबीर से मिलने से पहले कट्टर मूर्तिपूजक थे। जब यह कबीर के पास आ गए, तो कबीर ने इनको मूर्तिपूजन से मना कर दिया, फिर कुछ समय पश्चात दोनों की भेंट वृंदावन में हुई। धर्मदास यहाँ कबीर को न पहचान सके, वह बोले तुम ठीक काशी में मिलने वाले साधु की तरह हो। यहाँ भी कबीर साहब चौकन्ने थे। इन्होंने धर्मदास के हाथ में पड़ी मूर्ति को लेकर जमुना में डाल दिया। धर्मदास अपने साथ सदा एक पत्थर की मूर्ति रखते थे। कुछ दिनों के पश्चात् कबीर साहब स्वयं धर्मदास के घर बांदोगढ़ गए, वहाँ उन्होंने उनसे कहा कि तुम उसी पत्थर को पूजते हो, जिसके तुम्हारे तौलने के बाट हैं। उनके दिल में कबीर साहब की यह बात ऐसी बैठी कि वह उनके शिष्य हो गए। कबीर की मृत्यु के पश्चात धर्मदास ने छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ की एक अलग शाखा चलाई और सूरत गोपाल काशी वाली शाखा के उत्तराधिकारी बनाए गए।

कबीर पंथ

स्वामी रामानंद जी के बारह शिष्य हुए :- अनंतानंद, कबीरदास, सुखानंद, सुरसरा, पद्मावती, नरहरि, पीपा, भवानंद, रैदास, धनासेन, योगानंद और गालवानंद।

इन संतों ने अपने गुरु रामानंद स्वामी जी के विचार का प्रचार केंद्र भी बनाया। आज भी इन संतों द्वारा स्थापित केंद्र समाज के कल्याण एवं समाज सुधार, जैसे कामों में लगे हुए हैं।

कबीर पंथ की बारह प्रमुख शाखाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनके संस्थापक नारायणदास, श्रुतिगोपाल साहब, साहब दास, कमाली, भगवान दास, जागोदास, जगजीवन दास, गरीब दास, तत्वाजीवा आदि शिष्य हैं।

मूलगादी शाखा

कबीर पंथ सर्वप्रथम शुरुआत कबीर साहब के प्रखर और दार्शनिक शिष्य श्रुतिगोपाल साहब ने उनकी जन्मभूमि वाराणसी में मूलगादी नाम से की। इसके प्रधान भी श्रुतिगोपाल ही बनाए गए। उन्होंने अपनी प्रखर मेघा के प्रभाव से दार्शनिक पक्ष अपना कर, कबीर साहब की शिक्षा को देश के प्रत्येक लोगों में पहुँचाया। कालांतर में मूलगादी की अनेक शाखाएँ उत्तर प्रदेश, बिहार, आसाम, राजस्थान, गुजरात आदि प्रांतों में स्थापित कर, कबीर साहब के वचनों को तत्परता के साथ जन साधारण तक पहुँचाया। 


 

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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'


Content Prepared by Mehmood Ul Rehman

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