महर्षि अगस्त्य

वैैदिक ॠषि वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई अगस्त्य मुनि का जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी (ईसा पूर्व ३०००) को काशी में हुआ था।  वह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है।  इनकी पत्नी भगवती लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थी।  देवताओं के अनुरोध पर इन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की।  दक्षिण भारत में अगस्त्य तमिल भाषा के आद्य वैय्याकरण हैं।  भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में उनके विशिष्ट योगदान के लिए जावा, सुमात्रा आदि में इनकी पूजा की जाती है।

महर्षि अगस्त्य वेदों में वर्णित मंत्र-द्रष्टा मुनि हैं।  जब इन्द्र ने वृत्तासुर को मार डाला, तब कालेय नामक दैत्यों ने ॠषि-मुनियों का संहार प्रारंभ कर दिया। दैत्य दिन में समुद्र में रहते और रात को जंगल में घुस कर ॠषि-मुनियों का उदरस्थ कर लेते थे।  उन्होंने वशिष्ठ, च्यवन, भरद्वाज जैसे ॠषियों को समाप्त कर दिया था।  अंत में समस्त देवतागण हार कर अगस्त्य ॠषि की शरण में आये।

अगस्त्य मुनि ने उनकी कथा-व्यथा सुनी और एक ही आचमन में समुद्र को पी लिया। फिर जब देवताओं ने कुछ दैत्यों का संहार किया तो कुछ दैत्य भाग कर पाताल चले गये।  एक अन्य कथा के अनुसार इन्द्र के पदच्युत होने के बाद राजा नहुष इन्द्र बने थे।  उन्होंने पदभार ग्रहण करते ही इन्द्राणी को अपनी पत्नी बनाने की चेष्टा की।  इन्द्राणी ने वृहस्पति जी से मंत्रणा की तो उन्होंने उन्हें एक ऐसी सवारी से आने की बात कि जिस पर अभी तक कोई सवार न हुआ हो।  नहुष मत्त तो हुआ ही था, उसने ॠषियों को अपनी सवारी ढोने के लिये बुलाया।  जब नहुष सवारी पर चढ़ गये तो हाथ में कोड़ा लेकर "सपं-सपं" (जल्दी चलो-जल्दी चलो) कहते हुए उन ॠषियों पर कोड़ा बरसाने लगे।  अगस्त्य ॠषि से यह देखा नहीं गया।  उन्होंने शाप दे कर नहुष को सपं बना दिया और इस प्रकार मदांध लोगों की आँखें खोल दी।

एक कथा राजा शङ्ख से संबंधित है।  सदा ध्यान में मग्न रहने वाले राजा शङ्ख के मन में भगवान् के दर्शन की उत्कंठा जगी।  वे दिन रात व्यथित रहने लगे।  तभी उन्हें एक सुमधुर स्वर सुनाई पड़ा।  "राजन! तुम शोक छोड़ दो।  तुम तो बहुत ही प्रिय लगते हो।  तुम्हारी ही तरह मुनि अगस्त्य भी मेरे दर्शन के लिए व्याकुल हैं और ब्रह्माजी के आदेश से वेंकटेश पर्वत पर त कर रहे हैं।  तुम भी वहीं जाकर मेरा भजन करो।  तुम्हें वहीं मेरे दर्शन होगें।"

महर्षि अगस्त्य उसी पर्वत की परिक्रमा कर रहे थे।  जब देवताओं और ॠषियों को पता चला कि भगवान् वहीं प्रकट होने वाले हैं तो वे भी वहाँ एकत्र हो गये।  इधर जब नियमित जप, तप और पूजन करते हुए एक हजार वर्ष बीत गये और फिर भी नारायण के दर्शन नहीं हुए तो उनकी व्याकुलता बढ़ी। तभी बृहस्पति जी, शुक्राचार्य आदि ने आ कर कहा, 'भगवान ब्रह्मा ने हमें स्वामी पुष्करिणी के तट पर शङ्ख राजा के पास चलने के लिये कहा है।  वहीं श्री हरीजी के दर्शन होंगे।'

जब सब लोग अगस्त्य जी को लेकर राजा शङ्ख की कुटिया पर पहुँचे तो राजा ने सब की पूजा की।  बृहस्पति जी ने उन्हें ब्रह्माजी का सन्देश सुनाया।  राजा भगवान् के प्रेम में मग्न हो कर नाचने गाने लगा।  स्तुति, प्रार्थना तथा कीर्त्तन की अखंड धारा तीन दिन तक बहती रही।  तीसरे दिन रात्रि में सबने स्वप्न देखा जिसमें शङ्ख, चक्र, गदा-पद्मधारी, चतुर्भुज भगवाने के दर्शन किये।  प्रात: काल होते-होते सबको विश्वास हो गया कि आज भगवाने के दर्शन होंगे।  तभी एक अद्भुत तेज प्रकट हुआ। उस तेज में न ताप थ न उससे आँखे चौंधियाती थीं।  उनकी आकृति मनोहर होने पर भी भयंकर थी।  सब हर्ष के साथ उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् ने अगस्त्य जी से कहा, 'तुमने मेरे लिए बड़ा तप किया है, वरदान मांगो।' महर्षि अगस्त्य ने कहा, 'आप वेंकटेश पर्वत पर निवास करें और जो भी दर्शन करने आयें उनकी कामना पूर्ण करें।'  राजा ने भी वरदान में भक्ति ही मांगी।  भगवान की भक्ति के कारण उनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है।

एक बार की कथा है, विन्धय नामक पर्वत ने सुमेरु गिरि से ईर्ष्या कर अपनी वृद्धि से सूर्यनारायण का मार्ग रोक दिया।  बृहस्पति, निर्ॠति , वरुण, वायु, कुबेर और रुद्र प्रभृति देवताओं ने अगस्त्य ॠषि से विन्धय पर्वत का बढ़ना रोकने की प्रार्थना की।  महामुनि अगस्त्य ने 'तथास्तु' कहा।  'मैं आप लोगों का कार्य सिद्ध कर्रूँगा"।  कह कर अगस्त्य मुनि ध्यानमग्न हो गये।  ध्यान के द्वारा विश्वनाथ का दर्शन कर वे लोपामुद्रा से बोले, 'जिस इन्द्र ने खेल ही खेल में समस्त पर्वतों के पंख काट डाले थे, वे आज अकेले विन्धय पर्वत का दपं दमन करने में क्यों कुंठित हो रहे हैं? आदित्यगण, वसुगण, रुद्रगण, तुषितगण, मरुद्गण, विश्वेदेवगण जिनके दृष्टिपात् से ही चौदह भुवनों का पतन संभव है, क्या वे लोग इस पर्वत की वृद्धि रोकने में समर्थ नहीं है?  हाँ, कारण समझ में आया।  काशी के संबंध में मुनियों ने जो कहा है वह बात मुझे स्मरण हो रही है।  मुमुक्षगण काशी का परित्याग न करें अन्यथा वहाँ निवास करने वालों को अनेक विघ्न प्राप्त होते रहेंगे।'

फिर बार-बार असी नदी के जल का स्पर्श करते हुए अपने नेत्रों को लक्ष्य कर बोले, 'इस काशीपुरी को अच्छी तरह देख लो।  इसके अनंतर कहाँ तुम रहोगे और कहाँ यह काशी रहेगी?'  तभी मुनि ने देखा, आकाश मार्ग को रोक कर समुन्नत विन्ध्यगिरी उनकी ही ओर बढ़ रहा है।  अगस्त्य मुनि को सहधर्मिणी के साथ देख कर वह काँप उठा।  अत्यंत विनम्र हो कर बोला, 'मैं किंकर हूँ।  मुझे आज्ञा दे कर अनुग्रहीत करें।'  अगस्त्य ॠषि ने कहा, 'हे विज्ञ विन्ध्य! तुम सज्जन हो और मुझे अच्छी तरह जानते हो।  जब तक मैं लौट कर न आ तब तक इसी तरह झुके रहो।'  गिरि प्रसन्न था कि मुनि ने शाप नहीं दिया।  सचमुच, उसका तो पुनर्जन्म हो गया।  तभी सूर्यरथ के सारथी ने घोड़ों को हाँका और पृथ्वी पर सूर्य की किरणों का संचार पूर्ववत् होने लगा।  विन्ध्य पर्वत मुनि की बाट जोहता हुआ स्थिर भाव से झुक कर बैठा रहा।

अगस्त्य ॠषि की परम भक्ति को शतश: प्रणाम।

श्री धन्वंतरि

काशी के संस्थापक 'काश' के प्रपौत्र, काशिराज 'धन्व' के पुत्र, धन्वंतरि महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ।  धन्वंतरि ने अमृतमय औषधियों की खोज की।  इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य, दिवोदास के शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता, सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे।  काशी में दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं।  शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।

आयुर्वेद के संबंध में सुश्रुत का मत है कि ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे।  उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदुपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा।  इन्द्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।

        विध्याताथर्व सर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन्।

        स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्ष श्लोकमयीमृजुम्।।

                                      (भावप्रकाश)

भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया।  इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वरा 'चरक संहिता' के निर्माण का भी आख्यान है।

वेद के संहिता तथा ब्राह्मण भाग में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है।  महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रुप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है।  उनका प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रुप मे हुआ।

समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें।  इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: यह अब संभव नहीं है।  देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो।  अत: तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे।  तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे।  तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे।  द्वितीय द्वापर में तुम पुन: जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।  इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रुप में जन्म लिया और 'धन्वंतरि' यह नाम धारण किया।

वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे।  उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया।  धन्वंतरि की परम्परा इस प्रकार है -

काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।

यह वंश-परम्परा हरिवंश पुराण के आख्यान के अनुसार है। (पर्व १ अ २९)।  विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है-काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वंतरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।

श्रीमद्भागवत में भी इसी वंशपरम्परा का उल्लेख है।

वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ।  जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला।  क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया।  विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण (३.५१) में आया है।  उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया  है -

        'सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।

         शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।।

                                     (ब्र.वै.३.५१)

इस आख्यान में मंत्रशास्र के महत्व पर विशेष बल दिया गया है।

महात्मा गौतम बुद्ध

सिद्धार्थ नगर (उ. प्र.) में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन और मायावती के पुत्र सिद्धार्थ का जन्म ५५९ ई. पू. वैशाख पूर्णिमा को हुआ था।  २५ वर्ष की उम्र में राजकुमारी यशोधरा से विवाह हुआ।  २८ वर्ष की उम्र में नगर में जरा, रोग, मृत्यु और सन्यासी को देख गृह त्याग दिया और शांति की खोज में चले।  घोर तप किया, ध्यानावस्था में बोधि प्राप्त होने पर काशी के समीप सारनाथ में प्रथम पाँच शिष्य बनाए, पहला प्रवचन (धर्मचक्र प्रवर्तन) किया।  कुशी नगर में ४७८ ई.पू. में उन्होंने देहोत्सर्ग (महापरिनिर्वाण) किया।

सिंहली अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक में सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि ५६३ ई.पूर्व स्वीकार की गयी है।  इनका जन्म शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था।

यह विधाता की लीला ही थी कि लुम्बिनी में जन्म लेने वाले बुद्ध को काशी में धर्मप्रवर्तन करना पड़ा।  त्रिपिटक तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनैतिक महत्व की सहज ही कल्पना हो जाती है।  प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) काशी का गणना चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौशाम्बी जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी।

पुत्रजन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे थे।  पिता शुद्धोदन ने 'आठ' भविष्य वक्ताओं से उनका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।

यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा और यदि उसने गृहत्याग किया तो सन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित कर देगा।  शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, किंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबा दिखायी देता था।  अंत में पिता ने उसे विवाह बंधन में बांध दिया।  एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली।  एक बार एक दुर्बल बुद्ध व्यक्ति को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये।  पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा।  उसके चेहरे पर शांति और तेज की अपूर्व चमक विराजमान् थी।  सिद्धार्थ उस दृश्य को देख कर अत्यधिक प्रभावित हुए।

उनके मने में निवृत्ति मार्ग के प्रति नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी।  जीवन के यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया।

विवाह के दस वर्ष के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।  पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा-'राहु'-अर्थात बंधन।  उन्होंने पुत्र का नाम राहुल रखा।  इससे पहले कि सांसरिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करें, उन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया।  एक महान् रात्रि को २९ वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े।  कुछ विद्धानों का मत है कि गौतम ने यज्ञों में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया

कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दुख को न सह सकने के कारण घर छोड़ था।  गृहत्याग के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे।  बिंबिसार, उद्रक, आलार, कालाम नामक सांख्योपदेशकों मे मिल कर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे।  वहाँ उन्हें कौडिल्य आदि पाँच साधक मिले।  उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी।  किंतु उसमें असफल होने पर वे गया के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्त रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ।  सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये।  जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधिवृक्ष' के नाम से विख्यात है।  ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था ३५ वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद तपस्सु तथा काल्लिक नामक दो शूद्र उनके पास आये।  महात्मा बुद्ध ने उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम  अनुयायी बनाया।

बोधगया से चल कर वे सारनाथ पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश दे कर अपना शिष्य बना दिया।  बौद्ध परंपरा में यह उपदेश 'धर्मचक्र प्रवर्त्तन' नाम से विख्यात है।  महात्मा बुद्ध ने कहा कि इन दो अतियों से बचना चाहिये -

१. कामसुखों में अदिक लिप्त होना तथा

२. शरीर से कठोर साधना करना।  उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा है, उसका सेवन करना चाहिये।  - (विन्य पिटक १, १०) यही 'धर्मचक्र प्रवर्तन' के रुप में पहला उपदेश था।  अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे वाराणसी पहुँचे।  यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठिपुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से 'धर्म प्रवर्त्तन' में जुट गये।  अब तक उत्तर भारत में इनका काफी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे।  कई बाद महाराज शुद्धोदन ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहा लेकनि जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बना जाता था।

इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे।  इनके धर्म का इनके जीवन काल में ही काफी प्रचार हो गया था क्योंकि उन दिनों कर्मकांड को जोर काफी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी।  इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीवमात्र पर दया करने का उपदेश दिया।  प्राय: ४४ वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में कुशी नगर के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात शरीरांत हुआ।  मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया।  उनके मुख से निकले अंतिम शब्द थे, 'हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी संस्कार हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर कल्याण करो।'  यह ४८५ ई. पू. की घटना है।  वे अस्सी वर्ष के थे।

     "हदं हानि भिक्ख्ये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया"

                                             - महापरिनिब्वान सुत्त, २३५

संत कबीर

काशी के इस अक्खड़, निडर एवं संत कवि का जन्म लहरतारा के पास सन् १२९७ में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ।  जुलाहा परिवार में पालन पोषण हुआ, संत रामानंद के शिष्य बने और अलख जगाने लगे।  कबीर सधुक्कड़ी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रुढियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे।  हिंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रुढिवाद तथा कट्टपरंथ का खुलकर विरोध किया।  कबीर की वाणी उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी में देखें जा सकते हैं।  गुरु ग्रंथ साहब में उनके २०० पद और २५० साखियां हैं।  काशी में प्रचलित मान्यता है कि जो यहाँ मरता है उसे मोक्ष प्राप्त होता है।  रुढि के विरोधी कबीर को यह कैसे मान्य होता।  काशी छोड़ मगहर चले गये और सन् १४१० में वहीं देह त्याग किया।  मगहर में कबीर की समाधि है जिसे हिन्दू मुसलमान दोनों पूजते हैं।

हिंदी साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है।  गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व कबीर के सिवा अन्य किसी का नहीं है।  कबीर की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं।  कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।  ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।  उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया।  उसी ने उसका पालन-पोषण किया।  बाद में यही बालक कबीर कहलाया।  कतिपय कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रुप में हुई।  एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति नाम देवाङ्गना के गर्भ से भक्तराज प्रहलाद ही संवत् १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को कबीर के रुप में प्रकट हुए थे।

कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं।  एक दिन, एक पहर रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढियो पर गिर पड़े।  रामानन्द जी गंगास्नान करने के लिये सीढियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया।  उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गूरु स्वीकार कर लिया।

कबीर के ही शब्दों में - 'हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'।

अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदू-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयंगम कर लिया।

जनश्रुति के अनुसार उन्हें एक पुत्र कमाल तथा पुत्री कमाली थी।  इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था।

साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था।  कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे - 'मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहीं हाथ।'  उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया।  आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है।  वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे।  अवतार, मूर्कित्त, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।  कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है।  एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं।  विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड़ ने 'हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।

कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है।  इसके तीन भाग हैं - रमैनी, सबद और साखी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।  कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रुप में देखते हैं।  यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं।

वे भी कहते हैं - 'हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, 'हरि जननी मैं बालक तोरा'।

उस समय हिंदू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था।  कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी।  उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके।  इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई।  इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।  कबीर को शांतिमय जीवन प्राप्त था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे।  अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।

वृद्धावस्ता में यश और कीर्कित्त की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया।  उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं।

इसी क्रंम में वे कालिं जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे।  वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था।  वहाँ के संत भगवान् गोस्वामी के जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था।  संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ।  कबीर की एक साखी के उन के मन पर गहरा असर किया-

       'बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।

        करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'

वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे?  सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा में प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर असंवाद्य स्थिति में पड़ चुके हैं।

मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाजिर कर दी -

       पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार।

       वा ते ता चाकी भली, पीसी खाय संसार।।

११९ वर्ष की अवस्था में उन्होंने मगहर में देह त्याग किया।

अघोराचार्य बाबा कानीराम

अघोर सम्प्रदाय के अनन्य आचार्य, संत कानीराम का जन्म सन् १६९३ भाद्रपद शुक्ल को चंदौली के रामगढ़ गाँव में अकबर सिंह के घर हुआ।  बारह वर्ष की अवस्था में विवाह अवश्य हुआ पर वैराग्य हो जाने के कारण गौना नहीं कराया।  ये देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुए गिरनार पर्वत पर बस गये।  कानीराम सिद्ध महात्मा थे और इनके जीवन की अनेक चमत्कारी घटनाएं प्रसिद्ध हैं।  सन् १७६९ को काशी में ही इनका निधन हुआ।

गोस्वामी कानीराम जी का जन्म बनारस के चन्दौली तहसील के अन्तर्गत रामगढ़ ग्राम में क्षत्रिय रघुवंशी परिवार में विक्रमी संवत् १६५८ में, भाद्रपद के कृष्णपक्ष में अघोर चुतुर्दशी के दिन हुआ।  श्री अकबर सिंह को ६० वर्ष की आयु में यह पुत्र प्राप्त हुआ था इससे ग्रामवासी भी विलक्षण प्रसन्न थे।  बालक दीर्घजीवी और कीर्तिवान् हो इसके लिये उन्हें दूसरे को दे कर उससे धन दे कर खरीदा गया।  इसी आधार पर आपका नाम कीना (क्रय किया हुआ) रखा गया। बालक कीना का शैशव समवयस्क बालकों के साथ खेलने-कूदने तथा महापुरुषों की जीवन कथाएँ सुनने और मनन करने में बीता।  इधर माता-पिता कि आयु भी अधिक हो चली थी।  उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था अत: ९ वर्ष की उम्र में ही आपका विवाह कात्यायनी देवी के साथ कर दिया गया।  १२ वर्ष की उम्र में गौने की तैयारी हो रही थी, तभी कात्यायनी देवी की मृत्यु का समाचार आया।  कुछ समय बाद माता-पिता भी परलोक सिधार गये और कीना के लिये वैराग्य का मार्ग प्रशस्त हो गया।  उन्होंने घर छोड़ा और सब से पहले गाजीपुर में एक गृहस्थ साधु शिवादास के यहाँ पड़ाव डाला।  बाबा शिवादास को बालक कीना की विलक्षणता का आभास हो गया था।  उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्होंने छिप कर देखा कि गंगा स्नान के लिये जाने वाले कीना का चरण-स्पर्श करने के लिये गंगाजी स्वयं आगे बढ़ रही हैं।  कुछ दिन बाबा शिवादास के साथ रहने के बाद वे उनके शिष्य बन गये।  कुछ वर्षों के उपरान्त उन्होंने गिरनार पर्वत की यात्रा की।  वहाँ भगवान् दत्तात्रेय के दर्शन किये और उनसे अवधूती की दीक्षा ग्रहण की।  इसके बाद वे काशी लौट आये।  यहाँ आकर बाबू कालूराम जी से अघोर मत का उपदेश लिया।  इस प्रकार कीना जी ने वैष्णव, भागवत् तथा अघोर पन्थ इन तीनों को साध्य किया।  वैष्णव होने के नाते वे राम के उपासक बने।  अघोर मत का पालन करने के कारण इन्हें मद्य-मांसादि का सेवन करने में भी कोई आपत्ति नहीं थी।  जाति-पाँति का भी कोई भेद-भाव न था।  हिंदू-मुस्लिम सभी उनके शिष्य बन गये।

अपने दोनों गुरुओं की मर्यादा का पालन करते हुए उन्होंने वैष्णव मत के चार स्थान-मारुफपुर, नयी ढीह, परानापुर तथा महुवर और अघोर मत के चार स्थान रामगढ़ (बनारस), देवल (गाजीपुर), हरिहरपुर (जौनपुर) तथा क्रींकुण्ड काशी में स्थापित किये।  उनकी प्रमुख गद्दी क्रींकुण्ड पर है। रामावतार की उपासना करना इनका वैशिष्ट्य है।  ये तीर्थों को भी मानते हैं और औघड़ भी कहलाते हैं।  ये देवी-देवताओं की पूजा नहीं करते, अपने शवों को जलाते नहीं, उन्हें समाधि देते हैं।  कीनाराम जी के कई चमत्कार सुनने को मिलतेहैं।  वे जब जूनागढ़ पहुँचे तो वहाँ के नवाब (जिसे कोई सन्तान न थी) ने राज्य में भिखारियों को जेल भेजने का आदेश दिया हुआ था।  कीनाराम के शिष्य बीजाराम भी भिक्षा माँगते समय जेल भेज दिये गये थे।  जब कीनाराम जी को पता चला तो वे जेल पहुँचे।  वहाँ अनेक साधु चक्की चला कर आटा पीस रहे थे।  उन्होंने साधुओं को चक्की चलाने से मना किया और अपनी कुबड़ी से चक्की को ठोकते हुए कहा, "चल-चल रे चक्की।'  चक्की अपने आप चलने लगी।

जब नवाब को इस बात की सूचना मिली तो वह दौड़ा आया और कीनाराम को आग्रह करके किले में ले गया, उनसे माफा माँगी।  कानीराम जी ने नवाब को माफ कर दिया और उससे कहा कि आज से सभी साधुओं को आटा और नमक दिया जाय जिससे उन्हें भविष्य में भीख न माँगनी पड़े।  सभी साधु तत्काल रिहा कर दिये गये और नवाब को संतान की भी प्राप्ति हो गयी।  चलते-चलते आप कंधार पहुँचे।  यहाँ के किले पर फारस के शाह अब्बास का कब्जा था जिसने जहाँगीर के बुढ़ापे का लाभ उठा कर उस पर अपना अधिकार कर लिया था।  जहाँगीर और शाहजहाँ काफी प्रयास के बाद भी उसे जीत नहीं पा रहे थे। शाहजहाँ का औघड़ संतों में विश्वास होने के कारण प्रयास के बाद भी उसे जीत नहीं पा रहे थे।  शाहजहाँ का औघड़ संतों में विश्वास होने के कारण कीनाराम ने उसे आशीर्वाद दिया।  फारस के सूबेदार शाह के खिलाफ हो गये और इस प्रकार शाहजहाँ बिना लड़ाई लड़े ही किला जीतने में कामयाब हो गया।  फिर इसी किले में शाहजहाँ ने कीनाराम जी का स्वागत किया।  एक बार कीनाराम जी ने दरभंगा निवास में मैथिली ब्राह्मणों के सामने एक मरे हुए हाथी को जीवित कर दिया था।

इसी प्रकार उन्होंने एक ब्राह्मणी को आशीर्वाद दिया जिसके बाद उसे चार बच्चे हुए। जनुश्रुति के अनुसार इन्होंने एक बार क्षिप्रा नदी के तट पर औरंगजेब को फटाकारा था कि जिस मज़हब की आड़ में तुम अमानुषिक कार्य कर रहे हो उसे इतिहास कभी माफ नहीं करेगा।  तुम्हारी सन्तान ही तुम्हें इसके लिये प्रताड़ित करेगी।

इस प्रकार कीनाराम जी ने भारत के कोने-कोने में दीन दुखियों की सेवा की तथा शोषित लोगों को शोषण से मुक्त कराया।  इन्होंने अन्याय कभी सहन नहीं किया।

कीनाराम जी का महाप्रयाण भी एक अद्भुत घटना है।  २१ सितंबर १७७१ ई. को उन्होंने काशी के अपने शिष्यों, विद्वानों तथा वेद पाठियों और वीर क्षत्रियों को बुलाया और कहा, "आप सब मेरे पार्थिव शरीर को हिंगलाज देवी के यंत्र के समीप पूर्वाभिमुख स्थापित करें।  जो समय-समय पर मेरे पार्थिव शरीर के सन्निकट हिंगलाज देवी के यंत्र की परिधि प्रार्थना करेगा, वह फलीभूत होगी।"

इसके उपरान्त उन्होंने सब के सामने हुक्का पिया।  तभी आकाश में बिजली जैसी कोई चीज चमकी, जोर की गर्जना हुई, जैसे भूचाल आया हो।  उसी के साथ इनके ऊर्ध्वरन्ध्र से तेजोमय प्रकाश निकला और देखते-देखते ब्रह्माण्ड में विलीन हो गया।  उपस्थित सारे लोग रोने बिलखने लगे।  तभी आकाश को चीरती हुई आवाज आची, "व्याकुल न हो, मैं क्रींकुण्ड स्थित हिंगलाज देवी के यंत्र की परिधि में चिताओं की लकड़ी से जलती हुई अखण्ड धनी में निकट सदैव एक रुप से रहूँगा।"

काशी का यह क्रींकुण्ड अघोर साधना का केन्द्र बिन्दु रहा है।  यहाँ अनेक औघड़ साधकों ने साधना की और देश की समस्याओं के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

वीरांगना लक्ष्मीबाई

१९ नवंबर १८३५-१८जून १८५९

भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में केवल पुरुषों ने ही अपने जीवन का बलिदान नहीं किया बल्कि यहाँ की वीरांगनाएँ भी घर से निकलकर साहस के साथ युद्ध-भूमि में शत्रुओं से लोहा लिया।  उन वीरांगनाओं में अग्रणी थीं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई।

१९ नवंबर, १८३५ ई. के दिन काशी के भदैनी क्षेत्र में मोरोपन्त जी की पत्नी भागीरथी बाई ने एक पुत्री को जन्म दिया।  पुत्री का नाम मणिकार्णिक रखा गया परन्तु प्यास से मनु पुकारा जाता था।  मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया।  मनु के पिता मोरोपन्त जी मराठा पेशवा बाजीराव की सेवा में थे।  चूँकि घर में मनु की देखाभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चञ्चल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया।  लोग उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे।

पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे।  मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी।  मनु ने पेशवा के बच्चों के साथ-साथ ही तीर-तलवार तथा बन्दूक से निशाना लगाना सीखा।  इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्र-शस्र चलाने में पारंगत हो गई।  अस्र-शस्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।

समय बीता और मनु विवाह योग्य हो गयी।  झाँसी के राजा गंगाधार राव के साथ मनु का विवाह बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ।  विवाह क पश्चात् मनु का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया।  इस प्रकार काशी की कन्या मनु झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई।

रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था।  स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया।  उन्होंने किले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए।  उन्होंने स्रियों की एक सेना भी तैयार की।

राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से अतीव प्रसन्न ते।

रानी अत्यन्त दयालु भी थीं  एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया।  उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा।  उन्होंने नगर में घोषणा करवा कर एक निश्चित दिन गरीबों में वस्रादि का वितरण कराया।

कुछ समय पश्चात् रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया।  सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था।  कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रुप से बीमार हुआ और उसकी मृत्यु हो गयी।  झाँसी शोक के सागर में डूब गई।  शोकाकुल राजा गंगाधर राव भी बीमार रहने लगे एवं मृतप्राय हो गये।  दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी।  अपने ही परिवार के पाँच वर्ष के एक बालक उन्होंने गोद लिया और उस अपना दत्तक पुत्र बनाया।  इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया।  गोद लेने के दूसरे दिन ही राजा गंगाधर राव की दु:खद मृत्यु हो गयी।

इसी के साथ रानी पर शोक का पहाड़ टूट पड़ा।  झाँसी का प्रत्येक व्यक्ति रानी के दु:ख से शोकाकुल हो गया।

उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेजों का शासन था।  वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे।  उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा।  उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी।  उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी के पत्र लिख भेजा कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेजों का अधिकार होगा।  रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।  अंग्रेज तिलमिला उठे।  परिणाम स्वरुप अंग्रेजों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया।  रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की।  किले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं।  रानी ने अपने महल के सोने एवं  चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।

रानी के किले की प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं।  रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा खुदा बक्श।  रानी ने किले की मजबूत किलाबन्दी की।  रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज सेनापित ह्यूरोज भी चकित रह गया।  अंग्रेजों ने किले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।

अंग्रेज आठ दिनों तक किले पर गोले बरसाते रहे परन्तु किला न जीत सके।  रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम श्वाँस तक किले की रक्षा करेंगे।  अंग्रेज सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से किला जीतना सम्भव नहीं है।  अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया।  फिरंगी सेना किले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया।

घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रुप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं।  झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े।  जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी।  किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेजों की तुलना में छोटी थी।  रानी अंग्रेजों से घिर गयीं।  कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं।  दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई।  अंग्रेज सैनिक उनके समीप आ गए।

रानी ने पुन: अपना घोड़ा दौड़ाया।  दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया।  घोड़ा नाला पार न कर सका।  तभी अंग्रेज घुड़सवार वहां आ गए।  एक ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया जिससे उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आँख बाहर निकल आयी।  उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया।  अत्यन्त घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों का वध कर डाला।  फिर वे स्वयं भूमि पर गिर पड़ी।  पठान सरदार गौस खाँ अब भी रानी के साथ था।  उसका रौद्र रुप देख कर गोरे भाग खड़े हुए।

स्वामिभक्त रामराव देशमुख अन्त तक रानी के साथ थे।  उन्होंने रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुँचाया।  रानी ने व्यथा से व्याकुल हो जल माँगा और बाबा गंगादास ने उन्हें जल पिलाया।

रानी को असह्य वेदना हो रही थी परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था।  उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए।  वह १८ जून १८५९ का दिन था जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी।  उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी।  दानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं।  आज भी उनकी वीरता के गीत प्रसिद्ध हैं -

        बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।

        खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थीं।।

श्री पाणिनी

पाणिनी मुनि अपने व्याकरण 'अष्टाध्यायी" अथवा 'पाणिनीय अष्टक' के लिये प्रसिद्ध हैं।  अब तक प्रकाशित ग्रंथों में सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ पाणिनी का ही है।  पाणिनी का काल ३५० ई.पू. माना जाता है किंतु इस संबंध में प्रस्तुत सन्देह रहित नहीं है।  संभवत: उनका काल ५०० ई. पूर्व या उसके बाद का था।

सूत्र साहित्य में पाणिनी कृत - 'अष्टाधायायी', 'श्रौत सूत्र', 'गृह्यसूत्र' तथा धर्मसूत्र का समावेश है।  पाणिनीकृता 'अष्टाध्यायी' संस्कृत व्याकरण संबंद ग्रंथ है।  इसमें श्रौत सूत्रों में पुरोहितों द्वारा सम्पादित किये जाने वाले संस्कारों का विवरण है।  'धर्मसूत्र' में परम्परागत नियम तथा विधियाँ दी गयी हैं और गृह्यसूत्रों में जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त तक की जीवन विष्यक क्रियाओं का उल्लेख है।  प्रमुख सूत्रकारों में गौतम, बोधायन-आपस्तम्ब, वशिष्ठ, आश्वलायन तथा कात्यायन आदि कि गणना होती है।

पाणिनी के नाम से कमनीय पद्य केवल सूक्तियों में ही संग्रहित नहीं है, बल्कि कोश ग्रंथों में तथा अलंकार शास्रीय पुस्तकों में भी उधृत मिलते हैं।  पुरातत्व वेत्ताओं में इस बात पर गहरा मतभेद है कि ये कविताएँ, वैय्याकरण पाणिनी की हैं अथवा 'पाणिनी' नामधारी किसी अन्य कवि की?  डॉक्टर भाण्डारकर, पीचर्सन आदि विद्वान सब कुछ सोचने-विचारने के बाद यही सोचते हैं कि इन श्लोकों का रचियता पाणिनी वैय्याकरण पाणिनी नहीं हो सकता।  इस के विपरीत डॉक्टर औफ्रेक्ट तथा डॉक्टर  पिशेल की सम्मति है कि पाणिनी को केवल एक खूसट वैय्याकरम मानना बड़ी भारी भूल करना है, वह स्वयं अच्छ कवि थे।  संस्कृत साहित्य की परंपरागत प्रसिद्धि पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि पाणिनी ही इन पद्यों के नि:सन्दिग्ध रचयिता है।  राजशेखर ने सूक्तिग्रंथों में पाणिनी को व्याकरण तथा 'जाम्बवती जय' का रचयिता माना है -

        नम: पाणिनये तस्मै यस्मादाविर भूदिह।

        आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।।

यह बात महत्वपूर्ण है कि पाणिनी यदा-कदा फुटकर पद्य लिखने वाले कवि नहीं थे, बल्कि संस्कृत साहित्य के सर्वप्रथम महाकाव्य लिखने का श्रेय उन्हीं को जाता है।  इस महाकाव्य का नाम कहीं तो 'पाताल विजय' तो कहीं 'जाम्बवती जय' पाया जाता है।  अष्टाध्यायी में पारिभाषिक शब्दों में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनी के बनाये हुए हैं और बहुत से ऐसे हैं जो पहले से ही प्रचलित हैं।  पाणिनी ने अपने रचे शब्दों की व्याख्या की है और पहले के अनेक पारिभाषिक शब्दों की भी नयी व्याख्या कर उनके प्रयोग को विकसित किया है।

महर्षि पाणिनी ने काशी शब्द को गण के आदि में दिखलाया है।

काश्यादिभ्यष्ठञत्रिठौ-अष्टाध्यायी ४-२-११६

अष्टाध्यायी में 'काशीय:' रुप की सिद्धि भी बतायी गयी है।

संस्कृत में उच्चारण की शुद्धता पर अधिक जोर दिया जाता है।  वैदिक मन्त्रों में उच्चारण में यदि छोटी सी भी त्रुटि हो जाती है, तो महान् अनर्थ उपस्थित हो जाता है और इस अनर्थ का भाजन स्वयं वृत्तासुर को बनना पड़ा था जिसे यज्ञ में स्वर के अपराध से लेने के देने पड़ गये थे।  महर्षि पाणिनी ने व्याघ्री को अपने बच्चे को मुँह में ले जाते देखा था और उसी को उन्होंने वर्णोंच्चारण-विधान में आदर्श माना था।  बोलने वाले को चाहिये कि न तो वह वर्णों का काटे, न वर्णों को मुँह से बिखरने दे -

        व्याघ्री यथा हरेत् पुत्रान् दंष्ट्राभ्यां न च पीडयेत्।

        भीता पतन-भेदाभ्यां तद्वद् वर्णान प्रजोजयेत्।।-पाणिनी शिक्षा-श्लोक २४

उच्चारण की गलतियों का उल्लेख पाणिनी ने अपने सूत्रों में किया है।  एक बार अशुद्ध उच्चारण के लिये 'कारयति' का प्रयोग होता है।  अर्थात बारंबार अशुद्ध उच्चारण करने पर 'कारयते' आत्मनेपद् का प्रयोग समुचित माना जाता है।  इसके लिये पाणिनी का विधान इस सूत्र में है-

       मिथोपपदात् कृञोडभ्यासे (१/३/७१)

श्री पार्श्वनाथ

जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक २३वें तीथर्ंकर पार्श्वनाथ ऐतिहासिक शलाकापुरुष और महावीर के पूर्ववर्ती थे, जिनका जन्म लगभग आठवीं शती ई.पू. में पौष कृष्ण दशमी को वाराणसी के शासक अश्वसेन के घर हुआ।  वामा इनकी माता थीं।  इनका विवाह कुशस्थल के शासक प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती से हुआ।  दीक्षा ग्रहणकर गहन साधना द्वारा इन्होंने वाराणसी में कैवल्य प्राप्त किया और जैन धर्म के चातुर्याम (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह) की शिक्षा दी जो आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है।  सिर के ऊपर तीन सात और ग्यारह सपंकणों के छत्रों के आधार पर मूर्तियों में इनकी पहचना होती है।  काशी में भदैनी, भेलूपुर एवं मैदागिन में पार्श्वनाथ के कई जैन मन्दिर हैं।

जैन ग्रंथों के अनुसार पार्श्वनाथ से पहले जैन धर्म के २२ तीथर्ंकर हो चुके थे।  पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी के पूर्व के किसी तीथर्ंकर के विषय में कोई सूचना नहीं प्राप्त होती है।  जैन धर्म के संत तथा प्रमुख अधिष्ठाता तीथर्ंकर कहलाते हैं।  इन्हें जितेन्द्रिय ज्ञानी माना जाता है।  जैन धर्म के चौबीस तीथर्ंकर हुए जिनमें पार्श्वनाथ तेईसवें तीथर्ंकर थे।  पार्श्वनाथ वास्तव में ऐतिहासिक व्यक्ति थे।  जैकोबी महोदय तो इन्हें जैन धर्म का संस्थापक मानते हैं।  ब्राह्मण परम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ की गणना चौबीस अवतारों में की जाती है।  कल्पसूत्र के अनुसार पार्श्वनाथ का जन्म महावीर स्वामी से लगभग २५० वर्ष पूर्व अर्थात ७७७ ई. पूर्व चैत्र कृष्ण चतुर्थी को काशी में हुआ था।  उनके पिता अश्वसेन वाराणसी के राजा थे।  उनकी माता का नाम वामा था।  उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रुप में व्यतीत हुआ।  युवावस्था में कुशस्थल देश की राजकुमारी प्रभावती के साथ आपका विवाह हुआ।

तीस वर्ष की आयु में ही आप ने गृह त्याग दिया और संन्यासी हो गये।  ८३ दिन तक कठोर तपस्या और ८४ वें दिन उनके हृदय में ज्ञानज्योति प्रज्वलित हुई।  इनका ज्ञान प्राप्ति का स्थान सम्मेय पर्वत था।  ज्ञान प्राप्ति के उपरांत सत्तर वर्ष तक आपने अपने मत और विचारों का प्रचार-प्रसार किया तथा सौ वर्ष की आयु में देह त्याग दिया।  पार्श्वनाथ ने चार गणों या संघों की स्थापना की।  प्रत्येक गण एक गणधर के अन्तर्गत कार्य करता था।  सारनाथ जैन-आगम ग्रंथों में सिंहपुर के नाम से प्रसिद्ध है।  यहीं पर जैन धर्म के ११ वें तीथर्ंकर श्रेयांसनाथ ने जन्म लिया था और अपने अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार किया था।  उनके अनुयाइयों में स्री और पुरुष को समान महत्व प्राप्त था।

सुपार्श्व तथा चन्द्रप्रभा का जन्म भी काशी में हुआ था।  पार्श्वनाथ की जन्म भूमि के स्थान पर निर्मित मंदिर भेलुपुरा मुहल्ले में विजय नगरम् के महल के पास स्थित है।

श्री पतञ्जलि

पतञ्जलि काशी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे।  इनका जन्म गोनारद्य (गोनिया) में हुआ था पर ये काशी में "नागकूप' पर बस गये थे।  ये व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे।  काशीनाथ आज भी श्रावण कृष्ण ५, नागपंचमी को "छोटे गुरु का, बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो' कहकर नाग के चित्र बाँटते हैं क्योंकि पतञ्जलि ्को शेषनाग का अवतार माना जाता है।  पतञ्जलि महान् चकित्सक थे और इन्हें ही 'चरक संहिता' का प्रणेता माना जाता है।  पतञ्जलि का महान अवदान है 'योगसूत्र'।  पतञ्जलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे - अभ्रक विंदास अनेक धातुयोग और लौहशास्र इनकी देन है।  पतञ्जलि संभवत: पुष्यमित्र शुंग (१९५-१४२ ई.पू.) के शासनकाल में थे।  राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है।

ई.पू. द्वितीय शताब्दी में 'महाभाष्य' के रचयिता पतञ्जलि काशी-मण्डल के ही निवासी थे।  मुनियत्र की परंपरा में वे अंतिम मुनि थे।  पाणिनी के पश्चात् पतञ्जलि सर्वश्रेष्ठ स्थान के अधिकारी पुरुष हैं।  उन्होंने पाणिना व्याकरण के महाभाष्य की रचना कर स्थिरता प्रदान की।  वे अलौकिक प्रतिभा के धनी थे।  व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्रों पर भी इनका समान रुप से अधिकार था।  व्याकरण शास्र में उनकी बात को अंतिम प्रमाण समझा जाता है।  उन्होंने अपने समय के जनजीवन का पर्याप्त निरीक्षण किया था।  अत: महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ होने के साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोश भी है। यह तो सभी जानते हैं कि पतञ्जलि शेषनाग के अवतार थे।  द्रविड़ देश के सुकवि रामचन्द्र दीक्षित ने अपने 'पतञ्जलि चरित' नामक काव्य ग्रंथ में उनके चरित्र के संबंध में कुछ नये तथ्यों की संभावनाओं को व्यक्त किया है।  उनके अनुसार शंकराचार्य के दादागुरु आचार्य गौड़पाद पतञ्जलि के शिष्य थे किंतु तथ्यों से यह बात पुष्ट नहीं होती है।

प्राचीन विद्यारण्य स्वामी ने अपने ग्रंथ 'शंकर दिग्विजय' में शंकराचार्य में गुरु गोविंद पादाचार्य का रुपांतर माना है।  इस प्रकार उनका संबंध अद्वेैत वेदांत के साथ जुड़ गया।  पतञ्जलि के समय निर्धारण के संबंध में पुष्यमित्र कण्व वंश के संस्थापक ब्राह्मण राजा के अश्वमेध यज्ञों की घटना को लिया जा सकता है। यह घटना ई.पू. द्वितीय शताब्दी की है।  इसके अनसार महाभाष्य की रचना काल ई.पू. द्वितीय शताब्दी का मध्यकाल अथवा १५० ई. पूर्व माना जा सकता है।  पतञ्जलि की एकमात्र रचना महाभाष्य है जो उनकी कीर्ति को अमर बनाने के लिये पर्याप्त है।  दर्शन शास्र में शंकराचार्य को जो स्थान 'शारीरिक भाष्य' के कारण प्राप्त है, वही स्थान पतञ्जलि को महाभाष्य के कारण व्याकरण शास्र में प्राप्त है।  पतञ्जलि ने इस ग्रंथ की रचना कर पाणिनी के व्याकरण की प्रामाणिकता पर अंतिम मुहर लगा दी है।

संत रैदास

(१४३३, माघ पूर्णिमा)

प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं।  इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है।  ऐसे सन्तों में रैदास का नाम अग्रगण्य है।  वे सन्त कबीर के गुरुभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे।  लगभाग छ: सौ वर्ष पहले भारतीय समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था।  उसी समय रैदास जैसे समाज-सुधारक सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ।  रैदास का जन्म काशी में चर्मकार कुल में हुआ था।  उनके पिता का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया बताया जाता है।  रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था।  जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया।  वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।

उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे।

रैदास के समय में स्वामी रामानन्द काशी के बहुत प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सन्त थे।  रैदास उनकी शिष्य-मण्डली के महत्वपूर्ण सदस्य थे।

प्रारम्भ में ही रैदास बहुत परोपरकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था।  साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था।  वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे।  उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे।  कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया।  रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनकार तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।

उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है।  एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे।  रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, 'गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है।  यदि आज मैं जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा।  गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है।  मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।'  कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा।

रैदासे ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परसम्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।

वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे।  उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं।  वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।

       "कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।

        वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।"

उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सदव्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है।  अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया।  अपने एक भजन में उन्होंने कहा है -

       "कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।

       तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।"

उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है।  अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है।  इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।

रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी।  इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।

उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये।  कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।

      'वर्णाश्र अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।

       सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।"

आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।  उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है।  विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं।  इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्याधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।

स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य

उत्तरी भारत में तीसरे भक्ति आन्दोलन को समरसता का जन आन्दोलन बनाने वाले 'जाति-पांति पूछै नहिं कोई हरि को भजै सौ हरि का होई" का उद्घोष करने वाले स्वामी रामानन्द जी का प्रादुर्भाव स. १२९९ ई. में माघ कृष्ण सप्तमी को प्रयाग में हुआ।  इनकी साधना और कर्मस्थली काशी का पंचगंगा घाट था।  इन्होंने अपनी भक्ति धारा से समाज के सभी वर्गों को प्रभावित किया, इसी कारण इनके प्रमुख द्वादश शिष्यों में कबीर, रैदास के अतिरिक्त धन्ना जाट, सेना नाई, पीपर राजा तथा पद्मावती एवं सुरसरी जैसी महिलाएँ भी थीं।  गुरुनानक देवजी की वाणी में भी रामानन्द जी के उपदेश सम्मिलित हैं।  रामानन्द जी की पूर्ण समर्पित 'प्रपत्ति भक्ति' राम-सीता-लक्ष्मण की त्रयी के प्रति थी।  वर्तमान में पंचगंगा घाट स्थित श्रीमठ रामानन्द जी की परम्परा का मूल मठ है।  २४ जनवरी को इनकी जयन्ती मनायी जाती है।

आचार्य रामानन्द जी का जन्म प्रयाग में पुण्यसदन या भूरिकम्र्मा नामक एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण के घर में हुआ था।  कुल के पुरोहित श्री वाराणसी अवस्थी ने बालक के माता-पिता को उपदेश दिया था कि तीन साल तक बालक को घर से बाहर न निकालना, उसको दूध ही पिलाना और उसे कभी दपंण न दिखाना।  अन्नप्राशन संस्कार में उसने खीर का ही स्पर्श किया।  बाल्यावस्था से ही इनकी बुद्धि बहुत तीव्र थी।  बारह वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते इन्होंने सभी शास्र पढ़ लिये थे।  दर्शन शास्र का अध्ययन करने के लिए ये विशेष रुप से काशी आये।  एक दिन रामानुज की शिष्य परम्परा के राघवानन्द से आपकी भेंट हुई।  उन्होंने इन्हें देखते ही कहा, तुम्हारी आयु बहुत कम है और तुम अभी तक हरी की शरण में नहीं आये हो।  इन्होंने राघवानन्द से मन्त्र और दीक्षा ली, उनके शिष्य बन गये और उनसे योग सीखने लगे।  उसी समय उनका नाम रामानन्द रखा गया।  उन्होंने पंचगंगा घाट पर एक घाटिया की झोपड़ी में रह कर तप करना प्रारंभ कर दिया।

लोगों ने उनसे ऊँचे स्थान पर कुटी बना कर रहने की प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया वहाँ रह कर ज्ञानार्जन और तपस्या करने लगे।  उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी और बड़े-बड़े विद्वान तथा साधु उनके दर्शन के लिये आने लगे।  उनके पास मुसलमान, जैन, बौद्ध, वेदान्ती, शास्रज्ञ, शैव और शाक्त सभी मत के लोग शंकाएँ ले कर आते थे समुचित समाधान पा कर खुशी-खुशी लौट जाते थे।

स्वामी रामानन्द ने राम की उपासना परब्रह्म के रुप में चलायी किंतु विशिष्ट द्वेैतवाद का प्रतिपादन एक नये ढंग से किया।  पिछले पाँच सौ से अधिक वर्षों के कालखंड में रामोपासन का सर्वाधिक प्रचार स्वामी रामानन्द ने किया।  रामानन्द स्वामी और चैतन्य महाप्रभु ने वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य होते हुए भी भगवान् की शरण में आये मुसलमानों को भी स्वीकार कर अपनी उदारता का परिचय दिया तथा हिंदुओं को मुसलमान होने से बचाया।

उनके शिष्यों में जाट, शूद्र, चमार, मुसलमान और स्री आदि सभी का समावेश था।  विचारों से वे अत्यंत उदार थे।  उनके इन विचारों के कारण भारत के दक्षिणी और उत्तरी भागों में सहिष्णुता की लहर दौड़ गयी।  किंतु बाद में उनके अनुयाइयों में जाति-पाँति के संबंध में केवल इतनी ही उदारता बची रही कि भगवान् की शरण में सभी आ सकते थे।  परंतु समाज में सभी वर्णों का अपना अपना स्थान यथावत् बना रहा।

रामायत अथवा श्री रामानन्दी वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक के रुप में स्वामी रामानन्द जी का नाम लिया जाता है।  वे उच्चकोटि के आध्यात्मिक पुरुष थे।  उनके अनुयायी अपने को रामानन्द सम्प्रदाय का ही कहते हैं किंतु उनके शिष्यों की रामानन्द स्वामी के नाम पर कोई परम्परा नहीं चली।  उन्होंने रामोपासना की रीति चलायी किंतु वह स्मार्त्तों� में बिना सम्प्रदायवाद के फैली।  गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस तथा अन्य रचनाओं में उन्हीं के मत का प्रतिपादन किया है।

उन्होंने देश में उस समय चल रहे मुसलमानों के अत्याचार से बचने के लिये जाति-पाँति का बंधन ढीला कर दिया और सब को रामनाम के महामन्त्र का उपदेश दे कर अपने 'रामावत' - सम्प्रदाय में लाना चाहा।

उन्होंने रामानुज के श्री वैष्णव सम्प्रदाय की सीमा तोड़ कर उसे अधिक विस्तृत और उदार बनया।  स्वामी रामानन्द ने संसार के लिये महान् कार्य किया।  उन्होंने मुख्य रुप से तीन कार्यय किये - १. साम्प्रदायिक कलह को शांत किया। २. बादशाह गयासुद्दीन तुगलक की हिंदू-संहारिणी सत्ता को पूर्णरुप से दबा दिया और ३. हिंदुओं के आर्थिक संकट को भी दूर किया।

स्वामी जी तीर्थयात्रा करने के लिये अपनी शिष्यमंडली और साधु समाज के साथ जगन्नाथ जी, विजय नगर गये।  विजयनगर के महाराज बुक्काराम ने इनका भव्य स्वागत किया।  कई भण्डारे हुए और साधु ब्राह्मणों ने प्रसाद पाया।  स्वामीजी ने राजा को उपदेश दिया, 'राजयोग में भोगविलास हानिकारक है। राजा जहाँ भोगविलास में लिप्त हो जाता है वहाँ राज्य और राजवंश नष्ट हो जाता है।'

उनके शिष्यों की संख्या ५०० से अधिक है।  उनके प्रमुख शिष्य हैं - पीपा (क्षत्रिय), कबीर (जुलाहा), सेना (नाई), धन्ना (जाट), रैदास (चमार) आदि।  इनके सम्प्रदाय में जाति-पाँति का भेद अवरोध नहीं उत्पन्न कर सकता।  श्री रामानन्दाचार्य ने प्रस्थान त्रयी पर भाष्य लिखे हैं।  वेदान्त दर्शन का श्री आनन्द भाष्य उनमें अन्यतम है।  जीवन के आखिरी क्षणों में स्वामीजी ने अपनी शिष्यमंडली को संबोधित करते हुए कहा, 'सब शास्रों का सार भगवत्स्मरण है जो सच्चे संतो का जीवनसार है।  कल - श्री रामनवमी है।  मैं अयोध्याजी जाऊँगा।  परंतु मैं अकेला ही जाऊँगा।  सब लोग यहाँ रहकर उत्सव मनाये।  कदाचित् मैं लौट न सकूं।  आप लोग मेरी त्रुटियों एवं अविनय आदि को क्षमा कीजियेगा।  यह सुन कर सब के नेत्र सजल हो गये।  दूसरे दिन १४६७ में स्वामीजी अपनी कुटी में अंतध्र्यान हो गये।

श्री शंकराचार्य

अद्वेैत दर्शन के महान् आचार्य शंकर का प्रादुर्भाव ७८० ईस्वी में हुआ।  केरल प्रदेश में अलवाई नदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में महान् भक्त शिव गुरु के घर माता विसिष्टा ने वैशाख शुक्ल पंचमी को इन्हें जन्म दिया।  शंकर की कृपा से जन्में बालक का नाम शंकर पड़ा।  आठवें वर्ष में शंकर ने सन्यास ले लिया।  गुरु की खोज में ओंकारेश्वर पहुँचे जहाँ इन्हें गोविन्दाचार्य मिले।  तीन वर्ष अध्ययन करके बारह वर्ष की आयु में ये काशी पहुँचे।  मणिकर्णिका पर यह बाल-आचार्य वृद्ध शिष्यों को 'मौन व्याख्यान' देता था।  काशी में गंगा स्नान करके लौटते समय एक चांडाल को मार्ग से हटो कहा तब चांडाल ने इन्हें 'अद्वेैत' का वास्तविक ज्ञान दिया और काशी में चांडाल रुपधारी शंकर से पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर शंकर ने १४ वर्ष की उम्र में ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद् पर भाष्य लिखे।  सोलह वर्ष की उम्र में वेदव्यास से भेंट हुई।

प्रयाग में कुमारिल भ से मिले, महिष्मति में मंडन मिश्र से शास्रार्थ किया।  इन्होंने केदार धाम में ३२ वर्ष की आयु में शिवसायुज्य प्राप्त किया।

भगवान् शंकर के संबंध में जो भी पाठ्य सामग्री प्राप्त है तथा उनके जीवन संबंध में जो भी घटनाएँ मिलती हैं उनसे ज्ञात होता है कि वे एक अलौकिक व्यक्ति थे।  उनके व्यक्तित्व में प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, अगाध भगवद्भक्ति आदि का दुर्लभ समावेश दिखायी देता है।  उनकी वाणी में मानों सरस्वती का वास था।  अपनी बत्तीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अनेक बृहद् ग्रन्थों की रचना की, पूरा भारत भ्रमण कर अपने विरोधियों को शास्रार्थ में पराजित किया, भारत के चारों कोनों में मठ स्थापित किये तथा डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की।  धर्म संस्थापना के उनके इस कार्य को देख कर यह विश्वास दृढ़ हो उठता है कि वे साक्षात् शंकर के अवतार थे -

          "शंकरो शंकर: साक्षात्"।

उनके ही समय में भारत में वेदान्त दर्शन अद्वेैतवाद का सर्वाधिक प्रचार हुआ, उन्हें अद्वेैतवाद का प्रवर्त्तक माना जात है।  ब्रह्मसूत्र पर जितने भी भाष्य मिलते हैं उनमें सबसे प्राचीन शंकर भाष्य ही है।  उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है लेकिन अधिकांश लोगों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में आविर्भूत हुए और ३२ वर्ष की आयु में तिरोहित हुए।  उनका जन्म केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तटवर्ती कलादी नामक ग्राम में वैशाख शुक्ल ५ को हुआ था।  उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा या विशिष्टा था।

उनके बचपन से ही मालूम होने लगा कि किसी महान् विभूति का अवतार हुआ है।  पाँचवे वर्ष में यज्ञोपवीत करा कर इन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेजा गया और सात वर्ष की आयु में ही आप वेद, वेदान्त और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर वापस आ गये।  वेदाध्ययन के उपरान्त आपने संन्यास ग्रहण करना चाहा किन्तु माता ने उन्हें आज्ञा नहीं दी।

एक दिन वे माँ के साथ नदी पर स्नान करने गये, वहाँ मगर ने उन्हें पकड़ लिया।  माँ हाहाकार मचाने लगी।  शंकर ने माँ से कहा तुम यदि मुझे संन्यास लेने की अनुमति दो तो मगर मुझे छोड़े देगा।  माँ ने आज्ञा दे दी।  जाते समय माँ से कहते गये कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूँगा।  घर से चलकर आप नर्मदा तट पर आये, वहाँ गोविन्द-भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की।  उन्होंने गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से साधना शुरु कर दी अल्पकाल में ही योग सिद्ध महात्मा हो गये।  गुरु की आज्ञा से वे काशी आये।  यहाँ उनके अनेक शिष्य बन गये, उनके पहले शिष्य बने सनन्दन जो कालान्तर में पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।  वे शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ग्रंथ भी लिखते जाते थे।  कहते हैं कि एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रुप में उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया।  जब भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गंगा तट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा।  उस सूत्र पर उनका उस ब्राह्मण के साथ आठ दिन तक शास्रार्थ हुआ।

बाद में मालूम हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं साक्षात् भगवान् वेद व्यास थे।  वहाँ के कुरुक्षेत्र होते हुए वे बदरिकाश्रम पहुँचे।  उन्होंने अपने सभी ग्रंथ प्राय: काशी या बदरिकाश्रम में लिखे थे, वहाँ से वे प्रयाग गये और कुमारिल भ से भेंट की।  कुमारिल भ के कथनानुसार वे माहिष्मति नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्रार्थ के लिए आये।  उस शास्रार्थ में मध्यस्थ थीं मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती।  इसमें मण्डन मिश्र की पराजय हुई, और उन्होंने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया।  इस प्रकार भारत-भ्रमण के साथ विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित कर वे बदरिकाश्रम लौट आये वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और तोटकाचार्य को उसका माठीधीश बनाया।  अंतत: वे केदार क्षेत्र में आये और वहीं इनका जीवन सूर्य अस्त हो गया।

उनके लिखे ग्रंथों की संख्या २६२ बतायी जाती है, लेकिन यह कहना कठिन है कि ये सारे ग्रंथ उन्हीं के लिख हैं।  उनके प्रधान ग्रंथ इस प्रकार हैं - ब्रह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद् भाष्य, गीता भाष्य, विष्णु सहस्रनाम भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, हस्तामलक भाष्य आदि।

गोस्वामी तुलसीदास

श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का जन्म सन् १५६८ में राजापुर में श्रावण शुक्ल ७ को हुआ था।  पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था।  तुलसी की पूजा के फलस्वरुप उत्पन्न पुत्र का नाम तुलसीदास रखा गया।  पत्नी रत्नावली के प्रति अति अनुराग की परिणति वैराग्य में हुई।  अयोध्या और काशी में वास करते हुए तुलसीदास ने अनेक ग्रन्थ लिखे।  चित्रकूट में हनुमान् जी की कृपा से इन्हे राम जी का दर्शन हुआ।  काशी और अयोध्या में (संवत् १६३१) 'रामचरितमानस' और 'विनय पत्रिका' की रचना की।  तुलसी की 'हनुमान् चालीसा' का पाठ करोड़ो हिन्दू नित्य करते हैं।  तुलसी घाट पर ही निवास करते हुए श्रावण शुक्ल तीज को राम में लीन हो गये।

गोस्वामी तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का अवतार माना जाता है।  उनका जन्म बांदा जिले के राजापुर गाँव में एक सरयू पारीण ब्राह्मण परिवार में हुआ था।  उनका विवाह सं. १५८३ की ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को बुद्धिमती (या रत्नावली) से हुआ।  वे अपनी पत्नी के प्रति पूर्ण रुप से आसक्त थे।  एक बार जब उनकी पत्नी मैके गयी हुई थी उस समय वे छिप कर उसके पास पहुँचे।  पत्नी को अत्यंत संकोच हुआ उसने कहा -

       हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।

       तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।

तुलसी के जीवन को इस दोहे ने एक नयी दिशी दी।  वे उसी क्षण वहाँ से चल दिये और सीधे प्रयाग पहुँचे।

फिर जगन्नाथ, रामेश्वर, द्वारका तथा बदरीनारायण की पैदल यात्रा की।  चौदह वर्ष तक के निरंतर तीर्थाटन करते रहे।  इस काल में उनके मन में वैराग्य और तितिक्षा निरंतर बढ़ती चली गयी।  इस बीच आपने श्री नरहर्यानन्दजी को गुरु बनाया।

गोस्वामी जी के संबंध में कई कथाएँ प्रचलित हैं।  कहते हैं जब वे प्रात:काल शौच के लिये गंगापार जाते थे तो लोटे में बचा हुआ पानी एक पेड़ेे की जड़ में डाल देते थे।  उस पेड़ पर एक प्रेत रहता था।  नित्य पानी मिलने से वह प्रेत संतुष्ट हो गया और गोस्वामी जी सामने प्रकट हो कर उनसे वर माँगने की प्रार्थना करने लगा।  गोस्वामी जी ने रामचन्द्र जी के दर्शन की लालसा प्रकट की।  प्रेत ने बताया कि अमुक मंदिर में सायंकाल रामायण की कथा होती है, यहाँ हनुमान् जी नित्य ही कोढ़ी के भेष में कथा सुनने आते हैं।  वे सब से पहले आते हैं और सब के बाद में जाते हैं।  गोस्वामी जी ने वैसा ही किया और हनुमान् जी के चरण पकड़ कर रोने लगे।  अन्त में हनुमान् जी ने चित्रकूट जाने की आज्ञा दी।

आप चित्रकूट के जंगल में विचरण कर रहे थे तभी दो राजकुमार - एक साँवला और एक गौरवर्ण धनुष-बाण हाथ में लिये, घोड़ेे पर सवार एक हिरण के पीछे दौड़ते दिखायी पड़े।  हनुमान् जी ने आ कर पूछा, "कुछ देखा?  गोस्वामी जी ने जो देखा था, बता दिया।  हनुमान् जी ने कहा,'वे ही राम लक्ष्मण थे।'  वि.सं. १६०७ का वह दिन।  उस दिन मौनी अमावस्या थी।  चित्रकूट के घाट पर तुलसीदास जी चंदन घिस रहे थे।  तभी भगवान् रामचन्द्र जी उनके पास आये और उनसे चन्दन माँगने लगे।  गोस्वामी जी ने उन्हें देखा तो देखते ही रह गये।  ऐसी रुपराशि तो कभी देखी ही नहीं थी।  उनकी टकटकी बंध गयी।  उस दिन रामनवमी थी।  संवत १६३१ का वह पवित्र दिन।  हनुमान् जी की आज्ञा और प्रेरणा से गोस्वामी जी ने रामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया और दो वर्ष, सात महीने तथा छब्बीस दिन में उसे पूरा किया।  हनुमान् जी पुन: प्रकट हुए, उन्होंने रामचरितमानस सुनी और आशीर्वाद दिया, 'यह रामचरितमानस तुम्हारी कीर्ति को अमर कर देकी।'

सच्चरित्र होने के कारण आप के हाथ से कुछ न कुछ चमत्कार हो जाते थे।  एक बार उनके आशीर्वाद से एक विधवा का पति जीवित हो उठा।  यह खबर बादशाह तक पहुँची।  उसने उन्हें बुला भेजा और कहा, 'कुछ करामात दिखाओ।'  गोस्वामी जी ने कहा कि 'रामनाम' के अतिरिक्त मैं कुछ भी करामात नहीं जानता।  बादशाह ने उन्हें कैद कर लिया और कहा कि जब तक करामात नहीं दिखाओगे, तब तक छूट नहीं पाओगे।  तुलसीदास जी ने हनुमान् जी की स्तुति की।  हनुमान् जी ने बंदरों की सेना से कोट को नष्ट करना प्रारम्भ किया।  बादशाह इनके चरणों पर गिर पड़े और उनसे क्षमायाचना की।

तुलसीदास जी के समय में हिंदु समाज में अनेक पंथ बन गये थे।  मुसलमानों के निरंतर आतंक के कारण पंथवाद को बल मिला था।  उन्होंने रामायम के माध्यम से वर्णाश्रम धर्म, अवतार धर्म, साकार उपासना, मूर्कित्तपूजा, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन तथा तत्कालीन मुस्लिम अत्याचारों और सामाजिक दोषों का तिरस्कार किया।

वे अच्छी तरह जानते थे कि राजाओं की आपसी फूट और सम्प्रदाय वाद के झगड़ों के कारण भारत में मुसलमान विजयी हो रहे हैं। उन्होंने गुप्त रुप से यही बातें रामचरितमानस के माध्यम से बतलाने का प्रयास किया किंतु राजाश्रय न होने के कारण लोग उनकी बात समझ नहीं पाये और रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सफल नहीं हो पाया।  यद्यपि रामचरितमानस को तुलसीदास जी ने राजनीतिक शक्ति का केन्द्र बनाने का प्रयत्न नहीं किया फिर भी आज वह ग्रंथ सभी मत-मतावलम्बियों को पूर्ण रुप से मान्य है।  सब को एक सूत्र में बाँधने का जो कार्य शंकराचार्य ने किया था, वही कार्य बाद के युग में गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया। गोस्वामी तुलसीदास ने अधिकांश हिदू भारत को मुसलमान होने से बचाया।

आप के लिखे बारह ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हैं -

दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरित मानस, रामलला नहछू, पार्वतीमंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण, रामाज्ञा, विन पत्रिका, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली।  इसके अतिरिक्त रामसतसई, संकट मोचन, हनुमान बाहुक, रामनाम मणि, कोष मञ्जूषा, रामशलाका, हनुमान चालीसा आदि आपके ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं।

१२६ वर्ष की अवस्था में संवत् १६८० श्रावण शुक्ल सप्तमी, शनिवार को आपने अस्सी घाट पर अपना शहरी त्याग दिया।

       संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।

       श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।

महर्षि वेदव्यास

पौराणिक-महाकाव्य युग की महान विभूति, महाभारत, अट्ठारह पुराण, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्य-दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग ३००० ई. पूर्व में हुआ था।  वेदांत दर्शन, अद्वेैतवाद के संस्थापक वेदव्यास ॠषि पराशर के पुत्र थे।  पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे।  पत्नी आरुणी से उत्पन्न इनके पुत्र थे महान बाल योगी शुकदेव।  श्रीमद्भागवत गीता विश्व से सबसे बड़े महाकाव्य 'महाभारत' का ही अंश है।  रामनगर के किले में और व्यास नगर में वेदव्यास का मंदिर है जहाँ माघ में प्रत्येक सोमवार मेला लगता है।  गुरु पूर्णिमा का प्रसिद्ध पर्व व्यास जी की जयन्ती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।

पुराणों तथा महाभारत के रचयिता महर्षि का मन्दिःर व्यासपुरी में विद्यमान है जो काशी से पाँच मील की दूरी पर स्थित है।  महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग में भी पश्चिम भाग में व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान है जिसे साधारण जनता छोटा वेदव्यास के काम से जानती है।  वास्तव में वेदव्यास की यह सब से प्राचीन मूर्ति है।  व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था।  तब व्यासजी लोलार्क मंदिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए।

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कुबेरनाथ शुक्ल-काशी वैभव पृ.१७४

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इस घटना का उल्लेख काशी खंड में इस प्रकार है -

       लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि।

       स्थितों ह्यद्य्यापि पश्चेत्स: काशीप्रसाद राजिकाम्।।

                             स्कंद पुराण काशी खंड ९६/२०१

व्यासजी ने पुराणों तथा महाभारत की रचना करने के पश्चात् ब्रह्मसूत्रों की रचना भी यहाँ की थी।  वाल्मीकि की ही तरह व्यास भी संस्कृत कवियों के लिये उपजीव्य हैं।  महाभारत में उपाख्यानों का अनुसरण कर अनेक संस्कृत कवियों ने काव्य, नाटक आदि की सृष्टि की है।  महाभारत के संबंध में स्वयं व्यासजी की ही उक्ति अधिक सटीक है - "इस ग्रंथ में जो कुछ है, वह अन्यत्र है, परंतु जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।'ंगा। 

यमुना के किसी द्वीप में इनका जन्म हुआ था।  व्यासजी कृष्ण द्वेैपायन कहलाये क्योंकि उनका रंग श्याम था।  वह पैदा होते ही माँ की आज्ञा से तपस्या करने चले गये थे और कह गये थे कि जब भी तुम स्मरण करोगी, मैं आ जा वे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता ही नहीं, अपितु विपत्ति के समय वे छाया की तरह पाण्डवों का साथ भी देते थे।  उन्होंने तीन वर्षों के अथक परिश्रम से महाभारत ग्रंथ की रचना की थी -

       त्रिभिर्वर्षे: सदोत्थायी कृष्णद्वेैपायनोमुनि:।

       महाभारतमाख्यानं कृतवादि मुदतमम्।।

                                 आदिपर्व - (५६/५२)

जब इन्होंने धर्म का ह्रास होते देखा तो इन्होंने वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया और वेदव्यास कहलाये।  वेदों का विभाग कर उन्होंने अपने शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल और वैशम्पायन तथा पुत्र शुकदेव को उनका अध्ययन कराया तथा महाभारत का उपदेश दिया। आपकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण आपको भगवान् का अवतार माना जाता है।

संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं।  इनके लिखे काव्य 'आर्ष काव्य' के नाम से विख्यात हैं।  व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिख कर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की नि:सारता को दिखाना है।  उनका कथन है कि भले ही कोई पुरुष वेदांग तथा उपनिषदों को जान ले, लेकिन वह कभी विचक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्र, धर्मशास्र तथा कामशास्र है।

१.       यो विध्याच्चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विज:।

         न चाख्यातमिदं विद्य्यानैव स स्यादिचक्षण:।।

 

२.       अर्थशास्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्रमिदं महत्।

         कामाशास्रमिदं प्रोक्तं व्यासेना मितु बुद्धिना।।

                                    महा. आदि अ. २: २८-८३ 

श्री वल्लभाचार्य

श्री नाथ जी के आराध्य महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य सन् १४७८ में वैशाख कृष्ण एकादशी को हुआ।  कांकरवाड निवासी लक्ष्मण भट्ट की द्वितीय पत्नी इल्लभा ने आपको जन्म दिया।  काशी में जतनबर में आपने शुद्धाद्वेैत ब्रह्मवाद का प्रचार किया और वेद रुपी दधि से प्राप्त नवनीत रुप पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया।  आपका विवाह काशी के श्री देवभ की पुत्री महालक्ष्मी से हुआ जिनसे उन्हें दो पुत्र गोपीनाथ और विट्ठलेश हुए।  आपने ८४ लाख योनी में भटकते जीवों के उद्धारार्थ ८४ वैष्णव ग्रन्थ, ८४ बैठके और ८४ शब्दों का ब्रह्म महामंत्र दिया।  काशी में अपने आराध्य को वर्तमान गोपाल मंदिर में स्थापित किया और सन् १५३० में संन्यास ले लिया।  हनुमान् घाट पर आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को गंगा में जल समाधि ले ली।

आचार्यपाद श्री वल्लभाचार्य का जन्म चम्पारण्य में रायपुर मध्यप्रान्त में हुआ था।  वे उत्तारधि तैलंग ब्राह्मण थे।  इनके पिता लक्ष्मण भट्टजी की सातवीं पीढ़ी से ले कर सभी लोग सोमयज्ञ करते आये थे।  कहा जाता है कि जिसके वंश में सौ सोमयज्ञ कर लिए जाते हैं, उस कुल में महापुरुष का जन्म होता है।  इसी नियम के साक्ष्य के रुप में श्री लक्ष्मण भ के कुल में सौ सोमयज्ञ पूर्ण हो जाने से उस कुल में श्री वल्लाभाचार्य के रुप में भगवान् का प्रादुर्भाव हुआ।  कुछ लोग उन्हें अग्निदेव का अवतार मानते हैं।  सोमयज्ञ की पूर्कित्त के उपलक्ष्य में लक्ष्मण भ जी एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने के उद्देश्य से सपरिवार काशी आ रहे थे तभी रास्ते में श्री वल्लभ का चम्पारण्य में जन्म हुआ।  बालक की अद्भुत प्रतिभा तथा सौन्दर्य देख कर लोगों ने उसे 'बालसरस्वती वाक्पति' कहना प्रारंभ कर दिया।  काशी में ही अपने विष्णुचित् तिरुमल्ल तथा माधव यतीन्द्र से शिक्षा ग्रहण की तथा समस्त वैष्णव शास्रों में पारंगत हो गये।

काशी से आप वृन्दावन चले गये।  फिर कुछ दिन वहाँ रह कर तीर्थाटन पर चले गये।  उन्होंने विजयनगर के राजा कृष्णदेव की सभा में उपस्थित हो कर बड़े-बड़े विद्वानों को शास्रार्थ में पराजित किया।  यहीं उन्हें वैष्णवाचार्य की उपाधि से विभूषित किया गया।

राजा ने उन्हें स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर उनका साङ्गोपाङ्ग पूजन किया तथा स्वर्ण राशि भेंट की। उसमें से कुछ भाग ग्रहण कर उन्होंने शेष राशि उपस्थित विद्वानों और ब्राह्मणों में वितरित कर दी।

श्री वल्लभ वहां से उज्जैन आये और क्षिप्रा नदी के तट पर एक अश्वत्थ पेड़ के नीचे निवास किया।  वह स्थान आज भी उनकी बैठक के रुप में विख्यात है।  मथुरा के घाट पर भी ऐसी ही एक बैठक है और चुनार के पास उनका एक मठ और मन्दिर है।  कुछ दिन वे वृन्दावन में रह कर श्री कृष्ण की उपासना करने लगे।

भगवान् उनकी आराधना से प्रसन्न हुए और उन्हें बालगोपाल की पूजा का प्रचार करने का आदेश दिया।  अट्ठाईस वर्ष की अवस्था में उन्होंने विवाह किया।  कहा जाता है कि उन्होंने भगवान् कृष्ण की प्रेरणा से ही 'ब्रह्मसूत्र' के ऊपर 'अणुभाष्य' की रचना की।  इस भाष्य में आपने शाङ्कर मत का खण्डन तथा अपने मत का प्रतिपादन किया है।

आचार्य ने पुष्टिमार्ग की स्थापना की।  उन्होंने श्रीमद्भागवत् में वर्णित श्रीकृष्ण की लीलाओं में पूर्ण आस्था प्रकट की।  उनकी प्रेरणा से स्थान-स्थान पर श्रीमद्भागवत्  का पारायण होने लगा।  अपने समकालीन श्री चैतन्य महाप्रभु से भी उनकी जगदीश्वर यात्रा के समय भेंट हुई थी।  दोनों ने अपनी ऐतिहासिक महत्ता की एक दूसरे पर छाप लगा दी।  उन्होनें ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत् तथा गीता को अपने पुष्टिमार्ग का प्रधान साहित्य घोषित किया।  परमात्मा को साकार मानते हुए उन्होंने जीवात्मक तथा जड़ात्मक सृष्टि निर्धारित की।  उनके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं।

संसार की अंहता और ममता का त्याग कर श्रीकृष्ण के चरणों में सर्व अर्पित कर भक्ति के द्वारा उनका अनुग्रह प्राप्त करना ही ब्रह्म संबंध है।  श्री वल्लभ ने बताया कि गोलोकस्थ श्रीकृष्ण की सायुज्य प्राप्ति ही मुक्ति है।  आचार्य वल्लभ ने साधिकार सुबोधिनी में यह मत व्यक्त किया है कि प्राणिमात्र को मोक्ष प्रदान करने के लिये ही भगवान् की अभिव्यक्ति होती है -

       गृहं सर्वात्मना त्याज्यं तच्चेत्यक्तुं नशक्यते।

       कृष्णाथर्ं तत्प्रयुञ्जीत कृष्णोऽनर्थस्य मोचक:।।

उनके चौरासी शिष्यों में प्रमुख सूर, कुम्भन, कृष्णदास और परमानन्द श्रीनाथ जी की सेवा और कीर्त्तन करने लगे।  चारों महाकवि उनकी भक्ति कल्पलता के अमर फल थे।

उनका समग्र जीवन चमत्कार पूर्ण घटनाओं से ओतप्रोत था।  गोकुल में भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये थे।

श्री वल्लभाचार्य महान् भक्त होने के साथ-साथ दर्शनशास्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे।  उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, भागवत् की सुबोधिनी व्याख्या, सिद्धान्त-रहस्य, भागवत् लीला रहस्य, एकान्त-रहस्य, विष्णुपद, अन्त:करण प्रबोध, आचार्यकारिका, आनन्दाधिकरण, नवरत्न निरोध-लक्षण और उसकी निवृत्ति, संन्यास निर्णय आदि अनेक ग्रंथों की रचना की।

वल्लभाचार्य जी के परमधाम जाने की घटना प्रसिद्ध है।  अपने जीवन के सारे कार्य समाप्त कर वे अडैल से प्रयाग होते हुए काशी आ गये थे।  एक दिन वे हनुमान् घाट पर स्नान करने गये।  वे जिस स्थान पर खड़े हो कर स्नान कर रहे थे वहाँ से एक उज्जवल ज्योति-शिखा उठी और अनेक लोगों के सामने श्री वल्लभाचार्य सदेह ऊपर उठने लगे।  देखते-देखते वे आकाश में लीन हो गये।  हनुमान घाट पर उनकी एक बैठक बनी हुई है।  उनका महाप्रयाण वि.सं. १५८३ आषाढ़ शुक्ल ३ को हुआ।  उनकी आयु उस समय ५२ वर्ष थी।


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