केशवदास


भाव - व्यंजना: रस

प्रारंभिक अवस्था में रस का अर्थ श्रृंगार ही माना जाता था और रस के प्रवर्तक आचार्य कामशास्र के भी आचार्य माने जाते थे। विश्वनाथ जैसे विद्वान ने श्रृंगार रस को आदिरस कहा है। बाणभ ने रस शब्द का प्रयोग श्रृंगार के अर्थ में किया है। भोजदेव ने तो "श्रृंगार प्रकाश' में स्पष्ट ही कहा है:

श्रृंगारवीरकरुणाद्भुतरौद्रहास्य
बीभत्सवत्सलभयानकशान्तनाम्नः ।
आम्नासिषुर्दशरसान् सधियो वयं तु
श्रृंगारमेव रसनाद्रसमामनामः ।।

यहां पर संस्कृत काव्यशास्र की सुदीर्घ परम्परा से उद्धरण देने की आवश्यकता नहीं है, पर इतना निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि अधिकांश आचार्यों ने श्रृंगार को ही रसराज के रुप में स्वीकार किया है।

केशव ने भी श्रृंगार को ही रसराज का स्थान प्रदान किया है: -

नबहू रस के भाव बहु,
तिनके भिन्न विचार ।
सबको "केशवदास', 
हरि नायक है श्रृंगार ।।

श्रृंगार

संयोग श्रृंगार

केशव ने संयोग श्रृंगार का विस्तार से वर्ण किया है। केशव का जीवन सुखमय परिस्थितियों में व्यतीत हुआ। राज-दरबारों में संयोग-श्रृंगार से संबंधित सूक्ष्म तथा चमत्कारपूर्ण छन्दों का ही विशेष आदर होता था। अतः केशव ने संयोग-वर्णन में सौन्दर्य वर्णन, रुप वर्णन, हाव-भाव वर्णन, आभूषण वर्णन अष्टयाम, उपवन, जलाशय, क्रीड़ा-विलास आदि का चित्रण विस्तार से किया है। उन्होंने अपनी श्रृंगार-नायिकाओं के अत्यन्त स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत किए हैं। किसी नायिका का पति परदेश जा रहा है। वह किंकर्तव्यविमूढ़ है कि अपने प्रियतम को किन शब्दों में विदाई दे। अतः वह स्वयं प्रियतम से ही पूछ रही है:

जौ हौं कहौं "रहिजै' तौ प्रभुता प्रगट होति,
"चलन' कहौं तौ हित-हानि, नाहिं सहनै ।
"भावै सो करहु' तौ उदास भाव प्राननाथ,
"साथ लै चलहु' कैसे लोलाज बहनै ।।

"कसोराइ' की सौं तुम सुनहु छबीले लाल,
चले ही बनत जौ पै नाहीं राजि रहनै।
तैसियै सिखावौ सीख तुम ही सुजान पिय,
तुमहिं चलत मोहि कैसो कछू कहनै ।।

सीता की दासी के नख-शिख वर्णन में भी कुछ प्रभावपूर्ण चित्र मिलते हैं। सीता की दासियों की "सुभ्र साधु माधुरी' को देखकर चंचल चित्त भी स्थिर हो जाता है:

छवान की छुई न जाति सुभ्र साधु माधुरी ।
बिलोकि भूलि भूलि जात चित्त-चालि-आतुरी ।।

सीता-राम के प्रसंगों से सम्बन्धित चित्रों में पूर्ण मर्यादा का ध्यान रखा गया है। वन-वास के समय का मर्यादापूर्ण संयोग-श्रृंगार का एक चित्र देखिए:

जब जब धरि बीना प्रकट प्रबीना बहु गनलीना सुख सीता ।
पिय जियहि रिझावै दुख्नि भजावै बिबिध बजावै गनगीता ।।
तजि मति संसारी बिपिन बिहारी सुखदुखकारी घिरि आवैं ।
तबतब जगभूषन रिपुकुलदूषन सबकों भूषन पहिरावैं ।।

रनिवास की सुन्दरियां वाटिका में भ्रमरियों के सामने ही भ्रमरों को मालती का चुम्बन करते देखती हैं। वे लज्जा से भर जाती हैं। सामान्य भाषा में केशव ने इसकी अत्यन्त सुन्दर व्यंजना की है:

अलि उड़ धरत मंजरी जाल ।
देखि लाज साजति सब बाल ।।
अलि अलिनी के देखत धाई ।
चुम्बत चतुर मालती जाई ।।
अद्भुत गति सुन्दरी बिलोकि ।
विहंसित है घूंघट पट रोकी ।।

एक दो स्थानों पर अश्लीलत्व का भी परिचय मिलता है। शत्रु-स्रियों से सम्बन्धित प्रसंगों में ऐसा हुआ है। अंगद मंदोदरी के केश पकड़कर चित्रशाला के बाहर ले आए हैं। उस समय का वर्णन देखिए: -

बिना कंचुकी स्वच्छ बक्षोज राजैं ।
किधौं सांचहूं श्रीफलै सोभ साजैं ।।
किधौं स्वर्न के कुंभ लावन्य - पूरे ।
बसीकन के चूर्न संपूर्न पूरे ।।

 

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विप्रलंभ श्रृंगार

रीतिकालीन कवियों की दृष्टि प्रधानतः जीवन के सुख-विलास पर थी, अतः उन्होंने अपने काव्य में भी विलास एवं रसिकता का ही विशद चित्रण किया है। वे परम्पराभुक्त ऊहा एवं अतिश्योक्ति के द्वारा ही विरह-चित्रण करते रहे। केशव ने भी विरह के प्रसिद्ध उद्दीपकों, परम्परित वर्णन-परिपाटियों एवं शैलियों का उपयोग किया है। सीता के वियोग में चन्द्रमा की शीतल किरणें राम के हृदय को दग्ध कर रही हैं :

हिमांसु सूर सो लगै सो बात बज्र सो बहै ।
दिसा लगै कृसानु ज्यों बिलेप अंग को दहै ।।
बिसेष कालराति सी कराल राति मानिये ।
बियोग सीय को न, काल लोकहार जानिये ।।

सीता के वियोग में पंपासर के कमल सीता के नत्रों के समान प्रतीत होते हैं:

नव नीरज नीर तहां सरर्तृ ।
सिय के सुभ लोचन से दरर्तृ ।

केशव ने विप्रलम्भ श्रृंगार के अन्तर्गत पूर्वराग, मान, करुण, प्रवास, विरह-दशाएं, पत्रदूती, बारहमासा आदि सभी का चित्रण किया गया है।

 

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पूर्वराग

किसी के गुण-श्रवण अथवा सौंदर्य-दर्शन से उत्पन्न प्रेम की इच्छा को पूर्व-राग कहा जाता है:

केसव कैसेहुं ईइनि दीठि ह्मवे दीठ परे रति-ईठ कन्हाई ।
ता दिन तें मन मेरे कों आनि भई सु भई कहि क्यों हूं न जाई ।।
होइगी हांसी जौ आवै कहूं कहि जानि हितू हित बूझन आई ।
कैसें मिलौं री मिले बिनु क्यों रहौं नैननि हेत हियें डर माई ।।

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मान

"रसिकप्रिया' में कवि ने प्रेमियों के मान का तथा मान-मोचन-विधि का वर्णन किया है।

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करुण

जहां किसी आधिदैविक तथा अन्य विशेष कारण से संयोग की आशा समाप्त हो जाती है, वहां करुण-विप्रलम्भ होता है। "रसिकप्रिया' में केशव ने इसका वर्णन किया है।

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प्रवास

प्रियतम के किसी कारण-विशेष से चले जाने पर हृदय में जो संतापमयी वृत्ति जागरित हो जाती है, उसे प्रवास कहते हैं। "रसिकप्रिया' में इसका वर्णन मिलता है।

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विरह -दशाएं

विरह की शास्रीय दस दिशाएं निम्नलिखित हैं : - अभिलाषा, चिन्ता, गुण-कथन, स्मृति, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता तथा मरण। "रसिकप्रिया' में केशव ने मरण को छोड़कर, अन्य सभी विरह-दशाओं का वर्णन किया है, क्योंकि राधा कृष्ण के सम्बन्ध में - 

मरन सु केशवदास पै,
बरन्यो जाहि न मित्र ।

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करुण रस

केशव ने करुण रस के चित्रण में भाषा की सांकेतिकता की अपेक्षा गंभीरता की अभिव्यंजना के लिए व्यंजना-शक्ति का आश्रय लिया है। राम लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजते हुए दशरथ की मनःस्थिति का चित्रण कितना गंभीर है:

राम चलत नृप के जुग लोचन ।
बारि भरित भए बारिद-रोचन ।।
पाइन परि रिषि के सजि मौनहिं।
"केसव' उठि गए भीतर भौनहिं ।।

चित्रकूट में दशरथ की कुशल के विषय में राम का प्रश्न सुनकर तीनों माताएं एक साथ रो उठी थीं :

तब पूछियो रघुराइ ।
सुख है पिता तन माइ ।
तब पुत्र को मुख जोइ ।
क्रम तें उठीं सब रोइ ।।

रावण द्वारा अपहृता सीता का करुणामय क्रन्दन इस प्रकार है :

हा राम हा रमन हा रघुनाथ धीर ।
लंकाधिनाथबस जानहु मोहि बीर ।
हा पुत्र लक्ष्मण छुडाबहु बेगि मोहि ।
मातर्ंडबंसजस की सब लाज तोहि ।।

इस छन्द में स्थायी शोक, आश्रय सीता, आलंबन "प्रिय-वियोग', अनुभाव रोना, सिसकियां भरना, करुण क्रन्दन, संचारी-भाव विषाद है जिनके द्वारा केशवदास जी ने करुणरस का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है।

लक्ष्मण-मूर्च्छा का प्रसंग रामकथन का एक अत्यन्त मार्मिक स्थल है। इस अवसर पर केशव के राम का विलाम देखिए :

बारक लक्ष्मन मोहि बिलोकौ ।
मोकहं प्रान चले तजि, रोकौ ।
हौं सुमरौं गुन केतकि तेरे ।
सोदर पुत्र सहायक मेरे ।।

लोचन बाहु तुही धनु मेरौ ।
तू बल बिक्रम बारक हैरौ ।
तो बिनु हौं पल प्रान न राखौं ।
सत्य कहौं कछु झूठ न भाखौं ।।

अपनी अंगूठी के प्रति सीता का उपालंभ भी उल्लेखनीय है:

श्रीपुर में बनमध्य हौं तूं मग करी अनीति ।
कहि मुदरी अब तियन की, को करिहै परतीति ।।

 

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वीर : रौद्र

कठोर भावों की अभिव्यक्ति में अलंकार-योजना तथा ध्वन्यात्मक चमत्कार उच्च कोटि के हैं। राजसी प्रताप, राज-ऐश्वर्य, वीरता, युद्ध, सेना का अभियान, आतंक आदि के वर्णन इसलिए उत्कृष्ट प्रतीत होते हैं। केशव का इन वर्णनों का उत्साह भी बढ़ा-चढ़ा था और ऐसे वर्णनों की शास्रीय परम्परा भी समृद्ध मिलती है। केशव ने कठोर भावों के चित्रण में पर्याप्त कौशल का परिचय दिया है और उसमें उनको पर्याप्त सफलता भी मिली है। युद्ध प्रसंगों में वीर, रौद्र तथा भयानक रसों की समुचित व्यंजना केशव ने की है। कवि का इन भावों के साथ साक्षात सम्बन्ध था। यह सब एक राजकवि के लिए स्वाभाविक था।

"रामचन्द्रिका' में युद्ध-वर्णन दो अवसरों पर हुआ है : राम-रावण युद्ध के अवसर पर एवं राम की सेना के साथ लवकुश का युद्ध होने पर युद्ध वर्णन में प्रायः वीर, रौद्र तथा भयानक की त्रिवेणी रहती है। सबसे पहले हमें वीरों की वीरतापूर्ण उक्तियां गूंजती हुई मिलती हैं। मकराक्ष की गर्वोक्ति इस प्रकार है :

सु जौलौं जियौं हौं सदा दास तेरो ।
सिया को सकै दै सुनौ मन्त्र मेरो ।
हतौं राम स्यों बन्धु सुग्रीव मारौं ।
अजोध्याहि लै राजधानी सुधारौं ।।

जब इन योद्धाओं का परिचय कराया गया है तब केशव ने कुछ कठोर, महाप्राणयुक्त एवं दीर्घ पदों का प्रयोग करके दारुण रुप की जो व्यंजना की है, उससे एक रौद्र चित्रही प्रस्तुत हो जाता है। मेघनाद का परिचय चित्र इस प्रकार है:

कोदंड मंडित महारथवंत जो है ।
सिंहध्वजी समर-पंडितबृन्द मौहै ।
माहाबली प्रबल काल कराल नेता ।
सो मेघनाद सुरनायक जुद्ध-जेता ।।

जिस आजमयी वाणी में केशव ने राक्षसों की दारुणता का चित्रण किया है, उसी में राम 
का रौद्र रुप भी चित्रित किया गया है। राम की वीरतापूर्ण उक्ति इस प्रकार है :

करि आदित्य अदृष्ट नष्ट जम रौं अष्ट बसु ।
रुद्रन बोरि समुद्र करौं गंधर्ब सर्ब पसु ।
बलित अबेर कुबेर बलहि गहि देउं इंद्र अब ।
विद्याधरन अबिद्य करौं बिन सिद्धि सिद्ध सब।

निजु होहि दासि दिति की अदिति, अनिल अनल मिटि जाइ जल ।
सुनि सूरज सूरज उवतहीं करौं असुर संसार बल ।।

इस छन्द में संयुक्त वणाç की योजना ने एक वातावरण प्रस्तुत कर दिया है। छप्पय छन्द भी वीरतापूर्ण उक्ति के उपयुक्त है।

युद्ध का प्रत्यक्ष दर्शन लवकुश-युद्ध में होता है। योद्धाओं की परस्पर उक्तियों, उनके युद्ध-संचालन आदि का ओजपूर्ण वर्णन मिलता है। जब शत्रुघ्न ने लव पर बाण छोड़े तो उससे ऐसी उक्ति की :

रामबन्धु बान तीनि छोंड़ियों त्रिसूल से ।
भाल में बिसाल ताहि लागियो ते फूल से।
घात कीन्ह राज तात गात तें कि पूजियो ।
कौन सत्रु तैं हत्यो जु नाम सत्रुहा लियो ।।

लव ने कहा : "तुम मेरे ऊपर बाण चला रहे हो, या मेरे शरीर की पूजा कर रहे हो? तुमने कौन से शत्रु मारे हैं कि शत्रुघ्न नाम धारण किया है?" ये कटूक्तियां प्रतिवीर के हृदय को छेद देती हैं। जब विभीषण पर कटूक्तियां की जाती है तो वह तिलमिला जाता है:

आउ विभीषन तूं रनदूषन ।
एक तुंही कुल को निज भूषन ।
जूझ जुरें जो भगे भय जी के ।
सत्रुहि आनि मिले तु नीके ।।

को जानै कै बार तू कही न ह्मवै है नाई ।
सोई तैं पत्नी करी सुनि पापिन के राइ ।।

अंगद पर भी एक करारी चोट की गई :

अंगद जौ तुम पै बल होती ।
तौ वह सूरज को सूत को तौ ।
देखत ही जननी जु तिहारी ।
वा संग सोवति ज्यों बर नारी ।।

इस प्रकार की उक्तियों में ओज, कटुता और व्यंग्य तीनों की झाँकियां हैं। इसके अनन्तर युद्ध की प्रत्यक्ष झाकियां मिलती हैं। लव-शत्रुघ्न युद्ध की एक झांकी इस प्रकार है :

रोष करि बान बहु भांति लव छांडियो ।
एक ध्वज, सूत जुग, तीन रथ खंडियो ।
सस्र दसरथ्थ सुत अस्र कर जो धरै ।
ताहि सियपुत्र तिल तूलसम संडरै ।।

इस प्रकार कुश के युद्ध की भी झांकियां मिलती हैं। लव का युद्ध लक्ष्मण से भी भयंकर हुआ। ऐसा युद्ध हुआ कि रक्त प्रवाहित होने लगा। केशव ने रक्त की नदी का सांगरुपक बनाया है:

ग्राह तुंग तुरंग कच्छप चारु चर्म बिसाल ।
चक्र से रथचक्र पैरत वृक्ष गृद्ध मराल ।
केकरे कर बाहु मीन, गयंद सुंड भुजंग ।
चीर चौर सुदेस केस सिवाल जानि सुरंग ।।

केवल युद्ध-क्षेत्र में ही नहीं, रौद्र रुपों की झांकी अन्यत्र भी मिलती है। परशुराम प्रसंग तथा रावण-सीता संवाद में परशुराम, राम एवं सीता के रौद्र रुप दर्शनीय हैं। सीता का रौद्र रुप पातिव्रत शक्ति से प्रोद्भासित है। एक भास्वर चित्र इस प्रकार है :

उठि उठि सठ ह्यां तें भागु तौलौं अभागे।
मम बचन बिसर्पी सपं जौलौं न लागे ।
बिकल सकुल देखौं आसु ही नास तेरो ।
निपट मृतक तोकों रोष मारै न मेरो ।।

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भयानक

भयानक रस वीररस का सहवर्ती होता है। यह वीरता या रौद्र का एक प्रकार से ज्ञापक रस है। इसके अवसर भी रामचन्द्रिका में कई आए हैं। मुख्य स्थल ये हैं : धनुभर्ंग, परशुराम का आगमन, लंका दहन आदि। धनुभर्ंग के अवसर पर समस्त जगत् आतंकित हो जाता है। भयानक रस की इससे अधिक व्याप्ति अत्यन्त उपयुक्त है :

प्रथम टंकारि झुकि झारि संसार-मद चन्डको दंड रह्यो मंडि नवखंड कों ।
चालि अचला अचल घालि दिगपालबल पालि रिषिराज के बचन परचंड कों ।
बांधि बर स्वर्ग कों साधि अपबर्ग धनु भंग को सब्द गयो भेदि ब्रह्मांड को ।।

इसी प्रकार परशुराम के आने पर सारे समाज में खलबली मच गई। मस्त हाथियों का मदचूर्ण हो गया, वे चिंघाड़ना भूल गए। वीर शस्रास्र फेंककर भाग खड़े हुए। कुछ ने कवचादि फेंक दिए और स्री-वेश धारण कर लिया। जब लंका-दहन हुआ तब राक्षस-नारियों की भयभीत अवस्था देखते ही बनती है। कोई इधर भागती है, कोई उधर। जिस ओर जाती है, आग की लपटें ही मिलती हैं। वे पानी-पानी चिल्लाने लगती हैं। इस प्रकार रौद्र की परिस्थिति में, भयानक की व्यंजना में केशव की कल्पना सफल हुई है।

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बीभत्स

युद्धक्षेत्रीय रक्त-सरि के वर्णन में कुछ बीभत्स का आभस भी मिलता है। अन्यत्र भी कुछ अवसरों पर बीभत्स की व्यंजना मिलती है। मेघनाद हनुमान को बन्दी बना लेता है। रावण मेघनाद को आज्ञा देता है कि इसको जितना ज्ञास दिया जा सके, उतना दो। यहां रौद्र का सहवर्ती होकर बीभत्स सूच्य रुप में आया है:

कोरि कोरि जातनानि फोरि फोरि मारिये ।
काटि काटि फारि बांटि बांटि मांसु डारिये ।
खाल खैंचि खैंचि हाड़ भूंजि भूंजि खाहु रे ।
पौरि टांगि रुंडमुंड लै उडाइ जाहु रे ।।

बीभत्स का युद्धक्षेत्रीय विवरण भी उल्लेखनीय है।

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हास्य : व्यंग्य

हास्य की परिस्थितियां भी रामचन्द्रिका में है। रौद्र-वीर की परिस्थिति में भयानक की व्यंजना कभी कभी हास्यास्पद हो जाती है। परशुराम के आने पर कुछ भयभीत राजाओं ने स्री वेश धारण कर लिया - "काटिकै तनत्रान एकह नारि भेषन सज्जहीं।" हास्य ओर व्यंग्य की एक मिश्रित परिस्थिति परशुराम की दर्पोक्ति में प्रकट होती है:

लक्ष्मन के पुरिषान कियो पुरुषारथ सो न कह्यो परई।
वेष बनाइ कियो बनितानि को देखत "केसव' ह्यो हरई ।।

इसी प्रकार के कटु व्यंग्यों की सृष्टि लव-कुश संवाद में केशव ने की है।

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शान्त

"रामचन्द्रिका' के भाव-विधान में शान्त रस का भी महत्वपूर्ण स्थान है। अत्रि-पत्नी अनसूया के चित्र से ऐसा प्रकट होता है जैसे स्वयं 'निर्वेद' ही अवतरित हो गया हो। वृद्धा अनसूया के कांपते शरीर से ही निर्वेद के संदेश की कल्पना कवि कर लेता है:

कांपति शुभ ग्रीवा, सब अंग सींवां, देखत चित्त भुलाहीं ।
जनु अपने मन पति, यह उपदेशति, या जग में कछु नाहीं ।।

अंगद-रावण में शान्त की सोद्देश्य योजना है। अंगद रावण को कुपथ से विमुख करने के लिए एक वैराग्यपूर्ण उक्ति कहता है। अन्त में वह कहता है - "चेति रे चेति अजौं चित्त अन्तर अन्तक लोक अकेलोई जै है।" यह वैराग्य पूर्ण चेतावनी सुन्दर बन पड़ी है।

उपर्यक्त विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य केशव का रसों पर पूर्ण अधिकार था। उनकी कृतियों में रसों का पूर्ण परिपाक पाया जाता है। हिन्दी के कुछ गण्य-मान्य कवियों की भांति उन्होंने किसी रस-विशेष को लेकर कविता नहीं की, अपितु अपनी रचनाओं में सभी रसों का समावेश किया है। तथापि सर्वाधिक अवसर श्रृंगार को मिला है। रस-व्यंजना में उन्होंने स्वाभाविक, सजीव एवं आकर्षक चित्र अंकित किए हैं। उदाहरणों में जो सरसता और हृदयहारिता है वह कवि के हृदय की पूर्ण परिचायिका है। ऐसे कवि को कुछ उद्धरणों के आधार पर हृदयहीन कहना उस कवि के साथ अन्याय करना है।

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संवाद -सौष्ठव

रामचन्द्रिका के प्रमुख संवाद ये हैं:

रावण-बाणासुर संवाद
रावण-हनुमान संवाद
राम-परशुराम संवाद
रावण-अंगद संवाद
परशुराम-वामदेव संवाद
सीता-रावण संवाद
कैकेयी-भरत संवाद
लवकुश-विभीषण संवाद

इन प्रमुख संवादों के अतिरिक्त और भी कुछ संवाद चन्द्रिका में आये है : दशरथ-विश्वामित्र संवाद, सुमति-विमति संवाद, विश्वामित्र-जनक संवाद, सूपंणखा-राम संवाद आदि। इन संवादों का रामचन्द्रिका के शिल्प और चरित्र चित्रण में विशेष महत्त्व है।

 

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Content prepared by M. Rehman

© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र

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