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वाराणसी वैभव या काशी वैभव |
यातायात एवं व्यापार |
मानव जीवन की समस्त वैकासिक भूमिका, आदान-प्रदान यातायात के साधनों पर आधारित हैं। प्राचीन काल में नगरों के उदय एवं विकास में उन सड़कों या मार्गों (थल एवं जल) का विशेष महत्व होता था, जो उसे सुदूर देशों से जोड़कर उसकी सभ्यता एवं संस्कृति तथा जीवन के अन्यान्य उपादानों के विकास में सहायक सिद्ध होते थे। वाराणसी वि के उन अति प्राचीन नगरों में एक हैं जिसकी सातत्यता, अखण्डता, प्राचीनता एवं धार्मिक समादरता त्रिसहस्राधिक वर्षों से अद्यावधि अक्षुण्ण है। १ इस प्राचीन नगर के राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक विकास में निश्चित रुप से व्यापारिक मार्गों का योगदान रहा है। प्राचीन काल में वाराणसी एवं अन्य नगरों के बीच व्यापारिक संबंधों एवं स्थिति सम्बन्धी सूचनाएं अधिकतर बौद्ध साहित्य से ही प्राप्त होती हैं। चीनी यात्रियों के यात्रा विवरण भी इस दिशा में महत्वपूर्ण है। व्यापार एवं परिवहन के संबंध में परोक्ष रुप से पुरातात्विक साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं। यद्यपि राजघाट के उत्खनन से गाड़ियों का पूर्णरुपेण कोई संकेत प्राप्त नहीं होता है, तथापि खिलौनो के रुप में गाड़ियों के पहिए आदि प्राप्त होते हैं, यथा - घोड़े, हाथी, खच्चर, घोड़े पर आदमी आदि। उक्त साक्ष्य स्थल-मार्ग से परिवहन एवं व्यापार संबंधी तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं। २ नाव के आकार की एक गुड़िया भी मिली है जिससे संकेत मिलता है कि नावों का भी प्रचलन था। साहित्य में अनेकश नाव द्वारा व्यापार करने वाले व्यापारियों का विवरण प्राप्त होता है। बौद्ध साहित्य के अनुशीलन से विदित होता है कि प्राचीन काल में दो प्रकार के मार्ग प्रचलित थे - स्थल मार्ग एवं जल मार्ग। स्थल मार्ग के द्वारा व्यापार करने वाले व्यापारी को "थलपथकम्मिका' एवं जलमार्ग के द्वारा व्यापार करने वाले व्यापारी को "जलपथकम्मिका' कहा जाता था। ३ स्थल मार्ग प्राचीन काल में स्थल मार्ग द्वारा व्यापार सुदूर देशों तक प्रचलित था। जातकों के उल्लेखों से विदित होता है कि तक्षशिला उस समय भारतीय और विदेशी व्यापारियों का मिलन केन्द्र था। तक्षशिला सभी प्रकार की विद्याओं एवं व्यापार का केन्द्र था। सातवीं शताब्दी ई. पू. में तक्षशिला गंधार राष्ट्र की राजधानी थी, जिसकी ख्याति बहुत काल तक अक्षुण्ण रही। पंचाबुध जातक ४ से विदित होता है कि प्राचीन काल में वाराणसी और तक्षशिला का रास्ता घने जंगलों से होकर गुजरता था तथा उसमें डाकुओं एवं जंगली हिंसक जानवरों का भय बराबर बना रहता था। धम्मपदट्ठकथा ५ में वाराणसी के व्यापारी के बर्तनों से लदे खच्चरों को लेकर तक्षशिला के लिए व्यापारार्थ जाने का विवरण प्राप्त होता है। इसी प्रकार तिलमुहि जातक ६ एवं अनेक अन्य जातकों में शिल्पशिक्षार्थ वाराणसी के विद्यार्थियों को तक्षशिला की यात्रा करते पाते हैं। सुसीम जातक ७ एवं तोलपुत्र जातक ८ में इसके बीच की दूरी १२० योजन बताई गई है। बौद्ध साहित्य से इस बात का भी पता चलता है कि वाराणसी सोरेय्य (सोरों) एवं श्रावस्ती इन सभी नगरों के व्यापारी तक्षशिला जाते थे। ९ मथुरा से लेकर राजगृह तक महाजनपथ का सुन्दर वर्णन बौद्ध ग्रंथों में प्राप्त होता है। मथुरा से यह रास्ता बेरंजा, सोरेय्य, संकिस्स, कण्णकुब्ज होते हुए पथागपतिट्ठान जाता था जहां पर गंगा पार करके वाराणसी पहुंचा जाता था। १० इसी रास्ते पर वरणा (वारन बुलन्दशहर) और आलवी भी पड़ते थे। आलवी श्रावस्ती से ३० योजन एवं राजगृह के रास्ते पर वाराणसी से १० योजन पर था। इसकी ११ आधुनिक पहचान "आरा' (बिहार राज्य) से की गई है। १२ जातकों १३ एवं अट्ठकथाओं १४ के विवरणों से विदित होता है कि वाराणसी-उज्जैन, वाराणसी-श्रावस्ती एवं वाराणसी-तेदि परस्पर व्यापारिक मार्गों से जुड़े थे। वाराणसी से चेतिय राष्ट्र पर भयावह जंगल एवं जंगली जानवरों का भय बराबर बना रहता था। १५ पूर्व-पश्चिम महाजनपथ पर, जिसे पालि साहित्य में "पुब्बन्ता-अपरन्त' कहा गया है, वाराणसी का प्रधान व्यापारिक नगर था। १६ वाराणसी का चेदि और उज्जैन के साथ जो व्यापारिक मार्ग था वह कौशाम्बी के रास्ते से होकर गुजरता था। १७ यहां से एक रास्ता राजगृह को जाता था और दूसरा चेतिय-श्रावस्ती को। १८ श्रावस्ती वाला रास्ता कीटा-गिरी (केराकत, जौनपुर) होकर जाता था। १९ बेरंजा से वाराणसी के दो रास्ते थे - सोरेय्य वाला रास्ता पेचीदा था, लेकिन दूसरा रास्ता गंगा को प्रयाग में पार करके सीधा वाराणसी पहुंचता था। २० वाराणसी से महाजनपथ उभ्कचेल (सोनपुर-बिहार) पहुंचता था और वैशाली से (बसाढ़ जिला मुजफ्फरपुर-बिहार) श्रावस्ती-राजगृह के रास्ते में मिल जाता था। २१ वाराणसी और उरुकेल के बीच भी एक सीधा रास्ता था। २२ एक जातक में कहा गया है कि बोधिसत्व वाराणसी के एक सार्थवाह कुल में पैदा हुए थे। वे एक समय अपने सार्थ के साथ एक साठ योजन चौड़े रेगिस्तान में पहुंचे। उस रेगिस्तान की धूल इतनी महीन थी कि मुट्ठी में लेने पर वह सरककर अंगुलियों के बीच से गु जाती थी। जलते हुए रेगिस्तान में दिन की यात्रा कठिन थी, इसलिए सार्थ अपने साथ ईंधन, पानी, तेल, चावल इत्यादि लेकर रात में यात्रा करते थे। किसी भौगोलिक स्थिति के संकेत न होने से उपर्युक्त रेगिस्तान की ठीक-ठीक पहचान नहीं हो सकती। डा. मोतीचन्द्र २३ंटों ने इसके मारवाड़ अथवा सिंध का रेगिस्तान होने की अधिक संभावना व्यक्त की है। सिंध और कच्छ के बीच चलते हुए के कारवाँ अभी हाल तक रात में नक्षत्रों के सहारे रेगिस्तान पार करते थे। फाहियान २४ की यात्रा का आरम्भ सन् ३९९ ई. में चागन (शैसे के सेगन जिला) से हुआ था। यात्रा के अंतिम दौर में वे बन्नू से राजपथ द्वारा मथुरा पहुंचे। वहां से संकाश्य होकर कान्यकुब्ज में गंगा पार करके वे साकेत पहुंचे और फिर वहां से श्रावस्ती, कपिलवस्तु, वैशाली, पाटलिपुत्र, राजगृह, गया और वाराणसी की यात्रा की। तीर्थ यात्रा समाप्त करने के पश्चात फाहियान ३ वर्ष तक पाटलिपुत्र में रहे। चीनी यात्री ह्मवेनसांग २५ ने कुशीनगर (कुसीनारा) से वाराणसी पहुंच कर बिहार की तरफ यात्रा की। वाराणसी से गंगा के साथ-साथ चान-चू प्रदेश पहुंचा जिसकी पहचान महाभारत के कुमार विषय २६ से की जा सकती है। इसमें उत्तर प्रदेश के गाजीपुर और बलिया जिले पड़ते हैं। यहां से आगे बढ़ते हुए वे वैशाली पहुंचे। २७ ग्यारवीं शताब्दी ईं. की वाराणसी की पथ-पद्धति में अलबीरुनी के अनुसार २८ षोडश मार्ग आते थे जो कन्नौज, मथुरा, अनहिलवाड़, धार वाड़ी और बयाना से चलते थे। अलवीरुनी के अनुसार बारी (कन्नौज) से गंगा के पूर्वि किनारे पर होती हुई एक सड़क अयोध्या (२५ फरसंग) वाराणसी (२० फरसंग) गोरखपुर, पटना, मुंगेर होती हुई गंगा सागर चली जाती थी। रशीदुद्दीन के जामिउत्तवारिख में इस सड़क का कुछ और वर्णन आया है। २९ उसके अनुसार गंगा से चलकर या गंगा पर स्थित बारी (कन्नौज) से चलकर सड़क पूरब होते हुए अयोध्या पहुंचती थी और फिर वहां से वाराणसी जाती थी। वहां से दक्षिण-पूर्व ३० फरसंग पर सरयूपार (गोरखपुर) पड़ता था। वहां से पाटलिपुत्र १० फरसंग था, और वहां से मुंगेर १५ फरसंग एवं चम्पा (भागलपुर) ३० फरसंग, चम्पा से दमकपुर ५० फरसंग और गंगासागर वहां से ३० फरसंग। यह वही प्राचीन जनपथ है जिसका उपयोग ताम्रलिप्ति तक जाने में होता था। कनिष्क का राज्य वक्षु से वाराणसी तक फैला था। कुषाण-युग की एक विशेषता यह थी कि पेशावर से लेकर पाटलिपुत्र और शायद ताम्रलिप्ति तक का महापथ, मथुरा से उज्जैन तथा सम्भवत: भड़ौच तक के पथ उनके अधिकार में थे। कुषाणों के पतनोपरान्त मथुरा से वाराणसी तक का रास्ता शायद मघों और यौधेयों के हाथ में आ गया, पर उनके पश्चात् यह रास्ता मुरुण्डों के हाथ में रहा। उज्जैन होकर तमिलनाडू और तमिलनाडू के व्यापारी तथा यात्री काशी पहुंचते थे। मणिमेखलै ३० में तो काशी के एक ब्राह्मण की पत्नी के साथ कन्याकुमारी की यात्रा का उल्लेख मिलता है। शिल्पदिकारम् ३१ से पता चलता है कि उत्तर भारत से माल से लदी हुई गाड़ियां दक्षिण-भारत जाती थीं तथा उस आने वाले माल पर मुहर होती थी। राजमार्गों तथा राज्यों की सीमाओं पर व्यापारियों से चुंगी भी वसूल की जाती थी। ३२
स्थल मार्गों के अतिरिक्त वाराणसी का संबंध उन बड़े-बड़े व्यापारिक नगरों से था जो नदियों या समुद्र के किनारे बसे थे। जातकों में अनेकश: ऐसे विविरण प्राप्त होते है, जिनसे विदित होता है कि वाराणसी में गंगा नदी में उस समय नावें चला करती थीं. सीलानिसंस जातक ३३ में स्पष्ट रुप से कहा गया है कि व्यापारिक समुद्र से नदी द्वारा वाराणसी पहुंचे थे। इससे यह ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में वाराणसी जलमार्गों द्वारा भारत के अधिकांश प्रसिद्ध व्यापारिक नगरों से जुड़ा हुआ था। संख जातक ३४ से ज्ञात होता है कि वाराणसी के व्यापारी नौका द्वारा ताम्रलिप्ति होते हुए व्यापारिक वस्तुएं सुवर्ण भूमि (बर्मा) तक ले जाते थे। सुसन्धि जातक ३५ से विदित होता है कि सुवर्ण भूमि उस समय प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था जहां वाराणसी एवं भरुकच्छ (भड़ौच) के व्यापारी नौका द्वारा पहुंचते थे। दिव्यावदान ३६ एवं अवदान कल्पलता ३७ से इस तथ्य का भी बोध होता है कि वाराणसी का व्यापार समुद्र द्वारा रत्नद्वीप (श्रीलंका) तक था। दिव्यावदान ३८ में स्पष्ट रुप से कहा गया है कि वाराणसी में ब्रह्मदत्त के राज्यकाल में सुप्रिय नामक सार्थवाह (महासार्थवाह) समुद्री मार्ग से रत्नद्वीप गया और वहां से वाराणसी लौटा। मार्ग में पड़ने वाले एक महाकान्तार का भी उल्लेख है। बावेरु जातक ३९ में वाराणसी के कुछ वणिकों द्वारा दिशाकाक लेकर जहाज से वावेरु (बेबीलोनिया) जाने का उल्लेख है। उक्त विवरणों से यह विदित होता है कि वाराणसी का व्यापार सुदूर देशों से सामुद्रिक मार्गों द्वारा भी होता था। पं. कुबेरनाथ सुकुल ४० ने परवर्ती काल में वाराणसी के व्यापार को ताम्रलिप्ति - सुवर्णभूमि - मलाया - इण्डोचाइना तक बताया है। इसी प्रकार बेबीलोन तथा यूनान एवं रोम से भी इसके व्यापारिक संबंध को जोड़ा गया है। राजघाट की खुदाई से प्राप्त कतिपय मुहरों एवं मुद्राण्मुद्राओं से पश्चिमी देशों के साथ वाराणसी के व्यापारिक संबंधों की सूचनाएं प्राप्त होती है। ४१ खुदाई में चौथे स्तर से अर्थात् ईसा की तीसरी-चौथी शदी की नीके पल्लास, अपोलो, हेराक्लस की आकृतियों सहित मृण्मुद्राएं मिली है। इससे विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि ये मुद्राएं वाराणसी और पश्चिमी देशों के बीच व्यापारिक संबंधों की सूचक है। ४२ इसी प्रकार भारतीय हाथीदाँत की कृतियां के रोमन स्थलों से प्रकाश में आने के कारण कतिपय विद्वान पुरातात्विक दृष्टि से यह सम्भावना व्यक्त करते हैं कि संभवत: वाराणसी उसका एक स्रोत रहा होगा। ४३ डॉ. अल्तेकर ४४ ने यह सुझाव दिया है कि यह असम्भव नहीं है कि उस काल में वाराणसी के किसी एक भाग में विदेशियों के आवास रहे हों। अथवा, यह भी हो सकता है कि ये मृण्मुद्राएँ वाराणसी के वस्र व्यापारियों द्वारा रोम से प्राप्त सील किए हुए पत्रों की गए हो, जिनके अवशेष राजघाट की खुदाई में प्राप्त हुए है। इस प्रकार इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि वाराणसी का व्यापारिक संबंध सुदूर पश्चिमी देशों यूनान, रोम आदि से भी था, किन्तु यह स्पष्ट नहीं किया जा सकता है कि पश्चिम के ये देश वाराणसी अथवा भारत के अन्यान्य व्यापारिक नगरों से किस प्रकार जुड़े थे - जल या स्थल मार्ग से।
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