बनारस की काष्ठ कला

डा. कैलाश कुमार मिश्र


 

लकड़ी के उपकरणों में प्रयुक्त होने वाले रंग

काष्ठकला से बनने वाली कलाकृतियां

प्रयोग में लाया जानेवाला कच्चा माल, था इसकी प्राप्ति

बनाने की प्रक्रिया

खरीदने तथा बनाने में प्रयुक्त उपकरण

काष्ठ कला को बनाने वाले लोग

विभिन्न शहरों के काष्ठ-कलाकारों के बीच व्यापारिक समझौता

संगठन और उसका स्वरुप

दोनों संगठनो के बीच आपसी तालमेल

औसत आय

वस्र (पहनावे) का आर्थिक विपन्नता के साथ सम्बन्ध नहीं

तैयार माल की खपत

लकड़ी के खिलौने तथा अन्य कलात्मक चीजों ने भी वनारस की ख्याति को बढ़ाया है। इस पेशे में लगे कलाकारों को इस बात का गर्व भी है कि उनकी कला भी वाराणसी के रेशमी वस्रों के निर्माण की कला के समान ही समस्त वि में वंदनीय है। श्री राम खेलावन सिंह जो कि मास्टर क्राफ्ट्समेन हैं तथा इस धंधे को इनके पूर्वज बहुत ही प्राचीन काल से करते आ रहे हैं, कहते हैं कि बनारस की काष्ठ-कला आधुनिक या केवल दो-चार सौ वर्ष पुरानी परम्परा नहीं है बल्कि यह तो 'राम राज्य' से भी पहले से चली आ रही है। जब राम चारों भाई बच्चे थे तो भी वे इन्ही लकड़ी के बने खिलौने से खेलते थे।

श्री राम खेलावन सिंह जी बहुत ही प्रयोगवादी कलाकार हैं। सन् १९८८ में इन्होंने सुपारी का एक कलात्मक लैम्प बनाया, जिसके लिए इन्हें सन् १९८९ राज्य सरकार से पुरस्कृत किया गया।

पहले बनारस में केवल बच्चों के खिलौने तथा सिन्दूरदान बनाए जाते थे, लेकिन आजकल बहुत ही तरह की चीजें बनने लगी हैं। इसी तरह से पहले इनके द्वारा निर्मित वस्तुओं की खपत स्थानीय बाजार खासकर विश्वनाथ गली एवं गंगा के विभिन्न घाटों पर तीर्थयात्रियों द्वारा होता था। परन्तु आजकल ये अपने बनाए समानों को भारत के सभी हिस्सों एवं प्रमुख शहरों में भेजते हैं, जहां इनकी अच्छी खासी मांग तथा खपत है। इतना ही नहीं, आजकल वि के बाजार में भी इनके द्वारा बनाए गए खिलौने, सजावट के समान एवं एक्यूप्रेसर के यंत्रों की अच्छी खासी मांग है। और इन समानों का धरल्ले से निर्यात किया जा रहा है।

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लकड़ी के उपकरणों में प्रयुक्त होने वाले रंग

परम्परागत रुप से काशी के काष्ठ कला से जुड़े कलाकार लाल, हरा, काला, तथा नीले एवं मिले जुले रंगो का प्रयोग करते थे। यह परम्परा बहुत दिनों तक यथावत चलता रहा। बल्कि बहुत से लोग तो आज भी इन्हीं रंगो का प्रयोग अपने द्वारा बनाए गए उपकरणों/खिलौनों को रंगने के लिए करते हैं।

आज जब इनके बनाये गये कलात्मक वस्तुओं की मांग चारों ओर दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है, ये भी नित-नूतन प्रयोग में लगे हुए हैं। इसी प्रयोग के सिलसिले में इन्होंने बहुत अन्य रंगों का भी प्रयोग करना शुरु कर दिया है। आज बाजार में जितने भी रंग उपलब्ध हैं बहुत से काष्ठ कला निर्माता उन सभी रंगों का प्रयोग किसी न किसी वस्तु को बनाने के लिए अवश्य करते हैं। उपकरणों को रंगने के बाद ऊपर से विभिन्न चित्रों से भी सुसज्जित किया जाता है। सुसज्जित करने का काम प्रायः महिलायें करती हैं। बहुत से रंगों के प्रयोग का एक कारण यहां के काष्ठ कला से निर्मित कला तत्व का निर्यात भी है। विदेशों में हो रहे मांग के हिसाब से ही विभिन्न रंगों का प्रचलन बढ रहा है और यह गति अभी भी जारी है।

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काष्ठकला से बनने वाले कलाकृतियां

पहले बनारस के काष्ठ कलाकार मुख्य रुप से बच्चों के खिलौने तथा सिन्दूरदान इत्यादि बनाते थे परन्तु अद्यतन इनकी संख्या एवं विविधता में अत्यधिक बृद्धि हुई है। आजकल जो प्रमुख चीजें बनायी जाती हैं वे इस प्रकार हैं:

१.

डिब्बी (सिंदूरदान)

२.

बच्चों के खिलौने

१.

चुसनी

२.

लट्टू

३.

बच्चों के खेलने के 'करनाटकी' पहले करनाटकी में केवल जांता, ग्लास, तथा थाली हुआ करता था। आजकल करनाटकी सेट के अन्तर्गत २७ आइटम आतें हैं। इनमें से प्रमुख आइटम इस प्रकार है।

१. थाली

२. जांता

३. ऊखली

४. मुसल

५. ग्लास (यह तीन का सेट होता है। तीनों एक साइज के होते हैं)

६. लोटिया (यह दो का सेट होता है। दोनों एक साइज के होते हैं)

७. बेगुना

८. चुल्हा

९. चक्की

१०. रोटी (यह दस का सेट होता है। सभी रोटी का एक साइज होता है।)

११. तवा

१२. कलछुल

४.

फैमिली प्लानिंग सेटः

यह भी एक प्रकार का खिलौना है जो पांच तथा दस का सेट होता है। खिलौने को बनाकर उसे आदमी, बंदर हाथी या किसी अन्य चीजों से चित्रीत किया जाता है। एक के अंदर एक इस तरह से पांच या दस डाला जाता है। बच्चे जितने जल्दी एक खुले सेट को फिर से तैयार कर लें उनहें उतना ही तेज समझा जाता है। इन वस्तुओं का विदेशों में अच्छी मांग है।

५.

विभिन्न फल, फूल, सब्जी इत्यादि जैसे

१. आम

२. केला

३. अंगुर

४. सेब

५. नारंगी

६. नाशपती

७. मूली

८. गा

९. बैंगन

१०. आलू

११. करेला

१२. लौकी

१३. कटहल

१४. बेल

१५. कद्दू

६.

बच्चों का पालना/झूला

७.

हवाई जहाज

८.

गाड़ी (रेलगाड़ी, बस इत्यादि)

३.

चाभी

४.

बीड्स तथा बीड्स माला

५.

लैम्प

६.

श्राद्ध कर्म में प्रसुक्त होने वाले पात्र

७.

एक्यूप्रेसर से सम्बन्धित उपकरणः

१.

एक्यूप्रेसर युक्त चाभी किंरग

२.

देह को मसाज करनेवाला यंत्र

३.

पैर को मसाज करनेवाला एक्यूप्रेसर जिससे थकावट स्वतः दूर हो जाता है।

८.

एन्टीक पीस

९.

फूलदान

१०.

पेपरवेट

११.

शतरंज की गोटी

१२.

कैरमबोर्ड की गोटी

१३.

घंटी

१४.

एशट्रे

१५.

बनावटी फूलों का गुच्छा

१६.

यज्ञ इत्यादि में प्रयुक्त होनेवाले यज्ञपात्र

१७.

विशेष संस्कार जैसे 'उपनयन संस्कार, विवाह' आदि में प्रयुक्त होने वाले यज्ञपात्र

१८.

बटन

१९.

किचन सेट

२०.

गहने (आभूषण)

१.

कान का

२.

हाथ का

३.

बालों में लगानेवाला

खोजवां के 'काष्ठ कलाकार श्री रामचन्द्र सिंह' जी ने हमें बताया कि आज आलम यह है कि जितने भी आभूषण सोना-चांदी आदि से बनाये जाते हैं उन सभी आभूषणों को 'काष्ठ कलाकार' बहुत ही कलात्मक ढंग से लकड़ी से बना रहे हैं। इन वस्तुओं की मांग बाजार में काफी अच्छा है।

२१.

स्नानगृह में प्रयुक्त होने वाले समान जैसे,

१.

साबुनदान

२.

पीढ़ी

३.

ब्रश (शरीर मलनेवाला), आदि

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प्रयोग में लाया जानेवाला कच्चा माल तथा इसकी प्राप्ति

काशी के काष्ठ कलाकार अपने अधिकांश वस्तुओं एवं खिलौनों का निर्माण एक प्रकार की जंगली लकड़ी जिसे 'गौरेया' कहा जाता है, से बनाते हैं। गौरेया लकड़ी न तो बहुत महंगी और न ही किसी खास प्रयोजन की लकड़ी है। खिलौनों के आलावा लोग इस लकड़ी का प्रयोग केवल ईंधन (भोजन बनाने) की लकड़ी के रुप में करते हैं। गौरेया लकड़ी वाराणसी में नहीं होती बल्कि इसे बिहार के पलामू एवं अन्य जगहों के जंगलों तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर आदि जगहों से मंगाया जाता है।

इस बीच दो-तीन साल पूर्व 'वनसरंक्षण कानून' के लागू होने पर बिहार से गौरेया लकड़ी का बनारस आना एकाएक रोक दिया गया। इसके फलस्वरुप काष्ठ कलाकारों के सामने विकट समस्या आ गई। कुछ ऐसा लगने लगा मानो यह कला अब अन्तिम सांस ले रही हो। लकड़ी निर्माण से जुड़े कलाकारों ने प्रदर्शन किया, धरना दिया तो और कलक्टर के सामने आमरण अनशन तक करने तक की जिद की। इस व्यवसाय से लगे अन्य लोगों ने भी इनका साथ दिया। किन्तु व्यर्थ। सरकार इनके लिए कुछ भी करने में असमर्थ थी। समस्या इनके जीवन-मरण का था। ऊपर से एक प्राचीन कला का अन्त होता स्वरुप भी विचारनीय था।

थके-हारे कास्ठ कलाकारों ने फिर नया प्रयोग करना शुरु किया। सर्वप्रथम तो आम की लकड़ी से खिलौने इत्यादि बनाए जाने लगे, परन्तु यह प्रयोग सफल नहीं रहा, क्योंकि बाद में खिलौने टेड़े पड़ जाते थे। फिर अन्य लकड़ियों का भी प्रयोग असफल रहा।

अन्ततः एक प्रयोग एक्यूलीपट्स की लकड़ी से किया गया। यह प्रयोग अन्य लकड़ियों की तुलना में काफी हद तक सफल रहा। हलांकि इस लकड़ी के बने खिलौने को फट जाने का तथाखिलौने में दरार पड़ जाने डर रहता था। काष्ठ कला में जुटे जुझारु कलाकारों ने हिम्मत नहीं हारी और नित्य-नूतन प्रयोग करते रहे। अन्ततः एक्यूलीपट्स की लकड़ी पूरी तरह सुखाकर फिर उससे खिलौने बनाये गये। यह प्रयोग बहुत सफल रहा। लेकिन एक समस्या का समाधान फिर भी नहीं हो सका। एक्यूलीपट्स के लकड़ी से बने काष्ठ कला में गौरेये की लकड़ी जैसी चमक तथा वैसी सफाई नहीं हो सकती थी। गौरेया की लकड़ी उपलब्ध न होने की कमी की चोट इन्हें अभी हो रहा था।

हालांकि जब खोजवां के कुछ काष्ठ कलाकार जिनमें मास्टर कलाकार श्री रामखेलावन सिंह जी भी शामिल थे, ने अपनी एक्यूलीपट्स के बने काष्ठकला को स्थानीय कलक्टर को दिखाया तो कलक्टर साहब काफी प्रसन्न हुए। इतना ही नहीं स्थानीय कलक्टर नें इन्हें इस प्रयोग के लिए काफी उत्साहित भी किया। धीरे धीरे वनसंरक्षण कानून को लागू करनेवालों ने यह अनुभव किया कि गौरेया लकड़ी इन्हें राशन के हिसाब से दिया जाना चाहिए, क्योंकि कला की थाती को भी बचाना अनिवार्य था। फिर मान्यता प्राप्त मास्टर क्राप्ट्समेन को कोटे के हिसाब से गौरेया की लकड़ी मुहैया कराया जाने लगा। आजकल वनारस में दोनों तरह के लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। मंहगे खिलौने तथा वैसे काष्ठकला जिन्हें बाहर खासकर विदेशों में निर्यात किया जाता है, सामान्यत गौरेया की लकड़ी से ही बनाए जाते हैं।

जो छोटे स्तर के कलाकार हैं वे लकड़ी खुदरे के भाव से खरीदते हैं जबकि बड़े लोग जिनके पास अच्छी खासी पूंजी है सालभर के लिए लकड़ी एक साथ खरीदकर जमा कर लेते हैं। जिस जगह कच्चे माल अथवा लकड़ी को रखा जाता है उसे ये अपनी भाषा मे 'टाल' कहते है। फिर अवश्यकतानुसार छोटे छोटे टुकड़ों में किया जाता है और अन्तत फिर उन टुकड़ो से 'काष्ठकला' के निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।

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बनाने की प्रक्रिया

सर्वप्रथम लकड़ी को इच्छित आकार में काट लिया जाता है। इसके बाद उन्हें खरादकर विभिन्न वस्तुओं का निर्माण किया जाता है।

काष्ठ-कला के निर्माण के तकनीक के आधार पर बनारस के काष्ठ-कलाकारों को वर्गों में विभक्त किया जा सकता है:

१.

वे जो परम्परागत रुप से हाथ से 'काष्ठ-कला' का निर्माण करते हैं। तथा

२.

वे 'काष्ठ-कलाकार' जो बिजली के मोटर से चलने वाले खराद मशीन की सहायता से 'काष्ठ-कला' का निर्माण करते हैं।

इसके अलावे कुछ लोग जैसे श्री मूलचन्द जी लकड़ी के छोटे-छोटे खिलौने, देवी-देवताओं की मूर्तियां कारीगारी के नुमाइशी, सजावट के समान इत्यादि भी बनाते हैं। श्री मूलचन्द जी नें हमें बताया कि इनके

परिवार के लोग लकड़ी के सांचे भी बनाते हैं जिससे ढलाई होती है। वाराणसी में जबसे ढालुआ धातु के शोपीस, मेडल, तमगे आदि बनने लगे हैं, तबसे ये ढाली जाने वाली वस्तुओं के सांचे भी बनाने लगे हैं।

वैसे अधिकांश 'काष्ठ-कला' खासकर खिलौने, बीड्स (मनके), इत्यादि आजकल खराद मशीन पर बनाया जाता है। खराद मशीन वाले अधिकांश लोग 'खोजवा' के 'कश्मीरीगंज' में बसे हैं। जो 'काष्ठ-कलाकार' खराद पर काम करते हैं उन्हें 'खरादी' कहा जाता है। बिजली आने के पहले मशीन हाथ से चलाई जाती थी। मशीन में रस्सी लपेटकर एक व्यक्ति बारी-बारी से खींचता था, जबकि दूसरा व्यक्ति वस्तुओं को खरादता था।

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खरीदने तथा बनाने में प्रयुक्त उपकरण

यों तो आजकल सर्वाधिक लोग बिजली के मशीन से 'काष्ठ-कला' के निर्माण की प्रक्रिया को अंजाम देते हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में भी बहुत से छोटे-बड़े उपकरण अथवा औजार की जर्रत होती है। प्रमुख उपकरण निम्नलिखित हैं:

१.

रुखाना

२.

चौधरा

३.

बाटी

४.

पटाली

५.

चौसी

६.

वर्मा

७.

वर्मी

८.

बसुला

९.

प्रकाल

१०.

गौन्टा गबरना

११.

छेदा

१२.

छेदी

१३.

फरुई

१४.

तरघन

१५.

बघेली

१६.

खरैया

१७.

चौसा, आदि

१८.

बोरिया

रुखाना से लकड़ी को पतला किया जाता है। चौधरा से चिकना किया जाता है। पटाली से बने हुए वस्तु को काटकर अलग किया जाता है।

वरमा, छेदा, तथा छेरी से किया जाता है। बाटी से (बरमा से छेद करने के बाद) अन्दर का खुदाई किया जाता है।

वसुला का प्रयोग लकड़ी को छीलने के लिए किया जाता है।

आकृति, तथा डिजाइन बनाने के लिए प्रकाल की सहायता ली जाती है।

गौन्टा से खराद मशीन मे लगे बचे हुए लकड़ी को हटाने के लिए किया जाता है।

फरुई लोहे का सपाट सा होता। इसका प्रयोग औजार को रखकर 'काष्ठ-कला' को बनाने के लिए होता है।

तरघन फरुई के लकड़ी के नीचे का बेस (आधार) होता है।

बघेली मोटी लकड़ी से बना होता है जो कुनिया मशीन तथा फरुई के लिए सहारे का काम करता है। बघेली दो होता है:

(१)

अगला बघेली

(२)

पिछला बघेली

खरैया पथ्थर का बना होता है। इसका प्रयोग औजार के तेज करने (पीजाने) के लिए किया जाता है।

अगर औजार की धार को और अधिक बारीक करना हो तो बोरिया का प्रयोग किया जाता है।

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काष्ठ कला को बनाने वाले लोग

'काष्ठ-कला' का सम्बन्ध बनारस से है न कि किसी जाति विशेष से। यों तो बोलचाल की भाषा में और कभी-कभी पर्याप्त जानकारी के अभाव में इस व्यवसाय को चलाने वाले लोगों को लोग बढ़ई इत्यादि कह डालते हैं और वे इस शब्द का प्रतिकार भी नहीं करते, परन्तु वास्तविकता यह है कि इस कला का सम्बन्ध सीखने और उसको करने से है न कि किसी वर्ग अथवा जाति विशेष से। विभिन्न जाति के लोग इस कला को करने में लगे हुए हैं। हालांकि, खाती (काष्ठकार) जिसे बढ़ई भी कहा जाता है के लोग भी इस व्यवसाय से जुड़े अवश्य हैं परन्तु इनका इसपर कोई एकाघिकार नही है। जो भी सीख ले वही काष्ठकलाकार बन जाता है। साथ ही साथ कुछ लोग यहां तो ऐसे भी हैं जो बनारस के बाहर से यहां आये और इस कला को तन्मयता के साथ सीखा। और में फिर यहीं के होकर रह गए।

इस बात के जीवन्त उदाहरण श्री रामखेलावन सिंह जी हैं। रामखेलावन सिंह के पिताजी मिर्जापुर में रहते थे और उन्होंने काष्ठ कला का ज्ञान मिर्जापुर में ही सीखा था। अपने द्वारा बनाए गए वस्तुओं में कलात्मक निखार देने के लिए वे बीच-बीच में बनारस आ जाया करते थे तथा यहां के काष्ठकलाकारों के साथ रहकर उनकी कला उनसे सीखते थे। रामखेलावन सिंह जी के पिता का निधन जब रामखेलावन जी ६ वर्ष के थे उसी समय एकाएक हो गया। रामखेलावन जी के चाचा-ताऊ उनके सम्पत्ति को हड़पने के चक्कर

में लग गए। इनकी मां असहाय अवस्था में नन्हें से रामखेलावन को लेकर वाराणसी आ गई। आठ वर्ष की अवस्था से रामखेलावन ने काष्ठकलाकारों के यहां जाकर इस कला को सीखना प्रारंभ किया। लोगों के दुत्कार सुने कष्ट झेला परन्तु गरीबी की पाराकाष्ठा भी इनको इस कला को सीखने से बधित नहीं कर सकी। धीरे-धीरे ये इस कला में पारंगत हो गए। इन्होंने लकड़ी से एक से एक आश्चर्यजनक चीजों को बनाया।

रामखेलावन जी ने अपना परिवार स्वयं बसाया। खुद की शादी की। पत्नी भी उन्हें उनके काम में सहायता करने लगी। बाद में दिल्ली में एक लड़के को मकान लेकर बसाया और यहां भी उनका काम सही ढ़ग से चल रहा है। धीरे-धीरे उन्होंने वीड्स (मनके), गहने और एक्यूप्रेसर के विभिन्न यंत्रों का निर्माण खराद मशीन की सहायता से शुरु किया। कुछ नया कर दिखाना उनकी आदत रही है। प्रयोग के तौर पर उन्होंने सुपारी को खराद-खराद कर एक लेम्प बना डाला। यह अपने-आप में एक अनूठा प्रयोग था। बाद में इनकी इस कला को काफी सरहाना मिली। यहां तक कि सन् १९८८ में उन्हें राज्य सरकार सम्मानित किया। इसके अलावा अन्य दर्जनों पुरस्कार उनके नाम दर्ज हैं। आज इनका लम्बा-चौड़ा व्यवसाय है। उनके दस लड़के हैं और दसों लड़के इसी व्यवसाय में लगे हुए हैं। रामखेलावन सिंह जी कहते हैं कि जाति के आधार पर ये लोग राजपूत हैं परन्तु इस धन्धे को तीन पुस्तों से कर रहे हैं और भविष्य में भी करना चाहते हैं। उनके पास सीखने के लिए बहुत से लोग भी आते रहते हैं। प्रशिक्षण केन्द्र चलाने के लिए उन्हें सरकारी सहायता मिलती है, परन्तु सहायता राशि काफी कम है। ये इस राशि से संतुष्ट नहीं हैं। श्री रामखेलावन जी जो कि लगभग ५९ साल के हो गए हैं अपने आप को पूर्णतः काशीवासी मानते है। उन्हें अपनी कला तथा कला के

ज्ञान पर गौरव है। वे इस कला को और आगे बढ़ाना चाहते हैं। भले ही वे मिर्जापुर से यहां आए हों परन्तु उनकी कला वनारस की कला है और ये अब इस वनारस नगरी के कलाकार हैं।

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विभिन्न शहरों के काष्ठ-कलाकारों के बीच व्यापारिक समझौता

जब लकड़ी के खिलौने, गहने, एक्युप्रेसर के समान तथा और भी अधिक चीजों का बाजार में बनना प्रारंभ हुआ तो यहां लोगों ने यह जरुरी समझा कि अपने व्यवसाय को चारों तरफ देश तथा विदेशी बाजार में फैलाया जाए। अब यह संभव नहीं था कि एक ही जगह के लोग उपयोग में लाए जानेवाले सभी वस्तुओं का निर्माण करें। अत भिन्न-भिन्न शहरों में काम करनेवाले काष्ठकलाकारों के बीच व्यापारिक आदान-प्रदान का समझौता प्रारंभ होने लगा। उदाहरण के तौर पर वाराणसी के खोजवां के श्री सहदेव सिह जी लकड़ी के खिलौने के साथ-साथ एक्युप्रेसर के समानों का भी निर्माण करतें हैं, परन्तु सभी वस्तुओं का निर्माण बहुत कारणों से संभव नहीं है। अतः इन्होंने राजस्थान के जोधपुर शहर की एक संस्था 'एक्युप्रेसर हेल्थ केयर सिस्टमस' सोजाटे गेट के बाहर से टेक्नीकल एक्सचेंज सम्बन्ध बना रखा है। इस समझौते के अनुसार ये अपने द्वारा बनाए गए समान जोधपुर भेजेंगे तथा जो समान जोधपुर में बनता है उसे वाराणसी तथा अन्य जगहों में जहां उनका माल जाता है वहां बेचेंगे। इस तरह के और भी बहुत से उदाहरण हमें अपने सर्वेक्षण के दौरान मिले।

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संगठन और उसका स्वरुप

बनारस के 'काष्ठ-कलाकारों' का अपना एक पंजीकृत संगठन है। जिसका निश्चित स्वरुप है तथा इस कला में संलग्न सभी लोग इस संगठन के सदस्य है। संगठन का स्वरुप पूर्णतः प्रजातांत्रिक है तथा इसका प्रतिवर्ष चुनाव होता है। चुनाव के द्वारा संगठन के पदाधिकारियों जैसे महामंत्री, संगठन मंत्री, कोषाध्यक्ष, अध्यक्ष आदि का चयन किया चाता है। एक बार चुने पदाधिकारियों का कार्यकाल सामान्यतया २ वर्ष का होता है। अगर एक या पूरे पदाधिकारी काष्ठकलाकारों की समस्या जैसे लकड़ी का मुहैया, बैंको से ॠण, 'काष्ठ-कलाओं' की कीमतों में एकता इत्यादि का निर्धारण करते हैं।

इतना ही नहीं अगर कोई व्यक्ति 'काष्ठ-कला' को सीखना चाहता है तो सीखने के पूर्व उसे संगठन के पदाधिकारियों से अनुमति लेनी पड़ती है। संगठन चाहे तो अनुमति दे सकता है, न चाहे तो नही दे सकता है। अनुमति मिल जाने की स्थिति में नये सदस्य को संगठन की सदस्यता शुल्क के रुप में ७०० (सात सौ) रुपये जमा करना पड़ता है। इसके बाद ही व्यक्ति इस कला को सीखना तथा इसे सीखकर अपनी जीवकोपार्जन शुरु कर सकता है। खोजवां तथा अन्य जगह के काष्ठ कलाकारों ने बताया कि इस समय लगभग ९०० कारीगर इस संगठन के सदस्य है।

इसी तरह से काष्ठ कला के व्यापारियों का भी एक अलग संगठन है। इस समय वाराणसी में १८ व्यवसायी इस कला में लगे हैं। वे इस कलाकृतियों को भारत के विभिन्न जगहों तथा विदेशों में भेजते हैं। काष्ठ-कलाकारों की संगठन के समान ही काष्ठ व्यापारियों का संगठन भी इस बात का ध्यान रखता है कि खरीद के कीमत, तथा समानों की गुणवत्ता में समानता होनी चाहिए।

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दोनों संगठनो के बीच आपसी तालमोल

वाराणसी के 'काष्ठ-कलाकारों' तथा कला-व्यापारियों के संगठनों के बीच आपसी तालमेल बहुत ही सराहनीय है। अगर 'काष्ठ-कलाकारों' को यह महसूस होता है कि कच्चे माल की कीमत बढ़ गयी है, मजदूरी भी बढ़ी है अतः काष्ठ-कलाकारों का कीमत बढ़ाया जाए। ऐसी स्थिति में काष्ठ कलाकार के संघठन के लोगों की सभा बुलाई जाती है। सभा में बढ़े हुए कीमत पर निर्णय लेकर फिर 'काष्ठकला' के व्यापारियों के संगठन को सूचना दी जाती है। फिर व्यापारियों के संगठन के सदस्यों की आय सभा होती है, उसमें निर्णय पर बहस

किया जाता है। अन्ततः दोनों संगठनों के पदाधिकारियों की आम बैठक बुलाई जाती है और अन्तिम निर्णय लिया जाता है। दोनों संगठनों के पदाधिकारियों के आम बैठक में बारगेनिंग (सौदेबाजी) भी चलता है। परन्तु अन्तिम फैसला दोनों को मान्य होता है। दोनों संगठनों के सदस्यों एवं पदाधिकारियों के बीच बड़ा ही मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध होता है।

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औसत आय

बनारस में काष्ठ कला के उत्पादन में प्रमुख तौर पर दो कि के लोग लगे हुए हैं। प्रथम कलाकार या कारीगर जो इन वस्तुओं का निर्माण दैनिक मजदूरी के आधार पर करते हैं। दूसरे वे लोग जो स्वयं भी इस काम को करते हैं यथा इनके पास अपना खरीदी मशीन (जो बिजली से चलता है) होता है। बिना खरीदी मशीन के कारीगरों की संख्या बनारस में सर्वाधिक है। मोटे तौर पर ऐसे लोग पूरे काष्ठ-कलाकारों की आबादी के ७५ प्रतिशत है। इसके विपरीत ऐसे लोग जिनके पास खुद का खरादी मशीन है की संख्या काफी कम है अगर आर्थिक मापदण्ड पर नापा जाए तो वैसे कलाकार जिनके पास खुद का खरादी मशीन है बिना मशीन वालों की तुलना में काफी सम्पन्न हैं। ऐसे कारीगर खराद मशीन बालों के यहां काम करते हैं । सभी प्रकार के कलाकृतियों का कीमत निर्धारण पूर्व में ही कर लिया जाता है । वे जितना माल तैयार करते हैं, उन्हें उसी अनुपात में मजदूरी दे दी जाती है। सामान्यतः लोग साढ़े सात बजे प्रातः से लेकर पांच-साढ़े पांच बजे तक काम करते हैं। बीच में एक दो घंटे का अवकाश भी करते हैं। खराद मशीन वाले मशीन तथा बिजली का चार्ज ७ रुपया प्रतिदिन या फिर एक रुपये घंटे के हिसाब से काट लेता है। अगर एक कारीगर ८ घंटा काम करे और बीच में बिजली न कटे तो १०० से लेकर १५० रुपये तक की कमाई हो जाती है।

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वस्र (पहनावे) का आर्थिक विपन्नता के साथ सम्बन्ध नहीं

काष्ठ-निर्माण कला में लगे रहने से निर्माण के समय लकड़ी का बरीक बुरादा पूरे शरीर पर धूल की भांति उड़ता रहता है। पुन ज्यादा वस्र सम्भालने के चक्कर में यें काम पूरी तन्मयता से करने में असमर्थ हो जाते है। ऐसी अवस्था में लूंगी या गमछी पहनकर कभी नंगे शरीर और कभी गंजी (बनियान) पहनकर लोग काम करते हैं। इनके इस दशा को कभी आर्थिक विपन्नता तो कभी इनके श्रम के शोषण का नाम दे दिया जाता है। सत्य बिल्कुल विपरीत है। कम या इस तरह का वस्र पहनना इनकी तकनीकी लचारी या कम्पलशन है न कि आर्थिक लाचारी या विपन्नता।

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तैयार माल की खपत

पहले बनारस में बने खिलौने तथा अन्य चीजों का खपत शहर में ही तीर्थयात्रियों द्वारा होता था। जो भी तीर्थयात्री वाराणशी में आते थे, जाते समय बच्चों के खिलौने इत्यादि लेकर जाते थे। फिर जो लोग अपने मृतकों को काशी में जलाने के लिए लाते थे तथा उनका श्राद्ध कर्म में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ के यज्ञ पात्र-पीढ़ी इत्यादि की जरुरत होती थी। इन सामानों को भी यहीं खरीदा जाता था।

धीरे-धीरे काशी के खिलौने तथा अन्य 'काष्ठ कलाओं' का मांग भारत के अन्य शहरों में होने लगा। फिर कुछ थोक व्यापारियों ने इनसे तैयार माल थोक में लेना शुरु किया तथा इन माल को भारत के विभिन्न शहरों में बेचना प्रारंभ किया। जब विदेशी पर्यटक बनारस आने लगे तो वे भी इस कला की तरफ सम्मोहित होते चले गए। उनमें से कुछ ने इन लोगों के द्वारा बनाए गए समानों का विदेशों में भी अच्छा खासा बाजार स्थापित किया। कहते हैं कि चूंकि ये खिलौने आदि लकड़ी से बनाए जाते हैं अतः पूर्णतः प्रदूषण रहित होते हैं। कदाचित इन 'कलाकृतियों' का यह गुण भी विदेशों में इनकी अच्छी मांग पैदा कर दी है। आज स्थिति यह है कि केवल वाराणसी में १८ थोक व्यापारी ऐसे हैं जो इन कलाकृतियों को भारत के विभिन्न हिस्सों मे भेजते हैं तथा वि के बहुत से देशों में निर्यात भी करते हैं।

 

वाराणसी वैभव


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Copyright K.K.Mishra © 2003

आभार

मैं पूज्या डा. कपिला वात्स्यायन तथा प्रो. बैद्यनाथ सरस्वती के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। इन्हीं के शैक्षणिक निर्देशन में मैने यह कार्य सम्पन्न किया है।

                             - कैलाश कुमार मिश्र

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