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वाराणसी में तीर्थ क्षेत्र |
सुनील कुमार झा |
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भारतीय जीवन में तीर्थयात्र का विशेष महत्व है भारतीय तत्व चिंतन का आधार-भूत सिद्धांत है मोक्ष, जिसके फलस्वरुप कर्मक्षय के बाद पुनर्जन्म नहीं होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शास्र विधि के कठिन नियमों का पालन करना आवश्यक है। इनमें पूजा, प्रतिष्ठा और दान इत्यादि आ जाते है। पर भारतीय तत्व चिंतन और प्रकृति का घनिष्ठ संबंध बहुत प्राचीन काल से अविच्छिन्न रुप से चला आ रहा है, जिसके फलस्वरुप ॠषियों ने वन, पर्वत तथा नदियों में ईश्वर का रुप देखा। देवों और मनीषियों की संगति से प्रकृति के उन ब्राह्म स्वरुपों में एक अजीव आकर्षण आ गया जीससे ऐतिहासिक काल में वे तीर्थ रुप मे परिणत हो गये। उन स्थानों में मन्दिर बनने लगे लोक विश्वास में नदियाँ देवियाँ मानी जाने लगीं तथा उनके उद्गम देवी प्रेरणा के द्योतक बन गये। क्रमशः जल न केवल भौतिक शरीर के मलों को ही साफ करने वाला माना गया, उसका सम्बध मानसिक विकारों को दूर करने वाला बतलाया गया तथा कर्मज्ञय का प्रतीक बन गया। नदियों तथा ॠष्याश्रमों से निकली हुई ज्योति उनके निकट किये गए कर्मो तथा यज्ञ श्राद्ध और पिंडदान इत्यादि के फलों को परिपुष्ट करने वाली मानी गयी। हिन्दू विश्वास के अनुसार पवित्र नदियाँ संसार को पार करने के लिए घाट के समान है और इसीलिए उनका नाम तीर्थ पड़ा। क्रमशः नदियों का यह फल तीर्थ क्षेत्रों और नदियों के किनारे बने देवालयों में भी निहित हुआ तथा देव दर्शन और नदी स्नान का पुण्य यज्ञ पुण्य के बराबर ही माना गया और वह भी कम खर्च में। तीर्थयात्रा केवल इस देश में ही नहीं, प्राय सब देशों और कालों में विद्यमान थी। आधुनिक युग में तीर्थयात्रा का उद्देश्य केवल आद्यात्मिक न होकर ऐतिक-सा होता है। प्राचीन सुग में भी कुछ ऐसा ही था और शायद ऐहिकता से मुक्त करने के लिए ही तीर्थ-महात्मयों की रचना हुई। तीर्थ-यात्रा का फल यज्ञफल से भी अधिक माना गया यज्ञ में सामग्री और दक्षिणा में काफी खर्च होता था, इसके विपरीत तीर्थयात्रा में कम तथा उसमे भूत, स्रियाँ विधवाएँ, चारों आश्रम के लोग, अग्नि होती इत्यादि यहाँ तक कि सब धर्मों से बहिष्कृत चाण्डाल तथा समाज के सब प्राणी समान भाव से भाग ले सकते थे। कुछ तीर्थ महात्म्यों में तो यहाँ तक कहा गया है कि तीर्थों में गम्यागम्य संबंधी नियम दूर हो जाते है। प्राचीन काल में तीर्थ-याक्षियों से कोई कर वसूल नहीं किया जाता था तथा उनकी मदद के लिए लोग धर्मशालाएँ तथा घाट बनवाकर, रास्तों में वृक्षारोपण करके तथा अन्न सत्र चलाकर उनके पुण्य में भागी होते थे। पुण्य स्थल होने से पापी और पुण्यात्मा सभी को समान रबप से तीर्थयात्रा विहित थी। इसके फलस्वरुप तीर्थयात्रा अपराधियों के अड्डे बन गये जैसा कि वाराणसी के इतिहास से पता चलता है। तीर्थयात्रियों के वेष में गुप्तचर तीर्थे मे इसलिए भेजे जाते थे कि वहाँ जाकर वे विद्रोहियो शत्रुओं और चोरों का पता लगावें। सड़कों पर तीर्थयात्रियों की रक्षा में भी राज्य का काफी खर्च होता था पर उस खर्च का कुछ हिस्सा तीर्थों के व्यापारियों पर लगने वाले कर वसूल हो जाता था। तीर्थ यात्री ताम्र मुद्रा, ताम्र कंकण तथा काषापस्त से भूषित होते थे। पर यह वेष बहुधा ठग भी धारण कर लेते थे। वायु पुराण के अनुसार अश्रधालु, पापी, नास्तिक छिन्न संशय और हेतु निष्ठ तीर्थ फल के भागी हो सकते थे। तीर्थफल का पुण्य यज्ञपुणय के समान ही माना गया है, पर यह पुण्य तीर्थों की महिमा के अनुसार कुछ कम अथवा कुछ अधिक होता था। एक मत से यज्ञ कर्म ही इहलोक और परलोक को साधने वाला माना गया है पर दूसरे मत के अनुसार वह बिना श्रद्धा के फलदायक नहीं हो सकती, उसके लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है तथा रास्ते की कठिनाइयाँ जैसे पैदल यात्रा उपवास इत्यादि केवल संकल्प की द्योतक थीं। तीर्थ स्थान इत्यादि तो तीर्थ यात्रा के ब्रह्म उपकरण मात्रा थे परमानन्द की प्राप्ति तो यात्रियों का आत्मचिंतन और निर्विकार भाव था। इसीलिए मन तथा सात्विक गुणों को भी तीर्थ माना गया है। बिना मनः शुद्धि के तीर्थयात्रा बेकार है। हृदय से शुद्ध तथा ज्ञानपूत व्यक्ति को ही परमगति प्राप्त होती है। गोविन्द चन्द्र देव के मंत्री लक्ष्मीघर ने कृत्य कल्पतरु के तीर्थ विवेचन काणड में तीर्थ यात्रा संबंधी इसी मत की संपुष्टि की है। तीर्थयात्रा की फलश्रुतियों से तो ऐसा पता चलता है कि तीर्थ मानो ऐसे जादू है जिनसे मनुष्य तुरन्तु भवबन्धन से छूट जाता है, पर बात ऐसी नहीं है। इन्द्रिय-निग्रह, योग, तप, शुद्धाहार, ब्रह्मचर्म ब्रत नियम इत्यादि पुराणों के अनुसार मुक्ति के साधन माने गये है तथा मनः शुद्धि के लिए श्रवण मनन और ध्यान। तीर्थयात्रा भी उन्हीं नियमों के मानने से फलदायिनी हो सकती है। पुराणकारों का यह विश्वास ही ऐहिक और पारलौकिकसुखों की प्राप्ति का साधन है। तीर्थों में देवॠण, पितृॠण और ॠषिॠण से मुक्ति मिलती है। वहाँ होम, पूजा, यज्ञ, ॠषितपंण, पितृतपंण, दवोच्चार, पिंडदान और श्राद्ध का विशेष महत्त्व शायद इसीलिए माना गया है कि ये कर्म तीर्थों में घर की अपेक्षा अधिक निश्चिन्ततापूर्वक और श्रद्धापूर्वक किये जा सकते है। इसमें संदेह नहीं कि लोक विश्वासों के फलस्वरुप तीर्थयात्रा की महिमा वास्तविकता छोड़कर आकाश में पहुँच गयी है जो नित्य भीम और मानसी तीर्थों में अवगाहन करते है। एक दूसरे उद्धरण से पता चलता है कि जो यात्री काम क्रोध और लोग पूरी करता है, उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं। जो तीर्थ अगम्य और विषम है वे ध्यान मात्र से उपलब्ध हो जाते हैं। तीर्थों में केवल शुद्धात्माओं को मुक्ति मिलती है, ढ़ोंगी और पापियों को नहीं। भारतीय विचारधारा
में तीर्थों की परम्परा काफी प्राचीन मालूम पड़ती है और इसका आरम्भ
वैदिक काल से होता है जिसमें जल को पवित्र और जीवनदायिनी-शक्ति-युक्त
माना गया है। ॠग्वेद काल से ही नदियाँ देवतुल्य
मानी जाने लगीं। एकांत स्थान होने से
उनके सान्निध्य में तप और ध्यान करने की
सुगमता पर विशेष ध्यान करने दिया गया। गोतम (२०/१५) ने नदियों के
संबंध में तीर्थ शब्द का प्रयोग किया है तथा कुछ नदियों और दों के जल
में पूतदायिनी शक्ति माना है (गौतम, २०/१०) विष्णु
स्मृति (३०/६) में तीर्थ यात्रा का फल अश्वमेघ
यज्ञ के समान माना गया है तथा दूसरी जगह (विष्णु, ५/१३१) पुष्करादि तीर्थो
में यज्ञ, तप, पिंड और श्राद्ध की महत्ता बतलायी गयी है तथा गंगा जल (विष्णु, ५३/१७) की सर्वश्रेष्ठता
स्वीकार की गयी है। गंगा में अस्थि प्रवाह पुण्यदायक
माना गया है। विष्णु स्मृति (१९/१०/१२) में गंगा तथा कुरुक्षेत्र की
यात्रा पुण्यदायिनी कही गयी है। वृहस्पति
स्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति ने गया श्राद्ध के महत्व पर
लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। आश्लायन (१२/६) और
लाटयायन (१०/१५ इत्यादि) श्रौतसूत्रों में
सरस्वती के किनारे यजन-याजन का महत्त्व
बतलाया गया है तथा कात्यायन श्रौत
सूत्र (२४/१०)के अनुसार सत्र समाप्ति के बाद
यमुना अथवा करपचा में स्नान फलदायक
बतलाया गया है। पुराण और उपपुराण तो तीर्थस्थल और क्षेत्र-माहात्मयों से भड़े पड़े है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि लक्ष्मीधर अग्नि, भागवत, गरुड़, कूर्म, नारदीय, शिव और सौर पुराणों का उल्लेख नहीं करते। वे अपने विचार अधिकतर आदित्य, देवी, कालिका और नारासिंह उपपुराणों के आधार पर प्रकट करते है। श्री आयंगर ।१० की राय में वे कुछ तीर्थों का वर्णन करते है और बाकी को छोड़ देते है। इससे यह अनुमान होता है कि वे कुछ तीर्थों को अधिक पवित्र मानते थे और बाकी को नहीं। यह भी संभव है कि पुराणों के जो पाठ उनके सामने थे उनमें वह सामग्री नहीं थी जो अब मिलती है। तीर्थप्रकरण में तो वाराणसी तीर्थ यात्रा संबंधी सामग्री भरी पड़ी है जिसकी जाँच पड़ताल से यह पता चल जाता है कि पुराणों के आधुनिक संस्करणों में कौन-सी-बात परवर्ती है। उदाहरण के लिए वराणसी की पंच कोशी का उल्लेख लक्ष्मीधर ने नाना तीर्थ माहात्म्य अध्याय में पुरी की प्रदक्षिणा के नाम से किया है। प्रक्षिणी पुरी पूञ्या विमुक्त केशवौ- (२३७-१२) यह सही है कि काशी विषयक वर्णन में इस यात्रा का उल्लेख नहीं है। चार सौ वर्ष से अधिक समय से स्कंद पुराण काशी खण्ड के कुछ संस्करणों में ही इसका उल्लेख मिलता है। निबंध के
रुप में तीर्थ यात्रा संबंधी उल्लेखों का चयन
सबसे पहले लक्ष्मीधर ने किया। ऐसा जान पड़ता है कि गहडवाल
युग में पौराजिक हिन्दू-धर्म और अधिक
मजबूत हो गया। गोविन्दचन्द्र की राज्य
सीमा में ही अधिकतर तीर्थ थे, इसलिए एक ऐसे निबंध की आवश्यकता पड़ी जो
उन तीर्थों के धार्मिक महत्व के लोगो के
सामने रख सके। हर एक तीर्थ में स्नान,
संकल्प, प्रार्थना, दान, जप, पूजा तथा पिंडदान, तपंण तथा
श्राद्ध फलदायक माने गये। गंगा जल और
मृत्तिका में अलौकिक गुणों की कल्पना की गयी तथा काशी की गियों
में झाड़ लगाना पुण्य-कर्म माना गया। गंगाजल
में अस्थि-प्रवाह मृत व्यक्ति के मोका का कारण
बना। काशी में आजन्म प्रवास मुक्तिदायक था। यह
विश्वास यहाँ तक बढ़ा कि पुराणों के
अनुसार पत्थर से पैर तुड़वाकर काशी
में बस जाना चाहिए। पुराणों ने आत्मघात को महापातक
माना है पर सती प्रयाग में गंगा-यमुना के
संगम पर डूब मरना, रोगग्रस्त तथा बृह शरीर का उपवास, डबने, पर्वत और अग्निपात
से आत्मघात, ये महापातक की श्रेणी में नहीं आते। काशी अथवा वाराणसी कब से पवित्र मानी गयी इसका ठीक पता नहीं चलता क्योंकि बौद्ध साहित्य में तो इसके राजनीतिक और व्यापारिक पहलुओं पर तथा काशी प्रदेश में प्रचलित यज्ञ और नागपुजा के ही विशेष उल्लेख है काशी की व्युत्पति मनु के पौत्र पुरुखा से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न काश से मानी जाती है। इसी वंश में वैद्यक शास्र के अधिष्ठाता धन्वन्तरि हुए। कौशीत की उपनिषद् में (एस. बी. ई., १/१३००-७१५, १००-५) काशी के दार्शनिक राजा अजातशत्रु का उल्लेख है। हिरण्यकेशी गृहसूत्र (२/७/१०/७) में विष्णु, रुद्र स्कंद और ज्वर के साथ-साथ काशीश्वर की पूजा का भी उल्लेख है। इस उल्लेख के आधार पर शायद कहा जा सकता है कि ईस्वी पूर्व पाँचवी सदी में बनारस में शिवपूजा प्रारम्भ हो चुकी थी। ज्वर की पूजा से हमारा ध्यान अथर्ववेद (पैप्लाद शाखा, ५/२२/१४) के उस उल्लेख की ओर आकृष्ट होता है, जिसमें काशी, मगध और गंधार में मलेरिया के चले जाने की बात आयी है। लगता है, उस युग में वे प्रदेश मलेरिया से पीड़ित रहते थे। मनु (२/२१) के अनुसार मध्य प्रदेश प्रयाग ही तक सीमित था। तथा काशी उस प्रदेश के बाहर पड़ जाती थी। महाभारत (वनपर्व, ८१) के ही श्लोक में काशी का उल्लेख आया है। इसके अनुसार यात्री कोटि तीर्थ से वाराणसी पहूँचते थे और वहाँ शिव पूजा करके कपिलकुंड में स्नान करके अश्वमेघ का पुण्य लूटते थे। उसके बाद वे गंगा-गोमती के संगम पर स्थित मार्कण्डेय तीर्थ की यात्रा करते थे। पर इसमें संदेह नहीं कि पौराणिक धर्म की अभिवृद्धि और शैव धर्म के प्रसार से काशी की महत्ता का प्रचार हुआ। गाहडवाल युग में वाराणसी राजधानी हो गयी, फलस्वरुप काशी की धार्मिक महत्ता और भी बढ़ी। लक्ष्मीधर ने अपने निबंध में इसी महत्ता को और बढ़ा-चढ़ा कर दिखलाया है तथा वाराणसी के करीब ती सौ चालीस मंदिरों का उल्लेख किया है। जो मंदिर बाहरवीं सदी के बाद बने उनके उल्लेख नारायण भ और मित्र मिश्र ने किये हैं। शिव की राजधानीमें शिव परिवार का भी होना आवश्यक है, इसीलिए इसमें अनेक नामों वाली पार्वती, नन्दी, विनायक और भैरव आ गए हैं। लक्ष्मीधर जिस प्राचीन लिंग पुराण के उद्धृत करतेहै उसके अनुसार देवताओं, देवियों, नागों असुरों और ॠषियों में काशी मे शिव मंदिर स्थापित करने की होड़ सी लगी थी। समयानतर में उन मंदिरो में स्थापकों की पूजा भी होने लगी। लक्ष्मीधर द्वारा उद्धृत लिंग पुराण के विवरणों की बाद के पौराणिक विवरणों (काशी खण्ड, ब्रह्म वैवर्त) से तुलना करने पर यह बात साफ हो जाती है कि १६वीं सदी के लेखकों ने किस तरह प्राचीन मंदिरों के नये उद्देश्य दिखलाने के प्रयत्न किए। इसके दो कारण थे। पहला कारण यह है कि वारा णसी के प्रति ममता होने से तथा लोगों के सुदूर तीर्थों में जाने की अरुचि के कारण पुराण कारों ने वाराणसीमेंही उन तीर्थों के पर्यायवाची तीर्थ ढूँढ निकाले उदाहरणार्थ अस्सी संगम पर गाहडवाले युग में लोलाकेश्वर सूर्य का मंदिर था। काशी खण्ड ने इस कल्पना को प्रस्तारित करके काशी में द्वादश आदित्यों की कल्पना कर ली। उसी तरह जहाँ लिंगपुराण में पाँच विनायकों का उल्लेख है काशी खण्ड में उनकी संख्या छप्पन तक पहूँच गयी है। देव मंदिरों की संख्या किस तरह बढ़ रही थी इसका पता इसी बात से चलता है कि लक्ष्मीधर के समय में इनकी संख्या ती सौ पचास थी, पिंसेप के समय इनकी संख्या एक हो गयी और १८६८ ई. में जव शेटिंग ने अपनी पुस्तक लिखी इनकी सोलह सौ चौवन तक पहूँच गयी।
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