सूक्ष्म अध्ययन के
बाद उपर्युक्त अनुछेदो में जो उल्लेख आया है सही नही ठहरी है। इसका कारण यह है कि कृत्यकल्पतरु की तीर्थ
सूची को संपूर्ण मान लिया गया और इस आधार पर
अन्य तीर्थों को नव निर्मित माना गया।
मत्स्यपुराण और अग्निपुराण गुप्तकालिन है।
"दशकुमारचरित" नवीं-दसवीं सदी का और कृत्यकल्पतरु वारहवी
सदी (१११० ई.) का, काशीखण्ड सन् १४४० ई. से पहले का है क्योंकि इस तिथि पर उसका तैलंग भाषा
में अनुवाद हो चुका था अतः वह इस समय कम-से-कम
सौ वर्ष पुराना हो चुका होगा अर्थात चौदहवीं
शताब्दी के मध्य का ब्रह्मवैवर्तपुराण का काशी रहस्य पन्द्रहवीं
शताब्दी का है।
अग्निपुराण
में वाराणसी में केवल ७ अनुष्टुप श्लोक हैं
वाराणसी माहात्म्य, अविमुक्त क्षेत्र के नाम कारण तथा आठ
शिवलिंगों के नाम वाराणसी की सीमा और परिमाप का
वर्णन है। आठ शिवलिंगों में अविमुक्तेवर को छोड़कर
सात नाम ही हैं जो मत्स्यपुराण में है और
मत्स्यपुराण ने इनको बाहर के शैव
तीर्थों से संबंध बताया है।
मत्स्यपुराण
में वाराणसी की बाबत ६ अध्याय है, कुल ३९३
श्लोक। इसमें वाराणसी क्षेत्र का परिणाम माहात्म्य आदि का विस्तृत विवरण है।
वाराणसी में अविमुक्तेश्वर के क्षेत्र के
सान्निध्य में आने के कारण ही अन्य शैव क्षेत्र पवित्र
बन जाते है, इनकी शक्ति-सम्पन्नतासर्वदा अविमुक्तेश्वर के
समीप रहने के कारण है। वाराणसी के तीन ही
शिवलिंग बताये है अविमुक्तेश्वर, त्रिसन्ध्येश्वर एवं कृत्तिवासेश्वर और पाँच तीर्थों का नामांकन है। इन्हीं की पंचतीर्थो आज
भी होते है। भगवान सदाशिव के उद्यान आनंद कामन का और
वरुणा संगम का भी उल्लेख है।
लिंग पुराण में १६ अध्याय वाराणसी तीर्थों
से सम्बद्ध थे जिनका उद्धहरण 'कृत्यकल्पतरु'
में मिलता है, मूलपुराण उपलब्ध नहीं है।
वर्तमान लिंगपुराण में वाराणसी की महत्ता पर १४४
श्लोकों का मात्र एक अध्याय रह गया है।
काशी खण्ड में काशी विषयक बातें विस्तार
से कही गयी हैं। इस प्रकार मत्स्यपुराण
में तीर्थ माहात्म्य का प्राधान्य है और से तीर्थ है, अविमुक्तेश्वर, त्रिसन्ध्येश्वर, कृत्तिवासेश्वर, दशाश्वमेघ,
लोलार्क, आदिकेशव, बिन्दुमाधव और
मणिकर्णिका विश्वेश्वर का नाम है पर यह
शिवलिंग विशेष है या सदाशिव का पर्यायवाची, यह कहना कठिन है।
लिंग पुराण (प्राचीन) में लिखा है कि यह
सूची केवल सिद्ध तीर्थों की है, संपूर्ण तीर्थ
वाली नहीं है।
(अन्यान
सन्ति लिंगानि शतशोऽथ सहस्रश। न मयातानि चोक्तानि बहुत्वान्नामधेयत ।।
लिंगपुराण और काशी खण्ड की
सूचियों का मिलान करने पर स्पष्ट होता है कि दोनों
सूचियाँ एक सी हैं लिंगपुराण के कुछ देवता काशीखण्ड
में छुट गए हैं और काशीखण्ड में कुछ देवता ऐसे है जो
लिंगपुराण में नहीं है। लिंगपुराण में ४४८ तीर्थो का उल्लेख है तथा १३ और नाम
यात्राओं के अंग होकर आए है जब कि काशीखण्ड
में केवल ३८२ नाम है।
स्पष्ट है कि तीर्थों की
संख्या में वृद्धि नहीं हुई। काशी खण्ड केवल
वाराणसी से संबंध है जब कि अन्य पुराणों
में वाराणसी मात्र एक विषय है और बहुत
सी बातें है। अतः यहाँ विस्तृत वर्णन की
सुविधा नहीं थी। महाराज गोविन्दचन्द्र के ताम्र पत्र और
राजधाट की मुद्राओं पर अंकित शिवलिंगों के नाम काशी खण्ड
में नहीं है।
मत्स्यपुराण और अग्निपुराण के जलेश्वर
(जप्येश्वर) और महाभैरव के नाम कृत्यकल्पतरु
में नहीं हैं। मुहरों पर अंकित शिवलिंगों
में से श्री सारस्वत, योगेश्वर, मृंगेश्वर,
भोगकेश्वर, प्राज्ञेश्वर, हस्तीश्वर, घटुकेश्वर
स्वामी, कपर्दकरुद्र और श्री स्कन्द रुद्र
स्वामी के नाम कृत्यकल्पतरु में नहीं है। काशीखण्ड
में भी उपर्युक्त सूची के अंतिम ६ नाम नहीं है।
अतः काशीखण्ड की सूची भी पूर्ण नहीं है।
लोलार्केश्वर
शिव का स्थान नहीं है लोलार्को नाम
वै रवि: (कृ. क. तरु पृ. ११८) वामन में भी
लोलं दिवाकरं दृष्टवा लिखा है। ५६ विनायक, द्वादश आदित्य आदि पुराणों के
साक्ष्य पर बहुत प्राचीन हैं। रही प्रिंसेप (१००० देव
मंदिर) और शेटिंग (१६४४ मंदिर) की बात तो इसका
अर्थ यह है कि पचास वर्षो में (सन् १८२३
से १८६८ ई. के बीच) ६५४ नये शिवालय बन गये पर क्या इनका नाम पुराणों
में स्वीकृत हुआ है। मुसलमान इतिहासकार कहते है कि
सन् ११९४ ई. में वाराणसी सें एक हजार
मंदिर तोड़े गये जब कि कृत्यकल्पतरु
में केवल ४४८ है।
अतः स्पष्ट है कि
लोग मंदिर बनवाते रहे, मंदिर टूटते रहे पर पुराणों
में मंदिरों और तीर्थों की संख्या बढ़ी नहीं है।
प्राचीन साहित्य और अभिलेखों में अविमुक्तेश्वर
शिव की ही प्रधानता थी पर मुगल युग और उसके कुछ पहले ही यह नाम
बदल कर विश्वेश्वर हो गया। लक्ष्मीधर (पृ. १२१-१२३) के
समय में विश्वेश्वर का मंदिर अवश्य था पर इसमें कोई
विशेषता नहीं थी । उस समय प्रधानता तो अविमुक्तेश्वर के
स्वयंभू लिंग की थी (पृ. ४१) विश्वेश्वर का दो
बार उल्लेख हुआ है। एक जगह यह अविमुक्तेश्वर का
विशेषण है (पृ. २०) और दूसरी जगह उसकी गणना
साधारण लिंगों में की गयी (पृ. ९३) वाचस्पति मिश्र के
समय (१५वीं सदी) विश्वेश्वर और अविमुक्तेश्वर का एकत्ष
मान लिया गया था। तीर्थ चिंतामणि (पृ. ३६०)
में कहा गया है कि अविमुक्तेश्वर ही
लोक में विश्वनाथनाम से प्रसिद्ध हुए, पर जहाँ नारायण
भ सहमत है मित्र मिश्र वाचस्पति मिश्र के
मत से सहमत नहीं है। उनके अनुसार पद्यपुराण,
ब्रह्मवैवर्त पुराण और काशीखण्ड में दोनो
लिंग पृथक माने गये है तथा अविमुक्तेश्वर को आदि
लिंग माना गया है। नारायण भ और मित्र मिश्र दोनों ही
स्वयभूं लिंग को विश्वेश्वर मानते है। दोनों ही के
मत से मुसलमानों द्वारा काशीध्वंस होने पर वह
लिंग नष्ट हो गया साधारणतः स्वयंभू
लिंग के स्थान पर साधारण लिंग की पूजा विहित नहीं है, पर शिष्टों द्वारा नया
लिंग गृहीत हो जाने पर वह पूजा जाने
लगा। इसमें भी संदेह नहीं कि आज जहाँ
विश्वनाथ मंदिर है वहाँ कभी भी अविमुक्तेश्वर
अथवा विश्वेश्वर का मंदिर नहीं था क्योंकि तीर्थ विवेचन के
अनुसार अविमुक्तेश्वर का स्थान ज्ञानवापी
मे था, बनारस के उत्तर में आदि महादेव नामक
लिंग था।
लक्ष्मीधर ने
मणिकर्णिका कुण्ड का उल्लेख किया है पर इस कुण्ड का नाम अग्निपुराण
में नहीं है क्योंकि वहाँ सात ही श्लोकों
में काशी का वर्णन है। किन्तु मत्स्यपुराण
में इसका उल्लेख है 'पंचमीतु महाश्रेष्ठ, प्रोच्यते
मणिकर्णिका।' (म. पु. १८५/६१-६६) लिंगपुराण
शिवलिंगों और शिवायतनों का पुराण है और
समीपस्थ तीर्थों का उल्लेख प्रसंगवश ही हुआ है
अत कुण्ड के महत्त्व पर विशेष बल नहीं दिया है। दशाश्वमेघ तीर्थ और
मंदिर दोनों ही माना गया है (मंदिर दशाश्वमेघश्वर का है)।
लक्ष्मीधर ने मुक्ति मंडप, श्रंगारमंडप, ऐश्वर्य
मंडप, ज्ञान मंडप, ज्ञानवापी, मंगल गौरी (ललिता),
भवानी, भूलटक तथा विदार, लक्ष्मीनर सिंह, गोपी गोविन्द और किणोवराह के वैष्णव
मंदिरों का उल्लेख नहीं किया है। कृत्यकल्पतरु
में विश्वेश्वर के संबंध में केवल डेढ़
श्लोक दिये है अतः शिवा यतन के चारों
मंडपों आदि का उल्लेख न होना स्वभाविक है। काशीखण्ड
में विश्वेश्वर की प्रधानता है अतः वृस्तृत
वर्णन है।
ज्ञानवापी -
कृत्यकल्पतरु
में इसका स्पष्ट वर्णन है यद्यपि नाम नहीं दिया है कहा है अविमुक्तेश्वर के दक्षिण
में सुन्दर वापी है जिसका जलपान करने
से मनुष्य के हृदय में तीन लिंग उत्पन्न होतें है। उसकी
रक्षा पश्चिम में दण्डपाणि पूर्व में तारकेश्वर
उत्तर में नन्दीश्वर तथा दक्षिण में महाकालेश्वर करते है। यह
वापी ज्ञानवापी ही है।
मंगलगौरी -
कृत्यकल्पतरु ने इन्हें
ललिता कहा है वर्णन पूरे विस्तार
से है।
भवानी
-
इनका कृत्यकल्पतरु
मे स्पष्ट उल्लेख है, हाँ नाम नहीं दिया है।
शुक्रेश्वर के पश्चिम में इनका स्थान
बतलाया गया है। "पश्चिचमे भागे देवो देवी च तिषठतः।"
(कृ. क. त. पृ )
शूलटंकेश्वर -
प्रयागवासी देवता है
वाराणसी में प्रतीक रुप से है अन्य शिव तीर्थों
से आये ६७ शिवलिंग के साथ इनका वर्णन काशी खंड
में है।
विदार
लक्ष्मीनर सिंह गोपी गोविन्द किणोवराह -
लिंगपुराण
में विशेषत शिव लिंगों का वर्णन है
अन्य वर्णन प्रसंग वश ही है। अत विष्णु पीठों का नाम न होना आश्चर्यजनक नहीं है। किणोवराह बाहर के तीर्थों
से आने वाले देवता है। काल
भैरव मठ का कहीं उल्लेख नहीं है पर
भैरव चित्रपट की पूजा करके जल भरने की
बात का उल्लेख है।
काल
भैरव -
भैरव की
उत्पत्ति महेश्वर की आज्ञा से ब्रह्मा को दण्ड देने के
लिए हुई। यह कथा पुराणों में सर्वत्र
मिलती है। भैरव को शिव का अवतार
माना जाता है। लिंग पुराण में सदा
शिव के हाथ से कपाल गिरने से कपालमोचन तीर्थ और कपालेश्वर
शिव के उद्भव की बात है। काशी खण्ड कहता है कि कपालमोचन तीर्थ और
मुख करके भैरव स्थित हो गए। इस प्रकार काल
भैरव का कपालेश्वर के रुप में कृत्यकल्पतरु
में स्पष्ट उल्लेख है और काशी खण्ड में
उनके तीनों स्वरुपों का भी वर्णन है। काल
भैरव का वर्तमान मंदिर कपाल मोचन
से बहुत दूर है। वास्तव में यह स्थान
भैरवेश्वर का है। काल भैरव मंदिर के पीछे इनका टूटा
फूटा मंदिर आज भी है भैरवेश्वर के यहाँ होने के कारण ही तेहरवीं
सदी में काल भैरव की यहाँ स्थापना हुई। पहले यहाँ
भैरव-कूप बावली भी थी जो अब पाट दी गयी है। काशी खण्ड के निर्माण
से पूर्व यह छोटा सा मंदिर बन चुका था और
ब्राह्माडंबर मुक्त होने के कारण मुसलमान
शासकों की तोड़-फोड़ से बचा रहा आगे
बाजीराव पेशवा के सेनाध्यक्ष महाराष्ट्र के
सरदार विंचूरकर ने वर्तमान मंदिर
बनवाया। भैरवेश्वर मकान के ३२/७ में स्थित है और उसके ही एक
भाग में शीतला जी के नाम से दुर्गादेवी का
सुन्दर मंदिर बन गया है। विशालाक्षी को
शिव की रानी कहा गया है तथा मुखप्रेक्षणी
ललिता के मंदिर का भी उल्लेख है। लक्ष्मीधर द्वारा
उद्धृत पुराणों में काशी में अनशन से डूबकर तथा अग्निपात
से आत्मघात की बात आयी है पर इस क्षेत्र
में इसकी कोई आवश्यकता नहीं मानी गयी है क्योंकि पौराणिक
विश्वास था कि अंत समय स्वयं शिव मुंमूर्ष को तारक
मंत्र का ज्ञान देते है जिसके फलस्वरुप
मुक्त होकर प्राणी पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करता पर ऐसी
मुक्ति केवल नगर के भीतर ही उपलब्ध है उसके बाहर नही। कृत्यकल्पतरु के तीर्थ विवेचन काण्ड का आरंभ
मत्स्य पुराण के उद्धरणों (पृ. १२-३०) से होता है।
शिव पार्वती से कहते है। वाराणसी
मेरी प्रिय नगरी है। यहाँ पापी भी
मोक्ष पाते है तथा सब प्राणियों को
मुक्ति मिलती है। यहाँ सिद्ध नाना तरह के
संन्यासी और योगी रहते है। मेरे इस नगरी को न छोड़ने
से ही इसे अविमुक्त कहा गया है। स्नानदि
से जो मोक्ष ने मिषारण्य, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार और पुष्कर
में नहीं मिलता वह यहाँ सुलभ है। यहाँ प्रयाग, महाकाल, कायारोहण तथा कालंजर
से भी मोक्ष कहीं अधिक सुकर है। मेरे
भक्तों में कुबेर, संवर्त, व्यास, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र इत्यादि यहाँ
बसते है। इस अलर्क पुरी में गृहस्थ और
संन्यासी दोनो ही मुक्ति पाते है। अविमुक्त
में आने वाले के सब पूर्वसंचित पाप नष्ट हो जाते है । यहाँ अग्निपात
श्रेयस्कर है। पत्थर से पैर तुड़ाकर
भी यहाँ रहना पड़े तो अच्छा। यहाँ ब्रह्महत्या ऐसे पातक तथा
संसार-बंधन से छुटकारा मिलता है यहाँ देव
सदा भक्तों पर दया करके उनकी मनोकामनाएँ पूरी करते हैं। यहाँ
शिव अंतवाल में कर्णजाप देते है जिससे
सव पाप नष्ट हो जाते है। विघ्नों के होते हुए
भी जो अविमुक्त क्षेत्र नहीं छोड़ता उसे जन्म जरा और
मृत्यु से छुटकारा मिलता है और
शिवसायुज्य मिलता है। जो यहाँ
यज्ञ में दान करता है और शिव की पूजा करता है उसे
स्वर्ग मिलता है तथा कठिन ज्वरों से उसे छुटकारा
मिलता है। यहाँ शाकपर्णाशियों एक दिन छोड़कर खाने
वालों मशीचियों, दन्तोलूखलियों तथा अश्वकुट्ट
व्रतधारियों हर महीने कुशाग्र से जलग्रहण करने
वालों, वृक्षमूल में रहने वालों
शिला पर ही सोने वालों तथा और
भी व्रत करने वालों को मुक्ति मिलती है। इस क्षेत्र
में धर्म के मूर्तिमान स्थित रहने से चारों
वर्णों को परम गति मिलती है। जो मनुष्य यहाँ
सोने सं मढ़ी सीगों वाली, चाँदी से
मढ़ीखुरों वाली तथा गले में कपड़े
से मंडित गाय का दान वेदपारग ब्राह्मण को करता है उसकी
सात पीढियाँ तर जाती है यहाँ ब्राह्मण को
स्वर्ण, रजत, वस्क्ष और अन्न दान का महत्त्व है। यहाँ गंगा स्नान
से दस अश्वमेघ यज्ञों का फल मिलता है। जो यहाँ उपवास करके
ब्राह्मण भोजन कराता है उसे सौत्रामणि
यज्ञ का फल मिलता है जो यहाँ एकाहार
से एक महिना बिताता है उसका जीवन
भर का पाप ही महिने में नष्ट हो जाता है यहाँ जो विधान पूर्वक अग्नि प्रवेश करता है
अथवा अनशन से प्राण देता है उसे पुनर्जन्म
से छुटकारा मिलता है घूप और गंध के
साथ अविमुक्त में जो दस सुवर्ण दान करता है उसे अग्नि होत्र का फल
मिलता है। भूमि-दान, सम्मार्जन अनुलेपन तथा
माल्यदान का यहाँ विशेष महत्व है। यहाँ का
श्मशान मद्र है। यहाँ शिवभक्त , विष्णुभक्त,
सूर्यभक्त सभी शिव सायुज्य पाते है। यहाँ रहनेवाले
संन्यासियों को आठ महीने विहार तथा चार
मास एक स्थान पर रहने की आवश्यकता नहीं। यहाँ पतिव्रता और
भोगरायणा काम चारिणी दोनों ही तरह की स्रियों को
मुक्ति मिलती है। यहाँ शत रुद्री के पाठ का फल है। ब्रह्मपुराण
में (पृ. ३०-३२) में अविमुक्त क्षेत्र के भौगोलिक
वर्णन के बाद कपालमोचन तीर्थ में पिंडदान और
श्राद्ध की महिमा बतलायी गयी है। वहाँ गंगा स्नान, पूजा, जप होम, गोदान चान्द्रमण
ब्रत इतियादि की महत्ता का उल्लेख है। लक्ष्मीधर द्वारा
उद्धृत लिंगपुराण (पृ. ३२ से) में वाराणसी के
मंदिरों की बहुत बड़ी तालिका दी हुई है तथा पौराणिक ढ़ग
से उसे मुक्तिदायक माना गया है। शुष्क नदी
अर्थात् अस्सी पर लोलार्क की स्थिति मानी गयी है।
वरणा पर के शव की तथा मत्स्योदरी पर
संक्रांति की महिमा बतलायी गयी है। कहा गया है कि
भक्तों के सिद्धिदायक लिंगरुप में यहाँ
सात करोड़ रुद्र वसते है। यहाँ हमें कहावत
"काशी के कंकड़ शिव शंकर समान" की
याद आ जाती है।
लक्ष्मीधर द्वारा
उद्धृत स्कंदपुराण में काशी के पर्वों का उल्लेख है। कृष्ण और
शुक्ल पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी, चन्द्र और सूर्य ग्रहण
विशेषकर कार्तिक में तथा संक्रांतियों
में सब तीर्थ गंगा पर आ जाते है। केदार
लिंग, महालय लिंग, मध्यमेश्वर, पशुपतीश्वर,
शंकुकर्णेश्वर, गोकर्ण के दो लिंग हमिचंडेश्वर
भद्रेश्वर, स्थानेश्वर, एकाम्रेश्वर, कामेश्वर,
अजमेश्वर, भैरवेश्वर, ईशानेश्वर (कामावरोहण तीर्थ पर) इत्यादि
भी पर्व दिनों में काशी में आ जाते है। आगे चल कर
लिंग पुराणोक्त लिंगों, छंदो, कूपों तथा
सरोवरों के नाम उनके स्थापकों के नाम के
साथ दिये गए हैं। उनमें से अधिकतर की स्थापना देवों सिद्धों और ॠषियों द्वारा करने का उल्लेख है।
लिंग, कूप, कुंड इत्यादि नगरी के किन
भागों में अब स्थित थे इनका भी उल्लेख है।
महादेव -
पहले अविमुक्त क्षेत्र
में सिद्धों और मशुपतों के रहने का तथा
उनकी शिवभक्ति परायणता का उल्लेख है। महादेव का
स्वयंभू लिंग नगरी के पूर्वोत्तर भाग
में स्थित था। आज भी इसे आदि महादेव कहते है। उससे
लगा हुआ महादेव कूप था जिसके स्पर्श
मात्र से लोगों को वागीखरी गति
मिलती थी। इसी कूप के पश्चिम में वाराणसी देवी की
मूर्ति थी जिनके प्रसाद से लोगों को घर
मिलते थे। (कृ. क. त. पृ. ४१)
गोप्रेक्ष -
आदि महादेव के पूर्व इस देव
मंदिर की स्थिति थी। इनके दर्शन से सब कल्मष नाश होते थे।
अनसूयेश्वर -
अनसूया द्वारा स्थापित यह
लिंग गोप्रेक्ष के उत्तर में था। उनके दर्शन
से परागति मिलती थी।
गणेश्वर -
अनसूरेश्वर के आगे यह
मंदिर पड़ता था।
हिरण्यकशिपु -
यह
लिंग गणेश्वर के पश्चिम में हिरण्यक शिषु द्वारा एक पूप के पास स्थापित किया गया था।
सिध्देश्वर -
हिरण्यकशिपु
मंदिर के पश्चिम में पड़ता था और सर्वसिद्धि प्रदायक
माना जाता था।
वृषभेश्वर -
इस
लिंग की स्थिति सिध्देश्वर के समीप पूर्वामिमुख तथा गोप्रेक्ष के दक्षिण-पश्चिम
में थी।
दधीचेश्वर -
गोप्रेक्ष के दक्षिण
सर्वकामफलद यह लिंग था।
अत्रीश्वर -
अत्रि द्वारा स्थापित यह
लिंग दधीचे के पास दक्षिण में पड़ता था।
मधुकैटमेश्वर -
मधु तथा कैटम द्वारा
संस्थापित अत्रीश्वर के दक्षिण में मधु का पश्चिमामिमुख और कैटम का पश्चिमामिमुख
शिवलिंग था।
बालकेश्वर -
गोप्रेक्ष के पर्व
में स्थित था।
विज्वरेश्वर -
बालकेश्वर के
समीप। इसके दर्शन से ज्वर का तुरंत नाश होता था।
देवेश्वर -
विज्वरेश्वर के पूर्व
में स्थित शिवलिंग।
वेदेश्वर -
देवश्वर के ईशानामिमुख यह
लिंग था तथा इसके अन्य मुख भी दिशा कोणों
में थे। इसके दर्शन से ब्राह्मण को चारो
वेदों का ज्ञान हो जाता था। ज्ञातव्य मुख
भी दिशाकोणों में थे। इसके दर्शन
से ब्राह्मण को चारों वेदों का ज्ञान हो जाता था। ज्ञातव्य है कि
सामान्यत मुख लिंग चारों दिशाओं में होते हैं, कोणों
में नहीं। (कृ. क. त. पृ. ४४)
केशव -
वेदेश्वर के
उत्तर में स्वयं केशव का मंदिर था।
संगमेश्वर -
इसकी स्थिति केशव के
मंदिर के पास ही थी तथा इनके दर्शन
से शिष्टों से समागम होने का फल था। स्कंदपुराण के
अनुसार बरना और गंगा के संगम पर स्थित
संगमेश्वर की स्थापना ब्रह्मा ने की थी।
संगम पर स्नान करके लिंग का दर्शन
से पुनर्जन्म नही होता।
प्रयागेश्वर -
संगमेश्वर के पूर्व में ब्रह्मा द्वारा स्थापित
लिंग जिसके दर्शन से ब्रह्मपद मिलता था।
शांकरी देवी -
प्रयागेश्वर के
मंदिर में ब्रह्म वृक्ष (पाकड़) या बिल्व
वृक्ष के नीचे शंकरी देवी का आवास था जो सब तीर्थ
वासियों को शांति प्रदान करती थीं।
गंगावरणा
संगम -
श्रवण नक्षत्रसुक्ता द्वादशी
यदि बुद्धवार को पड़े तो संगम पर स्नान तथा
श्राद्ध बड़ा ही फलदायक तथा श्राद्ध करने
वाले को विष्णुलोक देने वाला था।
मत्स्यपुराण ने वहाँ विधिपूर्वक अन्नदान को
श्रेयस्कर माना है।
कुंभीश्वर
-
वरणा के पूर्वी तट पर स्थित
शिवलिंग।
कालेश्वर -
कुंभेश्वर के पूर्व
में स्थित शिवलिंग।
कपिलहद -
आधुनिक कपिलधारा। इसकी स्थिति कालेश्वर के
उत्तर में थी। इसमें स्नान के बाद वृषभध्वज के दर्शन
से राजसूय यज्ञ का पुण्य मिलता था, नरक
में पड़े पितरगण तर जाते थे तथा वहाँ
श्राद्ध करना गया श्राद्ध से भी बढ़कर था।
स्कंदेश्वर -
महादेव के पश्चिम
में स्कंद द्वारा स्थापित लिंग। वहीं पर
शाख, विशाख और नैगमीयों द्वारा स्थापित
अनेक लिंग थे।
बलभद्रेश्वर -
स्कंदेश्वर के
उत्तर में बलभद्र द्वारा स्थापित लिंग।
नंदीश्वर -
स्वंदेश्वर के दक्षिण
में नदी द्वारा स्थापित लिंग।
शिलाक्षेश्वर -
नंदीश्वर के पश्चिम
में नदी के पिता द्वारा स्थापित तथा वंदित
लिंग।
हिरण्याक्षेश्वर -
शिलाक्षेश्वर के पास हिरण्याक्ष द्वारा स्थापित
शिवलिंग। उसके पास ही देवों द्वारा स्थापित हजारों
लिंग थे।
अट्टहास -
हिरण्यक्षेश्वर के पश्चिम
में अट्टहास का पश्चिमामिमुख लिंग था जिसके दर्शन
से ईशान लोक की प्राप्ति होती थी।
मित्रावरुणेश्वर -
अट्टहास के पास ही पश्चिम
में मित्रावरुण द्वारा स्थापित दो शिवलिंग थे जो
वाराणसी के पूर्व द्वार पर स्थित थे।
वसिष्ठेश्वर -
वहीं मित्रावरुणेश्वर के
मंदिर में ही स्थापित लिंग।
याज्ञवल्क्येश्वर -
वहीं
समीप मित्रवरुणेश्वर के मंदिर में ही
यात्रवल्क्य द्वारा स्थापित चतुर्मुख लिंग।
मैत्रेयीश्वर
-
याज्ञवलक्येश्वर के पास ही
मैत्रेयी द्वारा स्थापित शिवलिंग।
प्रह्मलादेश्वर -
याज्ञवलक्येश्वर के पश्चिम
में पश्चिमामिमुख लिंग।
स्वर्लीनेश्वर -
प्रह्मलादेश्वर के आगे। ज्ञान-विज्ञान
में निष्ठ तथा परमानंद के इच्छुकों को यह
लिंग मुक्तिदायक था।
वैशेचनेश्वर -
वैशेचनेश्वर के
उत्तर में शिव भक्त बलि द्वारा स्थापित
लिंग, इसे वाणेश्वर भी कहते हऐ।
शालकटंकटेश्वर -
बाणेश्वर के
उत्तर में राक्षसी शालकटंकटा द्वारा स्थापित
शिवलिंग।
हिरण्यगभ -
वहीं
शालकण्टकटेश्वर के मंदिर में ही एक
शिवलिंग।
मोक्षेश्वर -
वहीं
शालकण्टकटेश्वर के मंदिर में ही एक
शिवलिंग।
स्वर्गेश्वर -
वहीं
शालकण्टकटेश्वर के मंदिर में ही एक
शिवलिंग।
वासुकीश्वर -
मोक्षेश्वर तथा
स्वर्गेश्वर के उत्तर के उत्तर में चतुर्मुख
लिंग था।
वासुकी तीर्थ -
वासुकीश्वर के पूर्व में एक तीर्थ था जिसमें स्नान करने
से मनुष्य रोग रहित हो जाता था।
चन्द्रेश्वर -
वासुकी तीर्थ के पास चन्द्र द्वारा स्थापित
शिवलिंग।
विद्येश्वर -
चन्द्रेश्वर के पूर्व में। इसके दर्शन
से विद्याधर लोक मिलता था।
वीरेश्वर -
क्षेत्र के
उत्तर पूर्व में प्रह्मलाद धाट के पास है। इसकी स्थापना के
संबंध में एक लम्बी कथा दी गयी है। कृत्यकल्पतरु
में इसका कोई उल्लेख नहीं है।
सगरेश्वर -
वीरेश्वर के
वायव्य कोण में सगर द्वारा स्थापित।
बालीश्वर -
सगरेश्वर के आगे उसी जगह
बालि द्वारा स्थापित चतुर्मुख लिंग।
सग्रीवेश्वर -
वालीश्वर के
उत्तर में सुग्रीव द्वारा स्थापित लिंग।
हनुमदीश्वर -
सुग्रीवेश्वर के पास हनुमान द्वारा स्थापित
लिंग। अश्विनी कुमार द्वारा स्थापित
शिवलिंग सगरेश्वर के उत्तर में था।
भद्रदोहतीथं -
अश्विनी
मंदिर के उत्तर पार्श्व में स्थित इस तीर्थ
में पूर्व भाद्रपद पौर्णमासी को स्नान करने
से हजार गोदान का पुण्य मिलता था।
भद्रेश्वर -
भद्रदोह तीर्थ के पश्चिमी किनारे पर स्थित
शिवालिंग।
उपशांत
शिव -
भद्रेश्वर नैत्रर्तव्य
में स्थित शिवलिंग।
चक्रेशवर -
उपशांत
शिव के उत्तर में स्थित पश्चिमामिमुख
शिवलिंग। उसके आगे एक पश्चिमामिमुख हृद था जिसमें स्नान करने
से शिवलोक की प्राप्ति होती थी।
शूलेश्वर -
चक्रेश्वर के पश्चिम
में । यहाँ शिव के शूल से उत्पन्न हृद
में स्नान करने और शूलेश्वर के दर्शन
से रुद्रलोक कौ प्राप्त होती थी।
नारदेशवर -
शूलेश्वर के पूर्व में नारद द्वारा स्थापित
शिवलिंग तथा कुण्ड।
धर्मेश्वर -
नारदेश्वर के पूर्व
में शिवलिंग तथा कुण्ड।
विनायक कुण्ड -
धर्मेश्वर की
वायव्य दिशा में स्थित इस कुंड में स्नान तथा विनायक का दर्शन करके
यात्री सब विध्नों से विमुक्त होकर अविमुक्त क्षेत्र
में बस सकता था। आजकल यह मुर्गाबी गड़ही कहलाती है।
अमरकऊद -
विनायक
से उत्तर की ओर सटा हुआ कण्ड।
अमरकेश्वर -
अमरक के दक्षिण स्थित
शिवलिंग। इसके दर्शन से भूल से
भी किये गये दुष्कर्म का फल नष्ट हो जाता था। आज कल यह
अगरिया ताल कहलाता है।
वरणेश्वर -
अमरकेश्वर के
उत्तर में थोड़ी ही दूर वरणा के तट पर पश्चिमामिमुख
शिवलिंग कहा गया है कि पशुपात सिद्ध अश्वपाद को यहाँ
शाश्वत सिद्ध मिली। इसके दर्शन से गंधर्वत्व
मिलने की बात कही गयी है।
शैलेश्वर -
वरणेश्वर के पश्चिम
में स्थित शिवलिंग।
कोटीश्वर -
शैलेश्वर के दक्षिण
में स्थित शिवलिंग।
भीष्मचंडिका -
कोटीश्वर के पास ही
श्मशान में होने के कारण इसे बीमत्स तथा विकृत कहा गया है।
कोटितीर्थ
-
इसमें स्नान करने
से एक करोड़ गो दान का पुण्य मिलता था। ॠषि
संध द्वारा स्थापित शिवलिंग कोटिश्वर के पूर्व में था।
श्मशान स्तम्भ -
कोटि तीर्थ के दक्षिण-पूर्व
में स्थित उस स्तम्भ में स्वयं शिव का निवास
माना जाता था। उसकी पूजा करने से मनुष्यों की इस क्षेत्र
में किये गये पापों से विनिर्मुक्ति होती थी।
वाराणसी क्षेत्र में किये गये पापों का फल यहीं
भोगना पड़ता था। भैरवी यातना का यही स्थान था और यहाँ के
भैरव दण्डपाणि के नाम से जाने जाते थे।
कपालमोचन -
स्नान करते
समय शिव के हाथ से लगा हुआ ब्रह्मा का सिर वहाँ गिर जाने
से
इसका नामकरण हुआ। यहाँ स्नान करने
से ब्रह्महत्या जैसे पाप से छुटकारा
मिलने की बात कही गयी है। कोयला
बाजार में ओंकारेश्वर के टीले से मिला पश्चिम की ओर स्थित
सूखा तालाब है।
कपालेश्वर -
कपालमोचन पर स्थित
भैरव का शिवलिंग। (भैरवेश्वर)
ॠणमोचन तीर्थ -
कपालेश्वर के
उत्तर पार्श्व में स्थित एक तीर्थ जिसमें स्नान करने
से तथा ती शिवलिंगों के दर्शन से विविध ॠण का परिशोध हो जाता था।
अंगारेश्वर (मंगलेश्वर) -
ॠणमोचन तीर्थ के दक्षिण
में कुण्ड के सामने पश्चिमामिमुख शिवलिंग। चतुर्थी
या अष्टमी को यदि मंगलवार पड़े तो वहाँ स्नान और दर्शन
से रोग विनिर्मक्ति होती थी।
विश्वकमेश्वर -
अंगारेश्वर के पास ही पश्चिमामिमुख
शिवलिंग।
बुधेश्वर -
विश्वकर्मेश्वर के पास ही स्थित
शिवलिंग।
महामुण्डेश्वर -
बुधेश्वर के दक्षिण
में महामुण्डेश्वर का शिवलिंग था। उसके
सामने ही एक कूप था जिसमें स्नान करते
समय शिव की मुण्डमाला उसमें गिर जाने
से लिंग का नाम करण हुआ। अब यह स्कंद
माता का मंदिर के नीचे कोठरी में है। यहाँ महामुण्डी देवी
भी है। आजकल यह जैतपुरा में वागीश्वरी देवी के
मंदिर के नाम से जाना जाता है।
खटावांगेश्वर -
महामुण्डेश्वर के अहाते
में ही एक शिवलिंग और कूप। कथा है कि
शिव नें कूप में स्नान के लिए यहाँ अपना खट्वांग कुप
में डाला था।
भुवनेश्वर -
महामुंडेश्वर के पास ही एक कुंड के दक्षिण तट पर
उत्तरामिमुख लिंग।
विमलेश -
भुवनेश्वर के दक्षिण में एक कुंड था उसके पूर्व में विमलेश की स्थिति थी। यहीं
से पाशुपातसिद्ध त्र्यंवक सशरीर रुद्रालोक पहूँचे।
मृग्वीश्वर
-
अंगारक कुण्ड के दक्षिण
में मृगु द्वारा स्थापित बड़ा मंदिर।
नंदीशेश्वर
(नादेश्वर) -
मृग्वीश्वर के दक्षिण में नंदीश्वर का
शिवलिंग था जिसके दर्शन मात्र से पशुपात
ब्रत में सिद्ध मिल जाती थी। यहीं पर तपस्वी कपील ने गृहावास करके
शिव की एक हजार वर्ष तक पूजा की जिसके
फलस्वरुप वे सांख्यवेत्ता हुए । वह गृहा कपिलेश्वर के नीचे थी। यह स्थान
वर्तमान कोयला बाजार में ओंकारेश्वर टीले के नीचे गुफा
में है।
कपिलेश्वर -
पार्वती द्वारा यह प्रश्न करने पर कि कपिलेश्वर का नाम ओंकारेश्वर कैसे पड़ा,
शिव ने बताया कि ओंकार के अकार में पंचायतन विष्णु,
उकार में ब्रह्मा और मकार में नंदीश्वर
रुप में स्वंय शिव हैं।
मत्स्योदरी -
मत्स्योदरी के उत्तर कूल पर उसी तरह नंदीश्वर का
मंदिर स्थित था जिस तरह ओंकार के
उत्तर में मकार। इस जगह वामदेव, सावर्णि,
अघोर और कपिल ने पशुपात व्रत से सिद्धि पायी। कभी-कभी गंगा इस देव के दर्शानार्थ
मत्स्योदरी में आ मिलती थी। कपिलेश्वर के पश्चिम
में जब गंगा और मत्स्योदरी का संगम होता, तव वहां अष्टमी और चतुर्दशी को स्नान का
विशेष महत्व था। कपालमोचन तालाब के पास पाशुपतों का
अड्डा था तथा यह मंदिर काफी बड़ा था।
उछालकेश्वर तथा दूसरे
शिवलिंग कपिलेश्वर के आगे पश्चान्मुख
लिंग थे। यहाँ उछालक ॠषि ने पर सिद्धि पायी। पास ही
उत्तर में एक दूसरे शिवलिंग से पराशर
मुनि को सिद्धि मिली। उसी लिंग से सटे
आयतन में पश्चान्मुख वाष्कलि मुनि रहते थे। उसी के पास पूर्वामिमुख होकर पाशुपत
भाव सिद्ध रहते थे और पश्चिम में एकमुख
लिंग था जिसके सान्निध्य में आरुणि ने सिद्धि पायी। आरुणीश के पश्चिम
में एक शिवलिंग था जहाँ पाशुपताचार्य
योगसिद्ध का निवास था उसी के दक्षिण
में एक शिवलिंग के सान्निध्य में कौस्तुभ नामक ॠषि को सिद्धि प्राप्त हुई तथा उसके दक्षिण
में एक लिंग के पास सावर्णि नामक एक पशुपात रहते थे। उसके आगे एक महद्
लिंग था जिसमें ओंकार रुप में स्वंय
शिव का निवास था। उसी के नीचे श्रीमुखी नामक एक गृहा थी जिसमें
शिवार्चन में रत पाशुपत रहते थे। उसी
महालिंग के द्वार पर उसी शरीर से अघोर
मुनि रुद्रत्व को प्राप्त हुए और इसिलिए उसका नाम
अघोरेश्वर पड़ा। वहां यात्री को त्रिरात्रि
बिताने का आदेश था।
श्रीकंठ -
जान पड़ता है
मत्स्योदरी के किनारे बहुत से शिवमंदिर थे, जिनमें
शांत, दांत, जितक्रोध और ब्रह्मचारी पाशुपात पूजा करते थे। कपिलेश्वर के दक्षिण
में श्रीकंठ के मंदिर में पाशुपत ॠतुध्वज रहते थे। उसके आगे एक पूर्वमुख
लिंग के सान्निध्य में जाबाल को सिद्धि
मिली। उसके दक्षिण में ओंकारेश्वर की
मूर्ति थी। उसके दक्षिण में दूसरे लिंग के पास कालिकवृक्षिय सिद्ध हुए। उस
लिंग के भी दक्षिण एक पश्चान्मुख शिवलिंग के पास गाम्र्य सिद्ध हुए।
उन पाँचों पाचायतन कहते थे और उनके दर्शन का
विशेष महत्व माना गया है। इस पंचायतन के
समीप एक कूप था।
रुद्रवास -
यह
मंदिर श्रीकंठ के दक्षिण में स्थित था। उसके
उत्तर पार्श्व में एक कुंड था जिसमें आर्द्रा नक्षत्र
संयुक्त चतुर्दशी को स्नान का महत्व था। वहीं स्थित
रुद्र लिंग और उसके आस-पास बहुत से
लिंग थे।
रुद्रमहालय -
रुद्र नैॠर्त भाग में वहाँ पार्वती की
मूर्ति थी। अव आदि महादेव मंदिर में है। उसके आगे एक कूप था जहाँ पितरों और देवों का निवास
माना जाता था। वहाँ श्राद्ध और पिंडदान की विधि थी तथा पिंड कूप
में डाल दिये जाते थे। वहीं पर वैतरणी नामक एक दीर्धिका थी जिसमें स्नान
से नरक से परित्राण मिलता था। रुद्रहालय के
उत्तर में बहुत से लिंग थे।
वृहस्पतीश्वर -
रुद्रकुण्ड के पश्चिम में वृहस्पति द्वारा स्थापित
लिंग।
पितरों द्वारा स्थापित
लिंग -
रुद्रकूप के दक्षिण भाग में था।
कामेश्वर -
रुद्रवास के दक्षिण में। यहाँ काम के तप
स्वरुप एक कुण्ड उत्पन्न हुआ। उसके उत्तर तट पर कामेश्वर
लिंग था जिसकी पूजा से सभी मनचाही फल
मिलती थीं। कुंड में चैत्र शुक्ल १३ को स्नान विधि थी। घासी टोले में गली के कोने पर और और
मूल स्थान पर भी मंदिर है।
पंचालकेश्वर -
कामेश्वर के पूर्व में इस
लिंग की कुबेर के पुत्र ने आराधना की। इसकी पूजा
से धन प्राप्ति की बात मानी गयी है। घाटी टोले में नल कूबरेश्वर के नाम
से स्थित है।
पंचकेश्वर -
पंचालकेश्वर के
समीप पूर्वमुख मुखलिंग, इसके आगे एक कूप था।
अधोरेश -
कामेश्वर कूप के पास। यहाँ किन्नरों ने नौ
लिंग स्थापित किए।
दिवाकर निशाकर द्वारा स्थापित
लिंग -
पंचकेश्वर के पूर्व में।
अंधकेश्वर -
पंचकेश्वर के दक्षिण
में अंधक द्वारा स्थापित लिंग।
देवेश्वर -
अंधकेश्वर के पश्चिम और काम कुंड के दक्षिण
में वहीं पर भीमेश्वर, सिध्देश्वर, गंगेश्वर,
यमुनेश्वर, मंडलेश्वर और उर्वशी
लिंग थे।
शांतेश्वर -
शांत द्वारा स्थापित मंडलेश्वर के पास
लिंग।
बालखिल्येश्वर -
शांतेश्वर की वायव्य दिशा में द्रोणेश्वर के पास काम कुंड के पश्चिम
में।
वाल्यीकेश्वर -
बालखिल्येश्वर के आगे मुखलिंग।
च्यवनेश्वर -
काम कुंड के तट पर च्यवन द्वारा स्थापित
लिंग।
वातेश्वर -
वायु द्वारा स्थापित बालखिल्येश्वर के दक्षिण
में। वहीं अग्नीश्वर, भारतेश और सनकेश्वर
लिंग थे। वातेश्वर के दक्षिण में धर्मेश्वर का
मंदिर था। सनकेश्वर के उत्तर में गरुड़ेश्वर थे,
उनके पूर्व में शांतनेश्वर और बगल
में सनंदनेश्वर थे। सनकेश्वर के दक्षिण असुरेश्वर, पंचशिखि
लिंग तथा शनैश्चरेश्वर थे। शनैश्चरेश्वर के दर्शन
से रोग मुक्ति मानी जाती थी।
मार्कडेयेश्वर -
उस
लिंग के आगे मार्कडेय हृद था जिसमें स्नान, दान, जप, होम,
श्राद्ध और पितृतपंण की विधि थी। मार्कडेयेश्वर के
उत्तर में एक कूप था और उसके उत्तर में एक कुंड के
बीच कुंडेश्वर का मंदिर था कुंड के पश्चिम
में स्कंद द्वारा स्थापित एक लिंग था। मार्कडेयेश्वर के पास
शांडिल्येश्वर का मुखलिंग और दक्षिण पार्श्व
में भद्रेश्वर थे।
श्रीकुंड -
कपालीश के दक्षिण
में। इसमें स्नान करके लोग श्रीदेवी का दर्शन करते थे।
श्रीदेवी के उत्तर पार्श्व में महालक्ष्मी द्वारा स्थापित
शिवलिंग था। इनके दर्शन से धनधान्य
मिलने का फल था।
दधीचेश्वर -
महालक्ष्मी द्वारा स्थापित शिवलिंग के पश्चिम
में उसके दक्षिण में गायत्री द्वारा स्थापित और उसके दक्षिण
में सावित्री द्वारा स्थापित पश्चान्मुख
लिंग थे।
सत्पटयेश्वर -
दधीचेश्वर के पूर्व
में मत्स्योदरी के तट पर स्थित।
उग्रेश्वर -
लक्ष्मी लिंग के पास। उसके दक्षिण में एक बड़ा कुंड था।
धनदेश्वर -
दधीचेश्वर के पश्चिम
में यहाँ कुवेर का बनवाया एक कुंड था जिसमें स्नान करने
से कुबेर का सन्निध्य प्राप्त होता था। यहाँ और
भी बहुत से लिंग थे।
करवीरक -
धनदेश के पश्चिम
में। उसके वायव्य कोण में मारीचेश्वर थे और आगे एक कुंड था।
मारीचेश्वर के पश्चिम में कुंड के तट पर इन्द्रेश्वर विराज
मान थे।
कर्कोटकेश्वर -
इंद्रेश्वर के दक्षिण
में नागराज कार्कोटक की एक वापी और कर्कोटकेश्वर का
मंदिर।
दृमिचंडेश्वर -
कर्कोटकेश्वर के पास ही दक्षिण की ओर। इनके दर्शन
से ब्रह्महत्या छूटती थी। यहाँ कौथुमि नाम
से पाशुपात सिद्ध ज्ञान प्राप्त करके रुद्रलोक गए। यह पश्चिमामिमुख
लिंग कुंड के उत्तर में था।
अग्नीश्वर
-
दृमिचंडेश्वर के पूर्व एक दीर्धिका के किनारे स्थित।
आम्रातकेश्वर -
अग्नीश्वर के पूर्व में उसके पास ही दक्षिण
में एक कुंड पर उर्वशीश्वर उपस्थित थे।
तालकर्णेश्वर -
उर्वशीश्वर के पास वहाँ और
भी बहुत से लिंग थे। मंदिर के पूर्व में एक कूप था।
चित्रेश्वर -
चण्डेश्वर के पूर्व।
कालेश्वर -
चित्रेश्वर के
समीप। यहाँ पिंगाक्ष नामक पाशुपात रहते थे जिन्होंने काल को
भी ठग लिया। यहाँ कालोदक नामक एक कूप
भी था। लगता है यहाँ शिवभक्त त्रिशूल का दाग
लेते थे। यहाँ पूजा जप, होम दीप प्रदान, धूपदान तथा जागरण की विधि थी। कालेश्वर के पास दक्षिण
में मृत्यु द्वारा स्थापित सर्व-रोग विनाशक एक
लिंग था तथा कूप के उत्तर भाग में दक्षेश्वर और कश्यपेश्वर के
मंदिर थे।
महाकाल -
दक्षेश्वर के पूर्व। यहाँ एक कुँड था जिसके किनारे अंतकेश्वर का
मंदिर था तथा उसी केपस शक्रेश्वर का। उसके दक्षिण
में मातलीश्वर थे। उनके आगे एक कुंड पर हस्ति पालेश्वर का
मंदिर था। हस्तीश्वर के पूर्व में विजयेश्वर का
मंदिर था।
बलिकुंड -
महाभारत कुंड के
उत्तर में यहाँ बलि ने शिव की आराधना की थी।
कृत्तिवासेश्वर -
काशी के प्रधान
शिवलिंगों में एक । कहानी है कि एक दैत्य हाथी का
रुप धारण करके शिव से लड़ा। उसे मार कर और उसका चमड़ा
उधेड़ कर शिव ने ओढ़ लिया उसी से उनका नाम कृतिवास पड़ा
लिंग पश्चिमामिमुख था। उसके उत्तर में
शक्रेश्वर, दक्षिण में मातलीश्वर तथा पूर्व में एक कूप था। वहाँ बहुत
से पशुपात रहते थे। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को फल, पुष्प,
भक्ष्य, दूध, मधु, तथा सरसों के साथ जल तथा हुडुंकार, नमस्कार, नृत्यगीत,
मुवाध स्रोत्र और मंत्र से उनकी पूजा होती थी। वर्ष के दूसरे महिने की चतुर्दशी को
भी उनकी पूजा विहित थी।
भृंगीशेश्वर -
इस
लिंग की स्थापना का श्रेय कविराज धन्वंतरि को दिया गया है। एक
मंदिर के आगे एक कूप था जिसमें वैद्यराज ने सब औषधियाँ
फेक दी थी इसी से इस कुएँ का नाम वैद्यनाथ पड़ा। विश्वास था कि इसका पानी पीने
से सब वयाधियाँ नष्ट हो जाती हैं। कूप के
उत्तर भाग में हरिकेश्वर लिंग था जिसके दर्शन
से भी रोग-मुक्ति की बात कही गयी है।
शिवेश्वर -
तुंगेश्वर के पास दक्षिण
में शिवतड़ाग था जिसके पश्चिम तट पर शिवेश्वर का
मंदिर था।
जमदग्नि
लिंग -
विश्वेश्वर के पास ही दक्षिण में
भैरवेश्वर -
जमदग्नि
लिंग के पास पश्चिम में। लिंग के पास ही नाचती हुई दुर्गा
मूर्ति थी। उसके उत्तर मे एक कूप था जिसके पश्चिम
भाग में शुक्रेश्वर का मेदिर तथा उत्तर
में एक तालाब था। नैत्र्र्कत्य कोण में एक
व्यासेश्वर का मंदिर और घंटाकर्णहृद, उसी के पास
उत्तर में पंचचूड़ा हृद थी। इस समय काल
भैरव मंदिर के पास स्थित है। प्रिंसेप ने इन्हें अमृतेश्वर
लिखा है। इसी को केन्द्र मानकर कालभैरव की स्थापना यहाँ हुई।
सरदार विचूरकर (पेशवा सेनाध्यक्ष) ने
वर्तमान कालभैरव मंदिर बनवाया स्थान कम था।
अतः छोटा ही मंदिर बन सका। भैरवेश्वर का नाम ही विस्मृत हो गया और
वे मकान न. के ३२/७ में जीर्ण-शीर्ण दशा
में स्थित है पास ही शीतला जी के नाम
से पूजित दुर्गाजी का छोटा और सुन्दर
मंदिर बन गया है।
मध्यमेश्वर -
मन्दाकिनी में स्नान करके मध्यमेश्वर के दर्शन
से रुद्रलोक की प्राप्ति होती थी। यहाँ
ब्रह्मणों, पाशुपतों तथा यतियों को भोजन कराना तथा स्नान, दान, तप, होम,
स्वाध्याय, तपंण, श्राद्ध और पिंडदान
फलदायक थे। मंदिर के दक्षिण भू-भाग
में विश्वदेव द्वारा स्थापित एक पूर्वामिमुख
लिंग था तथा पश्चिम में वीरभद्र द्वारा प्रतिष्ठित
शिवलिंग। दोनों के दक्षिण में भद्रकाली हृद था जिसके पूर्व में आपस्तम्बेश्वर तथा उसके
उत्तर में पुण्य कूप तथा उसके पश्चिम में
शौनक कुंड। शौनक कुंड के पश्चिम शौनकेश्वर और
उनके दक्षिण जम्बूकेश्वर, जिनके उत्तर में
शौनक द्वारा स्थापित मतङ्गेश्वर थे और वायव्य कोण
में मनुष्यों द्वारा स्थापित अनेक लिंग थे तथा दक्षिण
में जयन्तेश्वर, ब्रह्मतारेश्वर तथा याज्ञवल्वयेश्वर थे
और पास ही में लक्ष्मी का मंदिर है।
सीद्धकूट और सिध्देश्वर -
जयन्तेश्वर के दक्षिण
में सिद्धकूट था। यहाँ सिवपूजा में निरत सिद्ध और पाशुपात रहते थे।
उनमें से कुछ ध्यानरत रहते थे, कुछ जप करते थे, कुछ
स्वाध्याय करते थे और कुछ तप करते थे। कुछ आकाश
शयन करते थे तो कुछ अधोमुख होकर धूमपान करते थे और कुछ ने काष्ठमौन
ले रखा था। कुछ पूजा के लिए गण्डूक पुष्प चुनते थे।
सबके सब पूर्वामिमुख सिध्देश्वर की पूजा
में निरत रहते थे। लिंग के पश्चिम भाग
में एव वापी थी।
व्याध्रेश्वर -
सिद्धकूट के पूर्व
में वर्तमान बाधेवीर है।
स्वयम्भू -
व्याध्रेश्वर के दक्षिण में स्वयंभू लिंग था तथा वहीं उसके पूर्व ज्येष्ठ स्थान था जहाँ एक
लिंग था। उसके पश्चिम में पंचचूड़ा द्वारा स्थापित एक
लिंग था, दक्षिण में प्रहसितेश्वर थे और
उत्तर में निवासेश्वर। वहीं चतु: समुद्र नामक एक कूप था।
दण्डीश्वर -
चतु:
समुद्र कूप के उत्तर में तथा व्याध्रेश के दक्षिण
में। उसके उत्तर में तथा दण्डखात नामक एक तालाब था जिसमें स्नान करने
से पितृगण तर जाते थे। वहीं जैगीषव्येश्वर का
मंदिर और गुफा थी। उसके पश्चिम में सिद्धकूप, पूर्व में देवल और
शतकाल द्वारा प्रतिष्ठित लिंग तथा पश्चिम
में शातातपेश्वर थे।
हेतुकेश्वर
-
शातातपेश्वर के पश्चिम में। उसके दक्षिण
भाग में कणाद द्वारा स्थापित कणादेश्वर नामक पश्चिमामिमुख
लिंग तथा एक कूप था। कणादेश्वर के दक्षिण
में भूतीश का पश्चिमामिमुख लिंग था। उसके पश्चिम
में आषाढ़ नामक पश्चान्मुख चतुर्मुख
लिंग था तथा और भी बहुत से लिंग थे। उसके पूर्व में दैत्येश्वर थे जिनके दर्शन
से पुत्रलाभ होता थआ उसके दक्षिण में
भारभूतेश्वर थे।
जैमिनीश -
चित्रेश्वर के पश्चिम
में जैमनि द्वारा स्थापित। उसके आगे समन्त तथा और ॠषियों द्वारा स्थापित
लिंग थे। उनके दक्षिण कोने में बुधेश्वर का पश्चान्मुख
लिंग था। बुधेश्वर के वायव्य कोण के पास ही
में रावणेश्वर लिंग था। उसके पूर्व में एक चतुर्मुख
लिंग था।
वराहेश्वर -
रावणेश के दक्षिण में पूर्वामिमुख
लिंग। उसके दक्षिण में भी एक पूर्वामिमुख
लिंग था। उसके दक्षिण में दक्षिणाममिमुख गालेश्वर का
लिंग था। उसी के पास आयोग सिद्धि लिंग था।
वातेश्वर -
आयोग सिद्ध के दक्षिण
में, उसी के आगे सोमेश्वर का पश्चान्मुख
लिंग था। उसी के नैत्र्र्कत भाग में अंगारेश्वर पूर्वमुख
लिंग था उसके पूर्व में कुक्कुटेश्वर तथा उसके
उत्तर में पाण्डवों द्वारा स्थापित पाँच
लिंग थे। उन्हीं के बीच संवर्तेश्वर थे।
श्वेतेश्वर -
संवर्तेश्वर के पश्चिम में पूर्वामिमुख
लिंग।
कलशेश्वर -
श्वेतेश्वर के पश्चिम में कलश से उत्थित
लिंग। इसकी उत्पत्ति श्वेत मुनि के कलश
से बतलायी गयी है। इसके दर्शन से जन्म जरा और
मृत्यु से मुक्ति मानी गयी है।
चित्रगुप्तेश्वर -
कलशेश्वर के
उत्तर में चित्रगुप्त द्वारा स्थापित लिंग। उसके पश्चिम
में छाया द्वारा स्थापित छायेश्वर और उसके पश्चिम
में विनायक की मूर्ति। विनायक के पूर्व में एक कुंड था और दक्षिण
में एक कूप। विश्वनाथ मंदिर के बाहर
शनैश्चर मंदिर के पास अरघे बिना का
(गु) विरुपाक्ष का पश्चान्मुख लिंग है और
मंदिर में विरुपाक्ष का पश्चान्मुख लिंग है और
मंदिर में विरुपाक्षी गौरी है
गुहेश्वर -
कलशेश के दक्षिण
में। उसके दक्षिण पार्श्व में उत्तमेश्वर और
वायदेव थे। उसके पश्चिम में कंबलाश्वतराक्ष गंधर्व द्वारा स्थापित
लिंग था। नलकूबेरेश्वर भी वहीं थे।
मणिकर्णी देवी -
नलकूबेरेश्वर के दक्षिण
में। उसके आगे एक कंड में मणिकर्णिश्वर का
मंदिर था। उसके उत्तर में परमेश्वर थे और और उसके पास ही धपंराज दावारा स्थपित
लिंग। उसके पश्चिम में निर्जरेश्वर थे जिनके दर्शन
से सब व्याधियाँ नष्ट हो जाती थी। निर्जरेश्वर के नैत्र्र्कत्व कोण
में नंदीश्वर थे जहाँ पिंडदान का महत्व था।
वारुणेश्वर -
नदीश्वर के दक्षिण में। उसके दक्षिण में दैत्यराज बाण द्वारा स्थापित लिंग था। काशीखण्ड में उन्हें करुणेश्वर कहा है। वर्तमान विश्वनाथ मंदिर के दंडपाणि के बगल के मकान में मंदिर है।
कूष्मांडेश्वर -
वाणेश्वर के दक्षिण में। उसके पूर्व में राक्षस द्वारा प्रतिष्ठित शिवलिंग तथा दक्षिण में गंगा द्वारा स्थापित गंगेश्वर थे।
गंगातीर के लिंग -
गंगेश्वर के उत्तर में वैवस्वतेश्वर, उसके पश्चिम में आदित्यों द्वारा स्थापित लिंग, उसके आगे वज्रेश्वर, कनकेश्वर का छाया लिंग, उसके आगे तारकेश्वर और कनकेश्वर थे।
मनुजेश्वर -
कनकेश्वर के उत्तर में मुखलिंग था, और उसके आगे इन्द्र द्वारा स्थापित शिवलिंग तथा उत्तर में शची द्वारा स्थापित लिंग थे। शचीश्वर के उत्तर भाग में लोकपाल देव, असुर, मरुत, यक्ष, नाग गंधर्व, किन्नर तथा अप्सराओं द्वारा स्थापित लिंग थे। धक्षिण में फाल्गुनेश्वर तथा महापाशुपतेश्वर थे।
समुद्रेश्वर -
महापाशुपतेश्वर के पश्चिम में समुद्र द्वारा स्थापित लिंग। समद्रेश्वर के दक्षिण में ईश्मनेश्वर तथा उनके पूर्व में लंगलीश्वर थे। वही नकुलीश का पूर्वामिमुख लिंग चार पुरुषों से युक्त था।
अविमुक्तेश्वर -
इस लिंग के बारे में एक कथा दी हुई है। एक समय जव अविमुक्तेश्वर का लिंग राक्षस आका मार्ग से लेजा रहे थे, लिंग सोचने लगा कि विना अविमुक्त के उसकी गति संभव नहीं है। इतने में उस प्रदेश के कुकड़ूँ-कूँ की आवाज आयी, जिसे सुनकर राक्षस लिंग छोड़कर भागे और इसका नाम अविमुक्त पड़ा। उस दिनों भी उस मंदिर में कुक्क़कटों की पूजा होती थी। मंदिरो के दक्षिण भाग में एक वापी थी उसके जल की पश्चिम में दंडपाणि रक्षा करते थे, पूर्व में तारक उत्तर में नदीश और दक्षिण में महाकाल थे। उपर्युक्त वापी ज्ञानवापी ही है। अविमुक्तेश्वर शिवायतन का वही स्थान है जहाँ औरंगजेब की ज्ञानवापी वाली मस्जिद है। आजकल अविमुक्तेश्वर के दो शिवलिंग है। एक तो विश्वनाथ जी के वर्तमान मंदिर में आग्नेय कोण के छोटे मंदिर में और दूसरा मस्जिद की सीढियों के सामने धर्मशाला में खिड़की के भीतर का बड़ा शिव लिंग।
प्रीतकेश्वर -
अविमुक्तेश्वर के आगे पश्चन्मुख लिंग। अविमुक्त के उत्तर में मोक्षेश्वर थे। उसके उत्तर में वरुणेश्वर का चतुर्मुख लिंग था। यह साक्षी विनायक के पीछे खण्डहर में है।
स्वर्णाक्षेश्वर -
वरुणेश्वर के पूर्व में मुखलिंग उसके उत्तर में गौरी, दक्षिण में निकुंभ तथा पश्चिम में विनायक थे।
विजय - निकंभ के पूर्व में। इसके दक्षिण में शुक्रेश्वर, उत्तर में देवसानी द्वारा स्थापित लिंग उसके आगे कच द्वारा स्थापित लिंग जिसके पास ही एक कूप था। पूर्व में अनर्केश्वर और गणेश्वर थे । विजय तथा निकुंभ विश्वनाथ मंदिर में है।
रामेश्वर -
उसके दक्षिण में त्रिपुरान्तक और दात्रात्रेय द्वारा प्रतिष्ठित लिंग, पश्चिम में हरिकेशेवर
और गोकर्णेश्वर थे। उत्तर में तड़ाग था जिसके पश्चिम तट पर देवेश्वर थे और उनके सामने एक कुण्ड।
पिशाचेश्वर -
देवेश्वर के उत्तर में, ध्रुवेश्वर के आगे पश्चिमामिमुख लिंग कुंड के तीर पर था जिसका नाम वैद्यनाथ था। वैद्यनाथ के नैत्र्र्कत्व कोण में मनु द्वारा स्थापित शिवलिंग वैद्यनाथ के पूर्व में प्रियव्रतेश्वर और दक्षिण में मुचुकुंदेश्वर थे तथा निकट में गोतमेश्वर और उनके दक्षिण में विभांडेश्वर थे।
ॠष्य
श्रृंगेश्वर -
विभांडेश्वर के दक्षिण में, पूर्व में ब्रह्मेश्वर जिनके कोण में पिशाचेश्वर और पास ही में पश्चिमामिमुख पर्यन्येश्वर।
नहुषेश्वर -
पर्यन्येश्वर के पूर्व में, उसके पूर्व में विशालाक्षी, दक्षिण में जरासंधेश्वर का चतुर्मुख लिंग और ललितका देवी।
पराशरेश्वर -
व्यासेश्वर के पूर्व में। उसके सामने अत्रि द्वारा स्थापित एख लिंग
था।
शंखलिखित -
व्यासेश्वर के पूर्व में शंख और लिखित द्वारा स्थापित दो शिव
मंदिर।
विश्वेश्वर -
इनके तथा पाशुपात व्रत से फल मिलता था। उस मंदिर के पूर्वोत्तर में अवधूत तीर्थ था। असली विश्वेश्वर मूल विश्वनाथ यही हैं। इस मंदिर को ध्वस्त करके सजिया मस्जिद बनी, उसी के बगल में यादगार रुप में महाराज जयसिंह ने वर्तमान मंदिर बनवा दिया। आज भी यह आदि विश्वेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है और स्पर्श दोष से मुक्त है। वर्ष में एक दिन नगर की वेश्याएँ रात भर नाचती-गाती हैं।
पशुपतीश्वर -
अवधूत तीर्थ से लगा हुआ पूर्व में पश्चिमामिमुख चतुर्मुख लिंग। उसके दक्षिण भू-भाग में गोमिल ॠषि द्वारा स्थापित मंचमुख शिवलिंग था तथा पश्चिम में विद्याधर पति जीमूत वाहन द्वारा स्थापित
शिवलिंग।
गभस्तीवर -
सूर्य द्वारा स्थापित पश्चान्मुख लिंग। उसके दक्षिण में दधिकर्णऊद तथा उत्तर में एक कूप जिस पर दधिकर्णेश्वर का मंदिर
था।
ललिता -
गभस्तीवर के दक्षिण वरुण कोण में उत्तरामिमुखी देवी है जिन्हें अब मंगला गोरी कहते है। यहाँ लोग जागरण करते थे, घर बनवाते थे, मूर्ति के आगे दीपदान करते थे, झाड़ू लगाते थे तथा ब्राह्मणों औ ब्राह्मणियों को भैजन कराते थे। वही मुखप्रेक्षणिका की मूर्ति थी जिसकी माघ मास की चतुर्थी को उपवास रख कर पूजा होती
थी।
वृत्तेश्वर -
मुखप्रेक्षा के उत्तर में। यहाँ त्रिरात्री का फल
था।
चर्चिका -
ललिता के उत्तर में। उसके आगे रेवन्त द्वारा स्थापित पूर्वामिमुख लिंग था। उसके आगे पश्चान्मुख पंचनदीश्वर थे। ललिता से लगा पूर्व में एक कूप था और उसके दक्षिण में पंचनद तीर्थ था। यहाँ पर उपमन्यु द्वारा स्थापित अनेक मुखों वाला लिंग था उसी के पास पश्चिम में व्याध्रपाद द्वारा प्रतिष्ठित लिंग
था।
विश्वकर्म और दूसरे लिंग -
गमस्तीश्वर के
आगे।
हरिश्चंद्रेश्वर -
पश्चिम में नैत्र्र्कतेश्वर उनके दक्षिण में अंगिरसेश्वर, उनके दक्षिणक्षेमेश्वर तथा चित्रांगेश्वर सइवलिंग थे। केदार के दक्षिण में नीलकंठ उनके वायव्य कोण में अम्बरीषेश्वर और उनके दक्षिण कालंजर। कालं के दक्षिण में
लोलार्क।
दुर्गा देवी -
लोलार्क के पश्चिम में।
असितेश्वर
-
दूर्गा के पश्चिम में वहीं अस्सी (शुष्क नदी) के नाम से शुष्केश्वर का मंदिर था। उसके पश्चिम में जनकेश्वर, उत्तर में शंकुकर्णेश्वर तथा एक कंड पर स्थित
सिध्देश्वर।
मंडव्येश्वर -
शंकुकर्णेश्वर के वायव्य कोण में उनके समीप गणों से धिरे हुए स्वयं भगवान् सदाशिव तथा पार्वती क्षेत्र के द्वार की रक्षा करते हैं। इन्हें द्वारेश्वर और द्वारेश्वरी कहते हैं। उनके उत्तर में एक मुखलिंग तथा उसके उत्तर में छागलेश्वर, वहीं पश्चिम में कपर्दीश्वर और उनके पास ही अंगारेश्वर तथा अंगारेश्वर तड़ाग था। उसके दक्षिण में मुकुरेश्वर तथा मुकुरेश्वर कुंड और उसके पास समीप
छागलेश्वर।
वाराणसी के लिंगों की इतनी विशद व्याख्या के बाद लिंग पुराण का कहना है कि वहाँ असंख्य लिंग है जिनका वर्णन करना असंभव है, केवल इतने ही सिद्ध लिंगों, कुपों, छदों, वापियों, नदियों का वर्णन कर दिया गया जिसके स्पर्श से ही मुक्ति मिलती है।
चतुर्दशायतन -
यात्री वरणा में स्नान पहले शैलेश का दर्शन करता था। संगम पर स्नान और संगमेश्वर का दर्शन, स्वर्लीन में स्नान और सवर्लीनेश्वर का दर्शन, मंदाकिनी में स्नान और मध्यमेशवर का दर्शन हिरण्यगर्भ में स्नान और ईश्वर का दर्शन, मणिकर्णी में स्नान और ईशानमीश्वर का दर्शन, कूप जल स्पर्श करके गोप्रेक्षमीश्वर का दर्शन, कपिलहृद में स्नान करके वृषभध्वज का दर्शन, उसके बाद उपशांत के कूप में जल स्पर्श तथा दर्शन पंचचूड़ाहृद में स्नान तथा ज्येष्ठश्वर का अर्चन पूजन, चतु: समुद्र कूप में स्नान, देवी की पूजा तथा उसके आगे के कूप का जल स्पर्श तथा शुध्देश्वर का दर्शन, दंडखात में स्नान तथा व्याडेश की पूजा, शौनकेश्वर कुँड में स्नान तथा जंवुकेश्वर की पूजा कृष्ण चतुर्दशी से लेकर प्रतिपदा तक होती थी।
अष्टायतन -
अग्नीश्वर (योगेश्वर), उर्वशीश्वर, लांगलीश, आषाढ़ीश, भारतभूत, त्रिपुरांतक, नकुलीश, त्र्यंबक।
पंचायतन -
शिव का कहना है उन्हें पंचायतन, जो वाराणसी के उत्तर में स्थित था बहुत प्रिय था यहाँ भस्मनिष्ठ एकांतवासी ब्राह्मण रहते थे। इनमें ओंकार की मूर्ति की मूर्ति दिव्य थी। अविमुक्त स्वर्लीन और मध्यमेश्वर को त्रिकंटक कहा गया है। ईश्वर के षडंग है - अविमुक्तेश्वर, स्वर्लीनेश्वर, ओंकारेश्वर, चण्डेश्वर, मध्यमेश्वर, तथा कृत्तिवासेश्वर। इनकी दर्शन यात्रा ही षंडग यात्रा कही गयी है। यथा -
चैत्र मास में कामकुंड में स्नान और पूजन वैशाख मास में विमलेश्वर कुंड में स्नान और पूजन, ज्येष्ठ मास में रुद्रवास कुंड में स्नान और पूजन, आषाढ़ में श्रीकुंड में स्नान और पूजन, श्रावण में लक्ष्मी कुंड में स्नान और पूजन, कार्तिक में कपिलहृद और मार्कडेयहृद में स्नान और पूजन, मार्गशीर्ष में कपालमोचन में स्नान और पूजन, पौष में गुहाकों की यात्रा, तथा धनदेश्वर कुंड में स्नान तथा माघ में कोटित्तीर्थ में स्नान और पूजन। फाल्गुन में गोकर्ण कुण्ड में स्नान और पूजन, फाल्गुन १४ को पिशाती चतुर्दशी पड़ती थी। इस याक्षा का निष्क्रय मिष्टान्न तथा उदकमांड का दान करने से हो जाता
था।
गौरी पूजा -
फाल्गुन शुक्ल तृतीया के दिन स्नान के वाद गोप्रेक्ष का दर्शन, मुखनिर्मालिका गौरी का दर्शन, उसके बाद कालिका देवी की पूजा, ज्येष्ठ स्थान में ज्येष्ठा गौरी और अविमुक्तेश्वर के उत्तर में ललिता की पूजा। ललिता के स्थान में ब्राह्मण भोजन, वस्र तथा
दक्षिणा।
विनायक -
काशीखण्ड में ७१ विनायकपीठों का उल्लेख है तथा कृत्यकल्पतरु में उद्धृत प्राचीनलिंगपुराण में ९ गणपतिपीठों का, जिनमें पाँच को विध्नकर्त्ता कहा है विनायकन् प्रवक्ष्यामि अस्य क्षेत्रस्य विध्नदान् (कृ. क. त., पृ. १२६)। परन्तु क्षेत्र की रक्षा करने का अर्थ ही है पापकर्मा लोगों के काशी वास में विध्न करके उनको क्षेत्र से भगाने का उपक्रम, अतएव उसमें कोई विशेषता नहीं समझ
पड़ती।
ढुण्ढिराज तो प्रख्यात ही हैं। गोप्रेक्षेश्वर के उत्तर अनसूयेश्वर के आगे गणेश्वर का उलेलेख है। काशी खण्ड में इनको 'सिद्ध विनायक' कहा गया है, परन्तु इनका स्थान इस समय कहाँ पर है, यह दृढ़तापूर्वक नहीं कहा जा सकता, कारण गोप्रेक्षेश्वर स्वयं ही अपने स्थान से हटकर लालघाट पर आये है, संभवत यही राजपुत्र विनायक है। कोण विनायक के स्थान पर 'किलविनायक' अथवा 'कीलविनायक' का पाठभेद भी मिलता है। परन्तु इनका स्थान-निर्देश न होने से इनका पता ठिकाना नहीं लग पाता। यही बात 'देव्या: विनायक' तथा 'सिन्दूर या सिन्दूर्य विनायक' (ती. चि., ३६५) के संबध में भी है।
इन पाँच विनायकों के अतिरिक्त चार अन्य विनायक पीठों का उल्लेख 'कृत्यकल्पतरु' में मिलता है
१. अमरक हृद (काशीखण्ड में अनारक हृद) वर्तमान अमरैया तलाब के दक्षिण विनायककुण्ड के तट पर विनायकपीठ, जिनको काशीखण्ड में विध्नहर्त्ता गणेश कहा गया है। ये इस समय लुप्त है।
२. कृत्तिवासेश्वर के समीप स्वयम्भूत विनायक जो इस समय वृद्धकाल के शिवलिंग के दक्षिण में हैं। इनका नाम काशीखण्ड में नहीं है।
३. कलशेश्वर के निकट चित्रगुप्तेश्वर के वायव्य कोण में। इनका नाम भी काशीखण्ड में नहीं है और न इनका वर्तमान ठिकाना ही जान पड़ता है।
४. अविमुक्तेश्वर के दक्षिण निकुम्भ के पास वर्तमान विश्वनाथ-मंदिर के वायव्य कोण में पार्वती देवी के मंदिर में। पुरानी मूर्ति के खम्डित हो जाने पर अभी दो-चार वर्ष पूर्व एक सुन्दर संगमरमर की गणेश जी की मूर्ति स्थापित हुई हऐ। काशीखण्ड में इनका नाम विध्ननायक गणेश तथा यही स्थान बतलाया गया है।
इस प्रकार काशीखण्ड तथा लिंगपुराण में सब मिलकर विनायक पीठों का नामांकन हुआ है। इनमें ९ के विषय में ऊपर कहा जा चुका है। काशीखण्ड के अनुसार काशी क्षेत्र की रक्षा के लिए आठों दिशाओं में विनायकों के सात आवरण हैं। इस प्रकार, ५६ अन्य विनायकों का विस्तृत स्थान-निर्देश वहाँ मिलता है और आज भी इन ५६ विनायकों की यात्रा होती है। अतएव, उन सबके वर्तमान स्थान भी स्पष्ट रुप से जाने हुए है। परन्तु इनमें कहीं-कहीं भ्रम भी होने लगा है। कुछ भ्रम भक्त लोगों के द्वारा नाम बदलने से होने लगे, कुछ मंदिरो की तोड़-फोड़ के कारण उत्पन्न हुए है। वक्रतुण्ड विनायक का नाम सरस्वती विनायक ही अधित प्रसिद्ध है। चित्रधण्ट विनायक के दो मंदिर है। स्थूल जंधविनायक के स्थान के संबंध में भी गड़बड़ी हो गई है कुछ लोग स्थूल जंध का भी पूजन चित्रधण्ट विनायक के एक मंदिर में करते हैं। चित्रधण्ट विनायक का जो मंदिर जगन्नाथ दास बलभद्रदास की दूकान के सामने है, वह भी ठीक है और रानी-कुआँ पर जो मंदिर है उसमें चित्रधण्ट विनायक तथा स्थूल जंधविनायक दोनों की स्थापना किसी समय हुई थी। यद्यपि स्थान वहाँ पर स्थूल जंध विनायक का ही था। स्थूलजंध की प्राचीन प्रतिमा राजादर बाजे के पास आषाढ़ीश्वर में है। प्राचीन काशीखण्ड में मित्र विनायक का नाम नहीं था, जैसा त्रिस्थाली सेतु तथा वीर मित्रादय से स्पष्ट है। तदनुसार ५६ विनायक थे। आधुनिक संस्करणों में छठे आवरण में मित्र विनायक के सम्मिलित कर दिये जाने से वहाँ ९ विनायक हो जाते है।
इसके अतिरिक्त ११ और विनायकपीठ है, जिनका विवरण इस प्रकार है।
१. ढुण्ढि़राज विनायक : इनका प्रख्यात नाम ढुण्ढि़राज है और विनायकों में इनका सर्वोपरि महत्व है -
प्रथम ढुण्ढि़राजोऽसि मम दक्षिणतो मनाक्।
आढुण्ढ्यसर्वभक्तभ्यः सर्वार्थान्सम्प्रयच्छति।।
(काशी खण्ड, ५७/४३)
माघ शुक्ल चतुर्दशी को इनकी वार्षिक यात्रा होती है, यद्यपि भक्त लोग प्रत्येक चतुर्थी को विशेष
दर्शन-पूजन करते हैं। यह सिद्धपीठ है जहाँ गणपति-मंत्रों की सिद्धि अल्पप्रयास से हो जाती है। काशी के प्रधान पीठों में इनकी गणना सर्वप्रथम होती है।
२. हरिश्चन्द्र विनायक : संकठाघाट पर हरिशचन्द्र मण्डप से सटे हुए मकान न. सी. के. ७/१६५ में।
३. कपर्दि विनायक : पिशाचमोचन पर।
४. बिन्दु विनायक : बिन्दुमाधव मंदिर में।
५. भगीरथ विनायक : मणिकर्णिका के दक्षिण करुणेश्वर के समीप लाहौरी टोले की गली में।
६. सेना विनायक : हरिश्चन्द्र मण्डप के सामने छोटी मंदिर में।
७. सीमा विनायक : सेना विनायक के ही मंदिर में ये मणिकर्णिका की उत्तरी सीमा पर है।
८. चिन्तामणि विनायक : वहीं सामने वामदेव मंदिर के द्वार पर।
९. महाराज विनायक : प्रसिद्ध बड़े गणेश।
१०. मित्र विनायक : आत्मावीरेश्वर में।
११. मण्ड विनायक : महालक्ष्मीकुण्ड के उत्तर मकान न. डी. ५२/३८ में।
इन सब के अतिरिक्त साक्षी विनायक है, जिसका स्पष्ट नामांकन काशीखण्ड में नहीं है, परन्तु यात्रा में उनका दर्शन-पूजन अनिवार्य माना जाता है।
१. क्षेत्ररक्षक चडिकाएँ -
दक्षिण में दूर्गा के नैर्क्रंत में उत्तरेश्वरी, पश्चिम में अंगारेशी वायव्य में भद्रकाली, उत्तर में भीष्मचंडी तथा महामुंडा। ऊर्ध्वकेशी और शांकरी सब जगह थीं तथा चित्रघंटा मध्य
में। वाराणसी में शिवलिंगों को उपर्युक्त वर्णन में तीर्थ माहात्म्य के सिवा और भी बाते आयी है जिनसे तत्कालीन वाराणसी के शैवधर्म पर प्रकाश पडता है। लिंगों की स्थापना का श्रेय तो अधिकतर देवी देवताओं, किन्नरों, राक्षसों, अप्सराओं, ॠषियों इत्यादि को दिया गया है पर लिंग पुराण में अनेक ऐसे उल्लेख है जिनमें वाराणसी के पशुपत सिद्धों के नाम आये है। वरणेश्वर के मंदिर मे पाशुपत अश्वपाद को सिद्ध मिली, तथा विमलीश के सान्निध्य में पाशुपत सिद्ध त्र्यंबक को। कपिलेश्वर के नीचे एक गुहा थी जिसमें संभवतः पाशुपतगण तप करते थे। उछालकेश्वर के आस-पास वाष्कलि और पाशुपत भाव सिद्ध रहते थे तथा अरुणीश के पास योग सिद्ध। पाशुपतों की दृष्टि से कपिलेश्वर का मंदिर विशेष महत्व का था। कपिलेश्वर के आसपास कौस्तुभ और सावर्णि को सिद्धि मिली। उसी के नीचे श्रीमुखी नाम की गुहा थी जिसमें पाशुपत रहते थे। यहाँ पाशुपत आघोर को सिद्धी मिली दृमिचंडेश्वर के सान्निध्य में पाशुपत कौथुमी को ज्ञान प्राप्त हुआ। कालेश्वर के पास पिंगाक्ष नामक पाशुपत रहते थे। कृत्तिवासेश्वर पाशुपतों का अड्डा था। सिद्धकूट में पाशुपत जप-तप में निरत रहते
थे।
कोटीश्वर की आग्नेय दिशा में श्मशान स्तंभ था। यहाँ मनुष्य अपने दुष्कर्मों का फल पाते थे। कालेश्वर में शिवभक्त त्रिशुल का दाग लेते थे तथा अविमुक्तेश्वर के मंदिर में कुख्कुटों की पूजा होती थी। वाराणसी में अग्निपात का तो अनेक बार उल्लेख हुआ है। १९वीं सदी तक यह क्रिया वाराणसी में विद्यमान थी। लक्ष्मीधर ने इस अग्निपात विधिपूर्वक वर्णन किया है। वायु पुराण के अनुसार जो ब्राह्मण निम्नलिखित मंत्र का ध्यान करके अग्नि प्रवेश करता था उसे रुद्रलोक की प्राप्ति होती
थी।
त्वमग्ने रुद्रस्तवं सुधामहोदधिस्तवं सर्वे मारुता: क्षित्रमीयिरे,
त्वं वातैर्यासि सगरीयस्त्वं प्रस्थिमायीरुपः पातयन माम्।
देवी पुराण के अनुसार अग्निपात के पहले शिवरुप भैरव की भैरव की पूजा होती थी तथा भैरव का पटचित्र बनाया जाता था। उनकी पचीस भुजाएँ होती थीं जिनमें खड्ग, खेटक, शूल, चक्र, गजचर्म, खटवांग, वज्र तथा डमरु होते थे। वे दन्तुर और त्रिलोचन होते थे और नाना शिव और शिवाओं से घिरे होते थे। नाग राज छुरी की जगह, वासुकीन उपवीत की जगह, जटाबन्ध में कुटिल तथा कंकण की जगह शंखपाल होते थे। तक्षक और पद्मराग के चूर का काम देते थे और पद्म और कर्कोटक इनके दोनों ओर गजमुख और हस्तिमुख वाले शूलधारी पुरुष होते थे और दो आयुध पुरबषों में एक के हाथ में कपाल और शूल दूसरे के हाथ में उत्पल और अंकुश होते थे। ब्रह्मा और विष्णु उनके सेवक होते थे और उनका रुप अंधकासुर जैसा होता था। उसकी पूजा करने के बाद वीर आठ प्रकार से अपने को अग्नि में होम देता था - १. पतंगपात - इसमें पतिंगे की तरह वीर आग में गिरता
था।
२. हंसपात - हंस की तरह दोनों बगले सिकोड़ कर
अग्निपात।
३. मृगपात - मृत जैसे समपाद होकर अंधे गढ़े को पार करता है।
४. मुसल - जैसे ओखल में मूसल गिरता है।
५. विमानपात - विमान के तरह अग्निपात करता
था।
६. शाखापात - पेड़ की लता के भात अग्नि मे गिरता
था।
७. वृषपात - वृष की तरह हंकारते हुए
अग्निपात।
८. सिंहपात - जैसे सिंह गजेन्द्र को मार कर तनता है, उसी तरह तनकर अग्निपात करना।
स्रियों को भी अग्निपात का अधिकार था। यह भी कहा गया है कि भैरेव, वैष्णव के अस्थि की माला तथा शांभव कंबुक धारण करते थे। इनकी प्रतिमाएँ चित्रित होती थी अथवा धातु काष्ठ, अथवा रत्नों से बनी होती थीं। इनकी पूजा घर, पर्वत, नदी और विंध्याचल के सान्निध्य में विहित थी। इनके लिए मठ, कूप और आरामशाला वनवाये जाते
थे।
१. एलिएट एण्ड डाउसन : हिस्ट्री आॅफ इण्डिया, जिल्द २, पृष्ठ २२२।
२. शेकिंरग : दि सेक्रेड सिटी आॅफ हिन्दूज, पृ. ३१।
३. शेकिंरग : दि सेक्रेड सिटी आॅफ हिन्दूज, पृ. ३२।
४. डा. काशी प्रसाद जायसवाल : हिस्ट्री आॅफ इण्डिया, १५० ॠ.D. से ३५० ॠ.D., पृष्ठ ५।
५. किरणा, धूतपाता च, पुण्यतोया सरस्वती।
गंगा च यमुना चैव, पंच नद्य :पुनातु माम्।
६. स्कन्दपुराण, काशी खण्ड, अध्याय ८३ और ८५।
७. आचार्य बलदेव उपाध्याय : काशी की पाण्डित्य परम्परा, पृ. ८१।
८. यथा प्रियतमा देवि मम त्वं सर्व सुन्दरी।
तथा प्रियतरं चैतन् में सदानन्द का ननम् ।।
स्कन्द पुराण, काशी खण्ड ३२/१११।
९. लक्ष्मीघर : कृत्यकल्पतरु, तीर्थ विवेचन कांड बड़ौदा, १९४२।
१०. श्रीआयंगर : कृत्यकल्पतरु, तीर्थ विवेचन कांड बड़ौदा, ४३।
डा. मोती चन्द्र : काशी का इतिहास, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, १९८५, पृ. १५७-१७६
पं. कुबेरनाथ सुकुल : वाराणसी वैभव, बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद् पटना १९७७, पृष्ठ ३२-३९
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