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भारतीय चित्रकला के उज्जवल इतिहास की शुरुआत भित्ति चित्रों से ही आरम्भ होती है। आदि मानव ने सर्वप्रथम अपनी अभिव्यक्ति के लिए जिन साधन अथवा फलक को चुना वह गुफाओं की भित्तियाँ थीं, जिन पर उसने गेरु अथवा कोयले के द्वारा कला को निरुपित किया। स्पेन, फ्रांस, दक्षिण रोडेशिया, पेरु, अलास्का, लौसेक्स तथा भारत आदि विविध देशों में आदिम युग की ऐसी चित्रांकित गुफाएँ प्राप्त हुई हैं, जिनका समय विद्वानों ने पचास हजार ई. पूर्व से दस हजार ई. पूर्व के बीच स्वीकार किया है। भारत में इस प्रकार के चित्र मिर्जापुर, मानिकपुर, सिघनपुर, होशंगाबाद, रायगढ़ क्षेत्र पंचमढ़ी, भोपाल, रायसेन, ग्वालियर आदि विविध क्षेत्र में स्थित गुफाओं की भित्तियों पर देखे जा सकते हैं। इन चित्रों का निर्माण मुख्यत: खनिज रंगों यथा-गेरु, रामरज, हिरौजी, कोयला आदि के माध्यम से सम्पन्न हुआ है। इन चित्रों में पर्याप्त सृजनात्मक अभिव्यक्ति, मौलिक उद्भावना, अन्त: सौन्दर्य बोध रचना कौशल और निजी वैशिष्ट्य उपलब्ध है जो उनके निश्चित गौरव के प्रमाण हैं।१
भारत की इस समृद्ध भित्ति चित्रकला परम्परा का रुप, जोगीमारा, अजन्ता, बाघ, वादामी, सित्तनवासल, एलोरा, एलीफेण्टा, कार्ले, भाजा व पीतलखोरा की गुफाओं में उपलब्ध है। इन गुफाओं में चित्रण का कार्य मौर्य, शुंग, कुषाण गुप्त आदि अनेक राजवंशों के राज्य काल (२०० ई. पूर्व से ७०० ई. तक) सम्पन्न हुआ। दुनिया के किसी भी क्षेत्र में इनके मुकाबले चित्र नहीं बने। मध्ययुगीन भारत से जितना भा कला निर्माण हुआ, उनमें भी उतनी सर्वांगीणता एवं स्वाभाविकता परीलक्षित नहीं होती है। चित्रों के निर्माण में नि:सन्देह मुगलों के कमाल की निपुणता हासिल की थी, किन्तु भारतीय भित्ति चित्रों की तुलना में वे भी न्यून हैं।२
भारतीय चित्रकला के संदर्भ में नवीं सदी के पश्चात भित्तिचित्रों का स्थान छोटे-२ लघु चित्रों-ताड़पत्र, भोजपत्र, अगरुबत्कल, पटचित्र, काष्ठ-फलक आदि ने ग्रहण कर लिया। १४वीं शती में कागज के प्रचलन के फलस्वरुप-कागज की पोथियों का पर्याप्त विकास हुआ, चूँकि, भित्ति की अपेक्षा कागज पर चित्रण कार्य बड़ी सुगमता से होता था, अत: भित्ति चित्रों का स्थान पन्द्रहवी सदी तक पूर्ण रुप से कागज की पोथियों ने ग्रहण कर लिया। अत: अब भित्ति चित्रण कार्य लगभग पतनोन्मुख हो गया था-सिर्फ महलों, मंदिरों तथा हवेलियों की सजावट हेतु मुगल सम्राटों तथा हिन्दू शासकों ने भित्ति चित्रों की परम्परा को कायम रखा। इनमें महाराणा कुम्भा के राज्य काल (१४४३-१४६४ ई.) में निर्मित कुंभलगढ़ के भित्ति चित्र, चितौड़ दुर्ग में भामाशाह के हवेली के चित्र, नाथद्वारा, जैसलमेर, जोधपुर, जयपुर तथा उदयपुर के किलों में स्थित भित्ति चित्र एवं अकबर कालीन फतेहपुर सीकरी के राज प्रसादों के दीवारों तथा छतों पर बनाए गए पशु-पक्षी, वृक्ष तथा मनुष्यों की आकृतियों में एक प्रकार की गतिशीलता दिखाई देती है, जो अन्य समय के चित्रों की तुलना में दुर्लभ है।३ भित्ति चित्रों की अविच्छिन्न परम्परा का उल्लेख भारतीय साहित्यिक ग्रन्थों में भरा पड़ा है।
ॠग्वेद४ में चर्म पर अग्निदेव के चित्र को अंकित किए जाने का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त अन्य कई स्थानों पर भी चित्रों का उल्लेख किया गया है।५ इसी प्रकार भित्ति चित्रों का उल्लेख रामायण६, महाभारत७, भरत के नाट्यशास्र८, कालीदासकृत रघुवंश९, एवं मेघदूत आदि ग्रन्थों में, हर्षचरित१०, वात्सयायन के कामसूत्र११, नेषध चरित१२, हरिवंश पुराण१३, आग्निपुराण, मत्स्यपुराण१४, पद्मपुराण, जैन१५ एवं बौद्ध कृतियों१६, में मिलते हैं। इस प्रकार उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट है कि भारत में भित्ति चित्रों की परम्परा अति प्राचीन है। जो भारतीय कला में भित्ति चित्र कला परम्परा की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं जिसका निर्वाह वाराणसी की
भित्ति चित्र कला परम्परा में भी किया गया है। वाराणसी भारत की सांस्कृतिक राजधानी है, अत: यहाँ की कला में सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति को एक साथ देखा जा सकता है। यहाँ घर-घर, गली-गली भित्ति चित्रों का अंकन विद्यमान है। वाराणसी को यह पुरातन भित्ति चित्र कला परम्परागत कला शैलियों को अपने में समाहित किए हुए लोकजीवन के काफ़ी सन्निकट है। इन चित्रों में वाराणसी की स्थानीय विशेषताओं के साथ-साथ अजन्ता परम्परा के नयनाभिराम चित्रों का आभास सहज में ही मिल जाता है; साथ ही साथ स्थानीय लोककला, राजस्थानी, मुगल, पहाड़ी एवं कम्पनी शैली के समन्वयात्मक स्वरुप का साक्षात्कार यहाँ के भित्ति चित्रों में दृष्टव्य है। यही इन चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता है।
यद्यपि वाराणसी के
सांस्कृतिक उत्थान की कहानी मानव के विकास के
साथ ही प्रारम्भ होती है। लेकिन सारनाथ और
राजघाट की खुदाई के पूर्व बनारस की कला का क्या
स्वरुप था, इसका कोई भी विवरण हमें नहीं प्राप्त होता है। कला इतिहासकारों ने आज तक "वाराणसी
शैली" का नामकरण अलग से नहीं किया है, जबकि "सारनाथ और
राजघाट" की खुदाइयों से प्राप्त अवशेषों के आधार पर काशी की प्राचीनतम कला का केन्द्र होने का प्रमाण सिद्ध हो जाता है।
वाराणसी की कला का क्रमिक इतिहास हमे
सम्राट अशोक के राज्यकाल से मिलने
लगता है। मौर्यकाल में निर्मित अशोक-कालीन
सारनाथ का सिंह स्तंभ, स्तूप तथा राजघाट
से मिल विभिन्न प्रकार के खिलौने, मृण्मूर्तियों, हाथी दाँत की कंघियाँ, चूड़ियाँ,
वाराणसी की समृद्ध कला के आदि स्रोत है। चित्रकला के
संदर्भ में राजघाट से मिले कुछ चित्रित खिलौनों को देखने
से यहाँ की चित्रकला परम्परा का अनुमान
लगाया जा सकता है। १८वीं शती से पूर्व
वाराणसी से चित्रकला का कोई भी प्राचीनतम अवशेष हमें नहीं प्राप्त होता है - इसका
मूल कारण यहाँ है कि हमारे देश पर
मुगलों के आधिपत्य के फलस्वरुप, वाराणसी
सदैव अन्य राज्यों के अधीन रहा, अत: इसका
सांस्कृतिक उत्थान मुगल राजधानियों की अपेक्षा कम रहा,
वैसे यहाँ भित्तिचित्रों का काफी प्राचीनतम प्रमाण
मिलना चाहिए था, लेकिन मुगलों की धर्मान्धता का
शिकार वाराणसी को भी होना पड़ा। शाहजहाँ ने अपने
शासन काल में गुजरात में ३ मंदिरों,
वाराणसी ४ मंदिर गिरवाए थे।१७ इसी प्रकार औरगंजेब ने
सन् १९६९ ई. में जयपुर और वाराणसी के
मंदिरों को गिराने का आदेश दिया था।१८
वाराणसी में गोपनाथ और जंगमवाड़ी का
शिव मंदिर भी नष्ट कर दिया गया।१९
वाराणसी की कला में चित्रों का संदर्भ यहाँ के नगर
सेठ ग्वालदास साहू का चित्र है, तथा दूसरा उदाहरण
वाराणसी के सूबेदार "मीर रुस्तम" का, "मीर की
होली" नामक चित्र भी है, जो भिन्न-भिन्न
शैलियों में निर्मित है। सन् १७९५ ई. में नागपुर के
भोंषला राजा द्वारा भोषलाघाट तथा किनारे पर
विशाल भवन व उसके अन्दर लक्ष्मी नारायण के
मंदिर का निर्माण भवन के बाहरी छज्जे व
अन्दर की दिवालों पर, विभिन्न प्रकार के अलंकरण व धार्मिक विषयों
से संबंधित चित्रों का निर्माण वाराणसी की चित्र परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ियाँ हैं।
वर्तमान काशी राज्य की स्थापना के पूर्व
वाराणसी मुस्लिम संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था।
फर्रूखसिया के शासन काल में यहाँ के स्थानीय
शासक लाल खाँ थे, जिनकी स्मृति के कुछ चिह्म वहाँ अवशेष है।
सम्भवत: इनका महल गंगा तट पर था, जो अब
लाल घाट के नाम से प्रसिद्ध है, पर अब
लाल खाँ के प्रसाद का कोई अवशेष उपलब्ध नहीं है।२० इनका एक छोटा
सा मकबरा राजघाट पर अब भी
है, जो काफी चमकदार है। ये भारत
में ईरान और मध्य एशिया से लाए गए हैं। १८वीं
शती के अन्तिम वर्षों में दिल्ली के बादशाह शाहआलम द्वितीय के पुत्र जवाँबख़त
भी वाराणसी आए तथा उनके साथ मुगल
शैली के प्रसिद्ध चित्रकार लालजी मुसव्वर
भी आए। इनके पूर्व वाराणसी में जो चित्रकला परम्परा कायम थी, उसी
परम्परा के एक चित्रकार ग्वाल सिखी जी
भी थे। ग्वाल सिखी जी का सम्पर्क लालजी
मुसव्वर के साथ हुआ, फलस्वरुप सिखी परिवार की चित्रकला पद्धति
में मुगल शैली के कठोर निमंत्रण वाली
विशेषताएँ समाहित हो गई तथा दूसरी ओर इनकी चित्रकला
में बनारस की परम्परागत मस्ती मौजूद थी। आगे चलकर इनके घराने ने
उत्तर मुगल शैली स्वीकार कर ली। जिसमें सिर्फ स्थानीय
भेद इनके घराने में मिलता है। बाद
में क्रमश: इस शैली में परिवर्तन होता चला गया, जिस पर कम्पनी व
बंगाल शैली का प्रभाव पड़ा। ग्वाल सिखी जी के
वंशज उस्ताद मूलचन्द, उस्ताद रामप्रसाद, उस्ताद
शारदा प्रसाद, स्थानीय मुगल से प्रभावित
वाराणसी शैली के महत्वपूर्ण चित्रकार
थे।२१
वाराणसी की चित्रकला को उच्चता प्रदान करने
में यहाँ के शासक मीर रुस्तम अली का महत्वपूर्ण
योगदान है। इनसके शासनकाल में काशी अपने
सांस्कृतिक ओज पर था। मीर रुस्तम अली काशी के जनजीवन
में बिल्कुल घुल मिल गए, इन्होंने अपना महल (सन् १७३५ ई.
में) मीरघाट पर बनवाया था। जिसकी प्राचीर का छोटा
सा अवशेष अब भी खंडहर के रुप में विद्यमान है। ऐसा कहा जाता है कि
वाराणसी के बुढ़वा मंगल का मेला
उनके समय में भी प्रचलित था।
१८वीं. शती
में मनसा राम के पुत्र महाराज बलवंत सिंह ने
वर्तमान काशी राज्य की स्थापना की, वे १७३० ई.
में गद्दी पर बैठा और सफलता पूर्वक १७७० ई. तक
शासन किया। इन्होंने १७५०ई. में रामनगर का किला तथा काली
मंदिर का निर्माण कराया। इनका ही वंश अब तक चला आ रहा है।
यद्यपि काशी नरेशों के इतिहास में चित्रकला का कोई महत्वपूर्ण तिथिक्रम नहीं
मिलता है, पर महाराज उदित नारायण के
राज्य काल (१७९५ से १८३५ई.) से अनेकों तिथि
युक्त चित्रण के उदाहरण प्राप्त होते हैं।
संभवत: महाराज उदित नारायण सिंह के
समय में ही रामनगर के किले के अन्दर निजी काली
मंदिर के भित्ति चित्र तथा चकिया काली
मंदिर के भित्ति चित्रों का निर्माण सम्पन्न हुआ। दोनों ही
मंदिरों के चित्रों की शैली लगभग समान ही है। इन्हीं के
समय में तिथि युक्त रामचरितमानस की चित्रावली जो
सन् १८३२ई. की है तथा १८०९ ई. की तिथियुक्त चेतसिंह की शवीह जो उस
समय भारत कला भवन वाराणसी में है, इस काल के चित्रकला के महत्वपूर्ण उदाहरण है। इन चित्रों के ऊपर कंपनी
शैली का प्रभाव दर्शनीय है।२२
सन् १८३५ ई. में महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह के
शासन काल में समूची पुरातन मान्यताओं एवं परम्पराओं
में एक नया मोड़ आया, जिसके उत्प्रेरक
स्वंय महाराजा ही थे। ये विद्या और कलाओं के प्रमुख आश्रयदाता थे। इन्हीं के
समय में मिर्जापुर के महन्त श्री जयराम गिरी
भी इन्हीं के ही टक्कर के रईस थे,
इनके द्वारा बनवाये गये भित्ति चित्र आज
भी इनके मढ़ में विद्यमान है जो वाराणसी के
बने पुराने चित्रों जैसी ही है। महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह के
शासन काल में पूरे देश में कंपनी शैली की लहर फैल गयी थी, जो तत्कालीन
यूरोपीय शैली के पदापंण क प्रतिफल था। कंपनी
शैली में यथार्थवादी चित्रण होता था। जो परंपरागत
भारतीय जन मानक के चित्रण का मुख्य आधार
बन गयी। इनके मुख्य केन्द्र वाराणसी के अलावा पटना, लाहौर, दिल्ली,
लखनऊ, मुर्सिदाबाद, नेपाल, पूना, सतारा, नागपुर एवं तंजौर आदि थे। इस प्रकार यह उस
समय सर्वदेशीय शैली के रुप में विकसित थी। जिसके जगह-जगह पर स्थानीय केन्द्र विद्यमान थे महाराजा ईस्वरी नारायण सिंह के
समय के प्रसिद्ध चित्रकार हत्कू लाल, गोपाल चन्द,
बालचन्द, शिवराम एवं सूरज थे एवं इस काल के ज्ञात चित्रकार कमलापति
लाल, चुन्नीलाल, मुन्नीलाल,
बिहारीलाल, गणेश प्रसाद, महेश प्रसाद तथा मिश्री
लाल, भित्ति चित्र बनाने में दक्ष थे। मिश्री लाल पेरिस प्रदर्शिनी
में भी भाग लेने गए थे।
उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट होता है कि
वाराणसी में भित्ति चित्रों की परंपरा अति प्राचीन है।
लेकिन
चित्रों के अस्थायी सामग्री से निर्मित होने एवं
मुगलों के धर्मन्धता के कारण यहाँ भित्ति चित्रों का कोई
भी प्राचीनतम अवशेष उपलब्ध नहीं है। परन्तु
वाराणसी की भित्ति चित्र कला परम्परा
में १८वीं शती से २०वीं शती तक की अवधि
में जो भी भित्ति चित्र हमें प्राप्त हुए हैं उन्हें निम्नलिखित
श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है२३:
विषय की दृष्टि से
१. परम्परागत विषयों पर आधारित भित्ति चित्र।
२. स्थानीय लोक जीवन पर आधारित भित्ति चित्र।
शैली की दृष्टि
से
१. स्थानीय शैली - राजस्थान की प्रेरणा प्राप्त
२. स्थानीय शैली - मगुल शैली से प्रभावित
३. स्थानीय शैली - कम्पनी शैली से प्रभावित
राजस्थानी शैली से प्रभावित स्थानीय
शैली की चित्र हमें भारत कला भवन
वाराणसी में उपलब्ध है, जिसमें मुख्य
रुप से सबसे पुराना उदाहरण ग्वालदास साहू की शबोह है, भित्ति चित्रों
में सबसे पुराना उदाहरण भोषले घाट के चित्र हैं। उसके
बाद देवकी नन्दन हवेली, ईश्वरगंगी स्थित महामाया
मंदिर, शीतल दास का मठ, बागेश्वरी देवी का
मंदिर, राजा अर्जुन सिंह की हवेली तथा
ब्रह्माघाट के आस-पास के भवनों में कतिपय भित्ति चित्रों के उदाहरण जो विविध धार्मिक व
सामाजिक विषयों से संबंधित है, उल्लेखनीय है।
यहाँ से मुगल शैली की स्थानीय शाखा
में निर्मित सबसे प्राचीनतम उदाहरण -
भारत कला भवन स्थित "मीर की होली" तथा उस्ताद
मूलचन्द उस्ताद बहुक प्रसाद व उस्ताद राम प्रसाद और उस्ताद
शारदा प्रसाद द्वारा बनाए गए कतिपय चित्र,
भारत कला भवन संग्रह व अन्य कला प्रेमियों के निजी संग्रहों व
मंदिरों की भित्तियों पर आज भी उपलब्ध है।
कम्पनी शैली में निर्मित यहाँ के स्थानीय
शाखा के चित्रों का उदाहरण के रुप में महाराज विभूति नारायण सिंह के संग्रह
में स्थित रामायण की चित्रावली भित्ति चित्रों
में चकिया काली मंदिर तथा रामनगर किले
में स्थित काली मंदिर के चित्रों को प्रस्तुत किया जा
सकता है। इसके अतिरिक्त अमेठी मंदिर के भित्ति,
राजा पटनीमल की बारादरी तिल-भाण्डेश्वर महादेव
मंदिर, देवी का मंदिर, टेढ़ी नीव महाल स्थित
शिव मंदिर, बांस फाटक स्थित शाहुपुरी
भवन, विश्वनाथ गली स्थित अन्नपूर्णा मंदिर तथा
राम मंदिर के भित्ति चित्र दर्शनीय हैं। इन चित्रों के ऊपर स्थानीय
राजस्थानी, मुगल तथा कम्पनी शैली का प्रभाव दर्शनीय है। इन चित्रों के चित्रण
में तैल रंगों का अधिक प्रयोग किया गया है; इसकी
रंग योजना आकर्षण एवं चटकीली है तथा
रेखांकन स्पष्ट तथा परम्परागत है, जो कंपनी
शैली की विशेषता है। ये परवर्ती भित्ति चित्रण परम्परागत विषयों
से मिश्रित शैली का अनुपम उदाहरण है जिससे
वाराणसी की समृद्ध भित्ति चित्रण परम्परा की पुष्टि होती है।२४
वाराणसी की भित्ती चित्र परम्परा का अंतिम
सोपान पूर्णतया लोक शैली पर आधारित है।
भारतीय लोक कला का विकास लोक जीवन
से ही शुरु होता है, यह हमारे उल्लासमय अवसरों
से जुड़कर हमारे घर
के आँगनों और भित्तियों पर ज्यों की त्यों परम्परागत ढंग
से चली आर रही है। इनमें मुख्यत:
भूमि चित्रों की परम्परा अति प्राचीन है। यह प्रत्येक
मांगलिक अवसरों पर घर के आंगनों एवं द्वारों पर
बनायी जाती है। इन चित्रों के अनेक प्रादेशिक नाम हैं। जैसे
रांगोली महाराष्ट्र में, साथिया गुजरात
में, पाड़ना राजस्थान में, चौक पूना उत्तर प्रदेश
में तथा अलपना बंगाल एवं मिथलांचल
में प्रचलित हैं। इनके विपरित वाराणसी की
लोक कला अपनी कुछ अलग ही विशेषताओं
में पहचानी जा सकती है, क्योंकि अन्य क्षेत्रों
में मांगलिक अवसरों पर जहाँ केवल
भूमि चित्रों को ही बनता हैं। लेकिन यहाँ इन
भूमि चित्रों के अतिरिक्त भित्ति चित्र भी
बनाए जाते हैं। ये चित्र प्राचीन काल से ही
मांगलिक अवसरों पर दीवाल या भित्तियों पर, गाँव की
अनपढ़ स्रियों कहारों व परम्परागत चित्रकारों द्वारा
सम्पन्न किया जाता रहा है। इसके लिए दीवाल पर हल्का
सुधा लेप के बाद लाल, पीले, काले तथा नीले आदि विविध
रंगों के रंगामेजी से चित्रों को अंकित किया जाता था। इनमें
मुख्य रुप से चौक पूरना, कोहबर के चित्र, गाँवों का देवता, पूर्णघट, हाथी, गोड़ा, गणेश, प्राकृतिक दृश्य, द्वारपाल तथा
अन्य सामाजिक दृश्यों का चित्रण किया जाता है। यह जीवन्त कला आज
भी वाराणसी नगरी के गाँवों व शहरों
में विशिष्ट कला के रुप में आदिकाल से चली आ रही है जो एक
सीमा तक नियम में भी आबद्ध है और यह जीवन की अविभाज्य कला है। धर्म और ज्ञान का प्रमुख स्थल "वाराणसी" का इस कला
से से अटूट संबंध है। ये चित्र भावात्मक तथा कलात्मक गुणों
से परिपूर्ण है, इनकी सादी रंग योजना
रेखाओं की कोमलता भावों की सजीवता दर्शनीय है।२५
१ द्विवेदी, डॉ. प्रेमशंकर
'दुर्गा वाराणसी के भित्ति चित्रों में', पृ.३१, १९८५
वाराणसी।
२. वही, पृ.३१, १९८५ वाराणसी
३. शेरवानी, एच. के. 'कल्चरल ट्रेन्डस इन
मेडिकल इण्डिया' पृ.४९
४. ॠग्वेद, (१-१-४५)।
५. ॠग्वेद, (४-३२-२६), (१-५-५) (१०-८-११:१३)।
६. बाल्मीकि कृत, 'रामायण' (५-७-९) (२-१०-१३) (२-१५-३५) आदि।
७. महाभारत, सभापर्व, अध्याय - ३ तथा ४९।
८. आचार्य भरत कृत, 'नाट्यशास्र' (२-८५)।
९. कालिदास कृत, 'रघुवंश' (८-६८) तथा १६वें
सर्ग में अयोध्या नगरी वर्णन प्रसंग।
१०. बाणभ कृत 'हर्षचरित' ५-२१४।
११. वात्स्यायन कृत 'कामसूत्र', १-४-१०
१२. श्री हर्ष कृत 'नैषध चरित', १८-१२-२६।
१३. हरिवंश पुराण, २-११८-६२ :७०।
१४. मत्स्यपुराण, १२९ और १३०वाँ अध्याय।
१५. नायाधम्म कहाओ, ९-९-९६, १-१-१८, १-१६-७७:८०, आदि।
१६. विनयपिटक, पृ.५५ तथा आचारांगसूत्र, २-२-३-१३।
१७. शर्मा श्री राय 'दि रिलीजस पालिसी आफ दि
मुगल एम्परर्स, बम्बई, १९६२ पृ.८६ में उद्धत
१-लाहौरी, १-१-४५२, खाफी खाँ, १, ४७२।
१८. मुस्तईज खाँ, 'मासिरे आलमगिरि' पृ.८१।
१९. शर्मा श्री राम, पूर्वोक्त पृ. १३३।
२०. आनन्द कृष्ण लेख, महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह,
'कला वैभव पत्रिका', 'यह बनारस है', पृ.१५६।
२१. द्विवेदी, प्रेमशंकर, "दुर्गा" वाराणसी के भित्ति चित्रों
में, पृ.३३, १९८५ वाराणसी।
२२. वही पृ.३४।
२३. वही।
२४. वही पृ.३५।
२५. वही।
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