मगध |
बुद्ध कालीन मगध की लोक विद्याएं पूनम मिश्र |
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भगवान बुद्ध ने अपना उपदेश उस समय का सामान्य जनभाषा मागधी में दिया था जो बाद में पालि नाम से जानी गयी। उनकी चारिका का केन्द्र भी मुख्यत: मगध से श्रीवस्ती तक का प्रदेश ही रहा। जनसामान्य की भाषा में उपदेश देने के कारण उस उपदेश को सुनने वाले एवं ग्रहम करने वाले भी लगभग सामानाय लोग ही थे। उन्होंने अपना उपदेश गांव-गांव एवं नगर-नगर घूमकर दिया। उनके उपदेशों को पढ़ने से उस समय की लोक संस्कृति एवं लोक विद्याओं की व्यापक एवं स्पष्ट जानकारी मिलती है। उनके उपदेशों को त्रिपिटक नाम के ग्रन्थ में समाहित किया गया है। त्रिपिटक में सुत्र पिटक प्रारम्भिक एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में मुख्यत: लोक संस्कृति एवं शिल्प की जानकारी सहज भाषा में मिलती है। कुछ जानकारी सहज भाषा में मिलती है। कुछ जानकारी विनय पिटक से मिलती है। सुत्र पिटक के ब्रह्मजाल एवं सामञ्जफल सुत्र में इन शिल्प व उत्पादक विद्याओं का वर्णन विस्तृत रुप से हुआ है जो मुख्यत: निम्नलिखित हैं। अस्र -शस्र निर्माण उस समय अस्र-शस्र का निर्माण बृहत रुप से किया जाता था। धातुओं से बरछी, भाले, तीर, धनुष, कटार, तलवार इत्यादि अस्र शस्र बनाये जाते थे। वास्तु विद्या उस समय के राजाओं के भवनों के वर्णन को देखने से पता चलता है कि वास्तु विद्या उत्कर्ष पर थी। धनी लोगों को "महासाल' कहा जाता था। भवन की नक्काशी, ईंटों पर नक्काशी, पत्थरों पर नक्काशी, फर्श की सुन्दरता इत्यादि उस समय वास्तु-विद्या के अन्तर्गत आते थे। वास्तु विद्या की पहचान एक स्वतंत्र विद्या के रुप में थी। श्रृंगार प्रसाधन भगवान बुद्ध के समय राजा-रानियों के अलावा साधारण जनता भी श्रृंगार प्रसाधनों का उपयोग करती थी। इन प्रसाधनों में सुगंधित वस्तुओं का लेप लगाना, सुगंधित तेल लगाना, उबटन लगाना, जूडे का सुसज्जित करना आदि थे। भगवान बुद्ध के समय आभूषणों का प्रयोग काफी प्रचलित था। सोने एवं चांदी के आभूषण उस समय बनते थे अन्य धातुओं के भी सस्ते आभूषण बनते थे। नकली सोना चांदी बनाना पाप कर्म जाना जाता ता। वाद्य यंत्र वाद्य यंत्र भी उस समय मनोरंजन के साधन थे। वाद्य यंत्रों का बजाना एवं उसका निर्माण दोनों विद्याओं का प्रचलन था और इन्हें स्वतंत्र शिल्प का स्थान प्राप्त था। रथ निर्माण उस समय चँदवाकार पलंग, अण्डाकार पलंग, फैशन दार पलंग आदि पलंग तथा बैठने के लिए विभिन्न प्रकार के आसन तथा गद्दीदार आसन (सोफासेट) कुर्सी, उच्चासन, महासान, शयनाशन, रोयेंदार आसन, झूलनेवाले आसन इत्यादि अनेक प्रकार के आसन बनते थे। इन्हें भी स्वतंत्र शिल्प का स्थान प्राप्त था। चर्म उद्योग उस समय चर्म उद्योग भी एक स्वतंत्र शिल्प के रुप मे था। हिरण एवं बाघ के खाल के बिछावन एवं सजावट के समान बनाना इत्यादि प्रमुख चर्म उद्योग थे। कृषि एवं पशुपालन उस समय कृषि भी उन्नत उत्पादक विद्या थी। उस समय बड़े पैमाने पर खेती की जाती थी। ब्राह्मण भई खेती को अच्छा कार्य समझते थे। सुत्र निपात के कसि भारद्वाज सूत्र में खेती के उपकरणों की विस्तृत चर्चा है। जैसे लकड़ी का हल, लोहे का फाल, बैल, चमड़े की जोती इत्यादि। स्वयं भगवान बुद्ध ने भी अपने को एक कृषक के रुप में स्थापित करने का प्रयास किया है, जिसका स्पष्ट प्रमाण के कसि भारद्वाज सूत्र में मिलता है। ं],पशुपालन भी एक उन्नत व्यवसाय के रुप में था। पशुपालन के अन्तर्गत गाय, बकरी, खच्चर, भेड़, गधा इत्यादि पशुओं का पालन किया जाता था। सपं विद्या इस विद्या में सांप को पकड़ना, उसका खेल दिखाना आदि काम होते थे। विष विद्या इस विद्या के अन्तर्गत सांप, बिच्छू एवं अन्य जहरीले प्राणियों के विष का असर खत्म करने के प्रयास किये जाते थे। ज्योतिष विद्या इस विद्या के अन्तर्गत भविष्य एवं वर्तमान का पता लगाया जाता था। जैसे अमुक राजा की जीत होगी या हार, उसे पुत्र प्राप्त होगा या नहीं, इस वर्ष अच्छी फसल होगी या अकाल पडेगा, धन प्राप्ति होगी या नहीं होगी इत्यादि। नक्षत्र विद्या इस विद्या के अन्तर्गत, नक्षत्र का ज्ञान, ग्रहों एवं तारों का ज्ञान, मौसम की जानकारी इत्यादि प्राप्त की जाती थी। नक्षत्र विद्या के अन्तर्गत विभिन्न नक्षत्रों में पैदा हुए शिशुओं का भविष्य भी बताया जाता था तथा किस नक्षत्र में कौनसी फसल बोयी जाएगी एवं किस नक्षत्र में अतिवृष्टि एवं किस में अनावृष्टि होगी, इसका ज्ञान भई प्राप्त किया जाता था। चिकित्सा विज्ञान चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में मगध श्रेष्ठ था। यहां अनेक प्रकार की चिकित्सा की विद्याएं विद्यमान थीं। जैसे शल्य चिकित्सा, मनोचिकित्सा, शिशु चिकित्सा आदि। अजात-शत्रु के राज्य चिकित्सक का नाम आजीवक कोमार भच्च था, जिनके नाम पर आयुर्वेद में कौमार भृत्य वाल चिकित्सा रखा गया। आयुर्वेद परम्परा में दवा निर्माण करने वाली बिरादरी को जीबीक्सा कहा जाता था। भगवान बुद्ध ने महावग्ग के भैषज्य खन्ध में अपने शिष्यों को विभिन्न परिस्थितियों में दवाओं का सेवन करने को कहा है। उन्हें संसार के दुख निवारम करने वाले वैद्य के रुप में प्रस्तुत किया गाय। लेकिन शल्य क्रिया एवं पंचकर्म विद्या जिसके अन्तर्गत विरेचन, वमन, सके आदि आये हैं, को उन्हों तिरच्छान विद्या कहा है। मणि लक्षण विभिन्न रत्नों को परखने की विधि मणि लक्षण विद्या के नाम से जानी जाती थी। आज भी मगध के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रत्नों के निकालने एवं तरासने का कार्य होता है। ऐसी अनेक लोक विद्याओं का उल्लेख त्रिपिटक एवं अन्य ग्रन्थों में आता है, जिसमें कुछ विद्याओं के पक्ष में भगवान बुद्ध संरक्षक की भूमिका में हैं और कुछ विद्याओं खासकर जीव हिंसा से जुड़ी विद्याओं को उन्होंने तिरच्छान विद्या कहा है और उनके प्रति विरत रहने का उपदेश दिया है।
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