चाक चलाने की डण्डी चकरेटी कहलाती है तथा यह चाक पर जिस गढढे मे फंसाई जाती है उसे गुल्बी कहा जाता है। गुल्बी का स्थान चाक पर कहां हो यह इस पर निर्भर करता है कि उस चाक पर कितनी बड़ी चीज बनाई जानी है बड़े बर्तन बनाने के लिये गुल्बी का चाक के केन्द्र से दूर होना आवश्यक है नहीं तो बर्तन गुल्बी का ऊपर तक जायेगा और चाक घुमाना मुश्किल होगा। कीला एक पत्थर के छोटे चाक में फंसा कर जमीन में गड़ा जाता है उस पत्थर को पही कहते है और खूटे को कीला कहते है, ये केर की लकड़ी का बनाया जाता है। कीला अपने पर चाक को इस तरह धारण किये रहता है जिस प्रकार भगवान ने उंगली पर गोर्वधन पर्वत धारण कर लिया था। केर का वृक्ष खेर जाति का है परन्तु यह पुरुष वृक्ष माना जाता है, इसकी खासियत यह होती है कि इसकी लकड़ी धिसती या कटती कम है, इसलिये यह ज्यादा दिन काम देता है। कीला की ऊंचाई दो से तीन उंगल ऊँची रखी जाती है। ज्यादा ऊंचाई से चाक तेज घुमाते समय फिक जाने का भय रहता है साथ ही यह बन्द होने पर पैरों पर गिरने का डर भी नहीं रहता क्योंकि नीचा होने पर चाक झुकने पर जल्द ही जमीन पर आ टिकता है।
कीला चाक में जिस गडडे में फ्टि होता है उसे गुल्बी कहते है। इस स्थान पर थोड़ा तेल लगाया जाता है। ताकि चिकनाई से चाक आसानी से घूमे। बर्तन काटने के लिये प्रयोग किया जाने वाला धागा छेन कहलाता है। कुम्हार इसे बहुत सिद्ध वस्तु मानते हैं। कुम्हार अपना छेन किसी भी अन्य जात के लोगों को नहीं देते, यह बड़ी पुरानी परम्परा है, इसे अपशकुन माना जाता है। समझदार कुम्हार आपस में भी एक दूसरे का छेन लेते मांगते नहीं है। चाक पत्थर का बनता है, काले पत्थर का चाक नही बनता, पत्थर वह अच्छा माना जाता है जो खन्नाटेदार आवाज देता है। चाक ज्यादा देर तक ताव में रहे इस लिये उसकी निचली सतह पर दो स्तर (घर) बनाये जाते है। छोटे ढाई फुट के चाक को चकुलिया कहते है, तीन फुट और उससे बड़े चाक, चाक कहलाते है।
आजकल पैर से चलाने वाले और बिजली की मोटर से चलने वाले चाक भी बन गये है पर पैर से चलाने वाले चाक व्यवसायिक कुम्हारों के लिये बेकार है क्योंकि वह तुरन्त ढीले पड़ जाते है। हाथ से धुमाये जाने वाले चाक पर काम करने में अधिकतर कुम्हार दक्ष होते हैं क्योंकी वे चाक की गीत के अनुसार काम करते है जैसे पहले चाक बहुत तेज घूमता है उस समय मिटटी को उठाना और उसे फाड़ना आसान होता है परन्तु बाद में वह कुछ सुस्त हो जाता है उस समय गीले बर्तन को अन्तिम आकार देकर, चाक से उतार लेना आसान होता है। यदि चाक निरन्तर तेज घूमता रहे तो बर्तन उतारा नहीं जा सकता, यही कारण है कि बिजली के चाक मे तीन गीयर होते हैं और काम करते समय गीयर बदल कर चाक की गति नियंत्रित करना पड़ती है। कुम्हारों के लिये बिजली का चाक ज्यादा उपयोगी नहीं होता क्योंकि एक तो यह बहुत छोटा होता है दूसरे यदि बिजली न हो तो काम ही नहीं हो पायेगा।
चाक पर काम करते समय जिस बर्तन में पानी रखा जाता है उसे कुण्डी कहते है ऐसा मानते है यह कुण्डी कुम्हारो को भोलेनाथ ने दी थी। यह वही कुण्डी है जिसमें महादेव अपनी भांग गलाते थे। इसमें रखा पानी सभी प्रकार के जलों से शुद्व माना जाता है।
बर्तन की ठुकाई के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले औजार थापा और पिण्डी कहलाते है। थापा लकड़ी से बनता है और पिण्डी पत्थर की। पत्थर को चिकना होना जरुरी है। थापा पिण्ड़ी बटेसुर के मेले में बहुत अच्छी मिलती है।
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