चाक पर मिटटी का गोंदा रखकर जब उसे पहलि बार एक सा कर, उठाया जाता है, उसे गौर उठाना कहा जाता है। इस प्रकार पहले भोलेनाथ की पिण्ड़ी बन जाती है, फिर बर्तनों को बनाते है। बर्तन के आकार के अनुसार गौर से मिटटी निकाल कर उठाई जाती है, इसे गाई फाड़ना कहते हैं। मटके आदि का मुंह तथा आधा भाग जो चाक पर गढा जाता है मुराठ कहलाता है। इसे उतार कर हल्का सुखा लिया जाता है। तब इसे थापा पिण्डी से ठोक कर बढ़ाया जाता है। इस मुराठ की जमीन मे रखते है ताकि उसका पानी जमीन सोख ले। जब मटका पूरा बन जाता है तब उन्हें कूंढों मे रखा जाता है। यह कूँढ, थाल कहलाते हैं। जव थाल सूख जाता है तब इसकी आखरी ढोकनी पर मटके को औंधा रख दिया जाता है औंधा इसलिये रखते हैं क्योंकि अब तक उसका मुंह सूख जाता है। बर्तन पहले छांव मे सुखाते है जब उसका पानी निकल जाता है तब उन्हों धूप में सुखाया जाता है। इसके बाद औरतें बर्तनों को गौंडाती है।
इसमें मटकों को चिकना कर उनके बाहरी छिद्र पूरं दिये जाते हैं। इसके बाद रंगाई की जाती है। रंगने के लिये गेरु या मुरम का प्रयोग करते हैं कई लोग बाजार का रंग भी इस्तेमाल करते है। कभी कभी खड़िया या चूने का सफेद रंग भी प्रयोग करते हैं।
बर्तन पकाने की विधि
रंगाई के बाद बर्तन सुखा कर अबा में पका लिये जाते है। अबा उसी स्थान पर बनाया जा सकता है जहां पर पानी की सींड़ न हो। अबा ज्यादातर १०फिट न् १०फिट या १५फिट न् १५फिट का गढढा होता है इसमे पहले कण्डो की पूरी एक सतह जमाते हैं और उस पर बर्तन जमाना शुरु करते है कण्डों की मात्रा बर्तनों की संख्या पर निर्भर करती है। सामान्यतः लगभग दो सौ बर्तन एक साथ पकाये जाते हैं।
बर्तन औंधे रखे जाते हैं। बीच में कण्डे नहीं लगाये जाते। बर्तनों के ऊपर कचड़ा या प्यार (पुवाल) डालकर बर्तनों को पूरी तरह ढक दिया जाता है। इसके बाद मिटटी के पतले घोल जिसे लेवा कहते है, से सारा अबा लीप दिया जाता है। लीपा इस प्रकार जाता है की कहीं से अन्दर की लौ बाहर न निकले। लेपना जमीन तक किया जाता है और बीच में एक छेद जिसे नार कहते है छोड़ा जाता है जिससे अग्नि डाली जाती है। जब अग्नि चढ़ जाती है तब चारों ओर छेद बना दिये जाते है जिससे धुंआ बाहर निकल जाय। यह ध्यान रखा जाता है कि आग चारों तरफ एक जैसी फैले आग की दिशा का नियंत्रण इन छेदों को बन्द करके या खोल कर करते हैं। इस प्रकार पके बर्तन, लाल बनते है। यदि बर्तन काले करना हो तो जब अवा में आग पूरी तरह उठ जाती है तब उसमें बकरी की मैगनीयों की झौंक डाल कर सारे छेद बन्द कर दिये जाते है, जिससे मैंगनियों से बना धुआ बर्तनों को काला कर देता है।
गर्मियों में मटके बहुत बनाये जाते है विवाह के सीजन में डबूले चलते है। पहले डबूले बहुत बनाते थे क्योंकि वे शुद्ध माने जाते हैं। काँच के गिलास बाजारों में आ जाने से डबूलों के प्रचलन में बहुत कमी आ गई है। पहले हलवाई भी डबूले बहुत लेते थे।
क्वार कार्तिक में दिवाली के समय दिये बहुत
बनते है।
छिद्वी कुम्हार वताते है कि अबा जलाने से पहले काशी बाबा की पूजा की जाती है। कहते है काशी बाबा ग्वालियर के पास बैहट गांव के रहने वाले थे जब वे बालक ही थे तब उनके माता पिता उन्हें गघे चराने भेजते थे वे भी पास के पहाड़ पर गधे ले जाते थे। वहाँ एक सिद्व बाबा की गुफा थी। वे सिद्व बाबा की बहुत सेवा करते थे और धीरे धीरे उनका रुझान भगवान की भक्ति में बढ़ता गया। वे रोज सिद्व बाबा के पास बैठकर भगवान का भजन करते रहते। एक दिन गधे चरते चरते एक ठाकुर के खेत में चले गये और
ठाकुर का खेत चर गये। इससे ठाकुर साहब बहुत गुस्सा हो गये और उन्होने गधों को कांजी हाउस मे बन्द करवा दिया और काशी बाबा के माता पिता को गालियां सुनाई सो अलग। जब काशी बाबा घर लौट कर आये तो उनकी मां ने उन्हें डांटा की तुम न जाने कैसे गधे चराते हो जो किसी के खेत में घुस जाते हैं और हमे गालियां सुननी पड़ती है। इस पर काशी बाबा ने कहा अगर ठाकुर साहब ने गधों को मारा तो वे भी जरुर मर जायेंगे। इस शाप के लगने से ठाकुर मर गया पर बाद में काशी बाबा को बहुत पछतावा हुआ और उनहोंने बेहट गांव के पास झिलमिल तालाब के किनारे जीवित ही समाधि ले ली।
इसके अनेक सालों बाद एक बार ग्वालियर के माधौ महाराज (माघवराव सिन्धिया) उधर से शिकार खेलने निकले तो उनकी गाड़ी इस समधी स्थल पर से निकली तो वहां अड़कर रह गई। वह किसी भी प्रकार खींचने पर आगे नहीं बढ़ी। इस पर महाराज ने गांव वालों से पूछा कि भाई यहां क्या बात है जो हमारी गाड़ी आगे नहीं निकलती, इस पर गांव वालों ने बताया कि हुजुर यहां एक सिद्व बाबा ने समाधि ले ली थी, वो जात का प्रजापत कुम्हार और नाम से काशी बाबा कहलाता था। तब माधौ महाराज ने कहा कि देखो भाई काशी बाबा यदि तू सच्चा हो तो हमारी गाड़ी निकल जाने दे, हम तेरी पक्की समाधी स्थाल बनवा देंगे। कहते है इसके बाद राजा की गाड़ी आसानी से निकल गई और बाद में माधवराव सिन्धिया ने वहां पक्का मन्दिर बनावा दिया। जो आज भी मौजूद है और यहां हर साल फागुन की पंचमी को मेला लगता है। आस पास के सारे कुम्हार यहां होली की तीज को ही पहुंच जाते है, चौथ को सामूहिक गेठ (भोज) होती है पंचमी को रंग होता है और छठ को सभी वापस लौट जाते हैं। कुम्हार काशी बाबा को अपना रक्षक देवाता मानते है, अबा को सुरक्षित पकाने मे काशी बाबा मदद करते है। इनकी पूजा धी के पुए चढ़ाकर की जाती है। यहां आगरा, धौलपुर, शिवपुरी तक के कुम्हार आते हैं।
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