मालवा

"मालवा' शब्द की उत्पत्ति

अमितेश कुमार


"मालवा' तथा "मालया' दोनों ही शब्द हमें विभिन्न साहित्यिक स्रोतों, अभिलेखों व सिक्कों में मिलता है। पाणिनि ने "अष्टाध्यायी' में मालवों का उल्लेख किया है। साथ- ही- साथ कई धार्मिक ग्रंथों, जैसे - विष्णुधर्मोत्तरपुराण, वृहत्तसंहिता, मत्स्यपुराण व स्कंदपुराण में भी इसकी चर्चा है। कई विद्वानों में मालवा काव्युत्पतिक अर्थ- मालव का तात्पर्य लक्ष्मी के एक अंश के रुप में माना है। इस शब्द की अत्पत्ति के बारे में विद्वानों में मतांतर है।

मालवा की उत्पत्ति के संदर्भ में मत्स्य पुराण में उल्लेख मत्स्य पुराण के सावित्री उपाख्यान के अनुसार जब यमराज सत्यवान का प्राण लिये जा रहे थे, तब पतिव्रता सावित्री भी पीछे- पीछे चलने लगी। मना करने पर भी न लौटी, तब यमराज ने उसकी पतिनिष्ठा से प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा। सावित्री ने यमराज से कहा :--

सहोदराणां भ्रातृणां कामयामि शतं विभो।
अनपत्यः पिता प्रीतिं पुत्रलाभात् प्रयातु
              (मत्स्यपुराण २१०/२८)

(हे प्रभो ऽ मैं अपने सहोदर भाई होने की इच्छा करती हूँ। बिना किसी पुत्र के दुखी मेरे पिता (अश्वपति) शतपुत्र लाभ से प्रसन्न हों।)

यमराज ने कहा :--

कृतेन कामेन निवर्त भद्रे।
भविष्यनीदं सकल भद्रे।
               (मत्स्यपुराण २१२/२८)

(लौट जा, तेरी सभी प्रार्थनाएँ सफल होंगी)

सावित्री ने यमराज से कहा :--

विवस्वतस्वत तनयः प्रथम परिकीर्तितः।
तस्माद् वैवस्वतो नाम्ना सर्वलोकेषु कथ्यते।।
              (मत्स्यपुराण २१२/७)

(विवस्वान भगवान सूर्य के तुम प्रथम पुत्र हो अतः सभी लोकों के लोग तुम्हें वैवस्वत नाम से पुकारते हैं।)

सावित्री से प्रसन्न होकर वैवस्वत ( यमराज ) ने कहा -- तुम्हारी इस स्तुति से प्रसन्न होकर तुम्हारे सत्यवान को छोड़ देता हूँ। तुम्हारे संयोग से सत्यवान को सौ पुत्र उत्पन्न होंगे। वे सब के सब देवताओं के समान तेजस्वी क्षत्रिय राजा होंगे। सावित्री से जन्में सौ संतान माता के नाम पर मुख्या (मुखर) कहलायेंगे तथा सावित्री के सौ सहोदर भाई (अश्वपति के पुत्र) माता (मालवी) के नाम पर मालव कहलायेंगे।

हरहा लेख में भी मत्स्यपुराण पर आधारित इन्हीं बातों का उल्लेख किया गया है --

सुतशतं लेभे नृपोडश्वपति वैवस्वतायदगुणोदितम्।
तत्प्रसूता दुरितवृत्तिरुधो मुखरा: क्षितीथा: क्षतारयः।

भ्रातृणां सौदराणां च तथैवास्या भवच्छतम्।
भद्राधिपस्याश्वपतैर्मालव्यां सुगहद्रबलम्।।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि अश्वपति से उत्पन्न पुत्र मालवों का मुखरों से, जो क्षत्रिय राजा कहे गये है, से घनिष्ट संबंध था। मालव माता पक्ष से उसके सहोदर भाई थे और मुखर पतिपक्ष से उसकी संतान। इन संबंधों को जोड़ने वाली सावित्री थी।

मालवा की उत्पत्ति के संदर्भ में कुछ प्रमुख विद्वानों के विचार इस प्रकार है --

आर. डी. डॉगलास वहाँ की स्थानीय जनजाति का पुराना नाम "मालया' मानते हैं। उनके अनुसार कुछ सिक्कों में "माला' वहाँ के राजा का नाम है, जो वास्तव में इस जनजाति का संस्थापक था, लेकिन कुछ विद्वानों के अनुसार "माला' शब्द मालवा या मालया के लिए ही प्रयोग किया गया है।

ए. सी. कार्लाइल व विसेंट स्मिथ इसे विदेशी शासकों का नाम मानते है। जो कहीं- न- कहीं यह इंगित करता है कि मालवी विदेशी मूल के थे। लेकिन जे. एल्सन के कथनानुसार इसका उदय शकों के बाद और हूणों से पहले ही हुआ था। इसका नाम भी शक वा हूण नामों से मेल नहीं खाता।

डी. सी. सरकार के अनुसार मालवा शब्दोत्पत्ति द्रविड़ियन शब्द "मलाइ' से हुआ। इसका तात्पर्य यह निकलता है कि वे द्रविड़ पहाड़ी जनजाति थे, लेकिन दक्षिण भारत में इस नाम से कोई जनजाति ज्ञात नहीं है।

राज बली पाण्डेय के अनुसार मालवा की उत्पत्ति गोरखपुर (उ. प्र.) में स्थित प्रसिद्ध माल्लराष्ट्र के माल्ला लोगों से हुआ है। "माल्ला' से पहले "मालवा' या "मलाया' शब्द की उत्पत्ति हुई, जो कालांतर में "मालवा' के रुप में जाना जाने लगा। माल्ला लोग सूर्यवंश के इक्ष्वाकुओं के वंशज थे। वाल्मिकी रामायण के अनुसार लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु को माल्ला के रुप में बतलाया गया है, जिसने मल्लराष्ट्र की स्थापना की थी। मल्लाओं के सूर्यवंशी होने का प्रमाण बौद्ध साहित्यों से भी मिलता है। लेकिन माल्ला शब्द से ही मालवा की उत्पत्ति का पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलता है।

सिक्कों के अध्ययन के आधार पर कल्याण कुमार दासगुप्ता के विचार से मालावी अनार्य थे। सिक्कों पर उद्यृत नाम, मालवा के शासकों का मानते हुए एक सिक्के पर अंकित "मजुपा' को उन्होंने मालवा का अनार्य राजा माना है, लेकिन ऐसे ही कई शब्द जिसकी उत्पत्ति संस्कृत से नहीं हुई, मालूम पड़ती है, कई सिक्कों में देखे जा सकते हैं। जे. एलान का तर्क है कि किसी सामान्य प्रत्यय से जुड़े हुए न होने के कारण ये व्यक्ति- विशेष के नाम नहीं हो सकते, लेकिन मालवा सिक्कों से मिलते- जुलते, नाग सिक्कों के नामों के बाद भी कोई संबद्ध प्रत्यय नहीं लगाया गया है।

ह्मवेनसांग ने गुजरात क्षेत्र में स्थापित प्राचीन खेट एवं आनंदपुर के क्षेत्र को "मालवा' कहा है।

शारीरिक रुप- रेखा के संदर्भ में विष्णुधर्मोत्तरम में उल्लेखित "मालवया' को १०४ अंगुल लंबा श्याम वर्ण का सुंदर शरीर वाला बताया गया है, जो पुनः उनके आर्य होने पर संदेह पैदा करता है, लेकिन ३-४ शताब्दी के सिक्कों और उपलब्ध अभिलेखों व साहित्यिक स्रोतों में कहीं भी इसके उत्पत्ति के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है।

मालवा की उत्पत्ति का सबसे प्राचीन साक्ष्य हमें चौथी- शताब्दी ई. पू. एक यूनानी साहित्यकार द्वारा उल्लेखित "मलोई' के रुप में मिलता है। ऐसा मालुम पड़ता है कि "मालवा' की उत्पत्ति मूल रुप से पंजाब में हुई थी, जहाँ से वे देश के विभिन्न भागों में फैल गये। मालवों में से एक "कृति' ने शकों को परास्त कर अवन्ति से बाहर खदेड़ दिया तथा इस उपलक्ष्य में कृत संवत् (ई. पू. ५७ से) का आरंभ हुआ। इस प्रकार यह संवत् मूलतः मालव जाति का ही चलाया हुआ था। अतः परवर्तीकाल में इसे "मालव' संज्ञा प्रदान कर दी गई तथा इस पूरे भौगोलिक क्षेत्र को मालवा क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।

 

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