मालवा के इतिहास के स्रोत भारतीय साहित्यिक प्रमाण अमितेश कुमार |
प्राचीन मालवा के इतिहास की जानकारी के लिए समकालीन साहित्य दूसरा महत्वपूर्ण स्रोत माना जा सकता है। इसका उल्लेख इस प्रकार किया जा रहा है --
वैदिक साहित्य महा भाष्य शुद्ध साहित्यिक कार्य कालिदास रचित "मालाविकाग्निमित्रम्' से विदित होता है कि पुष्यमित्र ने अपने पुत्र अग्निमित्र को विदिशा में गवर्नन (राज्यपाल) नियुक्त किया था। इसी अग्निमित्र ने विदर्भ के शासक यज्ञसेन को पराजित किया था। इस काव्य में अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र तथा यवनों के बीच घोड़ों की बलि को लेकर हुए विवाद का भी उल्लेख है। शुद्रक की "मृच्छकटिकम्' नामक संस्कृत नाटिका समकालीन उज्जैन के वास्तमिक चित्र का अंकन करता है। पद्मप्रभित्कम् व पादतादित्कम् भी संभवतः उज्जैन से संबद्ध ग्रंथ हैं। वराहमिहिर, जो कपिथा (उज्जैन के निकट वर्त्तमान कायथा) से संबद्ध थे, ने वृहत्संहिता लिखी। यह पुस्तक विभिन्न विषयों पर प्रचुर जानकारी उपलब्ध कराती है। वाण ने अपने "हर्षचरित्र' में मालवा के राजा के साथ प्रभाकरवर्मन के युद्ध का उल्लेख किया है। पद्मगुप्त के "नवसहशांकचरित' से परमारों के इतिहास की जानकारी मिलती है। उसमें विशेष रुप से परमार राजा सिंधुराज की चर्चा की गई है। मदन की "परिजातमंजरी' एक नाटिका के रुप में लिखी गई है, जिसमें राजा अर्जुनवर्मन तथा गुर्जर राजकुमारी विजयश्री के मिलन की घटनाओं की चर्चा है। धनपाल कृत "तिलकमंजरी'में लोगों के समकालीन सामाजिक तथा धार्मिक जीवन का उल्लेख मिलता है। तिलकमंजरी की तरह ही भोज की "श्रृंगारमंजरीकथा' भी समकालीन सांस्कृतिक जीवन को समझने को जानने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। भोज की अन्य कृतियों में,"समरांगनसुत्रधारा' से उस समय की वास्तुकला का तथा यक्तिकल्पतरु में उद्योगों के विकास का पता चलता है। समकालीन साहित्यिक रचनाओं में महान व्यक्तित्व विक्रमादित्य से जुड़ी हुई भी कई अर्धऐतिहासिक कथाएँ मिलती हैं। "कालकाचार्य- कथानक' में न सिर्फ विक्रमादित्य की चर्चा है, बल्कि साथ- साथ शुरुआत में २ री सदी ई. पू. में, शकों के सइस्तान से सिंध तथा काडियावाड़ होते हुए पश्चिम मालवा पर चढ़ाई का भी उल्लेख है। सोमदत्त कृत "कथासरितसागर' के अलावा सिंहासन द्वात्रिमशिका, बेतालपंचविशति:, शुकसप्तति: आदि ग्रंथों में विक्रमादित्य के गुणों का वर्णन मिलता है। जैनियों ने भी विक्रमादित्य की परंपरा को प्रभावकचरित, जैन हरिवंशपुराण तथा पट्टावली जैसे ग्रंथों में स्थान दिया है। वैसे ये ग्रंथ बाद के, १२ वीं सदी से १५ वीं सदी के बीच के लिखे गये हैं, अतः इन पर पूर्णरुपेण विश्वास नहीं किया जा सकता। अन्य साहित्यिक कार्य
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