विंध्य पर्वत
कई प्राचीन साहित्य व अभिलेखों में विंध्य का उल्लेख मिलता है। यह पर्वत भारत को उत्तरापथ और दक्षिणापथ के रुप में दो भागों में विभक्त करता है। वाल्मिकी रामायण में विंध्य को "सहस्र शिर' की संज्ञा दी गई है। गौतमपुत्र शातकर्णी के नासिक अभिलेख में इसकी चर्चा की गई है। भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार विंध्य पर्वत पारियात्र का पूर्वी विस्तार है, जहाँ से बेतवा की सहायक नदी धसान निकलती है।
पारियात्र
विंध्य पर्वत की तरह पारियात्र का भी उल्लेख कई स्रोतों से प्राप्त होता है। बौधायन धर्मसुत्र के अनुसार यह आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा है, जो निषाद जाति की भूमि हुआ करती थी। यह पर्वत विंध्य के पश्चिमी भाग में स्थित अरावली श्रेणियों से संबद्ध है, जो चंबल से बेतवा के उद्गम से लेकर खंभात की खाड़ी तक विस्तृत है। इससे बनास, पार्वती (पारा), शिप्रा आदि कई नदियों का उद्गम होता है।
ॠक्ष पर्वत
पी. वी. काणे के अनुसार ॠक्षो (भालुओं) से परिपूर्ण ॠक्ष पर्वत भारत वर्ष के कुल सात पर्वतों में से एक है। दिनेश चंद्र सरकार के अनुसार यह विंध्याचल का ही एक भाग है, जो नर्मदा की मध्य घाटी में स्थित है। हेमचंद्र चौधरी के मतानुसार नर्मदा के उत्तर में फैली हुई श्रेणी के मध्य भाग का नाम ॠक्ष है और नर्मदा के दक्षिण, समुद्र तक स्थित उसका पूर्वी भाग विंध्य श्रेणी के नाम से जाना जाता है। राय चौधरी ने टालमी के डोसारन को दशार्ण (धसान) नदी से जोड़ा है, जो ॠक्ष पर्वत से निकली हुई कही गई है। भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार ॠक्षवान सतपुड़ा ही है, जो नर्मदा और ताप्ती के मध्य में स्थित है।
देवागिरि
कालिदास के मेघदूत में देवगिरि को चंबल और गंभीरा नदियों के मध्य में स्थित कहा है। कमलाकांत शुक्ल के मतानुसार इसकी स्थिति उज्जैन और दशपुर (मंदसौर) के मध्य चंबल नदी
के दाहिने भाग में होना चाहिए तथा मेघदूत में उल्लेखित देवगिरि ही संभवतः आधुनिक देवगढ़ है। शिव पुराण में उल्लेखित देव पर्वत शायद यही रहा होगा। चंबल की घाटी, इसे अरावली पर्वत श्रेणियों से अलग करती है।
नीचि गिरि
कनिंघम तथा नंदलाल डे, जैसे विद्वानों ने नीचि गिरि को विदिशा के दक्षिण स्थित भोजपुर की पहाड़ियों से संबद्ध बताया है, जबकि भगवतशरण उपाध्याय इसकी पहचान विदिशा के समीप स्थित उदयगिरि पहाड़ियों से करते हैं। उदयगिरि पहाड़ियों की स्थिति विदिशा से उत्तर- पश्चिम में दो मील की दूरी पर है।
कालिदास ने मेघमार्ग निर्दिष्ट करते हुए पूर्वमेघ में विदिशा एवं वेत्रवती के उपरांत नीचि गिरि का उल्लेख किया है, जिसमें शिलावेश्य (पाषाण- गृह) बने हुए थे, जो समृद्ध रसिक जनों के विलासितापूर्ण क्रिया- कलापों के लिए प्रयुक्त होता था। इस प्रकार नीचि गिरि की स्थिति विदिशा के आस- पास ही होना चाहिए। संभव है कि उदयगिरि की निचली पहाड़ियों में पहले कभी गुफाएँ रही हो, जो कालक्रम में नष्ट हो गयी हों।
वेदिस (वैदिशा)
महावंश में वर्णित वेदिसगिरि को चेतियागिरि, चेतिय अथवा चेतियनगर से संबद्ध बनाया गया है। नंदलाला डे ने दीपवंश में उल्लेखित वेदिसगिरि को पूर्वी मालवा का वेस्सनगर (बेसनगर) बनाया है। पी. के. भट्टाचार्या इसे प्राचीन विदिशा के समीप स्थित लोहांगी पहाड़ी मानते हैं। नाम के आधार पर इसकी तुलना विदिशा की पहाड़ियों से करना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।