प्राचीन मालवा में धर्म का विकास अमितेश कुमार |
मालवा में विभिन्न धर्म व संप्रदायों के विकास में क्रमबद्धता दिखाई पड़ती है। समय के साथ लोगों के धार्मिक दृष्टिकोण में बदलाव आता गया। वैदिक देवकुल और बलियज्ञात्मक उपासना विधि धीरे- धीरे विस्मृत होती गई और उसका स्थान असंख्य मंदिरों में स्थापित विष्णु, शिव, सूर्य व अन्य देवी- देवताओं की आनुष्ठानिक उपासना ने ले लिया। बौद्ध एवं जैन- धर्मावलंबियों की कठोर व आडंबरहीन नैतिकता का स्थान बुद्ध तथा महावीर के मू रुप की उपासना ने ले लिया। बहुत से साक्ष्य यह स्पष्ट करते हैं कि यहाँ के शासक धर्मसहिष्णु रहे, जिससे अन्य धर्मों को भी उचित सम्मान प्राप्त हो सका तथा उसका विकास अनअवरुद्ध होता रहा। यहाँ के विभिन्न धर्मों के विकास की चर्चा इन चार कालों के आधार पर की जा रही है --
प्रद्योत- मौर्य काल प्रद्योत- मौर्य काल में साहित्यिक साक्ष्यों विशेष कर शुरुआती बौद्ध साहित्य तथा जातकों में उस समय के धार्मिक क्रिया- कलापों व मान्यताओं का पता चलता है। अशोक के अभिलेख भी सामान्य लोगों के धर्म संबंधी विश्वास की जानकारी प्रदान करते हैं। इस काल में ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म, ये तीन धर्म प्रमुख थे। जहाँ प्रद्योत काल में ब्राह्मण धर्म का बोलबाला था, वहीं मौर्यकाल आते- आते मालवा में बौद्ध धर्म की प्रसिद्धि बढ़ गई। शुंग- सातवाहन- शक काल इस काल में वैदिक धर्म का पुनउत्र्थान हुआ। वैष्णव, शैव व अन्य कई छोटे संप्रदाय स्पष्ट रुप से सामने आये। बौद्ध धर्म के अनुयायी अभी भी भारी संख्या में थे। मंदिर व मूर्तियों के निर्माण से धर्म से जुड़े मूर्तिकला और वास्तुकला का विकास शुरु हुआ। भवनों एवं शकों जैसे विदेशियों के आने से स्थानीय हिंदू समाज कई तरह से प्रभावित हुआ। वाणिज्य व्यापार तथा मुद्रा के प्रचलन में क्रांति आई। गुप्ता- औलिकर काल गुप्ता- औलिकर काल, धार्मिक विकास के दृष्टिकोण से विशेष महत्व रखता है। बहुत सारे बदलाव आये। पुराणों की जगह पुराने संहिता व ब्राह्मण साहित्यों ने प्रमुख धार्मिक साहित्यों का रुप ले लिया। यज्ञ व बलि संबंधी जटिलताएँ धीरे- धीरे कम होती गई । विष्णु तथा शिव का महत्व अन्य देवताओं की तुलना में बढ़ गया तथा अन्य देवता गौण हो गये। इस प्रकार लोगों के बीच वैष्णव धर्म व शैव धर्म विशेष रुप से लोकप्रिय हो गया। पूजा की पद्धति निश्चित कर दी गई। कई देवताओं की मूर्तियाँ व मंदिर का निर्माण किया गया। यहाँ तक की बौद्धों व जैनों की कठोर नैतिकता का स्थान उनके प्रतिमा- पूजन ने ले लिया। विभिन्न तीथर्ंकरों की मूर्तियाँ बनाई जाने लगी। लेकिन इस सब के बावजूद भी सभी धर्मों के लोगों में एक प्रकार का सद्भावना व्याप्त था। परमार काल परमार काल में भी धार्मिक सिद्धांतों व मान्यताओं में कोई खास बदलाव नहीं आया। मूर्ति पूजा और अधिक लोकप्रिय होता गया। कई अन्य देवी- देवताओं की मूर्तियाँ बनने लगी। बड़े- बड़े मंदिरों का भी निर्माण शुरु हो गया, जो वास्तुकला की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। विभिन्न देवी- देवताओं की मूर्तियों का सम्मिलित रुप से मिलना ( उदाहरण के लिए हरिहर की मूर्ति ) तथा एक ही मंदिर में स्थापित होना, धर्म के उदारवादी पक्ष की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। शासकों ने सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता का रुख अपनाया। धर्मों का एक- दूसरे पर भी प्रभाव पड़ा। जैन व बौद्धों ने भ्री ब्राह्मण धर्मावलंबियों की तरह प्रतिमा- पूजन, धार्मिक गीत तथा पूजा संबंधी विधियों को अपनाने लगे। जैनों के अहिंसा के सिद्धांत का प्रभाव ब्राह्मण धर्म पर भी पड़ा।
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