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प्राप्त अभिलेखों
से मालूम पड़ता है कि इस काल में
सम्राटों ने पूरे साम्राज्य को प्रशासन की
सुविधा की दृष्टि से अनेक प्रांतों, जिलों, नगरों तथा गाँव
में विभक्त किया था, जहाँ प्रायः राजकुमारों के
या अन्य विश्वसनीय अधिकारियों के माध्यम
से शासन संचालन किया जाता था। इनका उल्लेख हम इन शीर्षकों के अंतर्गत करेंगे:-
१. प्रान्तीय
शासन
२. विषय शासन
३. नगर शासन
४. ग्राम शासन
प्रांतीय
शासन
विवेच्यकाल में साम्राज्य की सबसे बड़ी
राजनीतिक इकाई का नाम देश था, जिसे हम आधुनिक
युग के प्रांत की संज्ञा प्रदान कर सकते हैं। गुप्तकाल
में पश्चिमी भारत में प्रांत के लिए
""देश'' शब्द का प्रयोग तथा पूर्वी
भारत में ""भुक्ति'' को प्रांत नहीं समझकर आधुनिक काल की कमिश्नरी
समझा जाना चाहिए। स्कंतगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख
में साम्राज्य के प्रांतों को देश तथा उसके प्रशासक को
""गोप्ता'' कहा गया है। ""गोप्ता'' का अभिप्राय
राज्यपाल या गवर्नर से है, जिसका
शाब्दिक अर्थ है ""रक्षक''।
विवेच्यकाल में चंद्रगुप्त द्वितीय के साँची प्रस्तर अभिलेख
से मालवा के ""सुकुलि'' देश तथा समुद्रगुप्त के एरण स्तंभ-
लेख से ऐरिकिण प्रदेश का उल्लेख मिलता है। गोप्ता के पद पर प्रायः
राजकुल के कुमारों को प्रांतीय शासक नियुक्त किया जाता था। इस पद पर नियुक्त
राजकुमारों ने मंदसौर (पश्चिमी
मालवा) के गवर्नर (गोविंदगुप्त) तथा एरण (पूर्वी मालवा) के गवर्नर घटोत्कचगुप्त
विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। यशोधर्मन- विष्णुवर्धन के
मंदसौर प्रस्तर अभिलेख में गोप्ता (प्रांतीय गवर्नर) के
लिए ""राजस्थानीय'' शब्द का प्रयोग मिलता है।
यशोधर्मन ने विंध्य और पारियात्र के
मध्य के भू- भाग (मंदसोर- पश्चिमी
मालवा) में अभयदत्त को राजस्थानीय (प्रांतीय
शासक) नियुक्त किया था, जो अपने देश का
शासन अपने द्वारा नियुक्त विभिन्न मंत्रियों की सहायता
से करता था।
हर्ष के समय में भी सारा साम्राज्य अनेक प्रांतों
में विभक्त था, जिन्हें ""भुक्ति'' या ""देश'' कहा जाता था। हर्ष के
मधुवन तथा बांसखेड़ा अभिलेखों में उल्लिखित ""राजस्थानीय'' शब्द प्रांतीय
शासक (गवर्नर) का दूसरा पदनाम था।
इस प्रकार जहाँ एक ओर केंद्रीय शासन
सीधे सम्राट और उसके मंत्री- परिषद के द्वारा
संचालित होता था, वहीं दूसरी ओर देश
या भुक्ति (प्रांत) का शासन गोप्ता या राजस्थानीय द्वारा
संचालित होता था और वह सीधे सम्राट के प्रति
उत्तरदायी होता था।
विषय का
शासन
विवेच्यकालीन शासन व्यवस्था में प्रांतों को
अनेक जिलों में विभक्त किया गया था, जिन्हें ""विषय'' कहा जाता था। विषय (जिले) का
शासन विषयपति कहलाता था। विषयपति की नियुक्ति
वे सीधे सम्राट करते थे। विषयों के
मुख्य नगर की, जहाँ विषयपति का निवास
भी होता था, ""अधिष्ठान'' कहते थे। इन्हीं अधिष्ठानों
में उनके ""अधिकरण'' का कार्यालय होते थे। गुप्त- अभिलेखों
से, हमें विषय का उल्लेख मिलता है। कुमारगुप्त प्रथम के
शासन काल के मंदसोर लेख से ज्ञात होता है कि
लाट एक विषय और दशपुर उसके अंतर्गत एक महत्वपूर्ण नगर था। एरण वराह प्रतिमा अभिलेख तथा मिट्टी की मुहर के ऊपरी
भाग में गजलक्ष्मी का चित्र तथा निम्न भाग
में ब्राह्मी लिपि में ""ऐरिकिणे गोमिक विषयाधिकरणस्य''
लेख उत्कीर्ण है, जो एरण के विषय (जिला) होने का स्पष्ट प्रमाण है।
विषय के प्रशासन में विषयपति की सहायता के
लिए एक समिति होती थी। दामोदरगुप्त ताम्र- पत्र
से नगरश्रेष्ठिन (नगर के पूँजीपतियों का प्रतिनिधि और नगर
सभा का अध्यक्ष), सार्थवाह (व्यापारी वर्ग का प्रतिनिधि) प्रथम- कुलिक (साहूकारों के
संघ का प्रधान या शिल्प- श्रेणियों का प्रतिनिधि
स्वरुप प्रधान शिल्पी) , और प्रथम कायस्थ (लेखक
वर्ग का प्रतिनिधि या प्रधान सचिव) का उल्लेख
मिलता है। ये चारों सदस्य जनप्रतिनिधि के
यप में विषय- शासन में सहयोग प्रदान करते थे। इन
सभासदों के विषपति के अधिकरण में
समस्त लेखों को सुरक्षित रखने के
लिए एक अन्य कर्मचारी होता था, जिसे पुस्तमाल कहा जाता था। इससे स्पष्ट होता है कि आलोच्यकाल
में श्रेणी संगठनों का मालवा में अस्तित्व था, जो विषय- प्रशासन
में विविध प्रकार से अपना सहयोग प्रदान करते थे।
नगर
- शासन
प्राचीन काल में नगर- शासन, सम्राट या केंद्रीय
शासन द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों, स्थानीय
सभाओं, समितियों तथा समुदायों द्वारा
संपादित होता था। नगर के प्रमुख शासक को कौटिल्य ने
""नागरक'' कहा है। विवेच्यकाल के अभिलेखों
में नगर प्रमुख को ""द्रांगिक'' कहा गया है। नगर का
शासक पुरपाल कहलाता था। प्रायः उसका उल्लेख उसके द्वारा
शासित नगर के नाम पर होता था, जैसे दशपुर का
शासक, दशपुर- पाल के नाम से अभिहित किया जाता था।
विषयपति के द्वारा ""द्रांगिक'' (नगरपाल) की नियुक्ति होती थी। कभी- कभी विषयपति अपने पुत्र को
भी इस पद पर नियुक्त करता था। जूनागढ़ अभिलेख के
अनुसार नगर की रक्षा तथा दुष्टों का दमन नगर के प्रमुख अधिकारी के कर्तव्य थे।
नगरशासन के अंतर्गत एक समिति होती थी, जिसे प्राचीन ग्रंथों में ""पौर'' कहा गया है। बृहस्पति के अनुसार नगर में शांति व्यवस्था स्थापित करने तथा नागरिकों के हित में सभागृह, सरोवर, मंदिर एवं विश्रामशाला का निर्माण तथा अनाथ एवं दरिद्रों की सहायता करना नगर समिति के प्रमुख कार्य थे। विश्ववर्मन के गंगधार अभिलेख तथा बंधुवर्मा और कुमारगुप्त के मंदसोर अभिलेख से क्रमशः नगर अधिकारियों द्वारा जन- कल्याणकारी कार्यों के संपादन तथा दशपुर नगर के तंतुवाय समिति द्वारा दशपुर में सूर्यमंदिर के निर्माण कराने का उल्लेख मिलता
है।
पारस्परिक विवादों का निर्णय श्रेणी पूग तथा कुल नामक स्थानीय समितियों एवं समुदायों द्वारा किया जाता था। जिन्हें अपने- अपने श्रेत्रों में राज्य की ओर से विवादों को निपटाने का अधिकार प्राप्त था। यदि कुल, जाति तथा श्रेणी के सदस्य अपने धर्म का पालन नहीं करते थे, तो राज्य उन्हें दण्ड देता था।
इस प्रकार हम पाते हैं कि इस युग की नगर शासन पद्धति में विविध राजकीय पदाधिकारियों एवं राजकीय संस्थाओं के अतिरिक्त नगर की स्थानीय सभाओं एवं समितियों को अपने- अपने क्षेत्रों में प्रशासकीय अधिकार प्राप्त था। उन प्रतिनिधि संस्थाओं के अपने रीति- रिवाज एवं कानून थे। इन्हें प्रशासन के क्षेत्र में राज्य की ओर से मान्यता प्राप्त थी।
ग्राम
- शासन
प्राचीन काल से ही ग्राम प्रशासन की भारत के प्रशासनिक व सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण भूमिका रही है। देश की संस्कृति, शासन और समृद्धि उन्हीं पर निर्भर थी। विवेच्यकाल में ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी। कौटिल्य के अनुसार ग्राम में एक सौ से लेकर पाँच सौ परिवार होते थे। ग्राम- शासन का उल्लेख आलोच्यकालीन लेखों तथा साहित्यिक साक्ष्यों से प्राप्त होता है। ग्राम के शासन के प्रशासन को ग्रामिक अथवा ग्रामेयक कहते थे।
वात्स्यायन के कामसूत्र से विदित होता है कि ""ग्रामधिपति आयुक्तक'' संज्ञा से अभिहित ग्राम- प्रधान अपने क्षेत्र में सर्वशक्तिमान होता था। ""ग्रामिक'' की सहायता के लिए एक सभा होती थी, जिसे पंचायत कहते थे। चंद्रगुप्त द्वितीय के साँची अभिलेख से ग्राम पंचायत का उल्लेख प्राप्त होता है। ग्राम- पंचायत अपने कार्य में स्वतंत्र थी। व्यवहारिक रुप से उस उस पर केंद्रीय शासन का नियंत्रण नहीं होता था, फिर भी इसका किसी राजकीय कार्यों के संपादन में तालमेल अवश्य रहता था। ग्राम पंचायत के पदाधिकारी तथा सदस्यों को महत्तर ग्रामिक, अष्टकुलाधिकारी तथा कुटुम्बिन कहते थे। ग्राम पंचायत शासन संबंधी सभी कार्य करती थी। वह ग्राम की सुरक्षा पर ध्यान रखती थी, गाँवों के झगड़े निपटाती थी, लोकहित के कार्य आयोजित करती थी तथा सरकारी राज संचित करके राजकोष में जमा करती थी।
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