गौतम बुद्ध से पहले संपूर्ण उत्तरी भारत सोलह महाजनपदों में विभक्त था। जैन- साहित्यों के अनुसार मालवा की सीमा के अंतर्गत "अवन्ति' या "मालवा' उनमें से एक महाजनपद था। ६वीं शताब्दी ई.पू. से पहले अवन्ति (मालवा) के इतिहास के बारे में कोई खास सप्रमाण जानकारी नहीं है। डी. आ. भंडारकर के मतानुसार ६ वीं सदी ई. पू. अवन्ति राज्य दो भागों में विभक्त था --
१. उत्तरी अवन्ति (राजधानी- उज्जयिनी) तथा
२. दक्षिणी अवन्ति (राजधानी- महिष्मती)।
६वीं सदी ई. पू. वीतिहोत्र नामक वंश ने हैहक राजवंश को हटाकर अवन्ति में अपनी राजनीतिक सत्ता की स्थापना की। परंतु तुरंत बाद ही प्रद्योतों ने वीतिहोत्रों के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया। प्रद्योत वंश के अभ्युदय के साथ यहाँ के इतिहास के बारे में साक्ष्य मिलने शुरु हो जाते हैं।
प्रद्योत वंश
पुराणों से प्रमाण मिलता है कि गौतम बुद्ध के समय अमात्य पुलिक (सुनिक) ने समस्त क्षत्रियों के सम्मुख अपने स्वामी की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ति के सिंहासन पर बैठाया। "हर्षचरित' ग्रंथ के अनुसार इस अमात्य का नाम पुणक (पुणिक) था। इस प्रकार वीतिहोत्र कुल के शासन की समाप्ति हो गई तथा ५४६ ई. पू. यहाँ प्रद्योत का शासन स्थापित हो गया। शक्ति में वह अपने समकालीन समस्त राजाओं में प्रमुख था, इसलिए उसे "चंड' कहा जाता था।
प्रद्योत के समय अवन्ति की उन्नति चरमोत्कर्ष पर थी। चण्डप्रद्योत का वत्स नरेश उद्मन के साथ दीर्घकालीन संघर्ष हुआ, किंतु बाद में उसने अपनी पुत्री वासवदत्ता का विवाह उद्मन से कर मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया।
बौद्ध ग्रंथ "विनयपिटक' के अनुसार चण्ड प्रद्योत का मगध नरेश बिम्बिसार के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध थे। जब चण्ड प्रद्योत पीलिया रोग से ग्रसित था, तब बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उज्जैयिनी भेजकर उसका उपचार कराया था, परंतु उसके उत्तराधिकारी अजातशत्रु का अवन्ति नरेश से संबंध अच्छे नहीं थे। "मंझिमनिकाय' से ज्ञात होता है कि चण्ड प्रद्योत के सम्मानित आक्रमण के भय से अजादशत्रु ने राजधानी राजगृह की सुदृढ़ किलाबंदी कर लिया।
चण्ड प्रद्योत के पश्चात उसका पुत्र पालक संभवतः अपने अग्रज गोपाल को हटाकर उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठा। पालक को मगध नरेश उद्मन ने कई बार पराजित किया, किंतु अंततः पालक की उद्मन की हत्या करने की योजना फलीभूत हो गई।
पालक एक अत्याचारी शासक था। प्रजा ने उसके विरुद्ध सफल विद्रोह कर उसे गद्दी से हटाकर आर्यक को वहाँ का राजा बनाया।
पुराणों के अनुसार प्रद्योत वंश का अंतिम शासक नन्दिवर्धन था। मगध की बढ़ती शक्ति के समक्ष धीरे- धीरे अवन्ति कमजोर होता रहा। अंततः मगध नरेश शिशुनाग ने इस राजवंश का अंत कर दिया तथा शूरसेन सहित अवन्ति राज्य को भी मगध में मिला
लिया।
नन्दों के
अधीन मालवा
शिशुनागवंश के बाद अवन्ति क्षेत्र नंदवंशीय शासकों के अधीन रहा। कहा जाता है कि शक्तिशाली नंदों ने समकालीन छोटे राज्यों की स्वायत्तता समाप्त कर अपनी "सर्वक्षत्रान्तक नीति' को सार्थक बनाया। नंदवंश के संस्थापक महापद्मनंद ने नर्मदा घाटी के हैहय राज्य के साथ- साथ वीतिहात्र राज्य पर अधिकार कर
लिया था।
मार्ययुगीन
मालवा
चाणक्य ने नंदवंश के अंतिम राजा धननंद की हत्या कर चंदगुप्त मौर्य के नेतृत्व में मौर्य वंश की स्थापना की। प्रमाणों से पता चलता है कि पश्चिम मालवा (उज्जयिनी) तथा पूर्वी मालवा (विदिशा) चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर अशोक के शासन- काल तक मौर्य साम्राज्य के अभिन्न अंग थे।
बौद्ध परंपराओं के अनुसार "अवन्तिरट्ठ' जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदूसार और अशोक के समय मौर्य साम्राज्य के महत्वपूर्ण प्रांतों में एक थे। राजधानी से दूरस्थ प्रांत होने के कारण यह राजवंश के राजकुमारों द्वारा संचालित होता था। इन राजकुमारों को "कुमार' की पदवी प्राप्त होती
थी।
इस क्षेत्र को खासकर उज्जयिनी, विदिशा और साँची को अशोक के काल में राजनैतिक और धार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। अशोक अपने पिता के शासन काल में उज्जयिनी का उपराजा बनाया गया। बुद्धघोष के अनुसार उज्जयिनी के राज्यपाल पद को ग्रहण करने के निमित्त जाते समय अशोक विदिशा में रुका हुआ था। वहाँ उसने नगर श्रेष्ठि देव की कन्या देवी से विवाह किया था। साँची स्थित विहार से अशोक ने संभवतः अपनी रानी देवी व उसकी सहचरी भिक्षुणियों के लिए ही बनवाया था।
जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि अशोक का पुत्र कुणाल अशोक का उत्तराधिकारी बना। कुछ स्रोतों के अनुसार वह उज्जयिनी का
शासक था।
जनपदकालीन
मालवा
मौर्य काल के अंतिम चरण में मालवा क्षेत्र में एरण, विदिशा एवं उज्जयिनी नामक नगर- राज्यों की स्थापना हुई। इन नगरों- राज्यों ने अपने नामों से अंकित सिक्के मुद्रित करवाये। उपलब्ध मुद्रा संबंधी साक्ष्यों से पता चलता है कि मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद पूर्वी मालवा में धर्मपाल, इंद्रगुप्त तथा शिवगुप्त का राज्य स्थापित हुआ। प्राप्त सिक्कों
में "एरण्यक', "वेदिस',वेद्दस, उजयिन
आदि लिखित हैं।
शुंग
काल में मालवा
हर्षचरित व पुराणों से पता चलता है कि सेनापति पुष्यमित्र ने अपने अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर शुंग वंश की स्थापना की।
पुष्यमित्र का साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा तक फैला हुआ था तथा विदिशा उसके राज्य का एक प्रमुख नगर था। "मालविकाग्निमित्रम' के अनुसार पुष्यमित्र वे शासन काल में उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा में गोप्तु (उपराजा) के रुप में शासन का संचालन करता था। अग्निमित्र ने विदर्भ के शासक यज्ञसेन के साथ युद्ध करके विदर्भ के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया।
सन् ४८ ई. पू. में पुष्यमित्र की मृत्यु हो गयी। पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार इस वंश में कुल १० शासक हुए --
क. पुष्यमित्र
ख. अग्निमित्र
ग. वसुज्येष्ठ
घ. वसुमित्र
ड़. अंध्रक (ओद्रक)
च. पुलिद्वक
छ. घोष
ज. वज्रमित्र
झ. भागभद्र और
ट. देवभूति।
इन सबने मिलकर ११२ वर्ष तक राज्य किये।
अग्निमित्र के उत्तराधिकारियों के संबंध में विशेष रुप से कुछ ज्ञात नहीं है। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर पाँचवें शासक ओद्रक (अंधक) व नौंवे शासक भागभद्र के विदिशा में राजनीतिक गतिविधियों का साक्ष्य मिलता है। कहा जाता है कि नौवें शासक भागभद्र का संबंध विदिशा स्थित गरुड़ स्तंभ से है, जिसे स्थानीय लोग खानबाबा (खम्भबाबा) के नाम से पुकारते है। यहाँ उत्कीर्ण लेख के अनुसार यूनानी शासक अंतलिकित ने अपने राजदूत हेलियोदोरस को भारतीय नरेश भागभ्रद की राजसभा में राजदूत के रुप में भेजा था। विदिशा में रहते हुए हेलियोदोरस भागवत धर्म का अनुयायी बन गया तथा विष्णु मंदिर के सम्मुख एक गरुड़- स्तंभ का निर्माण करवाया।
अभिलेखित साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारियों का पूर्वी मालवा (विदिशा) क्षेत्र पर अधिकार अंत तक बना रहा।
पुराणों के अनुसार अंतिम राजा देवभूमि अति कामुक था। उसके अमात्य कण्ववंशीय वसुदेव ने उसकी हत्या कर कण्व वंश की
स्थापना की।
सातवाहन
कालीन मालवा
पुराणों के अनुसार सिमुक ने पूर्वी मालवा (विदिशा) क्षेत्र में शासन करने वाले कण्वों तथा शुंगों की शक्ति को समाप्त कर सातवाहन वंश की स्थापना की है।
सातवाहन वंश का सबसे पराक्रमी राजा शातकार्णि प्रथम को माना जाता है। पुराणों में इसकी चर्चा कृष्ण (कान्ह) के पुत्र के रुप में की गई है, जिनका शासनकाल संभवतः ३७ ई. पू. से २७ ई. पू. था। गौतमीपुत्र शातकार्णि ने अपने प्रांतों पर विजय कर अपने वंश की लुप्त गौरव को प्रतिष्ठा दी। साँची के बड़े स्तूप की वेदिका पर उत्कीर्ण एक लेख से शातकर्णि के पूर्वी मालवा क्षेत्र पर अधिकार का पता चलता है।
शातकर्णि की मृत्यु के बाद उनकी रानी नागानिका ने अपने अल्पवयस्क पुत्रों के संरक्षक के रुप में राज्य किया।
पुराणों से प्राप्त वंशावली के अनुसार इस कुल का छठा राजा का नाम भी शातकर्णि था। विद्वानों ने इसे शातकर्णि द्वितीय के नाम से पुकारा है। उज्जयिनी से मिले "रजोसिरि सतस' नामांकित सिक्के शातकर्णि द्वितीय के द्वारा ही मुद्रित सिक्के माने जाते हैं। इस प्रकार शातकर्णि द्वितीय का अवन्ति पर शासनाधिकार सिद्ध होता है।
गौतमीपुत्र शातकार्णि सातवाहन वंश का सबसे बड़ा व पराक्रमी राजा था। उसके पुत्र वसिष्ठिपुत्र पुलुमावी के नासिक अभिलेख में उसकी सफलताओं का वर्णन मिलता है। इस अभिलेख में उसे पुनः सातवाहन वंश की स्थापना करने वाला, क्षत्रियों के दपं और मान का मर्दन करने वाला तथा क्षहरात वंश का निर्मूलन करने वाला बताया गया है। इनके शासन क्षेत्र की सूची में अनूप (महिष्मती के आसपास का
निभाड़), आकर (पूर्वी मालवा) और अवन्ति
(पश्चिम मालवा) भी शामिल है।
सातवाहन वंश का अंतिम प्रतापी नरेश यज्ञरी शातकर्णि था, जिसने १६५ ई. से १९३ ई. तक राज्य किया। उज्जयिनी लक्षण मुद्रित सिक्कों से उसके उज्जयिनी पर शासन का
प्रमाण मिलता है।
मालवा
में शकों का शासन
साधारणतः विद्वानों का मत है कि उज्जयिनी में शकों का शासन लगातार तब तक चलता रहा, जब तक की चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन के समय में मालवा गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित नहीं हो गया। इस काल के मालवा के इतिहास से संबंधित बहुत कम अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध होते हैं। अतः हम मुद्राशास्रीय साक्ष्यों पर ही पूर्णरुपेण निर्भर हैं। शकों की संयुक्त शासन- प्रणाली में यह परंपरा थी कि वरिष्ठ शासक "महाक्षत्रय' की उपाधि धारण करता था तथा अन्य कनिष्ठ शासक "क्षत्रय' कहलाते थे। पश्चिमी क्षत्रपों के समय- समय पर मिलते रहे, सिक्कों से ज्ञात होता है कि "महाक्षत्रय- उपाधि' बीच- बीच में नहीं मिलती है।
पार्थियन नरेशों की सिंधु प्रदेश की विजय के फलस्वरुप पंजाब तथा उत्तर- पश्चिम सीमांत प्रदेश में शक सत्ता का अंत हो गया और शकों की एक शाखा पश्चिमी भारत में अपने राज्य की स्थापना की। इसी शाखा से जुड़े राजवंश हैं --
१. क्षहरात वंश
२. कार्दभक वंश।
क्षहरात वंश का प्रथम ज्ञात क्षत्रप क्षहरात भूभक है। मुद्राओं के अध्ययन से उसके उज्जैन व भिलसा पर अधिकार का प्रमाण मिलता है। क्षहरात वंश का सबसे शक्तिशाली शासक नहपान हुआ। वह सातवाहन नरेश गौतमी पुत्र शातकर्णि का समकालीन था। नासिक अभिलेख से विदित होता है कि गौतमी पुत्र शातकर्णि ने नहपान ने आकर (पूर्वी- मालवा) तथा अवन्ति (पश्चिमी- मालवा) को छीनकर उन पर अधिकार कर लिया।
क्षहरात कुल के समूल विनाश के पश्चात पश्चिमी भारत में कदिभक- कुल के शकों का आविर्भाव हुआ। चष्टन इन वंश का प्रथम क्षत्रप था। अंधाऊ अभिलेख से पता चलता है कि चष्टन और उसका पौत्र रुद्रदामन साथ मिलकर शासन करते थे। टालमी के भूगोल (१४० ई.) पता चलता है कि अवन्ति या पश्चिम मालवा की राजधानी पर हिमास्टेनीज का अधिकार था। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि चष्टन ने नहपान द्वारा खोए हुए कुछ प्रदेशों को सातवाहनों से पुनः जीतकर उज्जैन को अपनी राजधानी बनाई।
चष्टन के बाद उसका पौत्र रुद्रदामन प्रथम क्षत्रप बना। रुद्रदामन प्रथम के जूनागढ़ अभिलेख (१५० ई.) से विदित होता है कि उसने अपने पितामह के क्षत्रय के रुप में आकर (पूर्वी मालवा) तथा अवन्ति (पश्चिमी मालवा) को गौतमी पुत्र शातकर्णि व उसके उत्तराधिकारी को पराजित करके जीता था। उपरोक्त प्रमाण बताते हैं कि रुद्रदामन प्रथम के शासनकाल में पूर्वी और पश्चिमी मालवा शक साम्राज्य के अभिन्न अंग थे।
रुद्रदामन प्रथम के बाद भी कदिर्भक वंश के शक नरेशों का मालवा से संबंध बना रहा और वे उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाकर शासन- संचालन करते रहे। भतृदामन का पुत्र विश्वसेन चष्टन वंश का अंतिम क्षत्रप था। भर्तृदामन और विश्वसेन की मुद्राएँ गोंदरमऊ सिरोह
तथा साँची से प्राप्त हुई है। इन सिक्कों का अधिक संख्या में मिलना इस बात का संकेत है कि इन्होंने अपने वंश की खोई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त किया।
चष्टन वंश के पतन के पश्चात शासन करने वाले परवर्ती शक- क्षत्रपों के कुछ सिक्के व अभिलेख मालवा- क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं, जिनसे उन राजाओं के शासन- काल के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इस वंश का प्रथम ज्ञात शासक रुद्रसिंह द्वितीय (स्वामी जीवदामन का पुत्र) था, जिसके सिक्के (शक संवत २२७- ३०४ ई.) साँची, गोदरमड (सिरोह) आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। रुद्रसिंह द्वितीय के उत्तराधिकारी यशोदामन द्वितीय (शक संवत ३१६- ३३२), रुद्रदामन द्वितीय, रुदसेन (तृतीय ३४८- ३७८ ई.), सिंहसेन, रुद्रसेन चतुर्थ, सत्यसिं तथा रुद्रसिंह तृतीय था।
रुद्रसेन तृतीय का शासन- काल करीब ३० वर्षों का था। उसके सिक्के आवरा (मंदसौर), गोंदरमऊ (सिरोह) तथा साँची से प्राप्त होते हैं। सिंहसेन से लेकर वंश के अंतिम शासक रुद्रसिंह तृतीय तक काशासन काल लगभग ३८२ ई. से ३८८ ई. तक रहा। गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) ने व्यक्तिगत रुप से शकों के विरुद्ध पश्चिमी भारत के शक- नरेश रुद्रसिंह तृतीय को परास्त कर पश्चिमी मालवा पर अधिकार कर लिया तथा अपने पुत्र गोविंद गुप्त को उज्जयिनी का शासक नियुक्त किया।
विदिशा- एरण क्षेत्र में शासन करने वाले एक नये शक वंश का पता चलता है, जिसके शासक श्रीधर वर्मन का एक अभिलेख एरण तथा दूसरा साँची के निकट कानखेरा से प्राप्त हुआ है। कानखेरा अभिलेख से मालूम पड़ता है कि श्रीधर वर्मन ने एक सैनिक अधिकारी के रुप में अपने जीवन की शुरुआत की। बाद में वह सामंत शासक बना तथा आमीरों की शक्ति क्षीण होने पर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। कानखेड़ा व एरण से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार उसके शासन काल ३३९ ई. ३६६ ई. के मध्य रही होगी। समुद्रगुप्त ने श्रीधरवर्मन के राज्य पर आक्रमण कर उसे पराजित कर
दिया।
नाग - वंश
कालीन मालवा
पुराणों में विदिशा में शासन करने वाले नाग- वंशीय राजाओं में शेष,
भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनन्दि,
शिशुनन्दि तथा यशनन्दि का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार विदिशा नागवंशीय राजाओं का गढ़ था।
द्वितीय शताब्दी ई. के अंतिम चरण में विदिशा ग्वालियर क्षेत्र के एक नये नाग वंश का आविर्भाव हुआ, जिनकी मुद्राएँ विदिशा के आस- पास के क्षेत्रों से प्राप्त हुई हैं। एच.वी.त्रिवेदी के अनुसार इस वंश का संस्थापक वृषनाग था, जिसका एक सिक्का विदिशा से प्राप्त हुआ है। वृष नाग के पश्चात भीमनाग शासक हुआ, जिसने अपनी राजधानी को विदिशा से पद्मावती स्थानान्तरित कर दिया। पद्मावती के नाग- शासकों में विभुनाग, भवनाग, प्रभाकर नाग, देवनाग तथा गणपति नाग के सिक्के प्राप्त हुए हैं।
गणपतिनाग के तांबे के सिक्के बेसनगर के उत्खनन से प्राप्त हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गणपतिनाग के राज्य में विदिशा नगर भी सम्मिलित था, जिसकी पहचान आधुनिक बेसनगर से की जाती है। इस वंश के अंतिम शासक गणपतिनाग को गुप्त शासक समुद्रगुप्त ने परास्त कर नाग वंश का अंत कर
दिया।
गुप्तकालीन मालवा
तीसरी शताब्दी के अंत तथा चौथी शताब्दी के प्रारंभ में उत्तर भारत में कोई सर्वोपरि राजनैतिक शक्ति नहीं थी। मालवा भी अनेक छोटे- छोटे स्वशासित राज्यों में बँटा था। आमीर, सनकानीक, प्रार्जुन, काक और खरपरिक वंश का शासन उस समय विदिशा के आसपास था। "पवाया' के निकट के क्षेत्र नागों के अधिकार में था तथा पश्चिमी मालवा पर शकों- क्षत्रपों को शासन था।
चंद्रगुप्त प्रथम के उपरांत ३५० ई. में समुद्रगुप्त ने गुप्त साम्राज्य की बागडोर सम्भाली तथा मालवा समेत भारत के एक विस्तृत भू- भाग की अपनी अधीन कर लिया।
शक क्षत्रप शासक संभवतः मालवा में अपनी स्थिति समुद्रगुप्त के शासनकाल में भी सुदृढ़ बनाये रख सकते थे, क्योंकि समुद्रगुप्त ने पहले मालवा को अपने साम्राज्य में संयोजित नहीं किया था, किंतु वे ऐसा नहीं कर सके। समुद्रगुप्त अपनी दिग्विजयों द्वारा गुप्त साम्राज्य की
सीमा का लगातार विस्तार करता गया। एरण में पाये गये स्तंभ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने अपनी सीमा मालवा की पूर्वी सीमा तक बढ़ा ली थी।
एरण से प्राप्त एक अन्य अभिलेख से विदित होता है कि एरण समुद्रगुप्त के साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। समुद्रगुप्त की "व्याघ्र निहंता' प्रकार की मुद्राएँ तथा उन पर "व्याघ्र पराक्रमः' की उपाधि वाकाटक माण्डलिक व्याघ्रदेव पर उसकी विजय का सूचक है, जिसके फलस्वरुप सागर- मण्डल (ऐरिकिण प्रदेश) समुद्रगुप्त के अधिपत्य में आ गया। इस खण्डित अभिलेख में एरिकेण प्रदेश में स्थित इस नगर को "स्वभोग नगर' के नाम से पुकारा गया है, जहाँ संभवतः समुद्रगुप्त ने अपनी वृद्धावस्था में अपनी पत्नी, पुत्र व पौत्रों सहित विश्राम करने आया था।
समुद्रगुप्त ने मालवा क्षेत्र में मालव नागराज्य (जिसमें राजस्थान के भी क्षेत्र शामिल हैं), आभीर (झाँसी ओर विदिशा), सनकानीक, भिलसा (विदिशा) तथा काक (साँची), क्षेत्रों को जीतकर अपनी अधीनता स्वीकार करने पर विवश कर
दिया।
समुद्रगुप्त का शक विजय
समुद्रगुप्त कालीन शक शासक पश्चिमी मालवा में बसे हुए थे, उनकी राजधानी उज्जैन थी। मौद्रिक साक्ष्यों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि समुद्रगुप्त ने शक नरेश रुद्रसेन तृतीय को पराजित कर शक राजा से उसके राज्य का पूर्वी हिस्सा छीनकर उस पर अधिकार कर लिया तथा उन्हें पश्चिम भाग में माण्डलिक के रुप में शासन करने का अधिकार प्रदान किया।
मालवों की एक शाखा औलिकरों के राजा जयवर्मन तथा सिंहवर्मन ने समुद्रगुप्त की दिग्विजय के फलस्वरुप उनकी अधीनता स्वीकार कर ली, तथापि वे अपने आंतरिक शासन कार्य में स्वतंत्र बने रहे।
इस प्रकार समुद्रगुप्त ने अपने दिग्विजय के फलस्वरुप पूर्वी तथा
पश्चिमी मालवा के विस्तृत भू- भाग पर अपनी राजनीतिक सत्ता स्थापित की। परंतु पश्चिमी मालवा में शकों व औलिकरों की आंतरिक स्वतंत्रता को समाप्त न करके उन्हें अपनी अधीनता में शासन- संचालक की
स्वतंत्रता प्रदान की।
रामगुप्त
रामगुप्त का समुद्रगुप्त के उपरांत गुप्त सम्राट होने का प्रमाण एरण व विदिशा से मिले कुछ सिक्कों से मिलता है। ये सिक्के सिंह और गरुड़ प्रकार के हैं, जिनपर गुप्त लिपि में रामगुप्त का नाम लिखा है। कुछ में गुप्त शासन का चिंह गरुड़ध्वज भी देखा गया है। विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमाओं में रामगुप्त का महाराजाधिराज की उपाधि के साथ नामोल्लेख किया गया है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि रामगुप्त विदिशा का स्थानीय शासक न होकर
सम्राट था।
साहित्यिक प्रमाण बताते हैं कि रामगुप्त चंद्रगुप्त द्वितीय का
बड़ा भाई था। शकों द्वारा पराजित द्वितीय का
बड़ा भाई था। शकों द्वारा पराजित रामगुप्त ने अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को
शक राजा के हाथों समर्पित करना स्वीकार कर
लिया था, किंतु चंद्रगुप्त द्वितीय ने हस्तक्षेप कर अपनी
भाभी व वंश की प्रतिष्ठा की रक्षा की। उसने न केवल
शक राजा की हत्या की वरन् अपने बड़े
भाई का भी सफाया कर दिया। सिंहासनारुढ़ होकर अपने
बड़े भाई की विधवा पत्नी ध्रुवदेवी
से विवाह कर लिया।
चंद्रगुप्त द्वितीय
चंद्रगुप्त द्वितीय ३६६- ६७ ई. में सिंहासन पर
बैठा। वह अपने पिता समुद्रगुप्त की तरह ही
वीर योद्धा था। उसके शासन काल की
सबसे महत्वपूर्ण विजय पश्चिमी मालवा और काठियावाड़ (सौराष्ट्र) थी, जो
शक- क्षत्रपों के अधीन था। शकों के विरुद्ध अभियान के
समय उसने पूर्वी मालवा को अपने सैन्य-
संचालन का केंद्र बनाया था। आज्ञेयी विश्वास के
अनुसार उदयगिरि और साँची (गुप्त संवत् ९३- ४१३ ई.) के
लेख चंद्रगुप्त के शकों के विरुद्ध विजय अभियान की तिथि तथा
मार्ग निर्देशन करते हैं।
पूर्वी मालवा के एक ही क्षेत्र में चंद्रगुप्त द्वितीय के एक
सामंत तथा सैनिक अधिकारी की उपस्थिति इस क्षेत्र
में चंद्रगुप्त के दीर्घकालीन अभियान की ओर
संकेत करते हैं। उदयगिरि गुहा- लेख
(गुप्त सं. ८२/४०१ ई.) के आधार पर कहा जाता है कि
संपूर्ण मालवा पर गुप्त सत्ता स्थापित हो चुकी
थी।
चंद्रगुप्त द्वितीय के समकालीन शक प्रतिद्वेंदी
संभवतः रुद्रसिंह तृतीय था, जिसे परास्त कर उसने पश्चिम
मालवा को अपने अधीन कर लिया। पहले उसने विदिशा (पूर्वी मालवा) को तथा
बाद में पश्चिमी मालवा विजयों के पश्चात
उज्जैन को अपना निवास स्थान बनाया। वैसे तो पश्चिमी
मालवा की विजय का कोई अभिलेखित
साक्ष्य नहीं मिलता परंतु दशपुर से प्राप्त नरवर्मन के अभिलेख (मालवा
सं. ४१६/४०४ ई.) से यह विदित होता है कि पश्चिमी
मालवा का मंदसौर क्षेत्र उसके प्रभाव के अंतर्गत था। अभिलेख
में नरवर्मन की सामंतीय उपाधि "महाराज'
से संकेत मिलता है कि वह चंद्रगुप्त द्वितीय के काल
में दशपुर का अधीनस्थ शासक था।
कुमारगुप्त
कुमारगुप्त प्रथम सन् ४१५ ई. में सिंहासनारुढ़ हुआ। उसने ४० वर्षों
से अधिक समय तक शासन किया। उसने अपने पिता के
उत्तराधिकार से प्राप्त विशाल साम्राज्य को
अक्षुण्ण बनाये रखा। उसके समय के प्राप्त अभिलेखों
में उसके कुछ राज्यपालों व सामंतों के नाम हैं, जो उस
समय मालवा का शासन कार्य देखते
थे।
स्कंदगुप्त
कुमारगुप्त प्रथम के बाद स्कंदगुप्त ने गुप्तवंश के
शासन का बागडोर संभाला। उसका शासनकाल ४५५ ई.
से ४६७ ई. तक है।
कुमारगुप्त प्रथम के मृत्योपरांत संभवतः
वाकाटकों ने मालवा पर अधिकार स्थापित करने का प्रयत्न किया।
मंदसौर के शिलालेख (मालव संवत ४९३ और
मालव संवत ५२९) से विदित होता है कि
मालवा पर ४३६ ई. से ४७२ ई. के बीच कई नरेशों का
शासन था। इससे यह प्रतीत होता था कि यह काल
राजनीतिक दृष्टि से काफी उथल- पुथल का
समय था। स्कंदगुप्त का शासनकाल इसी
बीच पड़ता है। स्कंदगुप्त के प्रति निष्ठावान प्रभाकर ने
वाकाटकों तथा दशपुर के विद्रोही वर्मन राजा को पराजित कर गुप्तों की
सत्ता पुनः प्रतिष्ठापित की।
कुमारगुप्त प्रथम के काल से ही घटोत्कच गुप्त
सम्राट के प्रतिनिधि के रुप में पूर्वी मालवा
में शासन कर रहा था। नुमेन लेख से पता चलता है कि वह अपने प्रदेश का
स्वतंत्र शासक बनने की कोशिश कर रहा था,
लेकिन स्कंदगुप्त की शक्ति के सामने उसकी ऐसी कोशिशें
फलीभूत नहीं हो पायी।
ऐतिहासिक संकलन की वर्तमान परिस्थिति
में स्कंदगुप्त की मृत्यु के पश्चात गुप्त
साम्राज्य के इतिहास को एक निश्चित रुपरेखा दे
सकना कठिन है। इतिहासकारों में उत्तराधिकारियों के निश्चित क्रम के
संबंध में गहरे मतभेद हैं। ये शासक थे पुरुगुप्त,
बुद्धगुप्त, भानुगुप्त, नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय व नरेश गुप्त। इसके अलावा और भी कुछ नाम
मिले हैं, जिन्हें निश्चित क्रम में रखना कठिन है।
एरण प्रस्तर अभिलेख गुप्त संवत (९१/५१० ई.)
से ज्ञात होता है कि भानुगुप्त का सामंद गोपराज एरण
में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया और उसकी पत्नी
सती हो गयी।
वर्द्धन
वंश
पश्चिमी मालवा पर कुमारगुप्त द्वितीय के
शासन की अंतिम तिथि ४७३ ई. है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुमार गुप्त द्वितीय के
बाद पश्चिमी मालवा पर औलिकर वंशीय
वर्धनवंश ने प्रभुसत्ता स्थापित कर ली। आदित्यवर्धन कालीन गौरी के
मंदसौर अभिलेख (४९०- ५०० ई.) से ज्ञात होता है कि
बुधगुप्त के शासन- काल में पश्चिमी मालवा
में आदित्यवर्द्धन नामक शासक ने स्वतंत्र
राज्य की स्थापना की। छोटी सदरी तथा दशपुर
से प्राप्त अभलेखों से मालुम पड़ता है कि पश्चिमी
मालवा पर संभवतः आदित्यवर्धन का अधिकार था।
वर्द्धनवंश से ज्ञात राजाओं को संभवतः इस क्रम
में रखा जा सकता है --
आदित्यवर्द्धन (४९० ई.),
प्रकाशधर्मा (भगवत्प्रकाश)
विष्णुवर्द्धन उर्फ यशोधर्मा (५३२ ई),
द्रव्यवर्द्धन।
औलिकर प्रकाशधर्मा के मंदसौर स्थित रिस्थल- पाषाण-
फलक लेख मालवा संवत (५७२/५१५-१६ ई.) से ज्ञात होता है कि
यशोधर्मा से पहले ५१५- १६ ई. में प्रकाशधर्मा का
शासन था। उसने इस तिथि से पूर्व तोरभरण पर विजय प्राप्त करके पूर्वी मालवा पर अधिकार कर
लिया। यशोवर्मा के तिथि विहीन मंदसौर अभिलेख
से पता चलता है कि उसने उत्तर में
हिमालय से लेकर दक्षिण में महेंद्र पर्वत
(गंजाम) तक तथा पूर्व में लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) नदी
से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक अपनी प्रभुसत्ता स्थापित की।
लगभग ५३० ई. में उसने हूण नरेश मिहिरकुल पर विजय प्राप्त की होगी।
द्रव्यवर्धन संभवतः गुप्तवंश के अंतिम
शासक विष्णुगुप्त का समकालीन था। वराहमिहिर की वृहत्संहिता
में उसे "अवन्ति-नृप' की उपाधि से संबोधित किया गया है।
गुप्तोत्तरकालीन
मालवा
गुप्त वंश के पतन के बाद प्रांतवाद की
संकुचित भावनाओं का प्रादुर्भाव हुआ।
सारा भारत छोटे- छोटे राज्यों में
बँट गया। ऐसी परिस्थिति में मालवा
में परवर्ती गुप्तवंश तथा कन्नौज मे पुष्यभूति
वंश का उदय हुआ, जिन्होंने अपनी राजनीतिक गतिविधियों
से विवेच्यकालीन मालवा को प्रभावित
किया।
परवर्ती गुप्त कालीन मालवा
परवर्ती- गुप्तों का इतिहास हमें मुख्य
रुप से दो अभिलेखों से प्राप्त होता है --
क. आदित्यसेन का अफसद प्रस्तर लेख (६७२ ई.)
ख. जीवितगुप्त द्वितीय का देवबर्नार्क
अभिलेख।
इन अभिलेखों से प्राप्त नाम क्रम में इस प्रकार हैं --
१. कृष्णगुप्त
२. हर्षगुप्त
३. जीवितगुप्त प्रथम
४. कुमारगुप्त
५. दामोदरगुप्त
६. महासेनगुप्त
७. माधवगुप्त
८. आदित्यसेन गुप्त
९. देवगुप्त
१०. विष्णुगुप्त
११. जीवितगुप्त
प्रथम आठ शासकों के नाम आदित्यसेन के अफसद अभिलेख
से तथा ७ वें से ११ वें तक का उल्लेख जीवितगुप्त द्वितीय के देवबर्नाक अभिलेख
में मिलता है। विभिन्न विद्धानों के मतों व परवर्ती- गुप्तों के प्राप्त अभिलेखों के प्राप्ति- स्थल के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा
सकता है कि प्रारंभ में परवर्ती- गुप्त
शासक मगध के आस- पास ही गुप्तों के
अधीन शासक थे। किंतु, बाद में मौखरियों के दबाव के कारण महासेनगुप्त ने
मगध के स्थान पर मालवा को अपनी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र
बनाया।
महासेनगुप्त के शासन के अंतिम चरण
में मालवा में लगातार राजनीतिक उथल- पुथल होती रही।
शंकरगण के अभोना लेख (कलचुरि संवत ३४७/५९५- ९६ ई.)
से यह ज्ञात होता है कि कलचुरि नरेश
शंकरगण ने उज्जैन (पश्चिमी मालवा) पर अधिकार कर
लिया। संभवतः इस युद्ध में ५९५ ई. में महासेनगुप्त की
मृत्यु हो गयी।
कलचुरि नरेश शंकरगण के बाद उसका पुत्र
बुद्धराज उत्तराधिकारी बना। महाकूट स्तंभ
लेख से विदित होता है कि लगभग ६०२- ०३ ई.में चालुक्य नरेश
मंगलेश ने कलचुरि नरेश बुद्धराज को पराजित करके पश्चिमी
मालवा पर अधिकार कर लिया।
पुष्यभूतिवंश
महासेनगुप्त की मृत्यु के उपरांत कलचुरियों और चालुक्यों के संघर्ष
से लाभ उठाकर महासेनगुप्त के संबंधी देवगुप्त ने अपने को
मालवा का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया तथा परवर्ती गुप्त
सम्राट के पुत्र एवं उत्तराधिकारी कुमारगुप्त व
माधवगुप्त को मालवा के राजसिंहासन के अधिकार
से वंचित कर दिया। प्रभाकर वर्धन ने
उनके दोनों पुत्रों की प्राण- रक्षा की। उसके अपने पुत्र
राजवर्धन व हर्षवर्धन थे। राज्यवर्धन ने हर्ष को थानेश्वर का प्रशासन
सौंपकर मालवराज देवगुप्त से संघर्ष के
लिए प्रस्थान किया तथा उसे आसानी से पराजित कर दिया।
बाण के हर्षचरित में राज्यवर्धन द्वारा पराजित
मालवराज देवगुप्त ही था, जिसका उल्लेख
मधुबन और बाँसखेड़ा में है। राज्यवर्धन की छलपूर्वक देवगुप्त के मित्र गौड़ नरेश ने हत्या कर दी।
राज्यवर्धन की हत्या के पश्चात् ६०६ ई.
में हषवर्धन थानेश्वर के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। विरदी कॉपर प्लेट के एक अभिलेख
से ज्ञात होता है कि ६१६- १७ ई. में उज्जयिनी पर बलभी के
मैत्रकों का अधिपत्य था।
राज्यवर्धन की हत्या से उत्पन्न विषम परिस्थितियों
से लाभ उठाकर बलभी के मैत्रकों ने
मालवा पर अधिकार कर लिया। परिणामस्वरुप हर्ष को
वलभी पर आक्रमण करना पड़ा तथा उसने
समकालीन बलभी नरेश भीलादित्य प्रथम को पराजित कर दिया।
बाद में हर्ष ने चालुक्यों के विरुद्ध
बलभी नरेंशों से मित्रता कर अपनी पुत्री का विवाह ध्रुवभट्ट
से कर दिया। डी. देवहूति का मानना है कि पश्चिम
में हर्ष का साम्राज्य ह्मवेनसांग द्वारा उल्लेखित
उज्जैन (वू-शी-येन-न) सहित पश्चिमी मालवा (मो-ल-पो) तक विस्तृत था। इससे पहले पूर्वी मालवा,
सर्वप्रथम कूटनीतिक संबंधों द्वारा और
बाद में युद्ध द्वारा पुष्यभूति राज्य में
सम्मिलित हो चुका था।
इस प्रकार हम पाते हैं कि विवेच्यकालीन
मालवा क्षेत्र राजनीतिक और सामरिक दृष्टि
से हमेशा से एक महत्वपूर्ण प्रदेश रहा है तथा विभिन्न
राजवंशों ने इस पर अपने अधिपत्य की हरसंभव कोशिश की है।
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