मालवा

मालवा की सामाजिक व्यवस्था

अमितेश कुमार


मालवा की सामाजिक व्यवस्था का उन्नयन मानवीय कार्यों पर आधारित था। वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत समाज में आध्यात्मिक उदात्त भावनाओं को जाग्रित रखने के लिए ब्राह्मण, शक्ति के विकास को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए क्षत्रिय, धनधान्य कृषि एवं व्यापार से संपन्न रखने के लिए वैश्य तथा अन्य वणाç की सेवा कार्य करने वाले शूद्रों का विधान था। जन्मजात तथा गुणकर्म के आधार पर ही जातियों तथा उपजातियों का निर्धारण होना था, इसका उल्लेख धर्मशास्रों में भी मिलता है।

साहित्यों में विभिन्न प्रकार के अलंकरण तथा आभूषणों के प्रयोग करने का उल्लेख प्राप्त है। आभूषण स्री- पुरुष दोनों ही धारण करते थे। ये सोना- चाँदी के अतिरिक्त विभिन्न धातुओं तथा फूलों से भी निर्मित किये जाते थे। समय- समय पर प्रदर्शनी, उत्सव तथा भोजों का आयोजन होता था। इनमें नृत्य, नाटक, संगीत आदि का भी कार्यक्रम सम्मिलित होता था। मनोरंजन के लिए कई साधन थे। नाटक, राजकीय क्रीड़ायें, जल क्रीड़ाएँ, नट का कला प्रदर्शन आदि लोकप्रिय आमोद- प्रमोद के साधन थे। राजकीय दरबारों में विदूषकों के भी मनोविनोद के उल्लेख हैं।

जनजीवन के सभी उपक्रमों में अध्यात्म भावना की प्रमुखता थी। राजाओं तथा धनिक वर्ग के व्यक्तियों द्वारा विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया जाता था। मंदसौर का सूर्य मंदिर जुलाहों तंतुबायों के एक समूह द्वारा कुमारगुप्त के शासनकाल में निर्मित करवाया गया था, जिससे पता चलता है कि साधारण जनसमूह के लोग भी यह कार्य करवाते थे। सामूहिक उत्सवों का आयोजन भी किया जाता था।

 

मालवा में कृषि

मेवाड़ की व्यवस्था में कृषि का विशेष योगदान रहा है। अधिक उपज के लिए विभिन्न नए साधन व उपकरणों के उपयोग का प्रमाण मिलता है। इसकी देखरेख के लिए अलग से एक विभाग हुआ करता था।

आलोच्यकाल की कृषि- संबंधी व्यवस्था के बारे में हमें कई साहित्यिक प्रमाण मिलते हैं। इनमें कालिदास की विभिन्न कृतियों तथा वराहमिहिर कृत "वृहत्संहिता' का विशेष योगदान है। गेहूँ, जौ, दालों, तेलहन फसलों जैसे तिल, सरसों कई प्रकार के धान (कलमा, लाल धान, पीला धान, जंगली धान आदि), अदरक, ईख, विविध प्राकर की सब्जियाँ व औषधि की फसल व पेड़ उगाने के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं। ईख से शक्कर व चीनी बनाएँ जाते थे।

वराहमिहिर ने जमीन की तैयारी एक पेड़ की कलम को दूसरे में लगाने, सही मौसम में वृक्षों की सिचाई करने, वृक्षों के आरोपण की दूरी, वृक्षों में उत्पन्न बीमारियों की चिकित्सा, जमीन में गड्ढ़ा कर बोने के तरीके आदि का भी उल्लेख किया है।

सिचाई के लिए लोग मुख्य रुप से वर्षा पर निर्भर थे। परंतु वर्षा के अभाव में कृत्रिम सिचाई के रुप में झील, कूप, तालाब व कुंआ से पानी की सिंचाई का प्रावधान था। वराहमिहिर ने ज्योतिष के आधार पर नक्षत्रों के अनुसार वर्षा के विषय में विस्तृत विवरण दिया है। उस समय भी वर्षा को मापने के लिए एक विशेष मानक पैमाने का प्रचलन था।

 

मालवा में पशु- पालन

आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए पशुपालन का भी प्रचलन था। पशु कृषि कार्य में भी सहायक होते थे। प्रमुख पालतु पशु गाय, बैल, घोड़े व हाथी थे। उत्पादन बढ़ाने के लिए बैलों द्वारा खेतों की जुताई की जाती थी।

कालिदास ने अपने साहित्य में बड़े- बड़े चारागाहों का उल्लेख किया है। एक स्थान पर उन्होंने करोड़ों गायों को पालने का जिक्र किया है। इन बातों से स्पष्ट होता है कि पशुपालन को दृष्टि में रखकर चारागाह की भी व्यवस्था की जाती थी।

 

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