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मालवा के लोग परिश्रमी व साहसी थे। आलोच्यकाल आर्थिक दृष्टि
से वैभव व संपन्नता का काल था। उज्जयिनी, दशपुर, विदिशा तथा एरण
में विभिन्न उद्योग व व्यवसाय प्रगति पर थे तथा वहाँ पर दैनिक जीवन
में प्रयुक्त होने वाले विभिन्न प्रकार की
वस्तुओं का निर्माण किया जाता था। समाज
में कई प्रकार का उद्योग व व्यवसाय प्रचलन
में था। कालिदास के अनुसार इस काल के प्रमुख
व्यवसाय थे --
- कृषि
- सुवर्णकारों तथा अन्य शिल्पियों के धातु- कर्म
- तन्तुवाय- कर्म
- वाणिज्य
- सौनिक कर्म
- नृत्य गीत
- व्याघवृत्ति
- गृह- शिल्प
- खनन कर्म आदि।
धातु व
रत्नों का व्यवसाय
विभिन्न साहित्यिक प्रमाणें से पता चलता है कि यहाँ खनन कार्य के द्वारा कई बहुमूल्य पत्थर व धातु निकाले जाते थे। धातुओं
में स्वर्ण, रजत व ताम्र का विशेष प्रचलन था।
लोग धातु को पिघलाने व ढ़ालने में निपुण थे। प्रमुख
रत्न थे --
-- वज्र (हीरा),
-- पद्मराग (लालमणि),
-- पुष्पराग (पुखराज),
-- महानील या इंद्रनील (नीलम)
-- मरकत (पन्ना),
-- वैदूर्य स्फटिक,
-- मणिशिला,
-- सूर्यकांत
-- चंद्रकांत मणि
-- जम्बुमणि,
-- बिल्लोर,
-- दूधिया मोती,
-- प्रवाल,
-- गोमेध आदि।
वराहमिहिर ने तो हीरा,
मोती व माणिक के कई किस्मों का भी उल्लेख किया है।
रत्नों के कई प्रयोजन थे, जैसे आभुषण व सिक्कों का
बनाना, सजावट के सामान, चौकियों, पलंगों, दरवाजों व
मकानों के फर्श, वस्रों की सजावट, तलवारों की
मूठ, मदिरापात्रों आदि में रत्नों का प्रयोग किया जाता था। कई
बार कुछ रत्नों को मंगलकारी चिन्हों के
रुप मं भी धारण किया जाता था।
वस्र - उद्योग
बुनकरों की कुशलता ने वस्र- उद्योग को आगे
बढ़ाया। कालिदास ने अपनी कृतियों में कौशेय, क्षौभ, पत्रोर्ण, कौशेय- पत्रोर्ण, टुकूल, अंशुक आदि विविध प्रकार के
वस्रों का उल्लेख किया है।
मंदसौर अभिलेख से विदित होता है कि
रेशमी वस्र बनाने की कला से निपुण कई
व्यक्ति कालांतर में लाट देश से आकर दशपुर (पश्चिम
मालवा) में बस गये। ये रेशमी वस्र निर्यात
भी किये जाते थे।
मालवा के अन्य उद्योग
मालवा में प्रचलित अन्य प्रमुख उद्योगों/
व्यवसायों का उल्लेख इस प्रकार है :-
१. हाथी दाँत की वस्तुएँ,
२. तलवार व अन्य अस्र- शस्रों का निर्माण
३. इत्र और तेल का निर्माण आदि।
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