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मालवा में विभिन्न स्थानों से प्राप्त सिक्कों को यहाँ के इतिहास की जानकारी के एक
महत्वपूर्ण माध्यम माना जा सकता है। यहाँ हर क्षेत्र मे अलग- अलग प्रकार के सिक्के मिलते रहे। कुछ पंचमार्क कुछ अनभिलिखित तो कुछ अभिलिखित भी। उनका आकार, भार व निर्माण- पद्धति भी कालांतर में बदलता रहा।
विदिशा के सिक्के
वेत्रवती और बेस नदियों के संगम पर स्थित विदिशा भेलसी में ज्यादातर चाँदी और ताम्बे के सिक्के मिले हैं। ये प्रायः आकार में चौकोर हैं। सिक्के दोनों अभिलिखित और अनभिलिखित प्रकार के हैं। अनभिलिखित सिक्के गोल व चौकोर दोनों तरह के हैं। इन पर मिलने वाले चिंह वेदिकावृक्ष, षड़रचक्र, लक्ष्मी, उज्जैन चिंह, नंदिपद, स्वास्तिक, इंद्रध्वज, सूर्य, कमल, वेदिका, नदी, पर्वत आदि हैं। पशुओं के चिंहों में सबसे अधिक बैल देखा गया है, उसके बाद गज, अश्व, गरुड़ व मयूर का स्थान है।
अभिलिखित सिक्कों को दो भागों में बाँटा जा सकता है। कुछ सिक्कों पर स्थानीय राजाओं के नाम व कुछ पर नगर के नाम मिलते हैं। विवेच्यकाल में रामगुप्त पहला गुप्त शासक था, जिसने ताम्र सिक्के मुद्रित करवाए। यहाँ प्राप्त कुमारगुप्त प्रथम निर्मित सिक्के सिंह शैली, गरुड़ शैली व कलशशैली में निर्मित है। चंद्रगुप्त द्वितीय की स्थानक राजा शैली की ताम्र मुद्राएँ भी यहाँ मिली हैं। साथ- साथ अर्द्धचंद्र तथा चक्र प्रकार के सिक्के भी मिले हैं।
एरण के सिक्के
सागर नगर से ४७ मील उत्तर- पश्चिम विदिशा के उत्तर- पूर्व में बीना नदी के बायें किनारे पर स्थित यह स्थान प्राचीनकाल का एक महत्वपूर्ण नगर था। एरण से सिक्कों की पूरी श्रृंखला प्राप्त हुई है। ये सिक्के विभिन्न धातुओं से निर्मित है। इन्हें तीन भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं --
१. पंचमार्क सिक्के,
२. अनभिलिखित सिक्के,
३. अभिलिखित सिक्के।
पंचमार्क सिक्के बहुत कम संख्या में प्राप्त होते हैं। ये आकार में बड़े हैं। ताम्बे के बने इन सिक्कों पर नदी, वेदिकावृक्ष, सूर्य, हाथी, घोड़ा आदि के चित्र बने हैं। गरुड़ शैली अर्धचंद्र व कलशशैली के सिक्के प्राप्त हुए हैं। अधिकतर सिक्कों पर हाथी बने हैं। कुछ में उन्हें घोड़े के साथ दिखाया गया है। संभवतः उस समय ताम्र सिक्कों का टकसाल था। कुछ ताम्र सिक्कों पर चाँदी का पानी चढ़ा मिलता है। शुद्ध चाँदी के सिक्के कम मिल हैं। अनभिलिखित सिक्कों में कमल, वेदिकावृक्ष, हाथी, मछलियाँ, उज्जैन चिन्ह, इंद्रध्वज व स्वास्तिक मिलते हैं। इसके अलावा कुछ ऐसे सिक्के भी हैं, जिसमें लेख पाये गये हैं। इन सिक्कों में सम्भवतः स्थानीय राजाओं के नाम खुदे हैं। एक सिक्का सीसेब का भी मिला है।
उज्जयिनी के सिक्के
उज्जयिनी से अवन्ति जनपद की मुद्राएँ बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं। ज्यादातर स्थानीय शासकों के सिक्के ताम्बें के हैं, जिसका निर्माण वहाँ की टकसालों में होता रहा। यहाँ के सिक्कों की मुख्य विशेषता उस पर पाया जाने वाला उज्जैन चिन्ह (अ ), कुछ विद्वान इसे वज्र चिंह भी कहते हैं। यह चिन्ह यह प्रदर्शित करता है कि चार दिशाओं को जाने वाला रास्ता एक ही स्थान पर मिलते हैं, जो उज्जयिनी की व्यापारिक मार्गों के संगम के रुप में प्रदर्शित करता है। मध्यभाग उज्जयिनी का सूचक है। यह चिन्ह इतना प्रचलित हुआ किस बाद में दक्षिण के सातवाहनों में तथा उज्जयिनी के क्षत्रप शासकों ने भी अपने सिक्कों पर इस चिन्ह का प्रयोग किया।
सिक्के अनभिलिखित व अभिलिखित दोनों प्रकार के हैं। संभवतः अनभिलिखित सिक्के पुराने हैं। समय के साथ चिन्हों की संख्या व जटिलता में कमी आती गई हैं। इनमें वेदिका वृक्ष, स्वास्तिक, नदी में तैरती मछलियाँ, उज्जैन चिन्ह, इन्द्रध्वज, बैल, नन्दिपद, शेर, कुत्ता, कछुआ, षड़रचक्र आदि के चिन्ह बने हैं। यहाँ विशेष गज प्रकार के सिक्के भी मिले हैं, जो अधिकांशतः तांम्बे के हैं तथा कुछ चाँदी के हैं। वे आकार में चौकोर और आयताकार हैं। कुछ ताम्र सिक्कों में देवी या देवता की आकृतियाँ बनी हैं। ये गोल एवं चौकोर दोनों हैं।
विवेच्यकाल में यहाँ से लक्ष्मी प्रकार की ताम्र मुद्राएँ भी मिली हैं।
इसके अलावा उज्जयिनी में कुछ ऐसे ताम्र सिक्के भी मिले हैं, जिन पर ब्राह्मी में लेख लिखे हैं। कुछ में नगरों के नाम का उल्लेख है। सिक्कों के बारे में मुद्राशास्रियों के अलग- अलग मत हैं। कुछ लोग इसे शकों द्वारा जारी की गई मानते हैं। परंतु उस पर लिखित ब्राह्मी अशोक कालीन है। इसका काल द्वितीय शताब्दी के बाद का नहीं रखा जा सकता। संभव है कि मौर्यों के पतन के बाद उज्जयिनी के स्थानीय शासकों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता में ये सिक्के जारी कर दिये होंगे। अधिकांश सिक्कों में मनु द्वारा वजन की प्रामाणिकता को ध्यान में रखा गया है।
महिष्मती के सिक्के
इंदौर से लगभग ५० मील की दूरी पर नर्मदा के
उत्तरी तट पर खरगोन जिले में स्थित महेश्वर (माहिष्मती) पहले
अनूप देश की राजधानी थी बाद में यह दक्षिण अवन्ति की
राजधानी हो गयी, से अभिलिखित सिक्के
बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। इन सिक्कों
से वहाँ के स्थानीय राजाओं के शासन का पता चलता है। नगर नाम
वाले अन्य स्थानों के सिक्कों की अपेक्षा यहाँ से ऐसे सिक्के अधिक प्राप्त हुए हैं।
दशपुर
मंदसौर के सिक्के
पश्चिमी मालवा के मंदसौर से भी कुछ जनपदीय सिक्के प्राप्त हुए हैं। अधिकतर सिक्के तांबे के हैं।
लेकिन यहाँ से प्राप्त सिक्कों की संख्या
सीमित है।
कायथा
कायथा के उत्खनन से इस क्षेत्र की ताम्रपाषाण
युगीन सभ्यता के इतिहास को एक नया
मोड़ दिया है।
यहाँ सिक्कों का प्रमाण शुंग- कुषाण
युग से मिलना प्रारभं हो जाता है। प्राप्त सिक्के ढ़ले हुए हैं, जिनके एक ओर
स्वास्तिक तथा दूसरी ओर चक्र अथवा मनुष्याकृति
बनी है।
मालवा के विभिन्न नगरों से प्राप्त सिक्कों का
संक्षिप्त उल्लेख इस प्रकार है
मालवा के विवेच्यकालीन सिक्के
विवेच्यकाल में मालवा में सुवर्ण (सोना),
रजत (चाँदी) तथा ताम्र निर्मित सिक्कों का प्रचलन था।
ये विनिमय के प्रमुख साधन थे और इस प्रकार उस
समय की सुदृढ़ आर्थिक अवस्था व उन्नत व्यापार के प्रतीक
भी। आंतरिक तथा विदेशी व्यापार के
लिए शासकों द्वारा बड़ी संख्या में सिक्के
मुद्रित करवाये गये। चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा सौराष्ट्र व
मालवा से शक राज्य का अंत कर देने के
बाद यह क्षेत्र पश्चिमी बंदरगाह भड़ौच द्वारा
रोम के सीधे संपर्क में आ गया। विदेशी
व्यापार व ऊँचे क्रय- विक्रय में सोना- चाँदी के सिक्कों की
विशेष आवश्यकता पड़ती थी। साधारण
वस्तुओं के खरीद के लिए ताँबे के सिक्के जारी किये गये।
ये सिक्के "दीनार' और "सुवर्ण' कहे जाते थे। दीनार का
वजन १२४ ग्रेन तथा सुवर्ण का वजन १४४ ग्रेन था।
सुवर्ण का एक सिक्का चाँदी के १५ सिक्कों के
बराबर समझा जाता था, जिसे "रुपक' कहा जाता था। कालिदास ने एक
विशेष प्रकार के "निष्क' नामक सिक्के का उल्लेख किया है।
आलोच्यकाल में रोम के साथ व्यापारिक
संबंध होने के कारण, रोम से सोने के सिक्के अधिक
मात्रा में आने लगे। रोमनों के सिक्के दीनार (दिनोरियस) कहलाते थे। अन्तराष्ट्रीय
व्यापार की सुविधा के लिए गुप्त सम्राटों ने अपने सिक्कों को
रोमन सिक्कों के तौल के बराबर निर्मित करवाया। दीनार की तौल करीब १२ आना
भर सोना होती थी।
प्रारंभिक शासकों ने तो रोम की तौल (१२० ग्रेन) के
बराबर सोने के सिक्के मुद्रित करवाए, परंतु स्कंदगुप्त ने इसके अतिरिक्त
भारतीय तौल की रीति को भी काम
में लाकर "सुवर्ण' (१४४ ग्रेन) प्रकार के सिक्कों
में मुद्रित करवाया।
सन् ४०१ में जब चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों को पराजित कर
मालवा पर अधिकार किया तब वहाँ चाँदी के सिक्कों का प्रचलन था।
राजनीतिक सिद्धांतों को ध्यान में रखकर चंद्रगुप्त द्वितीय ने वहाँ प्रचलित सिक्कों के
अनुरुप ही विजेता शासक मुद्राओं का निर्माण करवाया।
वे सिक्के भी सोने के न होकर चाँदी के
बनवाये गये।
ह्मवेनसांग ने हर्षकालीन विनिमय के
साधनों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि
सोने या चाँदी के सिक्के व कौड़ियाँ तत्कालीन विनिमय के प्रमुख
साधन थे।
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