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अर्थव्यवस्था से संबंधित तीनों तथ्यों -- कृषि, पशु- पालन तथा वाणिज्य- व्यापार के अध्ययन से विदित होता है कि शासन की ओर से उन्हें सहायता, सुरक्षा तथा नियंत्रण प्राप्त था। अतः निश्चित रुप से इस सेवा के बदले में प्रतिफल या हिस्सा के रुप में "कर' लिया जाता था। महाभारत और कौटिल्य के अर्थशास्र में पैदावार के छठे भाग, विविध प्रकार के शुल्क आदि के रुप में राजा को धनागम (धन की प्राप्ति) होती थी, उसे स्पष्ट रुप से ""राजा का वेतन'' कहा गया है।
कर का निर्धारण स्वेच्छापूर्वक नहीं किया जा सकता था। प्राचीन राजशास्र के ग्रंथों के अनुसार राजा केवल "कर' प्राप्त कर सकता है। शिलालेखों में भी अनेक राजाओं ने गर्व के साथ इस बात का उल्लेख किया है कि वे धर्म के अनुसार ही कर वसूल करते थे।
आलोच्यकालीन साहित्यिक कृतियों एवं शिलालेखों में विभिन्न प्रकार के करों का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसका वर्णन इस प्राकर किया जा सकता है :-
भूमि - कर
राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था। यह भूमि की किस्म, उर्वरता, उपज और सिचाईं आदि विभिन्न बातों का ध्यान में रखकर निश्चित किया जाता था। उत्कीर्ण लेखों में इसका उल्लेख कभी ""भागकर'' और कभी ""उद्रंग'' के नाम से किया गया है।
प्राचीन ग्रंथों में कर की कोई एक दर नहीं निश्चित की गयी है, आठ प्रतिशत से लेकर ३३ प्रतिशत तक कर लेने का निर्देश मिलता है। बौधयन और वशिष्ठ ने लिखा है कि राजा उत्पादन का छठा भाग प्राप्त कर सकता था। गाँवों की भूमि की उपज का, जो छठा अंश राजा को कर के रुप में प्राप्त होता था, वह ""भाग'' कहा जाता था। उसे यह भाग भूमि को सुरक्षा प्रदान करने के प्राप्त होता था। अधीतकाल में भूमि- कर को उद्रंग या अपरिकर भी कहा जाता था। यू.एन. घोषाल के अनुसार भूमि पर स्थायी रुप से रहने वालों का किसानों से लिया जाने वाला कर, उद्रंग कहा जाता था तथा भूमि पर अस्थायी रुप से रहने वाले कृषकों से वसूल किया जाने वाला कर ""अपरिकर'' था।
इस प्रकार हम पाते हैं कि भूमि की उपज पर लिया जाने वाला राजकर काल, अवस्था और स्थिति- भेद के कारण भिन्न- भिन्न होता था। किंतु राजभाग प्रायः १/६ के रुप में ग्रहण किया जाता था, जो बाद में चलकर ""षड्भागभृत्'' के रुप में प्रयुक्त होने लगा था। यह भूमि की किस्म, उर्वरता, उपज तथा सिंचाई आदि विभिन्न बातों को ध्यान में रखकर निश्चित किया जाता था।
वाणिज्य और व्यापार कर
विवेच्यकालीन अभिलेखों एवं साहित्यिक रचनाओं से विदित होता है कि कारीगरों को कुछ कर प्रदान करना पड़ता था तथा व्यापारियों से व्यापार की वस्तुओं पर राजभाग के रुप में शुल्काधिकारी द्वारा शुल्क वसूल किया जाता था। एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने वाली व्यापारिक वस्तुओं पर नदी के घाटों, सड़कों तथा शुल्क- मण्डपिकाओं पर हल्के शुल्क वसूल किये जाते थे। इन शुल्क वसूल करने वालों को शौल्किक कहा जाता था। हर्ष के मधुवन एवं बाँसखेड़ा ताम्रपत्रों में "तुल्यमेयभागभोगकर हिरण्यादि' का उल्लेख हुआ है। इनमें "तुल्यमेय' बेची जाने वाली वस्तुओं पर माप के आधार पर तथा "भागभोगकर' उपज या उत्पादन पर लगा "कर' कहलाता था।
अन्य - कर
अन्य प्रकार के करों में ""भोग'', हिरण्य'' आदि का उल्लेख
मिलता है। ए.के. मजूमदार के अनुसार
समय- समय पर प्रजा द्वारा राजा को उपभोग के
लिए जो फल- फूल, लकड़ी आदि वस्तुएँ प्रदान की जाती थीं, वह कर
भोग के अंतर्गत आता था। खनिज पदार्थों
अथवा संपत्ति आदि पर लगने वाला शुल्क ""हिरण्य'' था।
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