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बेसनगर मध्यभारत का एक प्राचीन नगर है, जिसे पाली बौद्ध ग्रंथों में वेस्सागर तथा संस्कृत साहित्य में विदिशा के नाम से पुकारा गया है। भिलसा रेलवे स्टेशन से पश्चिम की तरफ करीब २ मील की दूरी पर स्थित, यह स्थान पुरातत्वेत्ताओं की सांस्कृतिक भूमि कही जा सकती है। यह वेत्रवती और बेस नदी से घिरा हुआ है तथा शेष दो तरफ की भूमि पर प्राचीर बनाकर नगर को एक किले का रुप दे दिया था।
प्राचीन काल का वैभव संपन्न यह नगर, अब टूटी- फूटी मूर्तियाँ व कलायुक्त भवनों का खंडहर मात्र रह गया है। यहाँ पाये जाने वाले भग्नावशेष ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से ११ वीं शताब्दी तक की कहानी कहते हैं। अब भी इस स्थान पर ही एक तरफ "बेस' नामक ग्राम बचा हुआ है।
बेसनगर का राजनीतिक महत्व मौर्यकाल में अशोक के समय से बढ़ा। शुंग- काल में यह बहुत ही प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र था। यह स्थान हिंदू व बौद्ध दोनों के लिए महत्वपूर्ण थे। गुप्तकाल तक इसकी समृद्धि कायम रही। उसके पश्चात इसके कृत्रिम इतिहास का स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिलता।
१० वीं शताब्दी में नदी के दूसरी तरफ स्थित "भिलसा' अस्तित्व में आ चुका था। बेसनगर के ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन कार्य किये गये। उत्खनन में मिले कुछ अवशेष ईसवी काल के प्रारंभ के सामाजिक जीवन पर प्रकाश डालते हैं। पुराणों के अनुसार यहाँ पुष्यमित्र शुंग ने यज्ञ किया था। खुदाई में बड़े- बड़े यज्ञों की कार्यस्थली के विशेष चिंह मिले हैं। विद्धानों द्वारा शास्रार्थ किये जाने वाले कक्ष एवं भोजनशाला का प्रमाण मिलता है। इसके अलावा विभिन्न कार्यों से संबद्ध कई तरह की मुद्राएँ तथा मिट्टी की पकाई हुई वस्तुओं से उनके जीवन की झांकी प्रतिबिंबित होती है।
कई साहित्यिक तथा पुरातात्विक प्रमाण, इस स्थान का यवनों से संबंध को स्पष्ट करते हैं। अभिलेखों में मिला शब्द "द्विमित्रिय' को सिकंदर कालीन युनानी शासक के रुप में माना जाता है। खाम बाबा का निर्माण भी यवन राजदूत अंकलितस ने ही करवाया था। कहा जाता है कि वर्त्तमान दुर्जनपुरा वही स्थान है, जहाँ यवनों का वास हुआ करता है। पहले यह दुमितपुरा के नाम से जाना जाता था।
हेलिओडोरस स्तंभ
यह स्तंभ लोकभाषा में खाम बाबा के रुप में जाना जाता है। एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया, यह स्तंभ ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। स्तंभ पर पाली भाषा
में ब्राम्ही लिपि का प्रयोग करते हुए एक अभिलेख मिलता है। यह अभिलेख स्तंभ इतिहास बताता है। नवें शुंग शासक महाराज भागभद्र के दरबार में तक्षशिला के यवन राजा अंतलिखित की ओर से दूसरी सदी ई. पू. हेलिओडोरस नाम का राजदूत नियुक्त हुआ। इस राजदूत ने वैदिक धर्म की व्यापकता से प्रभावित होकर भागवत धर्म स्वीकार कर लिया। उसी ने भक्तिभाव से एक विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया तथा उसके सामने गरुड़ ध्वज स्तंभ बनवाया। इस स्तंभ से प्राप्त अभिलेख इस प्रकार है :-
१. देव देवस वासुदेवस गरुड़ध्वजे अयं
२. कारिते इष्य हेलियो दरेण भाग
३. वर्तन दियस पुत्रेण नखसिला केन
४. योन दूतेन आगतेन महाराज स
५. अंतलिकितस उपता सकारु रजो
६. कासी पु ( त्र )( भा ) ग ( भ ) द्रस त्रातारस
७. वसेन ( चतु ) दसेन राजेन वधमानस।
! देवाधिदेव वासुदेव का यह गरुड़ध्वज ( स्तंभ) तक्षशिला निवासी दिय के पुत्र भागवत हेलिओवर ने बनवाया, जो महाराज अंतिलिकित के यवन राजदूत होकर विदिशा में काशी ( माता ) पुत्र ( प्रजा ) पालक भागभद्र के समीप उनके राज्यकाल के चौदहवें वर्ष में आये थे।
वर्तमान में स्तंभ के पास निर्मित मंदिर अस्तित्व में नहीं रहा। पर पुरातात्विक प्रमाण इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्राचीन काल में यहाँ एक वृत्तायत मंदिर था, जिसकी नींव २२ सेंटीमीटर चौड़ी तथा १५ से २० सेंटीमीटर गहरी मिली है। गर्भगृह का क्षेत्रफल ८.१ ३ मीटर है। प्रदक्षिणापथ की चौड़ाई २.५ मी. है। इसका बाहरी दीवाल भी वृत्तायत है। पूर्व की ओर स्थित सभामंडप .७ ४.८५ मीटर आयताकार है। यहीं से मंदिर का द्वार था। नींव में लकड़ी के खम्भे होने का प्रमाण मिला है। पुरातात्विक प्रमाण यह भी बताते हैं कि यहाँ पहले कुछ ८ स्तंभ थे, जिसमें पहले गरुड़, ताड़पत्र, मकर आदि के चिंह बने हुए थे। इन स्तंभों में सात स्तंभ एक ही कतार में मंदिर के पूर्व भाग में उत्तर- दक्षिण की तरफ लगे थे, जो अब नष्ट हो चुके हैं। आठवां स्तंभ ही हेलिओडोरस स्तंभ के रुप में जाना जाता है।
पहले के मंदिर के भग्नावशेष पर ही दूसरी सदी ई. पू. में तथा नया मंदिर बनाया गया। यह मंदिर लगभग पहली शताब्दी ईसा पूर्व में बाढ़ में बह गया। इस स्थान पर बना यह मंदिर, वासुदेव का संसार प्राचीनतम माना जाता है।
वैसनगर के पूर्व में, ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के स्तूप भी मिले है। विद्धान इन बचे हुए स्तूपों को साँची के भी पूर्व का मानते हैं।
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