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साँची का
पता सन् १८१८ ई. में सर्वप्रथम जनरल
टायलर ने लगाया था। विश्वप्रसिद्ध
बौद्ध स्तूपों के लिए जाना जाने वाला
साँची, विदिशा से ४ मील की दूरी
पर ३०० फीट ऊँची पहाड़ी पर बसा है। प्रज्ञातिष्य महानायक थैर्यन के
अनुसार यहाँ के बड़े स्तूप में स्वयं
भगवान बुद्ध के तथा छोटे स्तूपों
में भगवान- बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत (
सारिपुत्र ) तथा महामौद्ग लायन
समेत कई अन्य बौद्ध भिक्षुओं के धातु
रखे हुए हैं। निर्माण- कार्य में राजा तथा
श्रद्धालु- जनता की सहभागिता रही है।
यहाँ स्तूपों का निर्माण विभिन्न काल
में चरणबद्ध तरीके से हुआ। सर्वप्रथम इसका निर्माण
मौर्यकाल में अशोक के समय किया
गया। अशोक ने ही विदिशा के स्थानीय निवासियों को
स्तूप- निर्माण का आदेश दिया। उसके
बाद सम्राट अग्निमित्र ने इसे सुरक्षित
रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शुरु में चूँकि मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं
था। भगवान बुद्ध को उनके पवित्र चिंहों
बोधिवृक्ष, पदचिन्हों, कमल, धर्मचक्र
आदि के माध्यम से इंगित करने की
कोशिश की गई। शुंग काल में
इनमें कई अवयवों को जोड़ा गया। ईंट निर्मित
स्तूप को चारो तरफ से पत्थरों का
आवरण दिया गया। चारों तरफ प्रदक्षिणापथ की
व्यवस्था की गई। इसके अलावा मेधि,
सोपान तथा शीर्ष में हर्मिका भी
बनाये गये।
सातवाहन नरेशों के शासनकाल में
शिल्पकला की दिशा में विशेष ध्यान
दिया। उनके समय में ही चारों दिशाओं
में तोरण बनाये गये, जिसपर कई तरह की
प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई। इसके बाद
भी गुप्त सम्राटों ने भी इसे सजाने-
संवारने में किसी भी प्रकार का समझौता नहीं
किया। साँची की इन स्तूपों से प्राप्त
अधिकांश प्रतिमाएँ व मंदिर इसी
काल में बनाये गये। गुप्तकाल के
पश्चात् भिक्षुओं के निवास के लिए कक्ष
बनाये गये। अब ये खंडहर के रुप
में विद्यमान हैं। इनका निर्माण ८ वीं
सदी से ११ वीं सदी के बीच का माना जाता है। इस
काल में मिहिर भोज सन् ९७४- ९९९ तथा
भोज सन् ९९८- १०२३ की भी स्तूप को सुधारने-
सँवारने में उल्लेखनीय भूमिका रही।
सबसे पुराना हिस्सा, संभवतः बड़े
स्तूप का दक्षिणी द्वार है। इसमें बुद्ध के जन्म को दिखाया गया है। यहीं
अशोक का स्तंभ भी टूटी हुई अवस्था
में विद्यमान है। कहा जाता है कि यह
स्तंभ चुनार से गंगा, यमुना तथा
वेत्रवती नदियों को नावों से पार कराकर यहाँ तक
लाया गया था। दूसरा स्तंभ शुंग
काल का है। तीसरा तथा चौथा स्तंभ
गुप्तकालीन है। एक अन्य स्तंभ का काल- निर्धारण नहीं किया जा
सका है। मुख्य स्तूप के उत्तर ही तरफ की तोरण द्वार
सबसे अधिक भव्य है। इसे धम्मगिरि नामक भिक्षु ने
दानस्वरुप बनवाया था। दक्षिणी तोरण
पर मिले अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि इसका
अलंकरण विदिशा के ही हाथी दाँत
पर पच्चीकारी करने वाले कारीगर दानकर्त्ताओं ने
बनाया था। पूर्वी द्वार में बुद्ध के सात
अवतारों को दिखाया गया है।
स्तूप के तोरण द्वारों पर उत्कीर्ण आकृतियाँ,
भारत में पत्थर पर उत्कीर्ण प्रयोगों का
सबसे अच्छा उदाहरण है। शिल्पकारों ने इन
पर बुद्ध के पूर्व जीवन की कहानियों
पर आधारित विभिन्न जातक कथाओं का
अंकन किया है। बुद्ध के पवित्र चिंहों के
अलावा पशु, पक्षी, मानव तथा राक्षसों की
भी बेजोड़ तरीके से उकेड़ा गया है। इन
उत्कीणाç में लक्ष्मी, इंद्र आदि कई वैदिक देवताओं का
भी समावेश है।
दूसरा स्तूप पहाड़ी के किनारे की तरफ स्थित है। चारों तरफ
बने पत्थर की घेराबंदी इस स्तूप की
अपनी खासियत है। इसे ई. पू. २ री
सदी में शुंगों द्वारा जोड़ा गया
था। तोरण सिर्फ दक्षिण की तरफ है।
वेदिका का विशेष अलंकरण किया गया है।
स्तूप संख्या तीन मुख्य स्तूप ( स्तूप
संख्या - १ ) के निकट ही है। इसी स्तूप
में सारिपुत्र तथा महामोग्लायन की धातुएँ
रखी गई है।
गुप्त काल में बना मंदिर संख्या - १७, जो
मंदिर संख्या - १८ के उत्तर कोने पर
बसा है, मंदिर वास्तुकला की शैली के विकास का
प्रारंभिक चरण माना जा सकता है। इसमें एक
वर्गाकार गर्भगृह है तथा चार स्तंभों के सहारे
दलान बनाया गया था।
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